Book Title: Mahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्री महावीर की २५वी निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में - - महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ [जैन आगम साहित्य की ७१ प्रमुख कहानियां ] राजस्थान कसरा अध्यात्मयागा प्रसिद्धवक्ता परम श्रद्धेय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · • श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थमाला का ४६वा पुष्प पुस्तक महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ आशीर्वचन राजस्थान केसरी श्री पुष्कर मुनि जी लेखक देवेन्द्र मुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न सम्पादक श्री ज्ञान भारिल्ल पृष्ठ प्रथम प्रवेश नवम्बर, १९७५ २५वा महावीर निर्माण शताब्दी वर्ष वि० म० २०३२ कार्तिक पूर्णिमा • प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री मल, उदयपुर (राजस्थान ) मुद्रक श्रीचन्द सुराना के लिए राष्ट्रीय आर्ट प्रिन्ट, आगरा-३ बार माय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनकी प्रवल - प्रेरणा पथ-प्रदर्शन एव आशीर्वाद से चिन्तन-मनन- लेखन मे मैं निरन्तर प्रगति कर रहा हूँ उन्ही अध्यात्मयोगी महामनीषी राजस्थान केसरी पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म० के पवित्र कर-कमलो मे अपार श्रद्धा के साथ - देवेन्द्र मुनि Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन कहानी जीवन चेतना की एक निर्मल तरग है, जिसमे अन्तर्जगत की दिव्य व भव्य अनुभूतियाँ रुपायित होकर लहराती है । जिसके प्रत्येक चरण मे, प्रत्येक ध्वनि मे और प्रत्येक शब्द मे पवित्र प्रेरणा अठखेलियाँ करती है । जिसमे विचारो का वेग होता है, अनुभूति का आलोक होता है और सवेदना की स्निग्धता होती है । ऐसी कहानियाँ सदा-सर्वदा अमर होती है । महाकाल का क्रूर प्रभाव भी उसे प्रभावित नही कर सकता इतिहास के पृष्ठो पर और जन- - जिह्वा पर वे स्वर्णाक्षरो की भाँति चमकती रहती है । जैन आगम व आगमेतर साहित्य मे इस प्रकार की कहानियाँ लबालब भरी है, जिनमे जीवन का शाश्वत सत्य है, विमल- विचारो की धडकन है, आचार का स्पन्दन है, अनेकान्त का अनुवन्धन है और उच्च सस्कारो का अजून है । श्रमण भगवान महावीर अपने पीयूषवर्षी प्रवचनो मे जहाँ दर्शन सम्बन्धी गम्भीर चर्चा करते थे वहाँ आचार सम्बन्धी सरल मार्ग भी प्रस्तुत करते थे, जहाँ गणित सम्बन्धी जटिल पहेलियो को बुझाते थे, वहाँ पर कथाओ के माध्यम से धर्म मर्म को प्रकट करते थे । भगवान महावीर के निर्वाण शताब्दी के सुनहरे अवसर पर जीवन और दर्शन सम्वन्धी ग्रथों के साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी मे भगवान महावीर द्वारा कही गई कथाएँ भी लिखी जाये - यह मेरा विचार था । मेरे विचार को मेरे प्रिय शिष्य देवेन्द्र मुनि ने आचार का रूप प्रदान किया तदर्थ मुझे हार्दिक आह्लाद है । मुझे ये कहानियाँ पसन्द आयी है, मुझे आशा ही नही, अपितु दृढ विश्वास है कि पाठको को भी ये कथाये पसन्द आयेगी । देवेन्द्र मुनि पूर्ण स्वस्थ रहकर जैन साहित्य की अत्यधिक सेवा करे । साहित्य की प्रत्येक विधा में वह सुन्दर से सुन्दर साहित्य का निर्माण कर अपनी प्रवल प्रतिभा का परिचय दे यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है । मादडी - सदन दीपावली पर्व २५००वा वीर - निर्वाण दिवस दि० ३-११-७५ - पुष्कर मुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अपने प्रिय पाठको के कर-कमलो मे 'महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएँ' पुस्तक अपित कन्ते हुए हृदय आनन्द विभोर है। भगवान महावीर के द्वारा कथित बोधप्रद क्याओ का इममे सुन्दर सकलन है। कहानी माहित्य की सबसे अधिक लोकप्रिय विधा है । नन्हे बालक से लेकर वृद्ध तर, मनपढ किमान मे लेकर प्रकाण्ड-पण्डित तक, गृह कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने वाली गहणी में लेकर राजनीति के टेढ़े-मेढे दांव-पेचो मे उलझे रहने वाले सब नेताओ नर यह प्रिय रही है। मानव सभ्यता के अरुणोदय से लेकर मध्याह्न तक कहानी जितनी जन-मन प्रिय रही है उतनी आज भी है। यही कारण है कि दर्शनकारी की मेगा गार और विष्णु शर्मा आदि कहानी लेखक अधिक लोकप्रिय हुए है। नहानियों के लेखक श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री है, जो राजस्थान केसरी, प्रगिस का चात्मयोगी श्री पुकर मुनिजी म० के सुशिष्य है । आपने साहित्य की विविध विधाओं में लिया है, गूब जमकर लिखा है। पूज्य गुरुदेव श्री के श्रीचरणो मे7- निरन्तर चिन्तन, मनन, लेयन करना आपको प्रिय है । आपने पचास से भी अधिक प्रयाग लेगन-सम्पादन किया है । ग्रन्थ के सम्पादक हैं ज्ञानेन्द्र भारिल्ल । गे ५० प्रवर शोनाचन्द्र जी मारिल के मुपुत्र हैं । प्रन्दन दन्य के प्रकाशन में जिन उदार महानुभावो ने हमे आर्थिक सहयोग प्रदान मिाह हम उनके आमारी हैं भविष्य में भी उनका मधुर महयोग मिलता रहेगा कि नियतृतन थेठ साहित्य प्रकाणित करते रहेगे। मुद्रा की दृष्टि में अन्य को मर्वाधिक सुन्दर व शुद्ध बनाने का श्रेय स्नेह नवति श्रीचन्द जी मुगना 'मग्म' को है, अन हम उनका हृदय मे आभार मन्त्री श्री तारक गुर जैन ग्रन्यालय शास्त्री सरल, उदयपुर (राज.) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से कथा-कहानी साहित्य की एक प्रमुख विधा है, जो सबसे अधिक लोकप्रिय और मनमोहक है। कला के क्षेत्र मे कहानी से बढकर अभिव्यक्ति का इतना सुन्दर एव सरस साधन अन्य नही है । कहानी विश्व के सर्वोत्कृष्ट काव्य की जननी है और ससार का सर्वश्रेष्ठ सरस साहित्य है । कहानी के प्रति मानव का सहज व स्वाभाविक आकर्षण है । फलत जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नही जिसमे कहानी की मधुरिमा अभिव्यजित न हुई हो। सच तो यह है कि मानव का जीवन भी एक कहानी है, जिसका प्रारम्भ जन्म के साथ होता है और मृत्यु के साथ अवसान होता है। कहानी कहने और सुनने की अभीप्सा मानव मे आदि काल से रही है । वेद, उपनिषद, महाभारत, आगम और त्रिपिटक की हजारो-लाखो कहानियाँ इस बात की साक्षी है कि मानव कितने चाव से कहानी को कहता व सुनता आया है और उसके माध्यम से धर्म और दर्शन, नीति और सदाचार, बौद्धिक चतुराई और प्रवल-पराक्रम परिवार और समाज सम्बन्धी गहन समस्याओ को सुन्दर रीति से सुलझाता रहा है । श्रमण भगवान महावीर जहाँ धर्म-दर्शन व अध्यात्म के गम्भीर प्ररूपक थे वहाँ एक मफल कथाकार भी थे । वे अपने प्रवचनो मे जहाँ दार्शनिक विषयो की गम्भीर चर्चा-वार्ता करते थे वहाँ लघु-रूपको एव कथाओ का भी प्रयोग करते थे। प्राचीन निर्देशिका मे परिज्ञात होता है कि 'नायाधम्म कहा' मे किसी समय भगवान महावीर द्वारा कथित हजारो रूपक व कथाओ का सकलन था ।। इसी प्रकार उत्तराध्ययन, विपाक आदि मे भी विपुल कथाये थी। मूल प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग भी धर्म कथा के एक विशिष्ट एव महत्वपूर्ण ग्रन्थ थे । उनका सक्षिप्त परिचय समवायाङ्ग व नन्दी सूत्र मे इस प्रकार है _ “दृष्टिवाद का एक विभाग अनुयोग है । उसके दो विभाग है-मूल प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग । मूल प्रथमानुयोग मे अरिहत भगवन्तो के पूर्वभव, च्यवन, जन्म, जन्माभिगेक, राज्यप्राप्ति, दीक्षा-तपस्या, केवल-ज्ञान, धर्म-प्रवर्तन, सहनन, २. (क) समवायाङ्ग १४७ (ख) नन्दी सूत्र ५६, पृष्ठ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यान, ऊंचाई, आयुष्य, शरीर के वर्णन, शिष्य-समुदाय, गणधरो, माध्विया, प्रतिनियो की सख्या, चतुविध सघ के सदस्यो की सख्या, केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, वादी, अनुत्तर विमानगामी तथा सिद्धो की संख्या एव वे अन्त में कितने उपवास करके मोक्ष गये आदि मावो का वर्णन है । ____ गण्डिकानुयोग क्या है ? गण्डिकानुयोग भी अनेक प्रकार का है । कुलकर गण्डिकाये, तीर्यबर गण्डिकाये, चक्रवर्ती गण्डिकाये, दशारगण्डिकाये, वासुदेव गण्डिकाय, हरिवश गण्डिकाये, मद्र बाहु गण्डिकाये, तप कर्म गण्डिकाये, चित्रान्तर गण्डिकाये, उमपिणी गण्डिकाये, अवपिणी गण्डिकाये, देव, मनुष्य, तिर्यच और नरक आदि से सम्बन्धित गण्डिकार्य आदि ।' __ मूल प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग बारहवे दृष्टिवाद के अन्तर्गत थे। वह अग विच्छिन्न हो चुका है, अत वे अनुयोग भी आज अप्राप्य है। मूल प्रथमानुयोग म्थविर आर्यकालक के समय भी प्राप्त नही था, जो राजा शालिवाहन के समकालीन य, अत आर्यकालक ने मुलप्रथमानुयोग मे से जो इतिवृत्त प्राप्त हुआ उसके आधार मे नवीन प्रयमानुयोग का निर्माण किया । 'बसुदेव हिण्डी', आवश्यक चूणि — आवश्यक मृत गदि जनुयोगद्वार की हारिभद्रीय वृत्ति७ मे जो प्रथमानुयोग का उल्लेख हुआ है वह ग लत चित प्रथमानुयोग का होना चाहिए और आवश्यक नियुक्ति मे प्रसमानुयोग का जो उल्लेख हुआ है वह मूल प्रथमानुयोग का होना चाहिए, ऐसा म प्रभावन पर्गीय पुण्यविजय जी म० का मानना था । पर अत्यन्त परिताप है fजायला नित प्रयमानुयोग भी आज प्राप्त नही हे । एतदर्थ मापा शैली, बान-पति, छन्द जोर विषय आदि की दृष्टि से उसमे क्या-क्या विशेषताएँ थी, यह पटकप मे नरी कहा जा सकता । अनुयोग की हारिमद्रीय वृत्ति ० मे पच महामेघो व को जानने के लिए प्रयमानुयोग का निर्देश किया है । जिससे सम्भव है कि समे न भी जना वृत होगे । आर्यकालक रचित प्रथमानुयोग के आधार से ही भनेकार ने वहावती, आचार्य शीलाइ ने चउपण्ण महापुरिसचरिय और आचार्य हमवन्द्र ने विपप्टिगलाया पुरुष चरित्र की रचना की, ऐसा माना जाता है । ६ पचरय महामाप्य, ना० २ ११३५-८६ , बन्ददहिाटी-प्रथम खण्ट, पत्र २ बर वृणि, भाग १, पृ० १६० : वर हाग्निद्रीय वृत्ति, पत्र १११-२ कोपहार हारिनद्रीय वृत्ति, पत्र ८० -ब-रनिनि, गा० ८१२ विजन र मान्य न्य, पृ० ५२, पुण्यविजयजी वा हागिन्द्रीय दृनि, पत्र ८० Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) आर्य रक्षित ने अनुयोग के आधार पर आगमो को चार भागो मे विभक्त किया | उसमे प्रथमानुयोग भी एक विभाग था । दिगम्बर साहित्य मे धर्म कथानुयोग को ही पथमानुयोग कहा है । प्रथमानुयोग मे क्या-क्या वर्णन है उसका भी उन्होने निर्देश किया है । " बताया जा चुका है कि भगवान महावीर सफल कथाकार थे । उनके द्वारा कही गई कथाएँ आज भी आगम साहित्य में उपलब्ध होती है । कुछ कहानियाँ ऐसी भी है जो भिन्न नामो से या रूपान्तर से वैदिक व बौद्ध साहित्य में ही उपलब्ध नही होती, अपितु विदेशी साहित्य मे भी मिलती है । उदाहरणार्थ — ज्ञाताधर्म कथा की ७वी चावल के पांच दाने वाली कथा कुछ रूपान्तर के साथ वौद्धो के सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु तथा बाइबिल १३ मे भी प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिनपाल और जिनरक्षित १४ की कहानी वलाहस्स जातक १५ व दिव्यावदान मे नामो के हेरफेर के साथ कही गई है । उत्तराध्ययन के बारहवे अध्ययन हरिकेशबल की कथावस्तु मातङ्ग जातक मे मिलती है । १६ तेरहवे अध्ययन चित्तसम्भूत १७ की कथावस्तु चित्तसम्भूत जातक मे प्राप्त होती है । चौदहवे अध्ययन इषुकार की कथा हत्थिपाल जातक' महाभारत के शान्तिपर्व १६ मे उपलब्ध होती है । उत्तराध्ययन के नौवे अध्ययन 'नमि प्रव्रज्या की आशिक तुलना महाजन जातक२० तथा महाभारत के शान्तिपर्व २१ से होती है । इस प्रकार महावीर के कथा साहित्य का अनुशीलन- परिशीलन करने से स्पष्ट परिज्ञात होता है कि ये कथाएँ आदिकाल से ही एक सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय मे, एक देश मे दूसरे देश मे यात्रा करती रही है । कहानियो की यह विश्व यात्रा उनके शाश्वत और सुन्दर रूप की साक्षी दे रही है, जिस पर सदा ही जन-मानस मुग्ध होता रहा है। १८ व मूल आगम साहित्य मे कथा साहित्य का वर्गीकरण अर्थकथा, धर्मकथा और ११ (क) साहित्य और संस्कृति, पृ० १६ १२ (ख) अगपण्णत्ती -- द्वितीय अधिकार गा० ३५-३७ दि० आचार्य (ख) श्रुत स्कन्ध गा० ३१, आचार्य ब्रह्म हेमचन्द्र १३ सेन्ट मेथ्यू की सुवार्ता २५, सेन्ट ल्युक की सुवार्ता १६ १४ ज्ञाताधर्म कथा १५ वलाहस्म जातक, पृ० १८६ १६ जातक (चतुर्थ खण्ड ) ४६७ मातङ्ग जातक, पृ० ५८३-०७ १७ जातक (चतुर्थ खण्ड ) ४९८ चित्तसम्भूत जातक, पृ० ५६८- ६०० १८ हत्थिपाल जातक ५०६ १६ शान्ति पर्व, अध्याय १७५, एव २७७ २० महाजन जातक ५३६ तथा सोनक जातक स० ५२६ २१ महाभारत शान्ति पर्व अ० १७८ एव २७६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामकथा के त्व में किया गया है । परवर्ती साहित्य में विपय, पात्र, शैली और भाषा की दृष्टि से भेद-प्रभेद किये गये है। आचार्य हरिभद्र ने विपय की दृष्टि मे अर्थक्रया, कामकथा, धर्मकया और मिक्या ये वार भेद किये है। ३ विद्यादि के द्वारा अर्थ प्राप्त करने की जो कया है, वह अर्थकथा है। ४ जिस शृङ्गान्पूर्ण वर्णन का श्रवण कर हृदय मे विकार भावनाएँ उद्बुद ही वह काम क्या है। और जिसमे अर्थ व काम दोनो भावनाएं जाग्रत हो वह मिश्रकथा है । ये तीनो प्रकार की कथाएँ आध्यात्मिक अर्थात् सयमी जीवन को दूपित करन वाली हान में विक्या है। '६ विकया के स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा ये चार भेद और भी मिलते हैं। जन श्रम के लिए विकया करने का निषेध किया है । उसे वही कया करनी चाहिए जिम्को श्रवण कर श्रोता के अन्तर्मानस मे वैराग्य का पयोधि उछाले मारने लंग, विकार भावनाए नष्ट हो एव सयम की भावनाएं जाग्रत हो । २७ तप सयमरूपी मद्गुको धारण करने वाले परमार्थी महापुरुपो की कथा, जो सम्पूर्ण जीवो का दिन करना है, वह धर्मकया कहलाती है । २८ पागधार मे दिव्य, मानुप और दिव्यमानुप ये तीन भेद कथा के fr । जिा याओ में दिव्य लोक में रहने वाले देवो के क्रिया-कलापो का fr77 और टमी के आधार मे कथावस्तु का निर्माण हो, वे दिव्य कथाएँ है। मापार मानव लोक में रहते है। उनके चरित्र में मानवता का पूर्ण नगरपिाया के पात्र मानवता के प्रतिनिधि होते है। किसी-किसी मरमेमे मनुष्यो का चित्रण भी होता है जिनका चरिय उपादेय नही हना दिनमानुपी व या अत्यन्त मुन्दर कया होती है । कथानक का गुम्फन कतात्मक है। चग्यि और घटना, परिस्थितियो का विशद् व मार्मिक चित्रण हास्य-व्यग्य का -११-१ ३ ) दावातिर हाग्निद्रीया वृति गा० १८८, पृ० २१२ ( 5 च कहा, याकोबी मम्फरण, पृ० २ ... जेन्द्र ठार भाग :, पृ० ८०० . .. गजेन्द्र रेप नग ८०२, गा० २१९ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) य आदि मनोविनोद, सौन्दर्य के विभिन्न म्प, देव और मनुष्य के चरित्र का मिश्रित वन होता है । 1 मैली की दृष्टि से नकटकथा, जाि सकीर्णकथा ये पाँच भेद किये गये हैं। लाया में चारों पुरुषार्थ नीरस आ चरिन और जन्म-जन्मान्तरों के नकारी का वर्णन होता है हत्य गुण और परिणाम दोनो ही दृष्टियों ने महत्वपूर्ण है। जन-जीवन ६ उसमे किया गया है । न नृषि जागम साहित्य मे बीज रूप मे कथाएं मिलती है तो नियुक्तिय और टीका माहित्य में उनका पूर्ण निखार दृष्टिगोचर होता है। हजारो ल कथाएँ उनमे आयी है | आगमकालीन कवाज की यह महत्वपूर्ण विशेषता उसमे उपमाओ और दृष्टान्तो का अवलम्बन लेकर जन-जीवन को धर्म-सिद्धान्नों को ओर अधिकाधिक आकर्षित किया गया है । उन कथाओं की उत्पत्ति, उपमान, पक और प्रतीको के आधार से हुई है । यह सत्य है कि आगमकालीन कथाजी में क्षेप करने के लिए यत्र-तत्र 'वण्णओ' के रूप मे मकेत किया गया है, जिसने कथा को पढते समय उसके वर्णन को समग्रता का जो आनन्द आना चाहिए उनमे कमी रह जाती है | व्याख्या साहित्य मे यह प्रवृत्ति नही अपनाई गई । कथाओ में जहां जागम साहित्य मे केवल धार्मिक भावना की प्रधानता थी, वहाँ व्याख्या माहित्य मे साहित्यिकता भी अपनायी गई । एकरूपता के स्थान पर विविधता और नवीनता का प्रयोग किया जाने लगा । पात्र, विषय, प्रवृत्ति, वातावरण, उद्देश्य, रूपगठन एव नीति सश्लेषण, प्रभृति सभी दृष्टियों से आगमिक कथाओ की अपेक्षा व्याख्या - साहित्य की कथाओ मे विशेषता व नवीनता आयी है | आगमकालीन कथाओ मे धार्मिकता का पुट अधिक आ जाने से मनोरजन व कुतूहल का प्राय अभाव था किन्तु व्याख्या साहित्य की कथाओ मे यह बात नही है । आगम युग की कथाएँ चरित्रप्रधान होने से विस्तार वाली होती थी, पर व्याख्या साहित्य की कथाएँ सक्षिप्त । ऐतिहासिक, अर्द्ध- ऐतिहासिक, पौराणिक सभी प्रकार की कथाएँ आगम साहित्य मे आई है । २९. नमराइच्चकहा - याकोवी संस्करण पृ० २ (ख) लीलावई कहा गा० ३५, गा० ४१, पृ० ११ आगम साहित्य की कथाओ मे अहिंसा, सत्य, सयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य, आत्मदमन, कर्म सिद्धान्त और जाति-विरोध की मुख्यता प्रतिपादित की है । अस्पृश्य समझी जाने वाली जाति का व्यक्ति भी मद्गुणो को धारण कर किस प्रकार अपने जीवन को चमका सकता है वह बताया गया है । ३० कुवलयमाला, पृ० ४, अनुच्छेद ७ ३१ हैम काव्य शब्दानुशासन ५६, पृ० ४६५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) भगवान महावीर की निर्वाण शताब्दी के ऐतिहासिक वर्ष मे ऐतिहासिक, दार्जनिक, सास्कृतिक गन्नो के लेखन के साथ ही मेरे अन्तर्मानिम में यह विचार उद्र हुआ कि भगवान महावीर द्वारा कथित आगम साहित्य की सभी कथाएँ आधुनिक हिन्दी में लिखी जाये | भगवान महावीर एक अनुशीलन, जैन दर्शन स्वरूप और विश्लेषण, भगवान महावीर की दार्शनिक चर्चाएँ प्रभृति ग्रन्थों के लेखन मे अत्यधिक व्यस्त होने से प्रस्तुत कार्य मे विलम्ब हो गया | ग्रन्थ अत्यधिक वडा न हो जाये इस दृष्टि मल आगम साहित्य की सम्पूर्ण कथाएँ उसमे नही दी है, अवशेष कथाए विनीन भाग में देने का विचार है और उसके पश्चात् निर्मुक्ति, चूणि, भाष्य और गज की कथाएं भी लिखने की भावना है । प्रमुख पाठक अनुभव करेगा कि इन कहानियो में कही पर वैराग्य की भावना कर रही हैं तो कही पर बाल क्रीडा, मातृम्नेह, और वात्सल्य रस तरगिन हो रहा है रही पर पवित्र चरित्र की शुभ्र उर्मियाँ प्रवाहित हो रही है, कही पर क्षमा, सरसता की रसधारा बह रही है तो कही पर वीर व शान्त रम की जलती हुई क्लाले कल्लोल कर रही है । पच्चीस सौ वर्ष पूर्व कही गई ये कथाएँ भी भौतिकता की चकाचोध में पले पीसे मानव को प्रेरणा प्रदान करने वाली हैं, जीवन के तत्व है जो सदा-सर्वदा उपयोगी है । CIT क्षेत्र अध्यात्मयोगी, राजस्थानकेसरी प्रसिद्ध वक्ता श्री मूर्ति की म० मर आध्यात्मिक व साहित्यिक जीवन के प्रेरणा-स्तम्भ है ही में प्रगति के पथ पर निरन्तर आगे बढ रहा हूँ, ग्रथ मे जो का फल है । प्रतिभाति मातेश्वरी महामती श्री प्रभावती जी म० व ज्येष्ठअपि विदुषी गावी रत्न श्री पुष्पवती जी की निरन्तर प्रेरणा और सेवामूर्ति दुरी गरे मुनि जी व दिनेश मुनिजी की सतन सेवा के कारण ग्रथ --------71 स्थायी श्री ज्ञानजी मारिल ने कुछ कथाओ को सजाने का भी हार को विस्मृत नहीं हो माता । 1 की दृष्टि से सजाना क्षेत्र स्तमूर्ति श्रीचन्द जी सुगना करता है यह महत्वपूर्ण गालन पालिए जीव - देवेन्द्र मुनि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ar" w6m rrr mr mro 2 m १ अव्यक्त आनन्दानुभूति २ अग्नि कहाँ है ? ३ आसक्ति-अनासक्ति ४ उपसर्गजयी कामदेव ५ कर्मफल ६ राह का भिखारी ७ तुम चोर नही हो ८ यह सुख-दुख का द्वार ६ फिर क्या हुआ? १० प्रश्न और उत्तर ११. द्वीप के अश्व १२ सुबुद्धि की बुद्धि १३ सयम-असयम १४ दीप-शिखा १५ गुरु और शिष्य १६. अनिष्टकारी आसक्ति १७ वे वलिदानी १८ प्रकाश ही प्रकाश १६ देवताओ ने क्या देखा ? २० दया के सागर २१ मैं हूँ, और मेरी आत्मा है २२ अपनी-अपनी दृप्टि २३. शुभ सयोग २४ राजाओ का राजा २५ अपराजय अर्हनक od W MUCH ७४ ७७ MK GM १०१ १०५ १०६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अडिग वती २७ पहनावा २८ बनावार २४ वज्रादपि कठोराणि ३० मैं श्रमण है ३१ कोणिक नहीं माना ३२ का जीवित कारागार ३३ कैसा जन्म, कैमी मृत्यु ३८ मॉबेटे ३५ 58 मायामा विनश्यति दला ३७ धर्म की शरण नमक = ( १४ ) ११२ ११४ ११६ ११८ १२१ १२३ १२५ १३३ १३६ १३६ १४२ १४६ १५२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रतिबोध ६१. दृष्टिकोण ६२ चलो मेरे माथ ( १५ ) ६३. गृहिधर्म की आराधना ६४ अब पछताये होत क्या ? ६५ पाप के भागीदार ६६. एक रहस्य ६७ सयम का चमत्कार ६ सयम से सिद्धि ६६ तप पूत जीवन ७० मेरा कोई नही ७१ सत्यमेव जयते २४१ २४५ २५२ २५७ २६३ २६५ २६७ २७० २७३ २७६ २८१ २८४ Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यक्त आन एक राजा को घूमने-फिरने का बडा शौक था। जव जी मे आता अपना अश्व सजाकर निकला पडता । एक दिन अपने साथ कुछ सैनिक लेकर, अश्व पर सवार होकर वह वन-विहार के लिए निकला। उसका अश्व पवनगामी था। हवा से बाते करता था। अन्य कोई अश्व उसकी चाल की वरावरो कर ही नही सकता था। अत देखते-देखते ही राजा बहुत आगे निकल गया और सैनिक वहुत पीछे छूट गए । प्रचण्ड ग्रीष्म की ऋतु थी। कडी धूप पड रही थी, हवा कानो व शरीर को जला डालना चाहती थी। पशु-पक्षी भी ठण्डी और छायादार जगत मे शरण लिए पडे थे । और तो ओर, ऐसा प्रतीत होता था मानो छाया भी छाया खोजती फिर रही हो । ऐसे कठिन काल मे वह राजा अकेला पड़ गया और मार्ग भूल गया । घण्टो तक वह इधर-उधर भटकता हुआ मार्ग खोजता रहा, किन्तु मार्ग मिला ही नहीं । राजा थक कर चूर-चूर हो गया। प्यास के मारे उसके प्राणो पर वन आई । ग्रीष्म की उस भयावह ऋतु मे कही एक बूंद पानी भी उसे मिला नही। उसके प्राण छटपटाने लगे। अन्त मे थक हार कर, स्वय को भगवान के भरोसे छोडकर उसने एक छायादार वृक्ष के नीचे ठहर कर विश्राम करना चाहा । किन्तु वह इतना अशक्त हो चुका था कि अश्व पर से उतर भी न सका । गिर पड़ा और मूच्छित हो गया। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं मयोगवश शिकार की खोज मे घूमता हुआ एक भील युवक उस स्थान पर आ पहुँचा। उसने देखा कि एक पथिक मूच्छित पडा है । पाम ही उसका सुन्दर अश्व खडा है। उसने सोचा कि अवश्य ही यह पथिक प्यास से व्याकुल होकर हा मूच्छित हुआ है। उसके पास जल था । उस जल के छोटे उसने राजा के मुख पर डाले। धीरे-धीरे राजा की चेतना लौटी। भील ने अब राजा को थोड़ा पानी पिलाया और बाद में कुछ कन्द-मूल तथा रोटियां नी उसे खाने के लिए दो। इस प्रकार राजा के प्राणो की रक्षा हुई। गजा को वे म्खी-सूखी रोटियाँ उस दिन अपने छप्पन भोगो से भी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यक्त आनन्दानुभूति ३ “अच्छा, देखा जायगा, कभी आऊँगा तो जरूर मिलूंगा । पर यह तो वता कि तेरा नाम-धाम क्या है ? कैसे तेरा पता चलेगा ? क्या तू मुझे देख - कर पहचान लेगा ?” राजा को उस भील की इन भोली बातो को सुनकर हँसी आ गई । उसकी निश्छलता, सरलता और सहज प्रेम की तुलना उसने नगरवासियो के छल-छद्म भरे व्यवहार से मन ही मन की और एक विपाद तथा लज्जा का अनुभव करते हुए कहा - " अरे भाई । तुम्हे क्यो नही पहिचानूंगा ? तुझे इस जीवन में मैं कभी भूल ही नही सकता । तूने तो आज मेरी आँखे खोल दी । नगर मे आकर तू किसी से भी पूछ लेना कि राजा का महल कहाँ है ? बस मैं तुझे मिल जाऊँगा ।" "अच्छा, लेकिन महल क्या होता है ? तू सीधे से अपना घर बता जिससे कि कुछ चक्कर न पडे । सीधा तेरे घर आ जाऊंगा । राजा को उस भील के भोलेपन पर फिर हँसी आ गई । उसने कहा“महल से मतलव मेरा घर । तू तो जैसा कहा वैसा पूछ लेना ।" इसके बाद राजा अपने घोडे पर सवार होकर और अपने प्राणदाता भील से विदा लेकर नगर की ओर चल पडा । नगर का मार्ग उसने उस भील से पूछ लिया था । थोडी दूर जाने पर ही उसे अपने सैनिक भी मिल गए । X X X कुछ दिन बाद वह भील किसी काम से शहर गया । उसने सोचाचलो, आया ही हूँ तो उस राजा से भी मिल लूं । बेचारा बार-बार कह गया था । यह सोच कर उसने किसी से पूछा - " राजा का घर कौनसा है ?" लोगो को उसकी मूर्खता पर वडी हँसी आई । एक ने कहा - "अरे राजा का घर नही, महल कह ।" “अरे वावा, महल ही सही, किन्तु वह है कहाँ यह बताओ न ।” लोगो ने राजमहल का मार्ग बता दिया । वह भील सीधा धडधडाता हुआ वहाँ पहुँच गया। उसने देखा कि राजा का घर तो बहुत वडा है, ऊँचा है, c Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं सुन्दर है। बड़ा अच्छा लग रहा है । वह भीतर जाने के लिए आगे बढ़ा तो वाचाल ने उसे डॉटकर रोकते हुए कहा "अरे । अरे ' कहाँ घुमा वला आता है ?" “यहाँ कोई राजा रहता है न ?" "हाँ. हना है तो तुझे क्या ? बडा आया राजा के पास जाने वाला। भाग यहाँ में मूखं. गवार ।" द्वारगल न जाने उन भोले भील को कितना डॉटता-फटकारता गीर गालियाँ देना. किन्तु संयोगवश अपने महल के गवाक्ष मे वैठे राजा की कटि उस भील पर पड गई। देखते ही वह स्वयं उठकर शीघ्रता से द्वार नया और उसे प्रेमपूर्वक हाथ पकडकर भीतर ले गया । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यक्त आनन्दानुभूति एक नवीन आनन्दानुभूति के कारण उसके पैर पृथ्वी पर नही पड रहे थे । हवा मे उडता हुआ सा वह जंगलो मे जा पहुँचा । अपने स्वजन-साथियो से उसने सारी घटना का और जो-जो कुछ भी उसने देखा था उसका वर्णन किया । उत्सुक भीलो को भीड लग गई। उसने क्या देखा, क्या खाया, फैसे रहा इत्यादि प्रश्नो का उत्तर देते-देते वह आखिर थक गया। अनेको वस्तुओ के नाम तो उसे याद थे नही, प्रश्नो के उत्तर मे वह इतना ही कहता रहा'बहुत अच्छा, बहुत बढिया ।' वन मे पाई जाने वाली अनेक वस्तुओ के नाम ले-लेकर भील उससे पूछते-'क्या ऐसा ही था ?' किन्तु वह उत्तर देता–'नहीं, इससे हजार गुना अधिक अच्छा था, लाख गुना अधिक स्वादिष्ट था वह ' और ऐसा कहते-कहते वह खुशी से नाच उठता था। कह देता था--"क्या था, कैसा था-कुछ न पूछो । अजीव था, बहुत बढिया ।" प्रकृति के सरल पुत्र उस भील युवक मे नागरिक सौदर्य, आनन्द तथा राजमहल के सुख और वैभव को व्यक्त करने की क्षमता नही थी। वह तो मन ही मन उन अनुभूतियो का आनन्द लेकर मग्न हो रहा था। उन अनुभूतियो को शब्दो मे बाँध सकने मे वह समर्थ नही था। इसी प्रकार जव मनुष्य को आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है तो कोई भी शब्द उसे व्यक्त नही कर पाते । वह आनन्द मनुष्य के अन्तरतम को सुख से गुदगुदाता रहता है। उस नैसर्गिक, गहन सुखानुभूति मे साधक स्वय को भूला रहता है । परमानन्द मे डूबा हुआ वह भौतिक आनन्द की कल्पना भी नहीं करता, कामना तो दूर की बात रह जाती है। -औपपातिक सूत्र Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नि कहाँ है? बसर में देखने पर यह शरीर हाड-मास का एक पिण्ड ही दिखाई विगेज गरीर मे जो अनन्त चैतन्यमय निन्मय आत्मा मानी है. उमा दर्शन कर सकने के तिए कुछ सहज ज्ञान एवं बुद्धि . ...: है। 27। आजीविका हेतु जंगत मे लकडियाँ काट-काट -, र रो , और अपना तथा परिवार का उदर पोपण किया नी आजीविका के क्रम मे वे किगी जंगल में गए • - -::"feी साटने में विलम्ब तो होगा ही, भूख भी लगेगी, . : .:: 77 सोने अपने एक माथी से कहा न पर टटग । तुम्हारे हिम्गे की लकडियाँ हम काट ---.- - हम सबके लिए भोजन तैयार कर रखना। सूखी -- -- -- अग्नि नाम गाय म लाए है, उगमे अग्नि प्रज्वनिन ---- - 7 आग बर गजाय तो अणि मी लाटी गे अग्नि ___ - और उस आणि की ना 'या भी देर वे लोग :- बार करने के लिा हा गया था उगने Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नि कहाँ है ? सोचा--"अभी से भोजन की क्या जल्दी ? लकडियाँ काट-काट कर लाने मे इन लोगो को बहुत समय लगेगा । कुछ समय विश्राम कर लूँ । सायंकाल से पूर्व भोजन तैयार कर लूंगा।" यह विचार कर वह छाया मे लेट गया और धीरे-धीरे निद्रादेवी की सुखद गोद मे चला गया । नीद उसकी जब खुली तब तक सूर्य पश्चिम की ओर ढल चला था । घवरा कर वह उठ बैठा और साथियो के आने का समय समीप देखकर जल्दी-जल्दी भोजन बनाने की चिन्ता मे लगा। किन्तु आग बुझ चुकी थी। सोचा-अरणि की लकडी मे से आग प्रकट करलं । अरणि की लकडी के उसने दो टुकडे कर डाले । किन्तु उसमे से आग नही निकली। कुछ घबराया । दो के स्थान पर लकडी के चार, छह, आठ-टुकडे ही टुकडे कर डाले, किन्तु आग कही भी दिखाई नहीं दी। चिन्ता मे निमग्न होकर वह मन मार कर, सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। कुछ खीझ भी उसे थी कि साथियो ने उससे झूठ कहा कि अरणि की लकडी मे से अग्नि प्रकट कर लेना । यदि ऐसा उन लोगो ने न कहा होता तो वह साथ लाई हुई आग को ही सम्हाल कर रखता। उधर उसके थके-माँदे साथी दिन भर लकड़ियाँ काट कर, वोझा लादेलादे इस आशा के साथ जल्दी-जल्दी चलते हुए लौटे कि भोजन तो तैयार मिलेगा ही । भूख मिट जायगी, थकान दूर हो जायगी। किन्तु लौटकर वे देखते क्या है कि भोजन का तैयार मिलना तो दूर की वात, कही धुंए की एक लकीर तक दिखाई नही दी, चूल्हा ही नही जला था। उन्हे बड़ी निराशा हुई और क्रोध उमडने लगा। किन्तु वे लोग कुछ बोल पाएँ उससे पूर्व ही वह साथी उल्टा उन्हे हो डॉटने लगा- "मुझे तुम लोगो ने मूर्ख क्यो बनाया? झूठ-मूठ ही कह गए कि अरणि की लकडा मे से अग्नि प्रकट कर लेना । अरे मूर्यो । मैंने व्यर्थ ही तुम्हारी वात पर विश्वास कर लिया । उस समय शायद मेरी भी मति मारो गई थी। भला अग्नि का और लकड़ी का क्या मेल ? यदि लकडी मे अग्नि होती तो क्या वह अब तक जलकर भस्म न हो गई होती? फिर भी मैने तुम लोगो की बात का भरोसा कर उस लकडी के टुकडे-टुकडे करके उमे देखा, किन्तु मुझे तो उसमे कही भो अग्नि नहीं मिली ।' Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं बेचारे असत. अजानो लकडहारे आपस मे एक-दूसरे को बुरा-भला हने लगे । किन्तु उनमें से एक समझदार और जानी था । उसने अरणि को लकड़ी के दो टुकडे उठाए ओर उन्हे घिसा । उस घर्पण से अग्नि प्रकट हो गई। तब उसने कहा-“भाइयो । अरणि की लकडी को काटने से अग्नि नही होती । उसके दो टुकडो के संघर्पण से प्रकट होती है। किसी भी बान को भली प्रकार समझकर और अपनी बुद्धि का उपयोग कर कार्य करने होमलता गाज होती है ।" कनारे नहा के संघर्षण से जो चिनगारियाँ फूट निकली थी, जनीशम के सम्पर्क में लाया गया और देखते-देखते ही चूल्हा जल उठा। हार लोगो को भोजन की आशा बँधी। गिर जग मे अग्नि है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा स्थित - -: निपट करने के लिए उसके टुकडे नही, घर्पण करना . . . T T निकानन्द निन्मय आत्मा के दर्शन के लिए भी . . .:-:: लिन की आवश्यकता होती है। म -~~-राजप्रश्नीय सूत्र Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ आसक्ति और अनासक्ति प्राचीन काल मे राजगृह नामक नगर दूर-दूर के देशो तक विख्यात था । वहाँ के निवासी सम्पन्न और सुखी थे । परिश्रमी थे इसलिए सम्पन्न और सन्तोपी तथा सुखी थे। अनेक देशो से व्यापार करने के लिए अनेक सार्थवाह समय-समय पर राजगृह नगर से प्रयाण किया करते थे। ___ उस नगर मे धन्य नामक एक अत्यन्त धनाढ्य सार्थवाह भी रहता था। उसकी सम्पत्ति की कोई गणना नही थी। स्वभाव से भी वह अत्यन्त सरल और भला था। दीन-दुखी और दरिद्रो की वह सदा सहायता किया करता था। धन्य सार्थवाह की पत्नी का नाम भद्रा था। उससे सार्थवाह को पाँच पुत्र प्राप्त हुए थे-धन, धनपाल, धनदेव, धनगोप तथा धनरक्षित। इनके अतिरिक्त उनके एक कन्या भी थी जिसका नाम सुँसुमा था । वह सबसे छोटी थी। यह कन्या अत्यन्त रूपवती थी और उसके शरीर मे कोई दोष नहीं था। सार्थवाह के यहाँ चिलात नामक एक दासपुत्र था । वच्चो को खिलाने मे वह वडा निपुण था । उसके साथ बच्चे खूव हिले-मिले और प्रसन्न रहते थे। अत मुंसुमा को खिलाने के लिए उसी को नियुक्त किया गया था। वह बालिका को अपनी गोद में लेकर इधर-उधर घुमाया करता और उसे खेल मे मग्न रखा करता था । उन दासपुत्र चिलात के स्वभाव मे एक दोप भी था कि वह बालको की वहुत-सी वस्तुओ को चुरा लिया करता था। कभी वह किसी वालक की Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ कौडिया चुरा लेता, कभी गंद, कभी कोई वस्त्र अथवा कोई माला इत्यादि । परिणामत जिन बालको की वस्तुएँ वह चुराता उनके माता-पिता प्राय रुष्ट होकर धन्य सार्थवाह से उसकी शिकायत किया करते। उसे वे लोग बहुत उपालम्भ देते, कटु वचन कहते और खेद प्रकट करते । १० धन्य सार्थवाह को इस कारण बहुत बुरा लगा करता । वह बार-बार चिलात को समझाता और इस प्रकार की बातें करने से मना करता । किन्तु उस दासपुत्र का तो स्वभाव ही बालको की वस्तुएँ चुराने का वन गया था । अपने स्वामी की वर्जना का उस पर कोई प्रभाव नही पडा । जब पानी सिर से ऊपर आने लगा, अर्थात् जव चिलात बालकों की वस्तुएँ चुराता ही रहा, उन्हे चिढाता और मारता पीटता ही रहा, तब बालको ने अपने-अपने माता-पिता से उसकी गम्भीर शिकायत की। जिनकी सहनशीलता की अब सीमा आ गई थी ऐसे वे संरक्षक धन्य सार्थवाह के घर पहुँचे और बोले 1 "हे श्रेष्ठिवर आप हमारे अग्रणी है । हम सब आपका अत्यन्त सम्मान करते है । किन्तु अब हम विवश है । आपके दासपुत्र ने हमारे बच्चो को बहुत हैरान कर रखा है । अव इसका कुछ न कुछ उपाय किया ही जाना चाहिए ।" धन्य सार्थवाह वहुत लज्जित हुए | वोले "देवानुप्रियो । लज्जित हॅू। अनेक वार में इस दुष्ट को समझा चुका, किन्तु यह मानता ही नही । इस वार इसे अच्छी शिक्षा दूंगा । आप लोग अव निश्चिन्त रहे ।” लोग लौट गए । सार्थवाह ने चिलात को बुलाया और कहा "दासपुत्र । तुम बडे नीच हो । सारे समाज के सामने मुझे तुमने लज्जित किया है | अनेक वार समझाने पर भी तुम माने नही । तुम इस योग्य ही नही हो कि तुम पर दया की जाय । कुत्ते की पूँछ टेढी की टेढी ही रहती है । अत तुम इसी क्षण मेरा घर छोड़कर चले जाओ ।" - इस प्रकार अनेक कटु शब्दो से चिलात की भर्त्सना कर सार्थवाह ने उसे दूध की मक्खी की तरह अपने घर से निकाल दिया । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति और अनासक्ति ___ सार्थवाह के घर से निकल कर चिलात अब विलकुल स्वच्छन्द हो गया। उसे कोई कुछ कहने वाला नहीं रहा । कोई रोकने वाला नहीं रहा। उसके जहाँ जी मे आता, जाता और जो जी मे आता वही करता। नगर के गली कूचो मे, मदिरालयो मे, जुआरियो के अड्डो मे, वेश्यालयो मे अर्थात् जो भी नीच से नोच स्थान हो सकते थे वहाँ पर चिलात दिखाई पडता । निरकुश होकर वह सारे कुव्यसनो मे सिर से पैर तक डूब गया। जुआ खेलता, मदिरा पान करता, वेश्याओ के घर जाता और चोरी किया करता। नगर से कुछ ही दूर दक्षिण-पूर्व दिशा मे सिंहगुफा नाम की एक चोर पल्ली थी । वह चोर पल्ली सघन वन से घिरी हुई थी। बांस की वडी-वडी झाडियो से चारो ओर से आवेष्ठित होने के कारण उसका पता लगाना भी कठिन था । अनेक झरनो, खड्डो और पहाडियो को पार करने पर ही वहाँ तक पहुँचा जा सकता था। रात दिन जो व्यक्ति उस सघन वन मे आते-जाते रहते वे हो उसका पता लगा सकते थे । इतनी विकट थी वह पल्ली कि यदि एक पूरी सेना भी उस स्थान पर आक्रमण करती तो भी उसके भीतर छिपे हुए लोगो का कुछ भी नहीं विगाड़ सकती थी। उस पल्ली का स्वामी था विजय नामक एक चोर सेनापति । वह साक्षात् अधर्म की ध्वजा के सदृश था । जीवन मे उसने कोई भी अच्छा कार्य कभी नही किया था । अत्यन्त क्रूर और शूर था। प्रहार करता था तो ऐसा कि प्रतिद्वन्द्वी उसे सहन नहीं कर सकता था । अत्यन्त साहसी और शन्दबेधी वह चोर सेनापति पाँच सौ चोरो का अधिपतित्व भोगता हुआ वहाँ रहता था। बह विजय चोर समस्त अन्यायी, अत्याचारी और कुटिल लोगो का आश्रयदाता था । चोर, जार, जेव काटने वाले, सेंध लगाने वाले, खात खोदने वाले, राज्य अपराधी, कर्जदार, वालको की हत्या करने वाले, विश्वासघाती, जुआरी-कौन ऐसा व्यक्ति था जो विजय चोर की शरण मे आकर आश्रय न पाता था ? चिलात दासपुत्र भी उसकी शरण मे पहुँचा।। चोर-चोर मौसेरे भाई । विजय चोर को यह जानने मे देर नहीं लगी कि यह आदमी काम का है। उसने चिलात को अपने पास रख लिया। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ धीरे धीरे चिलात विजय चोर सेनापति का दाहिना हाथ वन गया । क्रूरता ओर कुटिलता में वह अन्य सव चोरो से बढा-चढा था । जहाँ भी सेनापति आक्रमण करता वहाँ उसके साथ चिलात अवश्य होता । उसकी योग्यता से विजय इतना आश्वस्त हो गया था कि अनेक वार तो वह स्वय अपनी पल्ली मे ही रहता और चिलात के ही नेतृत्व मे अपने साथियो को भेज देता । चिलात भी वडी कुशलतापूर्वक जिस काम के लिए उसे भेजा जाता उसे पूरा कर लोट आता । १२ काल की गति समर्थ से समर्थ प्राणी के रोके भी नहीं रुकती । विजय चोर भी बूढा हुआ और एक दिन उसकी मृत्यु भी हो गई । नया सेनापति बनाये जाने का प्रश्न उठा । सर्वसम्मति से चिलात को ही चुना गया क्योकि वही सबसे अधिक समर्थ और विजय चोर का विश्वासपात्र भी था । अब चिलात के पास शक्ति थी । शक्ति मे मद होता है | धन्य सार्थवाह द्वारा किया गया अपना अपमान भी वह भूला नही था । शूल-सा उसके हृदय मे चुभा हुआ था । अत उसने वदला लेने का निश्चय किया । एक दिन अपने सभी साथियो को उसने इकट्ठा किया और मासमदिरा से उन्हे पूर्णतया परितुष्ट करने के उपरान्त उनसे कहा "मेरे वहादुर साथियो ! धन्य सार्थवाह अत्यन्त धनाढ्य है । उसकी कन्या भी अत्यन्त रूपवती है । हम उसके घर पर आक्रमण करेगे । धन का लोभ मुझे नही है । जितना भी धन मिलेगा वह मैं सारा तुम लोगो मे वॉट दूंगा । केवल उस कन्या को मैं अपने लिए रखूंगा । वोलो, क्या तुम लोग प्रस्तुत हो ?” सेनापति की इच्छा तो उन सबके लिए आदेश ही था । धन प्राप्त होने का आकर्षण अलग । अत उन्हे इस कार्य के लिए तैयार होने मे क्षणमात्र का भी विलम्व नही हुआ । निश्चय हो गया । शुभ शकुन के लिए चिलात अपने साथियो के साथ आर्द्रा' चर्या पर बैठा । जब दिन ढलने लगा तो वह अपने पाँच सौ साथियो सहित कवच इत्यादि धारण कर तैयार हो गया । शस्त्र सजा लिए गए । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति और अनासक्ति ढाले कस ली गई। तलवारे निकाल ली गई। तीर और तरकश संभाल लिए गए । भाले ओर वठियाँ उछलने लगी । रण-वाद्य बजा दिये गए । इस प्रकार चोरो की वह सेना जब उस सिह पल्ली से वाहर निकली तो ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे समुद्र उफन रहा हो और उसका घोर गर्जन दिशाओ मे फैल रहा हो। पानी से निकलकर वे राजगृह नगर के बाहर एक सघन वन मे छिपकर सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे। सूर्य अस्त हुआ। अन्धकार घिरने लगा। रात्रि धीरे-धीरे उतरने लगी । अर्धरात्रि भी हो गई। तब चिलात अपनी चोर-सेना सहित नगर के पूर्व दिशा के द्वार पर जा पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने जल से आचमन किया, स्वच्छ हुआ। इसके बाद उसने ताला खोलने की विद्या का आह्वान किया। मत्र से अभिषिक्त जल उसने द्वार पर छिडका ....... । खट खट् शब्द के साथ देखते-देखते ही ताले टूट गए और द्वार खुल गया। नगर मे प्रविष्ट होकर वह धन्य सार्थवाह के महल की ओर वढा । चलते-चलते वह ऊँचे स्वर से घोषणा करता गया "मैं, चिलात नाम का चोर सेनापति पाँच सौ चोरो के साथ सिह गुफा नामक चोर-पल्ली से धन्य सार्थवाह का घर लूटने आया हूँ। जो भी व्यक्ति नवीन माता का दूध पीना चाहता हो वह निकल कर मेरे सामने आए।" किसे नई माता का दूध पीना था ? किसे अपनी मृत्यु बुलानी थी ? कोई भी उसका सामना करने नहीं आया, चोर-सैन्य विना किसी अवरोध के धन्य मार्थवाह के घर पर पहुँच गई। घर का द्वार तोड दिया गया। धन्य सार्थवाह उस भयंकर आक्रमण से भयभीत होकर अपने पुत्रो सहित किसी सुरक्षित स्थान पर छिप गया। चिलात को सार्थवाह अथवा उसके पुत्रो से कोई प्रयोजन न था। उसने जी भर कर उसकी सम्पत्ति को लूटा और मुसुमा कन्या को लेकर अपनी गुफा मे लौट गया। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ लुटा-पिटा सार्थवाह अपनी प्यारी बेटी से भी हाथ धो बैठा और दुखी होकर नगर रक्षको के पास जाकर बोला १४ "देवानुप्रियो । चिलात- नामक चोर मेरी सम्पत्ति तथा कन्या का हरण कर ले गया है । सम्पत्ति का मुझे कोई खेद नही । वह तो हाथ का मैल है । अपने पुरुषार्थ से उसे मै पुन अर्जित कर लूंगा । किन्तु मुझे अपनी प्रिय पुत्री के अपहरण का वडा दुख है । आप नगर के रक्षक है। कृपया चिलात से मेरी कन्या वापस लाकर मुझे दीजिए ।” रक्षकों को अपने कर्त्तव्य का भान हुआ । वे प्रस्तुत हुए । सिंह गुफा की ओर शस्त्र - सज्जित सैनिक चल पडे । चिलात ने यह सैन्य अपनी शरण स्थली की ओर आती हुई देखी और तत्क्षण युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गया । विकट युद्ध हुआ । चिलात शक्तिशाली था, किन्तु रक्षक सैन्य संख्या मे अधिक थे । चोरो के पाँव उखड़ने लगे ओर परास्त होकर व जंगल मे इधर-उधर भाग गए। चिलात ने जब अपनी सेना को तितर-बितर हुआ देखा तो वह सुसुमा को लेकर एक भीषण जंगल मे घुस गया । धन्य सार्थवाह ने चिलात को उस जंगल मे अपनी कन्या के साथ घुसता हुआ देख लिया था । अपने पाँचो पुत्त्रो के साथ वह उसका पीछा करने लगा । चिलात सुसुमा के साथ गहन से गहनतम वन मे भागता गया, किन्तु वाप-बेटो ने भी उसका पीछा नही छोडा । प्राणो की वाजी लगाकर वे उसके पीछे पडे ही रहे । धीरे-धीरे चिलात थकने लगा । उसे सुसुमा का भार भी ढोना पड रहा था । जव उसने देखा कि वह सुसुमा का भार ढोता हुआ अब अधिक दूर नही जा सकता, तब उसने उस कोमल कन्या का सिर बेरहमी से काट लिया और उसे लेकर वह और भी अधिक सघन अटवी मे घुस गया । चिलात उस सघन अटवी मे घुस तो गया, किन्तु वह इतनी सघन और अन्धकारपूर्ण थी कि वहाँ जाकर वह मार्ग भूल गया । बहुत समय तक वह इधर-उधर भटकता रहा, भागते-भागते उसे तीव्र प्यास लग आई Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति और अनासक्ति थी, किन्तु कही जल नही था । जल केवल सिह गुफा मे ही था और उस गुफा का मार्ग वह भूल गया था। अत भटकते-भटकते वह प्यास के मारे रास्ते मे ही मर गया। धन्य सार्थवाह चिलात के पीछे पड़ा था। उसे खोजते खोजते आखिर वह उस स्थान पर पहुँचा जहाँ उसकी पुत्री का सिर कटा हुआ शव पड़ा था । उसे देखकर वह दु.ख के मारे मूच्छित होकर उसी प्रकार गिर पडा जैसे कुल्हाडे से काट दिए जाने पर चम्पक वृक्ष भूमि पर गिर पडे । ___ उसके पुत्रो ने अनेक प्रकार उसका उपचार किया और किसी तरह उसे होश आया। होश मे आने पर वह तीव्र विलाप करने लगा। वह और उसके पुत्र प्यास के मारे पहले से ही अधमरे हो चुके थे, अब विलाप करने से उनकी प्यास और भी अधिक बढ गई। किसी प्रकार साहस करके वे जल की खोज मे इधर-उधर भटकने लगे, किन्तु जल कही भी नही था । भटकते-भटकते वे उसी स्थान पर वापिस लौट आए। तव धन्य मार्थवाह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने पास बुलाकर कहा "हे पुत्र ! आज हमारे दुर्भाग्य की चरम सीमा आ गई। किन्तु पश्चात्ताप तथा विलाप से तो अव कुछ होगा नही । भूख और प्यास से हम लोग इतने पीडित हो चुके है कि यदि कोई उपाय न किया गया तो हम सभी यही पर मर जाएँगे । अत तुम ऐसा करो कि मुझे जीवन से रहित कर दो और मेरे शरीर के रुधिर और मास से अपनी भूख-प्यास मिटाकर, शक्ति का संचय कर घर पर पहुँचो और शेष कुटुम्ब का रक्षण करो एव धर्म और पुण्य के भागी वनो। _ पिता की बात सुनकर पुत्र को वहुत दुख हुआ । वात ही ऐसी थी। वह वोला "पूज्य पिताजी । यह आप कैसी बात कह रहे है ? आप हमारे पिता है, पूज्य है, हमारे लिए देवता स्वरूप है । हम ऐसा पाप कैसे कर सकते है ? आप ऐमा कीजिए कि मुझे ही जीवन से रहित कर दीजिए तथा अपनी भूखप्यास शान्त कर घर लौटिए ।' बडे भाई की यह बात सुनकर दूसरे भाई ने तुरन्त कहा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ “हे तात | गुरु और देव के समान अपने ज्येष्ठ भ्राता को हम जीवन मे रहित नही होने देगे। उचित यही है कि आप लोग मेरे ही जीवन का अन्त कर दे।" एक विकट समस्या उत्पन्न हो गई। सभी भाइयो मे शेप लोगो की जीवन-रक्षा के लिए अपने-अपने प्राणो का अन्त कर देने की होड-सी लग गई । तब धन्य सार्थवाह ने वस्तुस्थिति पर गहन विचार करके कहा "प्रिय पुत्रो । ऐसे विकट सकट के समय पर क्या किया जाय और क्या न किया जाय यह मुझे सूझता नहीं। इस समस्या का अब तो एक ही समाधान दिखाई देता है। यह तुम्हारी वहिन मृत्यु को प्राप्त हो ही चुकी है। अत हमे अपनी जीवन-रक्षा के लिए इमी के शरीर का आहार कर लेना चाहिए।" घोर दुःख के साथ पिता ने यह बात कही थी और पुत्रो ने स्वीकार की थी । अन्य कोई मार्ग था भी तो नही ... । पिता-पुत्र घर लौटे । स्वजनो से मिले । मृत सुसुमा का लौकिक मृतकृत्य किया गया । धीरे-धीरे शोक समाप्त हुआ । उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर मे पधारे और गुणशील चैत्य मे विराजे । उनके दर्शन करने तथा उपदेश सुनने के लिए नगर के सभी जन गए । धन्य सार्थवाह भी गया । भगवान का धर्मोपदेश सुनकर उसे वैराग्य हुआ और अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने पद पर आसीन करके वह दीक्षित हो गया। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उसने ग्यारह अंगो का क्रमश अध्ययन किया। वहत समय तक संयम का पालन करने के बाद सलेखना कर वह सौधर्म देवलोक मे उत्पन्न हुआ। वहाँ से चल करके वह महाविदेह क्षेत्र मे चारित्र धारण करके सिद्धि प्राप्त करेगा। चिलात चोर विपयो मे आसक्त था । उसका दुष्परिणाम उसे भोगना पडा। साधु को चाहिए कि वह धन्य सार्थवाह के समान अनासक्त होकर केवल मोक्ष प्राप्ति के हेतु ही आहार ग्रहण करे । -~-ज्ञाताधर्म कथा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गजयी कामदेव आत्मा अभय है । यदि धर्म मे दृढ आस्था हो और मनुष्य साधना के पथ पर पूर्ण निष्ठावान होकर रहे तो उसके आत्मप्रदेश में कोई भी भय प्रवेश नही पा सकता। ___ अंग देश मे चम्पा नाम की एक नगरी थी। वहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था । नगरी के बाहर पूर्णभद्र नामक एक चैत्य था। इसी नगरी में कामदेव नामक एक गृहस्थ रहता था । कामदेव सचमुच चम्पा नगरी का शृङ्गार था। भद्रा नाम की उसकी पत्नी थी । वह अत्यन्त रूपवती, सुकुमार एव पति पर श्रद्धा रखने वाली थी। कामदेव ऋद्धिसम्पन्न व ऐश्वर्यशाली था। उसके पास अठारह करोड स्वर्ण मुद्राएँ थी तथा दस-दस हजार गायो के अनेक गोकूल थे। अतुल धन-सम्पदा तथा गोवन का वह स्वामी था। उसके जीवन मे कोई अभाव नही था । भगवान महावीर विहार करते हुए एक वार चम्पा नगरी मे पधारे । उनके आगमन की बात जानकर सहस्रो नागरिक हर्पित होकर उनके दर्शन करने निकले । कामदेव ने भी इतनी भीड को पूर्णभद्र चैत्य की ओर जाते देखा तो जिज्ञासावश अपने अनुचरो से वस्तुस्थिति का ज्ञान कर वह भी लोगो के साथ चल पड़ा। भगवान के अमृत-वचनो का उसके हृदय पर ऐसा प्रभाव पडा कि कामदेव ने श्रावक के वारह व्रत ग्रहण कर लिए। उसकी पत्नी भद्रा ने भी एक मच्ची पति-अनुगामिनी की भॉति उन व्रतो को अगीकार किया । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं इस प्रकार कामदेव भगवान महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति का विधिवत पालन करता हुआ कुटुम्बीजनो के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था । एक रात्रि उसके मन मे अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि सासारिक बन्धनो मे अपने को लिप्त रखते हुए कब तक धर्म-प्रजप्ति का विधिवत पालन कर सकूंगा ? अनेक व्यवधान आते ही रहते है | व्रतो का पालन उन स्थितियो कठिन हो जाता है । १८ इस प्रकार का विचार उठते ही वह प्रात काल स्वजन सम्बन्धियो की उपस्थिति मे अपने ज्येष्ठ पुत्र को गृह-भार सौंपकर पौपधशाला मे जाकर उपासको की प्रतिमा की आराधना मे सलग्न हो गया । गृह-भार से निवृत्त होने के पश्चात् एकाग्रचित्त से वह भगवान महावीर की धर्म- प्रज्ञप्ति मे लीन हो गया । · किन्तु शुभ कार्य मे विघ्न और कठिनाइयाँ भी आती है और वीर एवं साहसी व्यक्ति उन्हे धैर्यपूर्वक पार करते चलते है। एक दिन मध्यरात्रि मे उसके समीप एक मिथ्यादृष्टि देव आया । उसका शरीर वडा भयकर था—गोकलज के समान सिर, मोटे और सूखे केश, मटके की तरह ललाट, नेवले की पूँछ की तरह छितरे हुए भोहो के बाल, छोटे घडे के समान बाहर निकले हुए नेत्र, खण्डित छाज की तरह विचित्र कान, दो चूल्हो की तरह गहरी नासिका, घोडे की पूँछ सदृश मूंछे, ऊँट की तरह ओष्ठ, टूटे हुए शूर्प की तरह जिह्वा, मृदंग के समान कधे, चक्की के पाट जैसी हथेलियाँ, शिला के समान पैर । इतना भयकर वह देव अपना मुख फाडे हुए था, जिह्वा वाहर निकली हुई थी । गिरगिट और चूहो की माला उसने पहिन रखी थी । कानो मे नेवले का कुण्डल था और वक्षस्थल पर सर्पों की माला झूल रही थी । घोर गर्जना और अट्टहास करता हुआ, हाथ मे नगी तलवार लेकर पौपधशाला मे कायोत्सर्ग मे लीन कामदेव को सम्बोधित करते हुए वह कहने लगा "अरे कामदेव । तू किसकी शरण मे बैठा है । किसके ध्यान मे लीन है ? तेरे अन्तिम और बुरे दिन सन्निकट है । तू तो अभागा है । तेरा जन्म चतुर्दशी तिथि को हुआ है । धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष की तेरी आकाक्षा कभी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गजयो कामदेव पूरी नही होगी । मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि तू अपने व्रतो से चलित नही हुआ है और न चलित होना चाहता है । किन्तु यदि अब मेरे कहने मात्र से तू अपने व्रतो को भंग नही करेगा तो इसी तीक्ष्ण तलवार से तेरे शरीर के टुकडे टुकडे कर डालूंगा ।" उस देव-पिशाच के ये भयंकर शब्द कामदेव के कानो में पडे, किन्तु वह यथावत् कायोत्सर्ग मे लीन रहा, किचित्मात भय भी उसे स्पर्श न कर मका । उसे इस प्रकार निर्भय, अनुद्विग्न, अचल देखकर पिशाच क्रोध भरी चिनगारियाँ उगलने लगा १६ - "दुष्ट | तु इस प्रकार निर्भय रखकर अपने प्राणो की रक्षा नही कर सकेगा । अपने व्रतो को शीघ्र खण्डित कर मेरी शरण मे आ जा अन्यथा बुरी तरह मारा जायगा ।" इस प्रकार अनेक बार उसने कामदेव को आह्वान करने का उपक्रम किया किन्तु जब वह सफल न हुआ तो एकाएक क्रुद्ध होकर उस तीक्ष्ण तलवार ने कामदेव के टुकडे-टुकडे करने लगा । कोमल काया पर उस प्रकार तीक्ष्ण आघात होने पर किसे पीडा न होगी ? कामदेव को भी तीव्र व असह्य वेदना हुई । तथापि वह अपने निश्चय में अडिग रहा । तनिक सी भी व्यग्रता उसके हृदय मे नही आई । पिशाच ने उसे भली-भाँति देखा, समझा और अपनी क्रूर भावनाओ से उसे डिगाने मे अपनी सारी शक्ति लगा दी । किन्तु उसका सारा परिश्रम व्यर्थ गया । तब वह सोचने लगा - कामदेव निर्भय है । ध्यान मे लीन है । निर्ग्रन्थ वचन से अविचलित व अविक्षिप्त है । उसके ध्यान को भग करने मे मेरी सारी शक्ति व्यर्थ हुई । अब वह पिशाच शान्त होकर विचार करने लगा - मैं कैसा अभिमानी था. इसे विचलित करने के लिए कितने क्रूर कर्म किए किन्तु यह अविचलित ही रहा । इसने मेरे सारे प्रयामो पर पानी फेर दिया, मेरा अभिमान चूर-चूर कर दिया । इन विचार से उनका हृदय ग्लानि मे भर गया । पौपधशाला से बाहर आकर उनने अपना पिशाच का रूप त्याग दिया । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं उस मिथ्यादृष्टि देव को अपनी असफलता पर बडा खेद हुआ। उसने कामदेव को पराजित करने की इच्छा से पुन हाथी का रूप बनाया । हाथी भी भयावह और विरूप था। मेघ के समान गर्जन करता हुआ वह पौपधशाला मे आया । वीभत्स आवाज मे चिधाडते हुए कहने लगा “कामदेव । अव भी तू अपने हठ पर अडा रहेगा? कान खोलकर सुन लो, मेरे कथनानुसार यदि तूने धर्म का परित्याग न किया तो अपनी सूंड मे लपेट कर तुझे पौषधशाला से वाहर ले जाकर अपने दॉतो, पैरो और मूंड से तेरे अंग-अंग विच्छिन्न कर दूंगा । तू दु ख से पीडित होकर मृत्यु का ग्राम बन जायगा।" आत्मलक्षी किसी की चुनीती से घबराता नही । कामदेव अपने लक्ष्य पर दृढ था। वह पूर्ववत् कायोत्सर्ग मे लीन रहा । हाथी के रूप मे देव ने अपने कथन को अनेक बार दुहराया, किन्तु कोई फल न हुआ । अव क्रोध के अतिरेक मे उसने कामदेव को अपनी विशाल संड मे लपेटा ओर पोपधशाला से वाहर ला पटका । अत्यन्त निर्दय होकर उसे आकाश मे उछाला। नीचे गिरते हुए कामदेव को तीक्ष्ण दांतो से विदीर्ण कर पैरो तले रौदा । लेकिन असह्य वेदना से पीडित होते हुए भी कामदेव अविचलित रहा और शान्त भाव से सब कुछ सहता रहा। देव ने दूसरी वार भी पराजित होकर कामदेव को पोपधशाला मे लाकर विठा दिया । बाहर आकर हाथी का रूप त्याग दिया। पराजय पर पराजय होने पर किसी का भी हृदय प्रतिशोध की भावना से भर जाता है । वह दुष्ट देव भी प्रतिशोध की ज्वाला मे दग्ध हो रहा था । अत अशेप शक्ति का उपयोग कर वह इस बार भयकर सर्प बनकर फुफकारता हुआ पुन पौपधशाला मे प्रविष्टि हुआ। अपने भयानक फन फैलाता हुआ, अग्नि की भाँति उग्र साँसो को फेकता हुआ बोला ___ “कामदेव । यदि आज तू अपने व्रतो से विमुख न हुआ तो इस वार के उपमर्ग से तू वत्र नहीं सकता । देख मेरे विपले, भयंकर शरीर को। सरसर करता हुआ तुझ पर चढूंगा और गले मे तीन ऑटे मारूंगा। विप से भरी पैनी दाढो मे तेरा वक्षस्थल चीर डालूंगा । उसमे भयानक विप उगल दूंगा । उसकी वेदना असहनीय होगी। तू तडप-तडप कर बेहोश हो जायगा और उसी अवस्था मे तेरी मृत्यु हो जायगी।" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गजयी कामदेव २१ किन्तु कामदेव निश्चल ही रहा । आत्मभावो मे रमण करता हुआ वह सर्प रूपी देव की बात सुनकर भी विचलित न हुआ । बार-बार दी गई सर्प को चेतावनी भी व्यर्थ गई । रोप से भरा, बल खाता हुआ सर्प आगे बढा । कामदेव के शरीर पर चढ कर गले मे ऑट डालकर उसके वक्षस्थल को निर्दयता से डस लिया । इससे कामदेव को तीव्र वेदना हुई, किन्तु वह विचलित नही हुआ । धर्मजागरणा मे वह पूर्ववत् ही लीन रहा । सत्य, साधना और सयम का प्रभाव दुष्ट से दुष्ट प्राणी पर भी पडे बिना नही रहता । लगातार तीन बार भयंकर उपसर्गो द्वारा पीडित किए जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव को स्वीकृत धर्म पर इस प्रकार दृढ रहते देखकर देव का मन अव सच्ची आत्म-ग्लानि से भर गया । पौषधशाला से बाहर आकर सर्प रूप त्याग कर अब वह अपने वास्तविक देव स्वरूप मे उपस्थित हुआ 1 दसो दिशाओ को अपनी कान्ति से प्रकाशित करता हुआ वह पौषधशाला मे आया और कामदेव को सम्बोधित करते हुए कहने लगा “श्रमणोपासक कामदेव । तू धन्य है । कृतार्थ है, कृतलक्षण है । मनुष्य जन्म का फल तेरे लिए सुफल है क्योंकि निर्ग्रन्थ वचन मे तुझे प्रतिपत्ति हुई हैं । देवराज इन्द्र ने अपनी भरी सभा मे उद्घोषित किया था"जम्बूद्वीप के भरत क्ष ेत्र की चम्पा नगरी में कामदेव श्रावक भगवान महावोर की धर्म प्रज्ञप्ति स्वीकार कर पौधशाला में कायोत्सर्ग मे लीन है । उसे धर्म पथ से विचलित करने मे कोई भी समर्थ नही है । भले ही वह महापराक्रमी देव, दानव, यक्ष, राक्षस और गन्धर्व ही क्यो न हो । " “कामदेव | मुझे देवराज इन्द्र की इस बात पर विश्वास नही हुआ था, अत मैं तेरी परीक्षा लेने आया था । देवानुप्रिय । तूने जिस धार्मिक दृढता का परिचय दिया है वह अद्भुत है । देवराज ने जो कहा था वह मैंने प्रत्यक्ष देख लिया | उनका कथन सर्वथा सत्य है । मैं तुझसे अपने द्वारा किए हुए क्रूर कर्म की क्षमा चाहता हूँ । क्षमा करो, क्योकि तुम क्षमा करने के योग्य हो ।” Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं ये शब्द कहते हुए वह देव कामदेव के चरणो मे गिर पडा और क्षमा प्राप्त कर वह अदृश्य हो गया। सभी उपसर्ग सह लेने के पश्चात् कामदेव ने कायोत्सर्ग को पूर्ण किया। तत्पश्चात् नगरी में भगवान महावीर के पुनरागमन की बात जब उसने सुनी तो निश्चय किया कि भगवान के दर्शन-वन्दन करने के उपरान्त ही भोजन वरगा। अपने संकल्प को क्रियान्वित करने के लिए वह पूर्ण भद्र चैत्य मे पहुँचा । भगवान को वन्दन किया, पर्युपासना की और देशना सुनी। परिपह के मध्य भगवान ने श्रमणोपासक कामदेव के गत रात्रि के उपसर्ग के वृत्तान्त पर सविस्तार प्रकाश डालते हुए उनकी दृढ निष्ठा की ओर संकेत किया और कहा “निर्ग्रन्थो । गृहवास मे रहने वाले श्रमणोपानक देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी उपसगों को सम्यक् प्रकार से सहते हैं और ध्यानादिक आध्यात्मिक क्रियाओ से विचलित नहीं होते। द्वादशागी के धारक श्रमण निर्ग्रन्थ को तो ऐसे उपसर्ग सहन करने मे सर्वथा दृढ, समर्थ और पूर्ण तत्पर रहना चाहिए।" कामदेव तीस वर्ष तक ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना कर शीलबत आदि से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ श्रावक पर्याय मे स्थित रहा। अन्त मे अनशन, आलोचना-प्रत्यालोचना कर समाधि को प्राप्त हुआ और अपना आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प के सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण के अरुणाभ विमान मे देवरूप मे उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी चार पल्योपम की स्थिति है। वहाँ से आयु, भव और स्थिति का क्षय कर वह महाविदेह क्षेत्र मे उत्पन्न होगा और सिद्धि को प्राप्त करेगा। -उपासक दशा-२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मफल किसी नगर मे एक कलाकार रहता था । काष्ठ - शिल्प मे वह प्रवीण था । अपने सधे हुए हाथो से वह जिस काष्ठ को भी छू देता वह देखते-देखते ही एक सुन्दर कलाकृति मे परिणत हो जाती । देखने वाले बस मुग्ध होकर देखते ही रह जाते । किन्तु प्राय कलाकारो के साथ एक दुर्भाग्य भी छाया की तरह साथसाथ चलता है कि उनकी कला का मूल्य जगत नही जानता और वे बेचारे कलाकार दरिद्रता मे ही अपने बहुमूल्य जीवन की इतिश्री कर संसार से विदा हो जाते है । शायद यह उक्ति सत्य ही है कि लक्ष्मी और सरस्वती का मेल बैठता ही नही । उस कलाकार की भी यही स्थिति थी । कला तो उसे भरपूर मिली थी. किन्तु उसका मूल्य नही मिल रहा था । वैसे तो कला का कोई मूल्य हो ही नही सकता, किन्तु फिर भी सुविधापूर्वक जीवन-यापन हो सके, इतनी अपेक्षा तो की ही जाती है । वह बेचारा कलाकार भी अपनी काष्ठ की कलाकृतियों को खा कर तो जीवित रह नही सकता था । उदरपूर्ति हेतु उसे धन की आवश्यकता पडती ही थी. और वह धन उसे मिलता नही था । निदान, दुर्भाग्य का मारा, भूख की ज्वाला से हेरान, वह विवश कलाकार चोरी जैसे जघन्य कर्म मे प्रवृत्त हो गया । २३ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं चोरों के गिरोह में मिल जाने पर अपनी कुशलता से उसने शीघ्र ही उस दल का नेतृत्व अपने हाथ मे ले लिया । दिन के समय वह चोरी किये जाने लायक स्थान की खोज-वीन करता और रात्रि को अपने गिरोह के साथ उस स्थान पर धावा बोल देता । मजबूत मजबूत और सुरक्षित से सुरक्षित स्थान मे भी पलक झपकते झपकते संध लगा देना उसके बाएँ हाथ का खेल था । २४ एक बार वह अपने साथियो सहित चोरी करने के लिए एक ऐसे मकान में पहुंचा जिसकी दीवारे चूने ओर पत्थर की न होकर काठ की थी । यह कथा पुराने जमाने की है, उस समय लकडी के मकान बहुतायत मे पाये जाते थे । अव ज्यो ही वह उस काष्ठ की दीवार मे मेध लगाने लगा कि उसका कलाकार-मानस जाग उठा । अनजाने ही, सहज भाव से वह वहाँ सेध लगाने मे भी कला का उत्कृष्ट नमूना तैयार करने लगा । काष्ठ को वह इस ढंग से काटने लगा कि एक सुन्दर कंगूरे का रूप वन जाय । उसके साथी उसकी इस प्रकार की तन्मयता देखकर वौखलाए - “भाई ! यहाँ चोरी करने आए हो या अपनी कारीगरी दिखाने ? इस प्रकार तो विलम्व हो जायगा और हम सब पकडे जाकर मारे जायँगे । जल्दी से सेध लगाकर अपना काम खत्म करो ।” चोर वन जाने पर भी जिसके हृदय से कला का प्रेम विनष्ट नही हुआ था ऐसा वह कलाकार उत्तर मे वोला 1 “अरे भाई । चोरी तो करनी ही है, किन्तु ऐसा स्थान और ऐसी वस्तु हर समय उपलब्ध नही होती । अतः तनिक अपनी कला का जादू भी दिखा दूं, ताकि प्रात काल जब लोग उसे देखें तो उन्हे यह पता चले कि चोरी करने के लिए केवल चोर ही नही कोई असाधारण कलाकार भी आया था ।" उसकी इस सरल मूर्खता पर साथियो को हँसी आ गई । नीद तीक्ष्ण धार वाली आरी चलती रही । उसकी आवाज से गृहपति की 'खुल गई । सावधान होकर वह एक ओर छिप गया। सेव लग जाने पर ज्यही क्लाकार ने तीखे कंगूरो वाली सध से घर मे घुसने के लिए पैर भीतर डाला कि गृह स्वामी ने झपट कर उसके पॉव मजबूती से दबोच लिए Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मफल २५ और सोचने लगा कि यदि यह भीतर आ गया तो कोन जाने किसी तीखे शस्त्र से मुझ पर आक्रमण ही कर बैठे । उधर बाहर खड़े उसके साथियो को जब उस स्थिति का भान हुआ कि उसके पैर भीतर से पकड़ लिए गए हे तो वे सोचने लगे कि यदि यह भीतर घसीट लिया गया और पकड लिया गया तो सारा भेद खुल जायगा, सब लोग नाहक मारे जायेंगे | अत चिन्तित होकर वे लोग उसके दोनो हाथ पकडकर उसे बाहर खीचने लगे । इस प्रकार भीतर और बाहर दोनो ओर से खीचा जाने पर नोकदार, तीक्ष्ण कंगूरे वाली उसकी कारीगरी स्वयं उसी के शरीर को चीरने लगी । वह चिल्लाया-“अरे छोड़ दो मुझे, मैं मर जाऊँगा ।" किन्तु कृत-कर्म के फल भोगने की उसकी घडी आ चुकी थी। साथी उसे इसलिए नही छोड़ते थे कि यदि यह पकडा गया तो उन सभी का भेद खुल जायगा, तथा गृहस्वामी तो भला उसे छोडता ही क्यो ? अन्ततः उस खीचातानी मे उसका सारा शरीर लहू-लुहान हो गया और वेदना से तडपते तडपते उसने प्राण त्याग दिए । दुर्भाग्य का मारा एक कलाकार चोरी जैसे निकृष्ट कर्म मे प्रवृत्त हुआ और उसे अपने कर्म का फल भोगना ही पडा । - उत्तराध्ययन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राह का भिरवारी यदि मनुष्य विवेक पूर्वक पुरुपार्थ करे तो वह ससार की बड़ी से बर्ड निधि भी प्राप्त कर सकता है। किन्तु यदि विवेक न हो तो कितनी भी सम्पत्ति का वह स्वामी हो, एक दिन राह का भिखारी अवश्य बन जायगा। एक वार एक वणिक ने अपने पुत्रो को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी और समझाकर कहा--- “पुत्रो । इन मुद्राओ को लेकर तुम तीनो व्यापार करने के लिए अलग-अलग जाओ । बुद्धिमानी के साथ कार्य करना और अपनी-अपनी पूँजी को बढाने का प्रयत्न करना जिससे कि तुम सबका जीवन सुख-सुविधा से युक्त हो। मै यह देखना चाहता हूँ कि तुम किस प्रकार से अपने विवेक का उपयोग करते हो । तुम लोगो के लौटकर आने पर मै अपनी यह सारी चलअचल सम्पत्ति तुम लोगो मे वॉट दूंगा।” पिता की आज्ञा का पालन कर तीनो भाई अपने-अपने हिस्से की पूंजी लेकर किमी दूरस्थ नगर मे पहुँच । वहाँ पर सबने अलग-अलग व्यापार करने की योजना बनाई । पहला भाई व्यवसाय-कुशल था । अपनी पूँजी से वह कोई अच्छा व्यवसाय करने लगा और उसमे पूरी मेहनत से काम करने लगा। सच्चाई और लगनशीलता के कारण उसके व्यापार की दिन दूनी आर गत चौगुनो उन्नति होने लगी। 'व्यापार में लक्ष्मी का निवास होता २६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राह का भिखारी २७ है ' -- इस उक्ति के अनुसार उसके पास थोडे समय मे ही अपार सम्पत्ति जमा हो गई । दूसरे भाई मे साहस, परिश्रम और लगनशीलता का अभाव था । परिश्रम कम करना पडे, इस दृष्टि से उसने व्याज का कारोवार किया । व्याज के पैसो से वह अपना जीवन-यापन करते हुए अपनी मूल पूँजी को सुरक्षित रखे रहा । यहाँ तक भी कुछ गनीमत मानी जा सकती थी । किन्तु तीसरा माई अत्यन्त विलासी ओर बुद्धिहीन था । व्यापार के द्वारा अधिक सम्पत्ति का अर्जन करने के स्थान पर वह उन एक सहस्र मुद्राओ का उपयोग वेश्याओ के साथ आमोद-प्रमोद तथा अन्य विलास कार्यों मे करने लगा । इस प्रकार खर्च करते-करते एक दिन उसकी सारी पूँजी समाप्त हो गई । भिखारी बनकर वह इधर-उधर धक्के खाने लगा । कल तक जो वेश्याएँ उसे अपने हाव-भाव से रिझाती थी और कल तक ही जो मित्र उस पर जान देने के दावे करते थे, वे सब अब उससे आँखे चुराने लगे । उन सबकी दृष्टि मे उसका मूल्य अव फूटी कौडी के बराबर भी नही रह गया । आखिर कुछ समय बाद वे तीनो भाई अपने घर लौट आए। उनके पिता ने उन तीनो की परिस्थिति को देखा और उनकी अपनी-अपनी योग्यता का ज्ञान उन्हे हो गया । व्यक्ति की आकृति एव क्रिया-कलापो से ही उसकी योग्यता - अयोग्यता का ज्ञान हो जाता है । पहिले पुत्र का घर मे बडा सम्मान होने लगा, जो कि स्वाभाविक ही था, क्योकि उसने अपनी योग्यता और विवेक का अच्छा प्रमाण दिया था और अपार सम्पत्ति अर्जित की थी। आस-पास के लोगो ने भी उसकी भूरिभूरि प्रशंसा की । पिता ने उसे योग्यतम जानकर परिवार की बागडोर उसी के हाथो मे सौंप दी । वह अपनी सुन्दर पारिवारिक परम्परा को आगे वढाने वाला सिद्ध हुआ । दूसरे पुत्र ने अपनी मूल पूँजी को सुरक्षित रखा था, अत उसके लिए लोगो के उद्गार थे - यह पैतृक सम्पत्ति की सुरक्षा मे प्रवीण है । यदि अधिक कुछ नही कर सकता तो कम से कम मूल पूंजी को तो सुरक्षित रख ही सकता है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ ऐसी स्थिति मे पिता ने उसे गृह व्यवस्था तथा सम्पत्ति रक्षा का कार्य सोपा | अपना यह दायित्व वह कुशलता से निभाने लगा । २८ तीसरे पुत्र के चाल-चलन ओर कुरुचियो को देखकर सभी लोग बडे निराश हुए। पिता को भी बहुत दुख हुआ । सभी ने उसका तिरस्कार किया । कुछ वडे-बूढो ने तो स्पष्ट ही कह दिया - यह नालायक है, अयोग्य है । स्वय तो वर्वाद हुआ ही है, साथ ही उसने बाप-दादो की प्रतिष्ठा को भी धक्का पहुँचाया है । उसके जैसे लडके से भविष्य मे कोई भी आशा रखना व्यर्थ है । ऐसी अयोग्य सन्तान से तो निस्सन्तान रहना ही श्रेयस्कर है । यदि सेठ ने उसे घर मे रखा तो यह स्वयं तो डूब ही रहा है, अपने साथ समस्त परिवार को भी ले डूबेगा । इष्ट जनो की सारी बाते सेठ ने सुनी, गम्भीरतापूर्वक विचार किया और भारी मन से, हृदय मे गहन पीडा का अनुभव करते हुए अपने उस निकम्मे तीसरे पुत्र को घर से निकाल दिया । विवेक पूर्वक चलकर बडे पुत्र ने अपार सम्पत्ति और यश का अर्जन किया । मँझले पुत्र ने सामान्य बुद्धि का प्रदर्शन करते हुए मूल पूँजी को तो सुरक्षित रख ही लिया, किन्तु तीसरा अविवेकी पुत्र सब कुछ गँवा कर राह का भिखारी वन गया । - उत्तराध्ययन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ तुम चोर नहीं हो ढाई हजार वर्ष पूर्व की एक कथा है । मगध के सम्राट महाप्रतापी महाराज श्रेणिका अपने शानदार दरवार मे बैठे सभासदो से विनोद वार्ता कर रहे थे । उसी समय उन्हें कुछ कोलाहल सुनाई पडा और उसी के साथसाथ बहुत से नागरिक उनके दरबार में प्रविष्ट होकर हाथ जोडकर निवेदन करने लगे “महाराज ! आपके राज्य मे अव अन्धेर वढता जा रहा है। सुरक्षा का लोप होता जा रहा है । हम लोग बडे कष्ट मे पड गए है। आए दिन हमारे घरो मे चोरी होने लगी है । कडे परिश्रम से हम धनोपार्जन करते है, राज्य का उचित ओर निर्धारित कर चुकाते है, व्यापार-वाणिज्य करते है, किन्तु ये चोर है कि चुपचाप हमारे कडे परिश्रम की कमाई को चुरा ले जाते है | दयानिधान | इस प्रकार हमारा गुजारा कैसे और कितने दिन चलेगा ?" सम्राट श्रेणिक जैसे आकाण से पृथ्वी पर आ गिरे। वे तो सोचते थे कि प्रजा सुख मे है, राज्य मे सब अमन-चैन है, किसी को कोई कष्ट नही । किन्तु आज मालूम हुआ कि ऐसा नही है । उन्होने क्रोधित होकर कोतवाल को बुलाकर कहा "तुम करते क्या हो ? किस बात का वेतन तुम राज्य से लेते हो ? क्यो नही तुम्हे राज्य सेवा से मुक्त कर दिया जाय ओर किसी अन्य सुयोग्य अधिकारी की नियुक्ति की जाय जो अपना कर्तव्य भली प्रकार से पूरा करे ? उत्तर दो ।" २६ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ कोतवाल सम्राट की टेढी भृकुटि देखकर थर-थर कॉप गया। गिडगिडाता हुआ-सा वोला “सम्राट । मै दण्ड का भागी हूँ । स्वीकार करता हूँ। मुझ से अधिक कुशल और सुयोग्य व्यक्ति की नियुक्ति आप मेरे पद पर कर दीजिए। मैं तो स्वयं ही हैरान हो गया हूँ। लाख प्रयत्न करके मैं हार गया, किन्तु यह दुष्ट लौहम्बुर का बेटा रोहिणेय चोर अपने युग का अद्वितीय कलाकार है। चौर कर्म मे इस पापी ने अपने पिता को भी मीलो पीछे छोड़ दिया है। प्रभु । उसकी गति विजलो के समान है। वह राक्षस कव आता है, किधर मे आता है, कहाँ चला जाता है कुछ पता ही नही चलता। इतना होशियार है कि एक भी प्रमाण उसके विरुद्ध मुझे मिल नही पाता। दयानिधान । प्रमाण के अभाव में मैं उसका क्या करूँ ?" कोतवाल के कथन मे सार था। सम्राट विचार मे पडा गए । जब ऐसी स्थिति है तब वेचारे कोतवाल का क्या दोप? वे न्यायी थे, अन्याय कैसे करते ? अन्त मे विचारते-विचारते उन्होने अपने मन्त्री अभयकुमार से कहा "अभय । तुम विलक्षण व्यक्ति हो। तुम्हारी कुशाग्रबुद्वि की समता करने वाला इस भरतक्षेत्र मे कोई नही । इस रोहिणेय चोर के विरुद्ध प्रमाण एकत्रित कर, उसे पकडकर उचित दण्ड देने का कार्य आज से तुम्हारे जिम्मे रहा ।" जिस समय मगध-सम्राट के दरबार मे यह निर्णय हो रहा था, उम ममय रोहिणेय चोर का वृद्ध पिता लोहखुर अपनी मृत्यु-शय्या पर पड़ा अपने सुयोग्य पुत्र को अन्तिम उपदेश दे रहा था "बेटा । जहाँ तक अपने पैतृक कुल-कर्म का प्रश्न है, उस सम्बन्ध मे तुझे मैं अब कोई नई बात बता सकूँ या कोई उपदेश दे सकें ऐसी स्थिति नहीं है । तू मेरा बेटा है, और बाप से सवाया है। तू हमारे कुल का सर्वोनम उज्ज्वल प्रदीप है। इस अकेले मगध सम्राट की तो विमात ही क्या, मारे भरतखण्ड के शासक भी यदि मिलकर प्रयत्न करे तो भी वे तुझे पकड नही नबने । इतना चतुर और प्रतिभाशाली है तू ।” किन्तु बेटा । अपने पिता की अन्तिम बात को कभी न भूलना कि तकनी किनी माध के समीप मत जाना और उमकी बात न मुनना । मैं Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम चोर नहीं हो तुझे आशीर्वाद देता हूँ और कहता हूँ कि यदि तूने मेरी इस बात का विस्मरण न किया तो तू कभी वन्धन मे नही पडेगा।" पुत्र ने यह वात हृदय मे धारण करली। पिता ने छुट्टी ली। अव दो अद्भुत व्यक्तियो की होड आरम्भ हुई। रोहिणेय चोर अपने चौर कर्म मे अद्वितीय था ही । दूसरी ओर था स्वय मन्त्रीश्वर अभयकुमार जिसके नाम से समस्त आर्यावर्त्त थर्राता था। रोहिणेय चोर खुले आम. दिन-दहाडे नगर मे आता और अवसर पाकर इतनी चतुराई से चोरो करके हवा हो जाता कि किसी को उसको जया के भी दर्शन न हो पाते । उसके द्वारा की गई चोरी का कोई प्रमाण मिलाने का तो प्रश्न ही नहीं था। __ अद्भुत बुद्धि का धनी अभयकुमार भी हैरान था और अवसर की ताक मे था । उन्ही दिनो भगवान महावीर विचरण करते हुए उस नगरी मे पधारे थे ओर नगर से बाहर राजमार्ग के समीप ही उपदेश दिया करते थे। रोहिणेय के आवागमन का मार्ग भी वही था और उसे अपने पिता के वचन याद थे'कभी किसी माधु की वात सुनना नहीं ।' अत रोहिणेय जव भी इस मार्ग से गुजरता था तव अपने कानी मे अंगलियाँ डालकर शीघ्रता से निकल जाया करता था। नयोग की बात है कि एक दिन उधर से निकलते समय रोहिणेय के पैर मे काँटा चुभ गया । बडी पीडा हुई । कॉटा निकालने के लिए उसने एक हाथ अपने कान पर से हटाया, काँटा निकाला और आगे बढ गया । किन्तु उतने अल्प समय मे ही उसके कान मे भगवान के वचन पडे"देवताओ के गले की माला कभी मुरझाती नही। उनके पालक कभी झपकते नहीं। उनके शरीर पर पमीना इत्यादि जमता नही ।" ___ रोहिणेय ने इतनी वात सुनी, सोचा कि कोई विगेप वात नही, और आगे बढ गया। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ राज्य मे चोरियाँ होती रही । सभी जानते थे कि चोर कोन है, किन्तु प्रमाण नही मिलता था। यह क्रम चलता रहा और अभयकुमार गम्भीर विचार करता रहा। आखिर उसने एक युक्ति खोज ही निकाली। रोहिणेय को अपने महल मे बुलाकर कहा "तुम्हारा नाम क्या है ? तुम क्या काम करते हो ? कहाँ रहते हो ?" रोहिणेय ने उत्तर दिया “मन्त्रीश्वर | गरीब आदमी का क्या नाम और क्या धाम ? जो चाहे सो कह लीजिए । वैसे लोग मुझे दुर्गचन्ड कहते है और मै शालिग्राम नामक समीप के ही एक ग्राम मे पड़ा रहता हूँ। कभी-कभी इस नगर मे आ जाता है और बुद्धि के अनुसार परिश्रम करके अपना पेट भर लेता हूँ।” ___ चतुर मन्त्रीश्वर को चतुर चोर से पाला पड़ा था। मन ही मन वे मुस्कगते रहे और फिर बोले__“अच्छा दुर्गचन्ड | आज तुम मेरा ही आतिथ्य स्वीकार करो।" रोहिणेय ने सोचा-नेकी और पूछ-पूछ । आनन्द रहेगा। मन्त्रीश्वर का आतिथ्य भी ग्रहण करूंगा और जाते-जाते इन्हे कुछ प्रसाद भी देता जाऊँगा । उसने स्वीकार कर लिया । मन्त्रीश्वर अभय ने रोहिणेय को खातिर मे कोई कमर उठा नही रखी। उत्तम, मुस्वादु, मधुर मदिरा उसे इतनी पिला दी कि वह अपना माग भान भूल बैठा । मस्त होकर गहरी नीद मे मो गया । अब अभयकुमार ने अपनी चतुराई दिखानी आरम्भ की। मोते हुए रोहिणेय को उठाकर एक आलीशान मतखण्डे महल में ले जाया गया। इस महल बी शोभा और मज्जा इन्द्र के महलो जैसी थी। देवागनाओ जैमी म्पनी दामियो की म्पधी मे जगर-मगर करते उम महल मे जब रोहिणेय की ऑख खली तव चक्ति विम्मित-हतप्रभ रह गया। वह सोचने लगामैं इन देवलोक मे कब और दम आ गया ? ये मारी देवियाँ मेरी मेवा मे ।। बब उपस्थित हो गई? Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम चोर नहीं हो रोहिणेय को जागा हुआ देखकर देत्रिया - ::- करने लगी। कोई चरण दबाने लगी. को: पंजा नानी -- मुनाने लगी. कोई नृत्य दिखाने लगी और बोई जाने -- --::---. शरो से वीधने लगी । ___ उस समय एक देव प्रतिहार स्वर्ण-वाड व मेनिन और पर्यक पर आराम ने लेटे हुए रोहिणेय ने बोला “हे देव ! इस देवलोक मे आपका स्वागत है। आप देवता बने है। इस देवलोक की पपिाठी के अनुसार दिन पाप-पुण्य का वर्णन एक-वार करने ती कृपा कीजिए और किना --- इस देवलोक मे इन देवियों के साथ यथेच्छ विहार कीजिए । महाग गीघ्र ही आपले भेट करेगे । विलक्षण बुद्धि वाले मन्त्री अभयकुमार की यह बाल नापन होने की वाली थी और रोहिणेय अपने विगत जन्म का लेखा-जोखा ने ही बान कि उसे महावीर का वचन याद आया-देवताओ के गले नाना जी मुरझाती नहीं, उनके पलक कभी झपकते नहीं · · । और रोहिणेय सावधान हो गया। उसने देखा कि इन देवियो। पलक तो झपक रहे है । वह नव कुछ समझ गया। जान गया कि यह माग इन्द्रजात उन अद्भुत बुद्धि वाले मन्त्री का ही रचा हुआ है। मैं पकड मे आ ही गया था, किन्तु नगवान के वे थोड़े से वचन जोकि मेरे कानो मे अकस्मात् पड़ गए थे. आज मेरे ग्क्षक सिद्ध हुए। मुस्कराते हुए रोहिणेय ने मन्त्रीश्वर को अपना प्रणाम कहलवाया और प्रार्थना की कि गरीव दुर्गचन्ड को शालिग्राम जाने की आजा मिले । __ भगवान की कृपा के सामने चतुर मन्त्रीश्वर हार गए। वे चाहते थे. उनकी योजना थी कि भुलावे मे पड़कर रोहिणेय अपने ही मुख मे अपना अपराध स्वीकार करले ताकि उसे समुचित दण्ड दिया जा सके। किन्तु वैमा नहीं हुआ। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएं निदान प्रमाण के अभाव मे रोहिणेय को दण्ड नही दिया जा सकता था । वह मुक्त कर दिया गया। किन्तु अव रोहिणेय का हृदय परिवर्तित हो गया था। भगवान की कृपा-किरण ने उसके आत्मलोक को प्रकाशित कर दिया था। अन्धकार से वह प्रकाश मे लौट आया था । अत स्वेच्छा से वह मम्राट श्रेणिक की सेवा मे उपस्थित होकर हाथ जोडकर बोला “सम्राट | मुझे अपने द्वारा किए हुए कुकर्मो के लिए आज आन्तरिक पश्चात्ताप है । मैं स्वयं ही अपने पाप-कर्म का दण्ड प्राप्त करने के लिए आपकी सेवा मे उपस्थित हुआ हूँ। आप मेरे विरुद्ध कोई प्रमाण प्राप्त नही कर सके, कभी कर भी नही सकते थे। किन्तु, प्रभु । मैं चोर हूँ । समीप ही वैभार गिरि की कन्दराओ मे मेरे द्वारा चुराई गई सारी सम्पत्ति सुरक्षित पडो है । उसे मँगा लीजिए । मुझे अब उसकी कोई आवश्यकता नहीं। मेरे पिता ने मृत्यु से पूर्व मुझे शिक्षा दी थी कि किसी साधु की बात कभी मत सुनना। किन्तु मेरे पुण्योदय मे एक वार भगवान महावीर का वचन मेरे कानो मे पड़ गया था और आज उसी वचन ने मेरे प्राणो की रक्षा कर ली। प्राणो की रक्षा ही क्या, मेरी आत्मा को ही उन वचनो ने उवार लिया है । सम्राट । जिनके वचन मात्र इतने पुण्यकारक है, उन्ही की शरण मे अब मुझे जाना है । स्वीकार करता हूँ कि मेरा ही नाम रोहिणेय है, मुझे दण्ड दीजिए, मै चोर हूँ ।” सम्राट श्रेणिक ने कहा"तुम चोर नही हो । कभी रहे होगे । जाओ तुम मुक्त हो।” Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IS यह सुख-दुःख का द्वार किसी आदमी के पास एक थी गाय और एक थी भेड । दोनो की सारसम्हाल वह भली प्रकार से करता था । समय पर उन्हे चारा आदि डालता और समय पर ही पानी पिलाने का भी ध्यान रखता । समय आने पर गाय ने एक बछडे को जन्म दिया और भेड ने एक मेमने को । धीरे-धीरे वछडा और मेमना बड़े होने लगे । लेकिन उनके मालिक को जितनी चिन्ता मेमने की रहती थी, उतनी बछडे की नही । मेमने के प्रति उसका कुछ विशेष ही लगाव और पक्षपात था । फलत अच्छे पौष्टिक आहार मिलने तथा विशेष सार-सम्हाल होने के कारण मेमना बहुत जल्दी हो हृष्ट-पुष्ट होने लगा । वछडा बेचारा अपनी बडी-बडी आँखो से यह मारा दृश्य देखता, मन मार कर रह जाता और मेमने से ईर्ष्या करता किन्तु जानवर था, विवश था, अपने मालिक का वह क्या बिगाड सकता था ? वछडे को अपने प्रति मालिक के इस उपेक्षा भाव से इतना दुख और मेमने के प्रति ईर्ष्या हुई कि धीरे-धीरे उसने अपनी माँ का दूध पीना भी छोड दिया । इससे गाय को वडा आश्चर्य हुआ । उसने अपने बेटे से पूछा “क्यो बेटा, तुझे क्या हो गया ? तूने दूध पीना क्यो छोड दिया ? तव बछडे के हृदय मे भरे हुए सारे भाव सहज ही फूट पडे - " माँ ' अपना यह मालिक वडा कृतघ्न निकला । तुम इसे अमृत के समान मधुर ३५ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ दूध देती हो । इम परोपकार को करते हुए तुम्हारा बच्चा भी भूखा रह जाता है । तुम्हारी अन्य सन्तान खेती वाडी मे इसके काम आती है | अथक परिश्रम करती है | शायद ही कोई अन्य ऐसा पालतू पशु हो, जो मानव जाति की इतनी सेवा करता हो । किन्तु फिर भी अपना यह मालिक अपने मारे उपकार को भुलाकर उस भेड के बच्चे की ओर पक्षपात करता है । हमे न अच्छा चारा मिलता है, न स्वच्छ स्थान । दूसरी ओर जरा देख तो मही, उस भेड के बच्चे की वह कैसी देखरेख करता है ? उसे कितना अच्छा खाना देता है ? उसके रहने के स्थान को कैसा स्वच्छ रखता है ? ૨૬ "माँ 1 तू ही बता, यह मेमना उस मालिक के किस काम आने वाला है ? यह भेड का पिल्ला इसकी क्या सेवा करने वाला है । यह तो पूर्णत निरुद्यमी, निरुपयोगी और व्यर्थ है । फिर भी आवभगत होगी तो उसी आलमी की । उसे खाने के लिए ओदन दिया जायगा, हरी-हरी कोमल घाम उसे खिलाई जायगी । उसे इतना प्यार किया जायगा जैसे वह मालिक का अपना ही बच्चा हो । भला यह अन्याय नही है क्या ?" गाय समझदार थी, सरल ओर सन्तोपी जीव थी । अपने बेटे की ये रोप भरी बातें सुनकर उसने उसे समझाया - "वेटा । दूसरे का मुख देखकर ईर्ष्या करना अच्छा नही । यह तो ससार है । इस संसार मे न जाने कितने अकर्मण्य जीव मजे मे मुख का भोग कर रहे है, ओर न जाने कितने कर्मशील जीव दुख ही पाते रहते है । बेटा, हमे तो मन्तोप रखना चाहिए । हम जैसे भी हो, जिस स्थिति मे भी हो, चुपचाप अपना काम करते चलना चाहिए। दूसरो के मुख को देखकर जलना नही चाहिए आर दूसरों के दुख को देखकर प्रसन्न भा नहीं होना चाहिए। अपने हाल मे ही मग्न रहना चाहिए।" "और वेटा, ध्यान से सुन, तू नही जानता कि इस मेमने की इतनी मेवाटहल क्यों हो रही है। तु अभी दुनियाँ में आया है, सब कुछ धीरे-धीरे समझ जायगा । इन मेमने को जो खिला-पिला कर मोटा - ताजा किया जा रहा है. इसका रहस्य तुझे थोडे दिन मे आने वाले एक पर्व के अवसर पर समझ में आ जायगा ।" Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुख-दुख का द्वार पर्व का दिन भी आ पहुँचा । मालिक के घर मे मेहमान आए। उत्सव की तैयारियाँ होने लगी। मेमने को सजाकर ऑगन मे खडा किया गया । उसके पास नगी लपलपाती तलवार लिए एक आदमी खडा था। वह तलवार देखकर भयभीत मेमना “मे - मे" करके चिल्लाने लगा । किन्तु उसको चिल्लाहट को किसी ने नहीं सुना। उसकी यही नियति थी कि एक दिन उसे वलि होकर उन मॉसभक्षी मनुष्यो के उदरो मे समा जाना था । बण्डा भी तलवार देखकर भयभीत होकर अपनी माँ से चिपट गया था। किन्तु गाय ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा "बेटा ! तू मत घवरा । यह तलवार अपने लिए नही है। यह तो उस मेमने के ही लिए है, जोकि अब तक सुख-भोगो मे लिप्त था । अनर्गल सुख की लालसा और भोग ही प्राणी को मृत्यु को समीप खीच लाते हे । अव तो तेरी समझ मे आ ही गया होगा कि क्यो उस मेमने की इतनी आवभगत होती थी ?" मनुष्य को अति सुख और अति भोग से सदैव बचते रहना चाहिए । अन्ततोगत्वा वे दु ख के ही कारण बनते है । इसके विपरीत जो सरल प्रकृति जन संयम से रहते है, सन्तोष धारण करते है तथा जैसी भी परिस्थिति हो, उसी मे अपनी गुजर करते चलते है, उन्हे कभी निराश नही होना पड़ता और वे दुख के नरक से भी बच जाते है। - उत्तराध्ययन Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्या हुआ ? एक बार भगवान महावीर चौदह हजार साधुओ सहित राजगृह नगर मे पधार कर गुणशील नामक चैत्य मे विराजे । राजा श्रेणिक परिपद् महित उनके दर्शन करने गया । धर्मोपदेश सुनने के बाद परिपद् लौट गई। ___ उस काल की एक घटना है। सौधर्मकल्प मे, दर्दुरावतंसक विमान मे, मुधर्मा नामक सभा मे, ददुर नामक सिहासन पर दर्दुर नामक देव चार हजार सामानिक देवो, चार अग्रमहिपियो और तीन परिपदो, अर्थात् अपने सम्पूर्ण परिवार सहित दिव्य भोगोपभोग करता हुआ रहता था। वह देव अवधिज्ञानी था ही । अपने विपुल अवधिज्ञान से इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को देखते-देखते उसने राजगृह नगर मे, गुणशील चैत्य मे भगवन महावीर को देखा। उसकी इच्छा भगवान के दर्शन करने की हुई । अत वह अपने परिवार सहित भगवान के पास आया और सूर्याभदेव के समान नाट्य विधि दिखाकर वापस लौट गया। कुछ समय वाद गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किया "हे भगवान् । यह दर्दुरदेव महा ऋद्विवान है। किन्तु उस देव की विक्रिया की हई वह दिव्य देव-ऋद्वि कहाँ चलो गई ? वह कहाँ समा गई?" भगवान ने उत्तर दिया Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्या हुआ ? " हे गौतम | वह ऋद्धि शरीर मे समा गई । क्या तुम्हे कूटागार का दृष्टान्त ज्ञात नही है ? देखो एक कूट (शिखर) के आकार की शाला थी । वह बाहर से गुप्त थी किन्तु भीतर से अत्यन्त विशाल थी । उसके चारो ओर कोट था । वह इतनी सुरक्षित थी कि उसमे वायु का प्रवेश भी नही हो सकता था । उसके समीप ही वडा जन-समूह रहता था। एक बार बहुत जोर से वादल उमडे ओर तूफान आया । ऐसी विषम परिस्थिति में वह सारा जन-समूह उस शाला मे घुस गया और निर्भय हो गया । इस प्रकार जैसे वे सब लोग उस शाला मे समा गए उसी प्रकार वह देवऋद्धि भी देव शरीर मे समा गई ।" गोतम स्वामी इस उत्तर से सन्तुष्ट हो गए। किन्तु उनके मन मे एक और जिज्ञासा जागी । उन्होने भगवान से पूछा "हे भगवन् 1 दर्दुर देव ने वह देवद्धि किस प्रकार को साधना द्वारा प्राप्त की ?" केवलज्ञानी भगवान ने गौतम स्वामी की उस जिज्ञासा को भी शान्त करने के उद्देश्य से वह सारी कथा उन्हे सुनाई " हे गौतम । इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र मे राजगृह नामक एक समृद्ध नगर था । उस नगर का राजा उस समय श्रेणिक था । उस नगर मे नन्द नामक एक मणिकार सेठ रहता था । एक वार अनुक्रम से विचरण करते हुए मैं उस नगर मे आया । वहाँ जाकर मैं गुणशील चैत्य मे ठहरा | अन्य लोगो के साथ वह मणिकार नन्द भी मेरे दर्शन करने आया । धर्मोपदेश सुनकर वह श्रमणोपासक हो गया । कुछ समय पश्चात् मै राजगृह त्याग कर जनपद में विचरण करने लगा । मनुष्य का स्वभाव ऐसा है गौतम । कि यदि वह किसी कार्य को निरन्तर न करता रहे, अथवा किसी जानी हुई वात का स्मरण निरन्तर न करता रहे तो कुछ समय पश्चात् वह उसे भूल जाता है । नन्द मणिकार के साथ भी ऐसा ही हुआ । मेरे चले जाने के वाद बहुत समय तक उसे साधु Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ दर्शन का लाभ प्राप्त नही हुआ । उपदेश सुनने से भी वह वचित रहा । परिणाम यह हुआ कि उसकी रुचि वदल गई । रुचि वदल जाने से उसके सम्यक्त्व के पर्यायो की हीनता होती चली गई और मिथ्यात्व के पर्याय बढते चले गए । होते-होते एक दिन ऐसा भी आया कि वह पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी हो गया । ४० एक बार उसने तेला व्रत ग्रहण किया । ग्रीष्म ऋतु थी, ज्येष्ठ का महीना था । व्रत ग्रहण करके वह पोपधशाला मे विचरण करने लगा । अब हुआ यह कि जब उसका व्रत पूर्ण होने को था, तभी वह भूख और प्यास से बहुत पीडित हुआ । उस पीडा के परिणामस्वरूप उसके मन मे यह विचार आया—वे सार्थवाह आदि धन्य है, भाग्यवान है, जिनकी राजगृह नगर से बाहर बहुत-सी बावडियाँ, पुष्करिणियाँ अथवा सरोवरो की पक्तियाँ है । उनसे बहुत से लोगो को सुख मिलता है । लोग उनके जल से स्नान करते है, पानी पीते हे-ओर अपने शरीर का ताप मिटाते है । अत. में भी कल प्रभात होने पर राजा से आज्ञा लेकर नगर से बाहर एक सुन्दर पुष्करिणी बनवाऊंगा । मन ही मन अपनी पुष्क यह विचार करते-करते नन्द मणिकार ने रिणी के लिए स्थान का निश्चय भी कर लिया । उसने तय किया कि वह उत्तर-पूर्व दिशा में, वैभार पर्वत के समीप ही अपनी पुष्करिणी बनावाएगा। उम पुष्करिणी का छोटा-सा सुन्दर सा नाम वह रखेगा -- नन्दा | वह दिन समाप्त हुआ । उसका पोपध व्रत पूर्ण हुआ । स्नानादि स निवृत्त होकर उसने राजा के लिए कुछ बहुमूल्य उपहार लिए और उनकी नेवा मे पहुँचा । राजा को उपहार समर्पित कर उसने अपनी अभिलापा प्रकट वी 'हे राजन् | मैं आपकी आज्ञा पाकर नगर से बाहर एक पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ ।" राजा को इस शुभ कार्य मे भला क्या आपत्ति हो सकती थी ? नन्द रिकी प्राथना स्वीकार करते हुए उसने कहा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्या हुआ = "नन्द | तुम्हारा विचार शुभ है । मेरा चार में तुम्ह राजा से आज्ञा प्राप्त हो जाने पर शुभ मु ज्ञाताओ द्वारा चुनी गई भूमि में मगन विधि-विधान खोदे जाने का कार्य आरम्भ हो गया । Serge धीरे-धीरे पुष्करिणी बनकर पूर्ण मोहरीर कोटा भी बना दिया गया । उसका जन बीतन ही समय मे उस वापी मे अनेक प्रकार के कमलमा थिए । अब उस वापी की शोभा देखते ही बनती थी। से उस वापी का जल सदैव सुगन्धित रहने लगा । श्रमण से ग अनेक पक्षियो के मधुर कलरव से वह वापी गुजायमान रहने लगा। हारा-थका व्यक्ति वहाँ पहुँच जाता वह कुछ ही क्षणा में स्वय आनन्द मे मग्न हो जाता । ****** हे गौतम | वह नन्द मणिकार अपनी धुन का पक्का था। वापी खुदवा कर हो सन्तोष नही हुआ । अब उसने वापी के ना चारो दिशाओ मे चार सुन्दर वन खण्ड रूपवाए । निरन्तर उन वन गশ की देख-रेख तथा सार - सम्हाल करने के कारण वे धीरे-धीरे अत्यन्त मनोरम, सघन, हरे-भरे हो गए । अनेक प्रकार के फूल और फन उनमे लगने लगे । इतना सब हो जाने पर नन्द मणिकार ने अपनी प्रिय 'नन्दा' नामक वापी को ओर भी अधिक सुसज्जित तथा आरामदेह बनाने का विचार किया। इस निश्चय के अनुसार उसने पूर्व दिशा के वनखण्ड मे एक विशाल चित्रसभा का निर्माण कराया । कई सौ खम्भों पर टिकी हुई वह विशाल चित्रसभा अत्यन्त मनोहर और भव्य बन गई । वहुमूल्य रेशमी वस्त्रो के परदे स्थान-स्थान पर लगाए गए । कला को प्रदर्शित करते हुए अनेक चित्रो से उसे सजाया गया । उसके वाद चित्रसभा मे अनेक सुखद आसन विछ्वाए गए। लोग आते, वापी का शीतल और मधुर जल पीते, चित्रसभा मे आकर विश्राम करते और आनन्द मनाते । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ दर्शन का लाभ प्राप्त नही हुआ । उपदेश सुनने से भी वह वचित रहा। परिणाम यह हुआ कि उसकी रुचि वदल गई । रुचि बदल जाने से उसके सम्यक्त्व के पर्यायो की हीनता होती चली गई और मिथ्यात्व के पर्याय बढते चले गए। होते-होते एक दिन ऐमा भी आया कि वह पूर्ण रूप से मिथ्यात्वी हो गया। एक बार उसने तेला व्रत ग्रहण किया। ग्रीष्म ऋतु थी, ज्येष्ठ का महीना था । व्रत ग्रहण करके वह पोपधशाला में विचरण करने लगा। अब हुआ यह कि जब उसका व्रत पूर्ण होने को था, तभी वह भूख और प्यास से बहुत पीड़ित हुआ। उस पीडा के परिणामस्वरूप उसके मन मे यह विचार आया-वे सार्थवाह आदि धन्य है, भाग्यवान है, जिनकी राजगृह नगर से वाहर बहुत-सी बावडियाँ, पुष्करिणियाँ अथवा सरोवरो की पक्तियाँ है। उनसे बहुत से लोगो को सुख मिलता है। लोग उनके जल से स्नान करते है, पानी पीते है और अपने शरीर का ताप मिटाते है । अत मैं भी कल प्रभात होने पर राजा से आज्ञा लेकर नगर से वाहर एक सुन्दर पुष्करिणी बनवाऊंगा। यह विचार करते-करते नन्द मणिकार ने मन ही मन अपनी पुष्करिणी के लिए स्थान का निश्चय भी कर लिया। उसने तय किया कि वह उत्तर-पूर्व दिशा मे, वैभार पर्वत के समीप ही अपनी पुष्करिणी बनावाएगा। उस पुष्करिणी का छोटा-सा सुन्दर-सा नाम वह रखेगा-नन्दा । वह दिन समाप्त हुआ। उसका पौपध व्रत पूर्ण हुआ। स्नानादि से निवृत्त होकर उसने राजा के लिए कुछ वहुमूल्य उपहार लिए और उनकी सेवा मे पहुँचा। राजा को उपहार समर्पित कर उसने अपनी अभिलापा प्रकट की "हे राजन् । मैं आपकी आज्ञा पाकर नगर से बाहर एक पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ।" राजा को इस शुभ कार्य मे भला क्या आपत्ति हो सकती थी? नन्द मणिकार की प्रार्थना स्वीकार करते हुए उसने कहा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्या हुआ ? ४१ "नन्द | तुम्हारा विचार शुभ है । मेरी ओर से तुम्हे आज्ञा है ।" राजा से आज्ञा प्राप्त हो जाने पर शुभ मुहूर्त्त मे, शिल्पशास्त्र के ज्ञाताओ द्वारा चुनी गई भूमि मे मंगल विधि-विधान पूर्वक पुष्करिणी के खोदे जाने का कार्य आरम्भ हो गया । धीरे-धीरे पुष्करिणी बनकर पूर्ण भी हो गई । उसके चारो ओर परकोटा भी बना दिया गया । उसका जल वडा शीतल और मधुर था । थोडे ही समय मे उस वापी मे अनेक प्रकार के कमल भी खिल आए । अव उस वापी की शोभा देखते ही बनती थी । कमल-पुष्पो के पराग से उस वापी का जल सदैव सुगन्धित रहने लगा । भ्रमरो की गुंजार तथा अनेक पक्षियों के मधुर कलरव से वह वापी गुंजायमान रहने लगी । जो भी हारा-थका व्यक्ति वहाँ पहुँच जाता वह कुछ ही क्षणो मे स्वस्थ होकर आनन्द मे मग्न हो जाता । हे गौतम | वह नन्द मणिकार अपनी धुन का पक्का था । उसे केवल वापी खुदवा कर ही सन्तोष नही हुआ । अव उसने वापी के चारो ओर चारो दिशाओ मे चार सुन्दर वन खण्ड रूपवाए । निरन्तर उन वन खण्डो की देख-रेख तथा सार-सम्हाल करने के कारण वे धीरे-धीरे अत्यन्त मनोरम, सघन, हरे-भरे हो गए । अनेक प्रकार के फूल और फल उनमे लगने लगे । इतना सब हो जाने पर नन्द मणिकार ने अपनी प्रिय 'नन्दा' नामक वापी को और भी अधिक सुसज्जित तथा आरामदेह बनाने का विचार किया । इस निश्चय के अनुसार उसने पूर्व दिशा के वनखण्ड मे एक विशाल चित्रसभा का निर्माण कराया । कई सौ खम्भों पर टिकी हुई वह विशाल चित्रसभा अत्यन्त मनोहर और भव्य वन गई । बहुमूल्य रेशमी वस्त्रो के परदे स्थान-स्थान पर लगाए गए। कला को प्रदर्शित करते हुए अनेक चित्रो से उसे सजाया गया । उसके वाद चित्रसभा मे अनेक सुखद आसन विध्वाए गए। लोग आते, वापी का शीतल और मधुर जल पीते, चित्रसभा में आकर विश्राम करते और आनन्द मनाते । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएं नन्द मणिकार ने इसके बाद दक्षिण दिशा में एक विशाल भोजनशाला वनवाई। जीविका प्रदान करके उसमे अनेक पाक-शास्त्रियो को रख दिया । जो भी दरिद्र, भिखारी, अतिथि अथवा ब्राह्मण उधर आते उन्हे सुस्वादु भोजन भी प्राप्त होने लगा। हे गोतम, उस नन्द मणिकार ने अपने मन में यह निश्चय कर लिया था कि जब उसने एक शुभ कार्य आरम्भ कर ही दिया है तो अब उसे पूर्णता तक ले जाएगा । किसी भी प्रकार की कमी न रहने देगा। अत उसने अब पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चिकित्साशाला बनवाई। उसमे उसने अनेक वैद्य रखे । औपधियाँ मँगवाई। इस प्रकार जो भी रोगी व्यक्ति वहाँ आता उसकी नि शुल्क चिकित्सा भी हो जाती ओर वह नन्द मणिकार को आशीर्वाद देता हुआ स्वस्थ होकर अपने घर लौट जाता। और अन्त मे सेठ की आज्ञा से वापी के उत्तर दिशा के वन-खण्ड मे एक बडी अलकार सभा भी बनवाई गई। उस सभा मे अनेक दीन-दरिद्रो को समुचित अलकार दिए जाते । इस प्रकार उस नन्द मणिकार ने जो कार्य हाथ मे लिया उसे बडे अच्छे रूप मे पूर्ण भी कर दिया। इस प्रकार प्रतिदिन अनेक लोग उस नन्दा पुष्करिणी में स्नान करते, वहाँ विश्राम करते, विहार करते, भोजनादि प्राप्त करते, औषधि प्राप्त करते, वस्त्रादि प्राप्त करने और आनन्द मनाते । इस मत्कार्य की चारो ओर प्रशंसा होने लगी। लोग नन्द मणिकार का माधुवाद करते और उसे 'धन्य धन्य' कहते, आशीर्वाद देते । इस प्रकार राजगृह नगर की गली-गली मे उम नन्द मणिकार की जय-जयकार होने लगी। नन्द मणिकार भी अपने श्रम ओर सम्पत्ति का यह सदुपयोग कर बहुत सन्तुष्ट हुआ।" इननो क्या मुनने के बाद गातम म्बामो की जिनामा बढ गई थी। वे जानना चाहते थे कि इसके बाद क्या हुआ होगा ? अत उन्होने नगवान में कहा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्या हुआ ? “हे भगवान् । यह कथा तो बडी रोचक है इसके बाद उस नन्द मणिकार ने क्या किया होगा?" भगवान ने गोतम स्वामी को फरमाया-"गोतम ! उसके आगे का वृत्तान्त ही तो इस कथा का मुख्य विन्दु है । उसे ध्यान से सुनो। वापी का कार्य पूर्ण हो जाने के बाद नन्द मणिकार का जीवन सुख से व्यतीत होने लगा। किन्तु, हे गोतम, समय कभी एक समान नहीं रहता। काल-चक्र चलता ही रहता है और उसमे उतार-चढाव आते ही रहते है। हुआ यह कि कुछ समय बाद नन्द मणिकार अस्वस्थ हो गया । उसके शरीर मे सोलह रोगातक अर्थात् ज्वर आदि रोग और शूल आदि आतक उत्पन्न हुए। वह पीडित हो गया। उसे श्वास, खाँसी, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल आदि हो गए । सक्षेप में, उसका शरीर सभी प्रकारो के रोगो का घर बन गया । यहाँ तक कि वह कोढ से भी ग्रसित हो गया । वे रोग गहरे और असाध्य थे । कोई आशा नही थी कि वह नीरोग हो सकेगा । फिर भी उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषो को बुलाकर कहा "सारे नगर मे घोषणा करा दो कि जो भी वैद्य नन्द मणिकार के एक भी रोग को दूर कर देगा उसे विपुल धनराशि प्रदान की जायगी।" घोषणा हो गई। मणिकार नगर मे जनता का प्रिय था। उसके सत्कर्मों के कारण सव उसका आदर करते थे। अत' उसकी पीडा का समाचार जानकर अनेक वैद्य और चिकित्सक स्वेच्छा से ही उसके रोग को शान्त करने का उपाय करने के लिए दौडे आए। अनेक प्रकार के उपचार अनेक वैद्यो द्वारा किए गए। कुछ भी उठा न रखा गया। किन्तु किसी भी उपचार से रोगी की पीडा शान्त नही हुई। "हे भगवान । क्या इतने उपचार द्वारा भी उस नन्द मणिकार का तनिक भी रोग शान्त नहीं हो सका ?'-गौतम स्वामी ने पूछा। “कर्मों की शक्ति के आगे मनुष्य का प्रयत्न निष्फल रहता है, गौतम । नन्द मणिकार को अपने पूर्वकृत कर्मा का फल भोगना ही था। अत सभी प्रकार के उपचारो के उपरान्त भो उसका एक भी रोग शान्त नहीं हुआ। वैद्य निराश हो गए और अपने-अपने स्थान को लौट गए। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ इसके बाद उन सोलह रोगातको से अभिभूत हुआ नन्द मणिकार उस 'नन्दा' नामक पुष्करिणी मे अतीव मूच्छित हुआ । इस कारण तिर्यञ्च योनि सम्बन्धी आयु का बन्ध करके, आर्तध्यान के वशीभूत होकर, मृत्यु के समय काल करके वह उसी वापी मे एक मेढकी की कुख मे एक मेढक के रूप मे उत्पन्न हुआ । ४४ धीरे-धीरे जन्म लेकर, वात्यावस्था से मुक्त होकर, यौवन को प्राप्त करके वह उस वापी मे रमण करने लगा । मैने तुम्हे पहिले ही बताया है कि उस वापी मे प्रतिदिन अनेक लोग आकर स्नानादि किया करते थे । वे लोग जब वहाँ आते तो आपस मे वार्तालाप किया करते थे - " अहा । कितनी सुन्दर वापी है । इसका निर्माण कराने वाला नन्द मणिकार धन्य था । उसका जीवन सफल हुआ । लोगों के सुख के लिए उसने कितना त्याग किया ।" इसी प्रकार की अनेक बाते प्रतिदिन वहाँ आने वाले लोग किया करते थे। बार-बार इन बातो को मुख से सुनकर उस मेढक को विचार हुआ - जान पडता है मैंने इस प्रकार के वचन पहिले भी कभी सुने हे । इस प्रकार निरन्तर विचार करने से, शुभ परिणाम के कारण उस मेढक को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । ओर वह ज्ञान उत्पन्न होने के कारण उसे अपना पूर्व भव अच्छी तरह याद हो आया । तब उसने विचार किया - हाय । मैं इसी राजगृही नगरी में नन्द मणिकार था । मैने भगवान महावीर से पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत ग्रहण किये थे । यह मेरा परम सौभाग्य था । किन्तु कुछ समय तक साधु दर्शन न पाने से मैं भटक गया था, भूल गया था और मिथ्यात्वी हो गया था । किमी अशुभ कर्म के परिणामस्वरूप ही ऐसा हुआ था । इसके बाद मैने यह 'नन्दा' नाम की पुष्करिणी बनवाई और अन्त समय मे इसके प्रति अत्यन्त आसक्ति के कारण मैं इसी में मेढक के रूप मे उत्पन्न हुआ । हाय । यह बहुत बुरा हुआ । में अधन्य हूँ, अपुण्य है, क्योकि मै निग्रन्थ प्रवचन से भ्रष्ट हुआ יין यह विचार मन मे उदित होने के बाद उस मेढक ने निश्चय कियामुझे फिर से पहिले अगीकार किए हुए पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षात्रत ग्रहण करने चाहिए। इनका दृढता से पालन करना चाहिए । तब निश्चय Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्या हुआ ? ४५. के अनुसार उसने उन व्रतो को पुन अंगीकार किया। साथ ही उसने यह अभिगह भी धारण किया कि आज से मृत्यु पर्यन्त मुझे वेले-वेले की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरना कल्पता हे । देखो गौतम । जब शुभ कर्मो का उदय होता है तो जीव स्वयं ही कल्याण के पथ पर आगे वढता है । उस मेढक ने अव व्रत ग्रहण कर लिए और अभिगह धारण करके वह रहने लगा । यही से उसके विकास और भावी ऋद्धि का सूत्रपात होता है । एक बार अनुक्रम से विचरता हुआ मैं पुनः राजगृह आया । गुणशील चैत्य मे हो ठहरा । बन्दना करने के लिए परिपद् निकली। तुम जानते ही हो कि उस 'नन्दा' पुष्करिणो मे प्रतिदिन अनेक लोग आते थे। उस समय भी जो लोग वहाँ पर गए हुए थे उन्होने आपस मे बातचीत को 'अहा ! इस नगरी का पुण्योदय हुआ है । स्वयं भगवान महावीर यहाँ पधारे है । चलो, गीघ्र चलो। हम भी भगवान के दर्शन का पुण्य लाभ ले ले | हमारा यह भव और परभव इस पुण्य से शुभ हो जायगा । लोगो के मुख से यह समाचार सुनकर उस मेंढक ने भी निश्चय किया- अहा ! निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर पधारे है । तव मै भी क्यो न जाकर भगवान की वन्दना करू ? वह मेढक उस वापी से निकलकर भगवान के दर्शनों की अभिलापा और उत्कंठा अपने हृदय मे धारण किए हुए राजमार्ग पर आया और गुणशील उद्यान की ओर चल पडा । उधर राजा श्रेणिक भी मेरी वन्दना करने के लिए अनेक लोगो के माथ अपने महल से निकलकर राजमार्ग से होता हुआ चला आ रहा था । संयोग की बात है गौतम, कि राजा के अश्व के खुरो से वह मेढक कुचल गया। उसकी आँते बाहर निकल आई । अव वह मेढक विलकुल अशक्त हो गया । उसके जीवन की आशा न रही । यह देखकर वह किसी प्रकार मार्ग से एक ओर हट गया । वहाँ अपने दोनो हाथ जोडकर, तीन बार मस्तक पर आवर्तन करके, मस्तक पर अजलि करके वह इस प्रकार वोला Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ 'अरिहन्त भगवान को नमस्कार हो । निर्वाण प्राप्त समस्त मिट्टी को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो । पहिले भी मैने भगवान के समीप स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था, स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था। अब भी मैं उन्ही के निकट समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ।' 'मैं जीवन पर्यन्त के लिए सर्व अशम, पान, स्वादिम ओर खादिम चारो प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ।' 'यह जो मेरा गरीर है, जो मुझे बहुत इण्ट रहा है, जिसके विषय मैं मैंने चाहा था कि इसे कोई रोग आदि स्पर्श न करे, इसे भी मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास नक त्यागता हूँ।' इस प्रकार हे गौतम । यह कथा अब अपने चरम विन्दु तक पहुँच गई। उनके बाद क्या हुआ होगा यह क्या तुम विचार नही कर सकते ?भगवान ने गौतम मे पूछा। गांतम स्वामी ने उत्तर दिया "कर सकता है भगवन् । किन्तु आपके श्रीमुख से ही शेप भाग भी मुनना चाहता हूँ ।” "इनके बाद, गौतम । मृत्यु के समय काल करके वह मढक मौधर्म बच्प में, दर्दगवनमक विमान मे, उपपान सभा मे, दर्दुरदेव के म्प मे उत्पन्न हुआ। तुमने पूछा था न कि किस प्रकार यह दिव्य ऋद्धि उसे प्राप्त हुई ? अब इस क्था को अन्त तक सुनकर तुम्हारी जिजामा शाल हो गई न?" "हाँ भगवन् ! मैं जान गया कि किस प्रकार दर्दुरदेव को यह दिव्य देवधि प्रान हुई । मेरी जिज्ञासा शाल हुई 'भगवन् । देवता की एक ही छोटी-सी बात आर जानना चाहता हूँ प्रभो । दर्दरदेव की उस देवलोक मे विननी स्थिति कही गई है ?”- गौतम स्वामी ने अन्तिम प्रश्न किया । भगवान ने बताया Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर क्या हुआ ? " हे गौतम | उसकी स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। उसके बाद वह दर्दुरदेव आयु के क्षय से, भव के क्षय से, और स्थिति के क्षय से तुरन्त वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र मे सिद्ध होगा, बुद्ध होगा और जन्ममरण का अन्त करेगा । ४७ हे गौतम । स्मरण रखो - ममत्व दुर्गति का कारण है । भावशुद्धि से सद्गति की प्राप्ति होती है ।" -ज्ञातासूत्र Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रश्न और उत्तर एक बार भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नामक स्थविर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए राजगृह नगर मे पधारे। उनके साथ पाँच मी अनगार थे । आर्य सुधर्मा स्वामी उच्च जाति से सम्पन्न, उच्च कुल से सम्पन्न, चौदह पूर्वी के बना तथा चार ज्ञानों से युक्त थे । वे राजगृह नगर मे आकर गुणशील चैत्य मे विराज कर संयम और तप द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । सुधर्मा स्वामी की वन्दना करने परिषद् निकली । धर्म का उपदेश श्रवण करने के बाद परिषद् लोट गई । परिषद के लौट जाने पर सुधर्मा स्वामी के अन्तेवासी जनगार जम्न स्वामी ने एक प्रश्न किया। उस प्रश्न के उत्तर मे सुधर्मा स्वामी ने एक क्या कही "उस काल और उस समय मे एक नगर था, राजगृह । वहाँ गुणशील नामक एक नैत्य था । राजा श्रेणिक उस समय वहां शासन करता था। वह धार्मिक वृत्ति वाला था और पवित्र जीवन व्यतीत करता था। चेतना नाम की उसकी रानी थी। उस समय वहाँ पर एक बार भगवान महावीर पधारे। उनकी वन्दना पर निकली। भगवान ने धर्म का उपदेश दिया। ४= Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न और उत्तर उसी समय की बात है, चमरचंचा नामक राजधानी मे, काली नामक देवी, कालावतंसक भवन मे काल नामक सिंहासन पर विराजमान थी। वह देवी बडी ऋद्धि सम्पन्न थी। चार हजार सामानिक देवियों, चार महतरिका देवियो, परिवार सहित तीनो परिपदो, सात अनीको, सात अनीकाधिपतियो, सोलह हजार आत्मरक्षक देवो तथा उस कालावतंसक भवन के अन्य निवासी असुर कुमार देवो और देवियो के साथ परिवृत्त होकर वह सुखपूर्वक संगीत इत्यादि का आनन्द लेनी हुई विचरती थी। उस समय वह काली देवी अपने अवधिज्ञान द्वारा उस सम्पूर्ण जम्बू द्वीप को देख रही थी। उसने देखा कि इस द्वीप के भरत क्षेत्र मे राजगृह नगर के गणशील उद्यान मे संयम और तप से अपनी आत्मा को प्रकाशित करते हुए भगवान महावीर विराज रहे है। भगवान की परम मनोहर छवि को देख कर वह अत्यन्त आनन्दित और सन्तुष्ट हुई। उसका चित्त प्रसन्न हो गया, मन-प्रीति से भर गया। वह तुरन्त अपने सिंहासन से उठी, पादपीठ से नीचे उतरी, पादुका उतारकर वह तीर्थकर भगवान के सम्मुख आठ कदम आगे वढी । फिर उसने वाएँ घुटने को ऊपर रख और दाएँ घुटने को जमीन पर टेक कर मस्तक को कुछ ऊंचा करके, हाथो को जोडकर विधिपूर्वक, विनयपूर्वक इस प्रकार बोली _ 'सिद्रि को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तो को नमस्कार हो । सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो । यहाँ रही हुई मैं वहाँ स्थित भगवान की वन्दना करती हूँ, भगवान मुझे देखे ।' _देवी ने श्रद्धासहित भगवान को वन्दन किया और वन्दन के पश्चात् पूर्व दिशा की ओर मुख करके वह अपने सिंहासन पर विराजमान हो गई। देवी के मन मे अव तक भगवान की मनोहर छवि तैर रही थी। विचार करते-करते उसके मन मे यह इच्छा हुई कि वह स्वयं भगवान की सेवा मे उपस्थित होकर उनकी वन्दना तथा पर्युपासना करे । शीघ्र ही उसने इस विचार को निर्णय मे बदल दिया और आभियोगिक देवो को बुलाकर आज्ञा दी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएं "देवानुप्रियो । श्रमण भगवान महावीर इस समय राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में विराजमान है। मै उनको पर्युपासना करने जाना चाहती हूँ। "देवी का निर्णय शुभ है।" "शीघ्र ही दिव्य विमान तैयार करो । विलम्ब न हो।" आना का पालन तत्क्षण हुआ । एक हजार योजन के विस्तार वाला दिव्य और श्रेष्ठ विमान प्रस्तुत हुआ। उसमे आसीन होकर देवी भगवान की सेवा में जा पहुँची। भगवान की वन्दना कर, अपनी ऋद्धि से नाटक चार तथा उसे पुन. विलुप्त कर वह अपने स्थान पर लोट गई। उनके लौट जाने पर गौतम स्वामी ने भगवान से प्रश्न किया"हे भगवन् । काली देवी की वह दिव्य ऋद्धि कहाँ चली गई?" भगवान् ने कूटागार का दृष्टान्त देते हुए बताया "हे गोतम । एक कूट (शिखर) के आकार की शाला थी । वह बाहर ने दिखाई नहीं देती थी। किन्तु भीतर वह बहुत विस्तृत थी। उसके बाहर हजारो लोग रहते थे। एक बार जब भयानक तूफान आया तो उम जनममूह ने उम शाला मे शरण ली । मब लोग उममे समा गए । जिस प्रकार उन माला में वे सब लोग ममा गए, उसी प्रकार वह देव-ऋद्धि देवशरीर मे समा गई ।" इन प्रश्न का उत्तर पाकर गौतम स्वामी ने दूसरा प्रश्न किया "ह भगवान् । काली देवी वडी ऋद्धि वाली है। उन्हें यह ऋद्धि “मि प्रगर प्राप्त हुई ? उसने पूर्वभव मे ऐसा क्या पुण्य कार्य किया था ?" ___ तब भगवान ने काली देवी के पूर्व भव की कथा सुनाई "हे गौतम । किमी समय इम जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में आम्रकल्पा नाम की नगरी थी। वह नगरी इतनी सुन्दर, इतनी विशाल, टतनी श्री-सम्पद थी कि देवता भी उस नगरी मे आकर रहने की इच्छा करते थे। उन नग के बाहर ईगान कोण मे एक बन और ए चेत्य या। उस वन गनान या आम्रगाल बन । न ममय उन नगरी मे जितगत्र नामक गजा गन्नता था। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न और उत्तर ५१ “उसी समय उस नगरी मे काल नामक एक गाथापति ( गृहस्थ ) रहता था । वह अत्यन्त धनाड्य था । धन सम्पत्ति के विषय मे उसकी समता करने वाला कोई व्यक्ति उस नगरी मे नही था । उस गृहस्थ की पत्नी का नाम कालश्री था । वह अत्यन्त रूपवती थी । काल तथा कालश्री के काली नाम की एक कन्या थी । वह आयु मे बहुत वडी हो गई थी किन्तु अविवाहित ही रह गई थी । वृद्धा के समान वह दीखने लगी थी, अत कोई पुरुष उससे विवाह करने के लिए तैयार नही होता था । उस समय अरिहन्त भगवान पार्श्वनाथ सोलह हजार साधुओ तथा अडतीस हजार साध्वियो सहित आम्रशाल वन मे पधारे। उनके आगमन का सुसवाद सुनकर परिषद् निकली । काली ने भी यह सुसंवाद सुना । वह बडी प्रसन्न हुई और अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर वह भी भगवान के दर्शन के लिए गई । भगवान का धर्मोपदेश भव्य जीवो के लिए अमृत वर्षा के समान था । काली ने वह उपदेश सुना और उसे अपने हृदय में धारण कर लिया । उसका मन वैराग्य के रंग में रंग गया । तीन बार भगवान की वन्दना कर उसने प्रार्थना की “हे भगवन् | आपके उपदेश को सुनकर मेरी आत्मा पुलकित हो गई है। आत्मकल्याण का मार्ग मेरे सामने खुल गया है । मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ । आपने जैसा कहा है वही सत्य है । अपने मातापिता की आज्ञा लेकर मै आपके समक्ष प्रव्रज्या अगीकार करना चाहती हूँ ।" "जैसा सुख उपजे, वैसा करो ।” - भगवान ने मधुर वचन कहे । काली आनन्दित हो गई । घर लौट कर उसने अपने माता-पिता से कहा " हे माता - पिता । मैंने भगवान पार्श्वनाथ का उपदेश सुना है । वह धर्म कैसा श्रेष्ठ है । मुझे वह धर्म रुचा है, और मैं उसे प्राप्त करना चाहती हूँ । मुझे उस धर्म मे ही शरण प्रतीत होती है । यह ससार असार है । बार Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं वार जन्म-मरण का चक्र भयानक है । अत मै आपकी आज्ञा से भगवान की शरण मे जाकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती हूँ ।" ५२ पुत्री की तीव्र इच्छा जानकर, उसके कल्याण के लिए माता-पिता ने उसे मह अनुमति प्रदान कर दी । प्रत्येक प्रकार से काली के शरीर को स्वच्छ व शुद्ध करके, शुद्ध वस्त्र पहिनाकर, धूमधाम के साथ काल तथा कालश्री भगवान के समीप पहुँचे और निवेदन किया "प्रभो । यह हमारी पुत्री आपकी शरण मे आना चाहती है । उमे स्वीकार करे ।" भगवान ने कहा "धर्म ही प्राणी की शरण है । शुभ कार्य मे विलम्ब से कोई लाभ नही ।" भगवान ने काली को पुष्पचूला आर्या को शिष्यनी के रूप में प्रदान किया। आर्या ने उसे दीक्षित किया | अब काली कुमारी प्रत्रजित होकर विचरने लगी । समय व्यतीत होता गया । एक समय ऐसा भी आया जब काली आर्या शरीर को साफ-सुथरा रखने वाली हो गई । वह बार-बार पानी से अपने हाथ, पैर, मुख आदि को धोती । इसी प्रकार वह जिस स्थान पर कायोनर्ग. शन अथवा स्वाध्याय करती, उस स्थान को भी पहले जल छिडक शुद्ध करती फिर वहाँ बैठती । उसकी यह प्रवृत्ति देखकर पुप्पचला आर्या ने उसे समझाया "देवानुप्रिये । श्रमणी निग्रन्थियों को इस प्रकार जल का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह अनुचित है और धर्म के विरुद्ध हे । तुम्हे इम प्राचिन करना चाहिए, आलोचना करनी चाहिए ।" किन्तु बाली आर्या ने पुष्पचला आर्या की बात नहीं मानी और अपना ना नही बदला। परिणामस्वरूप शेप आर्याएँ उसकी अवहेलना करने लगी। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ प्रश्न और उत्तर जब बार-बार उसकी अवहेलना की जाने लगी तब काली आर्या ने सोचा-यह कैसा वन्धन है ? मै इन लोगो के बन्धन मे क्यो पड गई ? जव मै गृहवास मे थो तब स्वाधीन थी। अब प्रवजित होकर पराधीन हो गई हूँ। उस पराधीनता से तो यही अच्छा है कि मैं अलग, एकान्त उपाश्रय मे रहने लगूं और स्वतन्त्र रहूं। अशुभ कर्मों का उदय होने पर मनुष्य का मन सन्मार्ग से हट जाता है। काली आर्या के साथ भी यही हुआ और अपने निश्चय के अनुसार वह प्रात काल होने पर अलग उपाश्रय मे जाकर रहने लगी। वहाँ वह स्वतन्त्र थी। कोई उसे रोकने वाला नही था। स्वतन्त्रतापूर्वक वह पानी से बार-बार अपने प्रत्येक अंग को धोती, जल छिडक कर स्थान को साफ करती और फिर उस स्थान पर बैठती । __ क्रम इसी प्रकार चलता रहा। धीरे-धीरे वह धर्म-कार्य मे शिथिल हो गई। अब वह मनचाहा व्यवहार करने लगी। वह कुशीला, कुशीलविहारिणी और ज्ञानादि की विराधना करने वाली हो गई। एक छोटी-सी असावधानी के कारण वह पतन के गर्त मे गहरी से गहरी उतरती चली गई। ___इसी तरीके से बहुत समय तक चारित्र की आराधना करके, एक पखवाडे की सलेखना द्वारा शरीर को क्षीण करके, उस पाप कर्म की आलोचना-प्रतिक्रमण करके, काल मास मे काल करके चमरचंचा राजधानी मे, कालावतसक विमान मे वह काली देवी के रूप मे उत्पन्न हुई। हे गौतम | काली देवी के वह दिव्य ऋद्धि प्राप्त करने की यही कथा है ।" तव गौतम स्वामी ने भगवान से फिर प्रश्न किया"हे भगवन् । काली देवी की कितने काल की स्थिति है ?" "उसकी स्थिति अढाई पल्योपम की कही गई है।"-भगवान ने वताया। तव गोतम स्वामी ने अन्तिम प्रश्न पूज "हे भगवन् । काली देवी उस देवलोक से चल करके कहाँ उत्पन्न होगी?' Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएं “गोतम | वह वहाँ से चल कर महाविदेह क्षेत्र मे उत्पन्न होगी और सिद्धि प्राप्त करेगी।" केवलज्ञानी भगवान ने इस प्रकार गौतम स्वामी के सभी प्रश्नो का उत्तर दिया और उनकी जिज्ञासा को शान्त किया। यह कथा सुनाकर सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से पूछा"कोई अन्य प्रश्न है क्या ?" "नही, भगवन् । मेरी जिज्ञासा शान्त हुई ।" जम्बूस्वामी ने वन्दना करते हुए उत्तर दिया । जाता २/१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ द्वीप के अश्व हस्तिशीर्ष नामक विशाल नगर का राजा कनककेतु बडा ही उदार तथा प्रजा पालक था । इस कारण उसकी प्रजा सुखी और समृद्ध थी । उसके अच्छे शासन मे बहुत से गुणवन्त व्यक्ति अपनी विभिन्न कलाओ का विकास किया करते थे । नगर मे बहुत से सायात्विक नौका अणिक भी रहा करते थे । नौका या जहाज द्वारा वे सुदूर देशो मे व्यापार किया करते थे। उससे उन्हे खूब सम्पत्ति प्राप्त होती थी और वे धन सम्पन्न थे । एक वार उन्होने मिलकर व्यापार करने के लिए बाहर जाने का निश्चय किया । नौकाएँ तैयार करली गई, उनमे बहुत सा सामान भर लिया गया और लवणसमुद्र के तरल वक्ष पर थिरकती नौकाएँ चल पडी । अचानक एक स्थान पर समुद्र के भयानक तूफान उठा । अन्धकार ने घिरकर दिशाओ को ढक दिया । नौकाएँ लहरो के थपेडो मे निराधार होकर चक्कर काटने लगी । यात्री चिन्तित हो उठे । माक्षात मृत्यु का ताण्डव होता-ना प्रतीत होने लगा । नोकाएँ खेने वाले नियामक हैरान थे, किसी भी भांति नोकाएँ ५५ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं वश मे नही रह पा रही थी। उनकी बुद्धि नष्ट-सी हो चली थी । दिशाओ का जान खो गया था। ऐसो विकट स्थिति मे यात्री नियामक के पास आकर पूछने लगे “भाई नियामक । क्या कोई उपाय नही है ? तुम तो अत्यधिक चिन्तित प्रतीत होते हो?" नियामक ने उत्तर दिया-- "वन्धुओ | क्या कहूँ । मेरी तो मति ही मारी गई। तूफान अत्यन्त भयंकर है। दिशाओ का कुछ ज्ञान ही नही हो पा रहा । नौका वश मे आ ही नहीं रही।' नियामक के इस निराशा भरे उत्तर से सभी यात्री हताश हो गए । अन्न मे अन्य कोई मार्ग न देखकर एक यात्री ने कहा "न मंाट के समय हमे पवित्र होकर इन्द्र, कार्तिकेय आदि देवो गपूजन करना चाहिए। यदि रक्षा सम्भव हे तो देवता ही ऐसा कर माते है।" यह मुझाव मभी को मान्य हुआ । अन्य कोई विकल्प था भी नही । नानादि से शुद्ध होकर सभी ने देवो का पूजन आरम्भ कर दिया। तृफान गरजता रहा । भीमकाय, पर्वताकर लहरे आ-आकर नोका ने टगती रही । अन्धकार घिरा रहा । एक ओर लहरो का गर्जन और दूसरी ओर यात्रियों के पूजन का मवेत म्वर आवाग मे गूंजने लगा । यह क्रम बहुत समय तक चला। अन्न में मनुष्यों का संकल्प आधी ओर तूफान पर विजयी हुआ। देवनानुष्ट हा । तूफान थमने आर अन्धकार दूर होने लगा। बने महत्वपूर्ण बात यह हुई कि ग्वबनहार की बुद्धि लोट आई। देवनानी की कृपा में वह पुन लब्धमति, लब्धति तथा लब्धमज हो गया। मग दिन जान जाग उठा । तब प्रसन्न होकर वह बोला Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप के अश्व "अहा | वन्धुओ । अब चिन्ता की कोई बात नहीं। मेरी मति लौट आई है । मेरी दिशा-मूढता नष्ट हो गई है । अब मैं सब कुछ जान सकता हूँ ।” सुनकर सब के जी मे जी आया । प्रसन्न होकर वे बोले "प्रभु की कृपा से हमारे प्राणो की रक्षा हो गई। अब बताओ हम इस समय किस स्थान पर है ?" “हम लोग इस समय कालिक द्वीप के समीप है । देखो-वह देखोवह कालिक द्वीप दिखाई पड़ रहा है। दिखाई देता है न ? वह उस दिशा मे।" नियामक द्वारा सकेत की गई दिशा मे देखने पर सभी को द्वीप की भूमि तथा हरे-भरे वृक्ष दिखाई पडे । हर्ष से वे सब लोग नाच उठे । का को द्वीप की दिशा मे मोड दिया गया। दक्षिण दिशा की अनुक्ल वायु के सहारे धीरे-धीरे नौका द्वीप के किनारे जा लगी। लंगर डाल दिया गया। छोटी-छोटी नौकाओ द्वारा सब लोग द्वीप की भूमि पर उतर गए। वह द्वीप बडा ही सुन्दर था । सघन वृक्षो से भरा था । डेरा डाल दिया गया । भोजन-विश्राम के उपरान्त सव लोग उस द्वीप मे प्राप्य वस्तुओ की खोज मे निकले। खोज करने पर उन लोगो ने पाया कि वह द्वीप अमूल्य धातुओ की अनेक खानो से भरा हुआ था। चाँदी, सोने, रत्नो तथा हीरो की खाने विखरी पड़ी थी। बहुत-सा स्वर्ण-रत्न उन लोगो ने प्रसन्न होकर एकत्र कर लिया। लेकिन उन स्वर्ण-रत्नो के अतिरिक्त भी वहाँ एक अन्य विशिष्ट वस्तु उन्हे दिखाई पडी ओर वह थी-विचित्र प्रकार के सुन्दर अश्व । वे अश्व अत्यन्त उत्तम जाति के थे और उनका रग नीला या। तेजी ने इधरउधर दाउते हुए वे अश्व ऐसे सुन्दर प्रतीत होते ये मानो आकाश में उतर कर नीली विजलियाँ ही उम द्वीप मे क्रीडा कर रही हो। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ ___ अश्वो ने जव उन लोगो को देखा ओर मनुष्यो की अपरिचित गन्ध को मुंघा तो वे पलक झपकते ही सरपट दौडकर कई योजन दूर निकल गए। ___ व्यापारी अपना एकत्र किया हुआ स्वर्ण तथा रत्न इत्यादि अपनी नौकाओ मे भर कर घर की ओर लौट चले। हस्तिशीपं नगर पहुँच कर उन व्यापारियो ने अपने राजा कनककेतु को बहुत मी बहुमूल्य भेट दी। राजा प्रसन्न हुआ ओर उसे जिज्ञासा भी हुई । उसने पूछा “देवानुप्रियो । तुम लोग दूर-दूर के देशो मे घूमते हो । अनेक ग्राम और नगर देखते हो। लवण समुद्र को भी अनेक बार पार कर चुके हो। ग्या तुमने कभी कही कोई विचित्र बात भी देखी ?" व्यापारियों ने विचार कर उत्तर दिया "राजन् । यह मत्य है कि हम अनेको ग्रामो और नगरो मे घूमते । अनेर वस्तु हमारे देखने में आती है। किन्तु जितने स्थान हमने देखे है, उनमें से सबसे अद्भुत म्यान जो हमने देखा वह है कालिक द्वीप। यह होप मोने-चादी तया रन्नो की खानो से तो भरा ही है, किन्तु उस द्वीप मे हमने एक अनोखी वस्तु जो देखी वह है वहाँ के अश्व ।' "गजन् । उन अश्वो के सौंदर्य का वर्णन करना हमारी शक्ति मे नहीं है । वे नीले रंग के है। प्रेमी उत्तम जाति के अश्व हमने अन्यत्र कही नहीं देखे । अश्व क्या है, वे तो मानो चलती-फिरती विजलिया ही है । आपके मनान प्रतापी नरेश के पास ऐसे अश्व होने चाहिए।" सुन्दर और उत्तम जाति के अब किसी भी वीर राजा के लिT गारव की बात होते ह । गजाओ को अच्छे अश्व प्रिय भी होते है । अन उन व्यापारियों ने कालिकोप के उन नोल वर्ण अश्वा के विषय मे जानकर गजा वनवे उन्हें प्राप्त करने के लिए अधीर हा गया । उसने तुरल नाद दिना देवानुप्रिती । तुम लोग मेरे कमचारियों को माय लेनादर गोत्र मत बार मे उन अद्भुत अम्बा को कर आओ। जितने भी धन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप के अश्व की आवश्यकता हो वह ले लो। जितने भी कर्मचारियो को साथ लेना हो, ले लो, तथा अन्य साधन भी जो कुछ चाहिए हो, वे भी ले लो, किन्तु शीघ्र ही वे अश्व लेकर यहाँ लौटो।" "जैसी आज्ञा, राजन् ?--कहकर व्यापारियो ने विनयपूर्वक राजाज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने स्थान पर लौट आए। राजा की आज्ञा के पालन मे क्या विलम्ब ? व्यापारी तैयार होने लगे। राजपुरुष प्रस्तुत होने लगे। गाडियाँ तैयार की गयी । पोत तथा नौकाएं तैयार कर ली गयी। राजपुरुषो ने अश्वो को संगीत से आकर्षित करने के लिए बहुत-सी वीणाएँ भी ले ली। इसके अतिरिक्त राजपुरुषो ने चक्षु इन्द्रिय को प्रिय लगने वाले बहुत से पदार्थ, घ्राणेन्द्रिय तथा स्पर्शेन्द्रिय को प्रिय लगने वाले अनेक पदार्थ, इसीप्रकार अन्य सभी इन्द्रियो को आकर्षित करने वाले नाना प्रकार के पदार्थ भी गाडियो मे भर लिए । इस प्रकार पूरी तैयारी कर ली गई । उन अश्वो को लुभाकर जाल मे फंसाने का कोई भी साधन छोडा नही गया। शब्द, स्पर्श, रम, रूप और गन्ध के उन सब उत्कृष्ट पदार्थों को लेकर वे व्यापारी तथा राजपुरुष पोत मे सवार होकर कालिक द्वीप की ओर चल पडे । अनुकूल वायु के कारण शीघ्र ही वे उस द्वीप मे पहुँच गए । लंगर डालकर भोजनादि से निवृत्त होकर, कुछ विश्राम करने के उपरान्त वे उन अश्वो को अपने जाल में फंसाने का उपक्रम करने लगे । वे लोग उस स्थान पर पहुँचे जहाँ वे अश्व सोते तथा लोटते थे । वहाँ जाकर उन्होने जाल बिछा दिया। वीणा तथा विचित्र वीणा को वे बडी मधुरता से वजाने लगे। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ भी वे अश्व सोते तथा लोटते थे. वहां उन्होंने वे सभी पदार्थ जो अश्वो की विभिन्न इन्द्रियो को आकर्षित करने वाले थे. विखेर दिए। स्थान-स्थान पर उन्होने खड्डे खोद दिए और जहाँ पर यह मामती फैलाई गई थी उस स्थान पर जाल विकार उनके आमपान छिपकर वैठ गए। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० महाबीर युग की प्रतिनिधि कथाएं वीणा वजती रही , वीणा का आकर्षक और मधुर स्वर अश्वो ने मुना । उनके कानो को वह प्रिय लगा। उसी प्रकार अन्य पदार्थों ने उनकी आँखो को. नाक को, जिह्वा को और शरीर को आकृष्ट किया। अश्व आए। किन्तु सभी अश्व वहाँ ठहरे नहीं । कुछ ने देखा कि ऐसे शब्द, स्पर्श, रस. प. और गध का उन्होने पहले कभी अनुभव किया नही है । वे उनसे मावधान हो गए। अपने मन को उन्होने उस शब्द, स्पर्श, रस आदि मे आमक नहीं किया । उन्हे वैसा ही छोडकर वहाँ से बहुत दूर चले गए। __ जो अश्व वहाँ में नले गए वे स्वतन्त्र रहकर सुखपूर्वक चारागाहो में बिनग्ने रहे। मेर अन्यो का क्या हुआ ? आमक्ति का जो परिणाम होता है, वही परिणाम शेप अश्वो को भुगतना पठा- बबन, आजन्म बधन । वंधन ओर दुख । उम उमाट शब्द, स्पर्श, रम आदि में आकृष्ट तथा उनमें आसक्त होम वे उन ग भोग करने लगे और वहा फैले हुए जाल मे वे फंस गए । राजपुन्या ने उन्ह पकड लिया ओर कमकर बन्धना मे जकटकर अपने पोत पर उन्हें लादकर वे हस्तिशीपं नगर को लौट गए। कल तक सुखपूर्वक, स्वतन्त्र रहकर विचरण करने वाले ये अश्व, ब्द, स्पर्श, म. म्प और गध मे आमक्त होकर आज पराधीन हो गए । दग्निगीर्ष नगर पहुँच कर व्यापारिया तथा गजाम्पो ने गजा को देव नेट शिा । राजा उन उच्च जाति के अध्वा को पारणी मे नान या। अपने रखवालो को बुनाकर उसने आदेश दिया --- न जाती अन्दा को शामिन कगे। उन्हें विनीत सग।' गत श्री आनानुसार उन अग्बा का गिक्षित किया जान नगा 'मुग का आनाधर नार बायका झाग बाधकर, सर बाबर, मटा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीप के अश्व वाँधकर, चौकडी चढाकर, तोवरा चढाकर, लगाम लगाकर, खस्सी करके, नेला-प्रहार करके, चाबुको से पीटकर, तथा चमडे के कोडो से मार-मारकर उन्हे विनीत किया गया । तुच्छ सासारिक पदार्थों मे आसक्त होने का यह भयानक परिणाम उन अश्वो को भोगना पड़ा। प्रत्येक प्राणी के लिए यही बात सत्य है। विभिन्न इन्द्रियो मे प्राणी की आसक्ति जिस प्रकार अन्त मे दु ख का कारण बनती है यह अनेक उदाहरणो से जाना-समझा जा सकता है सुन्दर शब्द सुनकर कानो को सुख मिलता है। किन्तु इसी श्रवणेन्द्रिय को न जीतने का दुष्परिणाम भी देखिए-पारिधी के पीजरे मे एक तीतर होता है । उस तीतर को आवाज को सुनकर वन के स्वाधीन तीतर अपने स्थान से निरन्तर उसके समीप आते है और पारिधी के जाल मे फंस जाते है। __ इसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत और रूप मे आसक्त बनने वाले पुरुष स्त्रियो के साथ आनन्द मनाते है, किन्तु चक्षु-इन्द्रिय के वशीभूत होने का ही परिणाम है कि पतंगा ज्वाला मे जा पडता है। औषधि की गंध से आकृष्ट होकर सर्प अपने विल से निकल कर सपेरे के हाथ मे पड़ जाता है। रसनेन्द्रिय को वश मे न रखने के परिणामस्वरूप मछली पकड ली जाती है और स्वयं ही दूसरों का भोजन बन जाती है। स्पर्शेन्द्रिय को वश मे न रख पाने के कारण ही शक्तिशाली मस्त गजराज को अपने मम्नक मे लोहे के तीक्ष्ण अंकुश का प्रहार सहन करना पडता है। तात्पर्य यह कि हमे अपनी इन्द्रियो को वश में रखना चाहिए । इन्द्रियो का स्वभाव आमक्त होना है। हमे सयम द्वारा उन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियो को वश मे रखते है, स्वयं उनके ही वश मे नही होते, उन्हे विषयो के लिए हाय-हाय करते हुए नहीं मरना पडता । उस प्रकार वे वशार्तमरण से बच जाते है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएं विषय भोग का कही अन्त नहीं है । जितना हो उन्हे भोगा जाता है उनना ही अधिक उन्हे ओर भी भोगने की लालसा जागती है। विगय कभी सन्तुष्ट होते ही नही। अत साधु को चाहिए कि वह समभाव रखे । शुभ अथवा अशुभ गन्द, स्पर्श, रम, प, गंध मे साधु को तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना त्राहिए । उन सभी को उसे सद्भाव से ग्रहण करना चाहिए । साधु-धर्म कालिक द्वीप के समान है। उसका आश्रय पाकर संसार समुद्र मे दुखी होने वाले जीव सान्त्वना ओर शान्ति प्राप्त करते है। साधु को उन अश्वो के स्थान पर समझ कर हमे उम कथा का मर्म जानना वाहिए । जो माधु पचेन्द्रिय के विषयो मे लुब्ध न होकर उनसे दूर रहते है वे भव-बन्धन के मामारिक कष्टो से वन जाते है । जो विपय-तोलुप हो जाने र सो के कारणभूत कर्म-बन्धनो को प्राप्त होते है। जिम प्रकार मानिस द्वीप मे न्यित ले जाए गए अश्व दुःखी हुए, उनी प्रगर मान-मर्म मे प्रष्ट माध दुरा के पात होते है। --ज्ञाता सूत्र १७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सुबुद्धि की बुद्धि इस संसार मे स्वार्थ का वोल-वाला है । अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मनुष्य करणीय-अकरणीय सभी कुछ करने को तत्पर हो जाता है। किसो की हॉ मे हॉ मिलाने से भला क्या बिगडता है ? मतलव निकलना चाहिए । और फिर सामने कोई व्यक्ति सत्ताधारी हो, राजा हो, तव तो वह दिन को रात कहे तो भी ठीक । किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते है -जो सत्य के उपासक होते है । वे ती होते है. दृढ होते है और तनिक से सासारिक सुख या क्षुद्र लाभ के लोभ से विचलित न होकर अपने मानव-कर्तव्य का पूर्ण पालन करते है । वे अपनी आत्मा को बेचते नही । राजा जितशत्रु का अमात्य सुबुद्धि ऐसी ही मिट्टी का बना था। कर्तव्यपरायण तो था हो. ज्ञानी और विवेकी भी था। राज्य का हित उसकी दृष्टि ने सर्वोपरि था. किन्तु वह त्राटुकार नहीं था। राजा की हाँ मे हाँ मिला र दिन को वह रात नहीं कह सकता था। उसका व्रत थाराज्य का हित गा. किन्तु असत्य भाषण नहीं करूंगा। कर्तव्यपालन करूंगा. किन्तु झूठी चाटुकारी नहीं करूंगा। ऐसे मन्त्री की देखरेख मे राजा जितशत्रु निर्द्वन्द्व होकर चम्पानगरी मे राज्य कर रहे थे। कुशल, कर्तव्यपरायण, नीतिज और तत्वनाता मन्त्री वडी तत्परता से राज्य की देखरेख कर रहा था। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं “तब तो भगवन् । यदि मैं कामभोगों से मुक्त न हो सका तो मरकर सातवें नरक में ही जाऊँगा ?” भगवान सब जानते थे । वे कोणिक के हृदय में व्याप्त अहंकार को भी जानते थे । उन्होने शान्त स्वर में, स्पष्ट कथन किया" तुम छठे नरक में जाओगे, कोणिक । " १२४ "क्या भते । अभी तो आपने कहा कि चक्रवर्ती कामभोगो मे आसक्त रहकर सातवं नरक मे जाते हे । तब मैं छठे नरक में क्यों जाऊँगा ?" " इसलिए कोणिक । कि तू चक्रवर्ती नहीं है ।" कोणिक अधीर हो गया, बोला “भते ! मेरे पास इतना विपुल वैभव है, इतनी विशाल सेना है, मै इतने वडे साम्राज्य का अधिपति हैं । तब मै चक्रवर्ती क्यो नही बन सकता ?” भगवान ने दयापूर्ण, कोमल वचन कहे 1 "कोणिक ' अहंकार ठीक नही । लालसा अच्छी नही । जो है उसमे सन्तोष मानना चाहिए। तुम्हारे पास उतने रत्न और निधि नही हे जितने एक चक्रवर्ती के पास होने चाहिए । अत: तुम उस पद को प्राप्त नही कर सकते । व्यर्थ मे भटकना नही चाहिए ।" किन्तु कोणिक माना नही । कामना उसके कलेजे मे कुंडली मारे वैठी थी । कृत्रिम रत्न बना-बनाकर उसने अपना खजाना भर लिया। ओर फिर विजेता बनने के लिए तमिस्रा गुहा मे प्रविष्ट होने लगा। गुहा के प्रतिपालक देव ने निषेध किया - "कोणिक चक्रवर्ती वारह ही होते है, और वे हो चुके है | आप चक्रवर्ती नही है । कृपया अनधिकार प्रवेश न करें। ऐसा करने पर आपका अमंगल होगा ।” कोणिक नही माना । उसने अनधिकार प्रवेश परिणामस्वरूप देव के प्रहार से मृत्यु प्राप्त कर वह छठे हुआ । करना ही चाहा । नरक में उत्पन्न - दशवकालिक AVA 620 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंस का जीवित कारागार अपनी काया सभी को प्रिय है। मनुष्य इसे कंचन-काया मानता है। वह इसके मोह मे भूला-भूला फिरता है। किन्तु इसकी वास्तविकता क्या है, यह भी विचार कभी किया है ? पुरानी कहानी है। वीतशोका नामक नगरी मे राजा 'बल' राज्य करता था। चूंकि राजा न्यायी और प्रजा का पालक था, अत नगरी का नाम सार्थक था, वहाँ किसी को कोई दुख या शोक नही था। राजा का पुत्र था महाबल । नाम के अनुरूप ही वह महावली और प्रतापी था । स्वर्ण मे सुहागे वाली बात तो यह थी कि बलवान होने के साथ ही वह विनयवान भी था । उसे अपनी शक्ति का तनिक भी अभिमान नही था । एक समय जब उस नगरी मे मुनि धर्मघोप पधारे तव उनके उपदेश सुनकर राजा बल को वैराग्य उपजा और वह राज्य-सिंहासन पर अपने पुत्र महावल को बिठाकर मुनि बन गया । महाबल राजा हो गया। उसके ज्ह वाल-मित्र ये-अचल, धरण, पूर्ण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द । महावल अव राजा था, किन्तु मित्रो की मित्रता तो वैसी ही बनी रही। सज्जन पुरुप ऐसे ही होते है । शक्ति या अधिकार के मद मे वे अपना भान कभी नहीं भूलते । महावल राज्य का कार्य अपने मित्रो की सलाह से ही करता था। वृछ काल उपरान्त मुनि धर्मघोष विचरण करते हुए पुन उस नगरी मे पधारे । राजा महावल ने भी उनका उपदेश सुना और अपने पिता की १२५ - - - - - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ भाँति ही वैराग्य भावना से प्रेरित होकर अपने पुत्र बलभद्र को राजा वना कर वे दीक्षित हो गए। उसके छहो मित्रो ने भी दीक्षा ग्रहण करली | एक वार उन सबने समान तप करने का निश्चय कर दो दिन का उपवास रखा । किन्तु महावल के मन मे यह विचार उठा कि वह अन्य मुनियो से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करे । अतः दो दिन तक तो उन्होने यही भाव दर्शाया कि वे पारणा कर लेंगे, किन्तु उन्होने ऐसा किया नही । अन्य मुनियो ने अपने निश्चय के अनुसार ही दो दिन वाद पारणा कर लिया । महावल ने यह कपट आचरण किया । इसके फलस्वरूप उन्हे स्त्री-वेद का बन्ध हुआ । कालक्रमानुसार कठिन तपस्या करते हुए उसके उत्कृष्टतम परिणाम स्वरूप महावल ने तीर्थकर नाम कर्म का वन्ध किया । धीरे-धीरे सातो मुनियो का शरीर अपने धर्म के अनुसार कृश होता गया और अन्त मे वक्षार पर्वत पर जाकर संथारा ग्रहण करके उन्होने समाधि पूर्वक इस शरीर का त्याग किया । शरीर त्यागने के बाद वे सव जयन्त विमान मे उत्कृष्ट ऋद्धि के धारक देव बने । वत्तीस सागर की आयु समाप्त हुई और वे पुन मनुष्य जीवन मे आए । उनमे से महावल देव वहाँ से काल कर मिथिला के राजा कुम्भ की रानी प्रभावती की कुक्षि मे आए। रात्रि के अन्तिम प्रहर मे रानी ने जो चौदह स्वप्न देखे उससे तीर्थकर के उसके गर्भ मे आने की सूचना मिली । सारी नगरी इस समाचार से हर्षित हो गई । मास भी व्यतीत हुए । रानी ने एक शुभ कन्या को जन्म दिया । उसका नाम रखा गया मल्लिकुमारी, क्योकि उसके गर्भ में आने के समय से ही रानी को सुगन्धित पुष्प मालाएँ धारण करना वडा प्रिय हो गया था । वालिका धीरे-धीरे नवयुवती हो गई । वह अत्यन्त रूपवान थी और उसका हृदय पूर्ण निर्विकार था । उसे जन्म से ही अवधिज्ञान प्राप्त था । उसके प्रभाव से उसने अपने पूर्व भव के मित्रो की उत्पत्ति की बात जान ली थी । भविष्य की घटनाओ का ज्ञान रखने वाली मल्लिकुमारी ने एक बार मन्त्री को बुलाकर आज्ञा दी कि अशोक वाटिका मे एक सुन्दर महल बनवाया जाय । उसके बीचो वीच छह कमरे बनवाए जायें । कमरो के बीच मे एक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस का जीवित कारागार १२७ चबूतरा हो जिस पर एक सुवर्ण प्रतिमा स्थापित की जाय जो पूर्णतया मेरे जैसी ही हो । उस सुवर्ण की पुतली के मस्तक पर एक छिद्र भी होना चाहिए जो कि ढक्कन से ढका रहे और दिखाई न दे । राजकुमारी के इस विचित्र आदेश का पालन तत्परता से किया गया । जव सब कुछ तैयार हो गया तब राजकुमारी ने यह नियम बना लिया कि भोजन से पूर्व वह एक ग्रास अन्न प्रतिदिन उस पुतली मे डाल देती। धीरे-धीरे सडे हुए अन्न के कारण उस पुतली मे से ढक्कन हटाए जाने पर घोर दुर्गन्ध आने लगो। उसी समय कोशल देश मे इक्ष्वाकु नामक राजा राज्य करता था। एक दिन नगर से वाहर नागदेव के उत्सव मे राजा ने वहाँ देवालय मे एक सुन्दर पुष्प-कन्दुक देखी। अपने मंत्री से उसने पूछा-“क्या ऐसी मनोहर कदुक तुमने और कही भी देखी है ?" मंत्री ने कहा “राजन् । एक बार मै मिथिला की राजकुमारी मल्लिकुमारी के वार्षिकोत्सव मे गया था। वहाँ मैंने एक कंदुक देखी थी। यह कंदुक उस कंदुक की तुलना मे नगण्य ही है। और वह राजकुमारी स्वयं तो इतनी रूपवान है कि उसके रूप का वर्णन ही अशक्य है।" । राजा का हृदय उसके वश मे न रहा। मल्लिकुमारी के अद्भुत रूप का उपभोग करने की तीव्र लालसा से उसका हृदय दग्ध हो गया। उसी क्षण उसने अपने अनुचर भेजकर मल्लिकुमारी की मंगनी की। उसी समय अग देश मे चम्पानगरी का राजा चन्द्रच्छाय था। उसके राज्य मे अर्हन नामक एक नीतिवान गृहस्थ वसता था । व्यापार हेतु वह दूर-दूर देशो की यात्रा किया करता था। एक वार ऐसे ही प्रसंग मे वह मिथिला भी हो आया था और वहाँ उमने मल्लिकुमारी को देखा था। एक बार विमी प्रसंग मे राजा ने अर्हन् से पूछा ___ "क्यो अर्हन | तुम तो देश-विदेश मे घूमते हो। तुमने विदेश मे काभी कोई अद्भुत वस्तु भी देखी है ?" अर्हन ने विनयपूर्वक उतर दिया Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएं "राजन् । मैंने अपने जीवन मे आज तक एक ही उत्तम वस्तु देखी है । इस पृथ्वी पर वैसी दूसरी नहीं है । और वह है मिथिलेश की राजकुमारी मल्लिकुमारी ।" बस, इसके बाद कैसा विलम्ब ? अंग देश का दूत भी मिथिला की ओर पवन वेग से चल पडा । उसी समय कुणाल देश मे श्रावस्ती नगरी मे रूपी नामक राजा राज्य करता था । अपने मंत्री से किसी प्रसंग मे उसने भी मल्लिकुमारी के रूप की प्रशमा सुनी । वह भी अन्य राजाओ की भॉति मल्लिकुमारी का पागल प्रेमी हो गया। उसके दूत भी राजकुमारी को मंगनी हेतु मिथिला की ओर चल पडे । काशी देश की वाराणसी नगरी मे राजा शंख की सभा जुडी थी । उस समय कुछ स्वर्णकार वहाँ उपस्थित हुए । राजा ने पूछा "आप कहाँ से आए है ? क्या चाहते है ?" उन स्वर्णकारो ने उत्तर दिया "राजन् । हम मिथिला के वासी है। राजा द्वारा निष्कासित होकर यहाँ आपकी शरण मे आए है ।” "आपके राजा ने आपको क्यो यह दण्ड दिया ?" _ "हमारा दुर्भाग्य, राजन् । राजकुमारी जितनी रूपवान है, उतने ही अद्भुत, देवताओ द्वारा प्रदान किए गए कानो के कुण्डल भी उनके पास है। उन कुण्डलो की सन्धि टूट गई। हम लोग उन्हे जोड न सके । भला देवताओ द्वारा दिए गए उन कुण्डलो को हम मनुष्य कैसे ठीक कर देते ? सो राजा कुपित हो गए।" "अच्छा, क्या राजकुमारी बहुत सुन्दर है ?" "राजन् । उनके रूप का क्या कहना ? वे तो कोई मानवी नही, साक्षात् देवी प्रतीत होती है । स्वर्णकारो द्वारा राजकुमारी के रूप का यह वर्णन सुनकर राजा शख का दूत भी मिथिला की ओर चल पडा । राजकुमारी का भाई था मल्लिदिन्न । वह कला-प्रेमी था। उसने एक सुन्दर महल बनवाया। उसे अनेक कलात्मक वस्तुओ से सजाया। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस का जीवित कारागार १२६ सुन्दर चित्र भी स्थान-स्थान पर अंकित करवाए । एक चित्रकार अत्यन्त कुशल व कलाप्रवीण था। किसी भी प्राणी के किसी भी एक मात्र अग को देखकर ही वह उसका सम्पूर्ण चित्र बना सकता था। उसने किसी प्रसंग मे राजकुमारी का केवल एक अंगूठा भर देखा था। उसी स्मृति और अपनी कला प्रवीणता के सहारे उसने एक स्थान पर राजकुमारी का सम्पूर्ण चित्र इतना सुन्दर अंकित कर दिया कि देखने वाले यही समझते कि राजकुमारी साक्षात् वहाँ खडी है। राजकुमार ने जव वह चित्र देखा तो उसे चित्रकार के चरित्र पर सन्देह हुआ। उसके कोध का ठिकाना न रहा। उसने चित्रकार को तुरन्त फॉमी पर लटकाने का आदेश दे दिया। किन्तु अन्य चित्रकार वास्तविकता से परिचित थे। उन्होने विनय की “राजकुमार | यह चित्रकार अपराधी नही है। यह तो अत्यन्त मेधावी है और कला की साधना इसने की है। राजकुमारी का एक अंगुष्ठ मात्र देखकर हो इसने यह चित्र बनाया है। आप इसे क्षमा करे।" वात सुनकर राजकुमार ने दण्ड कम कर दिया। फॉसी न देकर चित्रकार का केवल अंगूठा काट कर देश से निकाल दिया। वेचारा चित्रकार निर्वासित होकर रु देश पहुँचा । वहाँ हस्तिनापुर के राजा अदीनशन ने जव सारी घटना सुनी और राजकुमारी के सौदर्य का वर्णन सुना तो वह मोह के ऐसे आवेग मे आया कि उसी क्षण उसके दूत भी मिथिला के लिए दौड पडे । इसी प्रकार मिथिला मे उस समय चोखा नाम की एक परिवाजिका निवास करती थी । विपी थी। चारो वेदो की ज्ञाता थी। एक बार राजकुमारी से उसकी धर्म-चर्चा चली। किन्तु मल्लिकुमारी के सत्य ज्ञान के समक्ष परिवाजिका का ज्ञान असत्य ही ठहरा। वह खीझ उठी और राज्य छोटकर पाचाल देश जा पहुँची । वहाँ राजा जितशत्रु राज्य करता था। उसे अपने अन्त पुर का वडा अभिमान था। किन्तु प्रमंग-वश जव सन्यासिनी ने यह बताया कि उसकी स्थिति कूप-मडूक जैमो ही है और राजकुमारी मरिलकुमारी के समान लावण्यवती कोई कन्या इस भूतल पर नहीं है तो अन्य राजाओ की भाति उमने भी अपने दूत मिथिला के लिए रवाना कर दिए। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ राजा कुम्भ के दरवार मे छहो राजाओ के दूत जा पहुँचे । अपनेअपने राजाओ की उन्होने बढ चढकर प्रशंसा की । किन्तु राजा कुम्भ ने उनमे से किसी भी मांग को स्वीकार नही किया । निराश दूत लौट गए । अपने-अपने दूतो से यह निराशापूर्ण उत्तर सुनकर छहो राजा कुपित होकर, मिथिला पर चढाई करने के लिए चल पडे । उन सब की मम्मिलित सेना ने मिथिला को घेर लिया । १३० राजा कुम्भ ने बडी वीरता से उन छहो राजाओ से मंग्राम किया । किन्तु एक के विरुद्ध छह-छह राजाओ की सेना से वह लोहा लेता तो कब तक ? विवश होकर उसे अपनी राजधानी के नगर द्वार बन्द करके वंठना पडा । उसकी चिन्ता की कोई सीमा न रही । पाठक भूले न होंगे कि राजकुमारी मल्लिकुमारी अवधि ज्ञानी थी । वह सब कुछ जानती थी । उसे ज्ञात था कि ये छहो राजा उसके पूर्व भव के वे ही मित्र है | अत' वह उन्हे प्रतिबोध देना चाहती थी और सन्मार्ग की ओर प्रेरित करना चाहती थी । अपने पिता को चिन्तित देखकर उसने कहा " पिताजी ! आप चिन्तित क्यो है ? उन छहो राजाओ की बुद्धि को ठीक मार्ग पर लाने का कार्य आप मुझ पर छोड दीजिए ।" राजा जानते थे कि उनकी पुत्री विलक्षण है । फिर भी उन्हें विश्वास नही होता था कि अकेली राजकुमारी इन छह मदान्ध राजाओ से निवट सकेगी। किन्तु मार्ग भी कुछ सूझ नही रहा था। राजकुमारी ने पिता की चिन्ता को दूर करने के लिए कहा "पिताजी । इन राजाओ का यह बल तो मात्र पाशविक बल है । इसका आधार अन्याय है और अनीति है | भला नीति, न्याय तथा विवेक के समक्ष वह वल कैसे टिक सकता है ? आप तनिक भी चिन्ता न करे ।” राजा की अनुमति पाकर राजकुमारी ने उन छहो राजाओ को उस पुतली वाले महल मे बुलाकर अलग-अलग कमरो मे ठहरा दिया । बीच मे वह स्वर्ण - पुत्तलिका थी । उन मोहान्ध राजाओ ने जब उस पुतली को देखा तो वे रूप के लोभी उसे वास्तविक राजकुमारी समझ कर आँखें फाडफाड कर, मुख से. लार टपकाते हुए उसे निर्निमेप नयनो से देखते ही रह गए Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंस का जीवित कारागार १३१ उसो समय चुपचाप राजकुमारी आई। और चुपचाप ही उसने पुतली का ढक्कन खोल दिया । दुर्गन्ध, भयानक दुर्गन्ध से वातावरण असह्य हो उठा। राजाओ का दम घुटने लगा ओर वे वहाँ से भागने का मार्ग खोजने लगे। उसी समय खिलखिलाती हुई राजकुमारी प्रकट हुई और बोली "क्यो महानुभावो । क्या हो गया ? इतने आसक्त होकर इस पुतली को देख रहे थे. अब भागने का मार्ग खोजने लगे ?" __राजाओ ने उत्तर दिया "हमारे तो प्राण निकले जा रहे है । दुर्गन्ध से दम घुट रहा है । हम कहाँ आ फैसे " " अव राजकुमारी ने गम्भीरता से कहा___ “विचार करने की वात है। एक सोने की पुतलो मे प्रतिदिन केवल एक ग्रास अन्न ही डाला जाता है, और तब भी ऐसी स्थिति है। तब उस मनुष्य के शरीर की क्या हालत होगी जिसका निर्माण ही श्लेष्मा, वमन, पित्त, शुक्र, शोणित, मल, मूत्र इत्यादि से हुआ है ? अरे भाई, यह मनुष्य देह तो हस का जीवित कारागार है जोकि अपने समस्त वाह्य सौदर्य के बावजूद अनुचि का अक्षय भण्डार है।" हो राजा विस्मय से राजकुमारी को देखते रह गए। राजमारी उन्हे अलग स्थान पर ले गई और उसने उन्हे बताया कि वे सव कौन है ? किन प्रकार पूर्व भवो मे वे मित्र थे ? कैसे उन्होने मात्र दीक्षा ली थी, तप की आराधना की थी, जयन्त विमान मे उत्पन्न होने के बाद वे किस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानो पर राजा होकर उत्पन्न हुए थे। राजकुमारी ने उन्हे यह भी बताया कि तनिक-सा कपट आचरण करने के कारण ही उसे स्वय का न्त्रीवेद का वन्ध हुआ था और वह मलिकुमारी के रूप से उत्पन्न हुई थी। राजाओ ने ये वचन सुने, उनकी सोई हुई आत्माओ ने करवट ला, उनके परिणामो ओर लेण्याओं में परिवर्तन हुआ। शुभ परिणाम आने से उन्हे जातिस्मरण ज्ञान हुआ । पूर्व भव की सभी बाते उन्हे याद आ गई । नव प्रसन्न थे । पुराने माथी फिर मिले थे । एक मत से, हर्पित हृदय मेमभी ने दीक्षा ग्रहण करने का शुभ निश्चय उसी क्षण कर लिया। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएं एक वर्ष तक तीर्थंकर मल्लिकुमारी ने प्रचुर मात्रा मे दानादि देकर दीक्षा ग्रहण की। जैसा कि प्रत्येक तीर्थकर के साथ होता है, दीक्षा धारण करते ही उन्हे भी मन' पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ तथा कुछ ही समय बाद केवलज्ञान भी उत्पन्न हो गया । देवताओ ने उनका कैवल्य- कल्याण मनाया । राजकुमारी मल्लिकुमारी पहले तीर्थंकर मल्लिकुमारी हुई और फिर वे भगवान मल्लिनाथ हो गए। छहो पूर्वोक्त राजाओ ने उनसे दीक्षा ग्रहण की । चैत सुदी चतुर्थी के दिन भरणी नक्षत्र में समस्त कर्मों का क्षय कर भगवान मल्लिनाथ ने परम मुक्ति प्राप्त की । -ज्ञातासूत्र Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसा जन्म, कैसी मृत्यु ? लोग कहते है होनहार विरवान के, होत चीकने पात । लोग ठीक ही तो कहते है । थावा पुत्र की जीवन-गाथा से लोगो द्वारा कही जाती यह वात शताश मे सही सिद्ध होती है । माता का नाम था थावा । अत पुत्र को नाम मिल गया थावापुत्र, या थावाकुमार। बचपन से ही जिज्ञासु, विचारवान और गंभीर था वह । कोई भी नई वात देखता तो झट अपनी माता से प्रश्न करता-'माँ । यह कैसी बात है ? यह कैसे हुआ ? अब क्या होगा? क्या सदा ऐसी ही होता है ? क्या ऐसा ही होता रहेगा ?" माता अपने होनहार विरवान को खूब जतन से सम्हालती और समझाती _ "हां रे मेरे बेटे | ऐसा ही होता है। ऐसा ही होता रहता है। यह ससार है न, उसमे ऐसा ही होता रहेगा। जा तू, जाकर खेल । मुझे परेशान न कर । देख तो भला, मुझे अभी कितने सारे काम करने है ।" बालक मन्तुष्ट हो जाता । वहल जाता । खेलने-कूदने लगता। आर फिर कुछ देर मे माता के पास आकर प्रश्नो की झडी लगा देता-"माँ । यह वमी वस्तु यह कहाँ से आ गई ? यह पहिले तो ऐसी नही थी? क्या यह हमेशा ऐनी दी रहेगी?" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ माता प्रसन्न भी होती और खीझ भी उठती। कह देती-"चल भाग यहाँ से । सारा दिन तेरे प्रश्नो का उत्तर ही देती रहूँ तो बस फिर हो गया।" बालक फिर खेल-कूद मे लग जाता और फिर दोडा-दौडा आता"माँ ! .... " एक दिन कुमार अपने प्रासाद की छत पर खडा प्रकृति की सुपमा निहार रहा था और नीचे नगर मे जाग रहे जीवन को देख रहा था। प्रात काल का मन्द समीरण शरीर मे सुख और आनन्द की पुलक उत्पन्न करता था । सूर्य की किरणें मन्दिरो और प्रासादो के स्वर्ण-कलशो को अद्भुत शोभा प्रदान कर रही थी। रंगीन मेघी के छोटे-छोटे टुकडे इधर-उधर आकाश मे विखरे थे। पक्षी आनन्द से कलरव करते दूर दिशाओ की ओर उडे चले जा रहे थे। उसी समय कही से संगीत के सुमधुर स्वर आकर कुमार के कानो से टकराए । उस प्रातःकाल की मंगल वेला मे वे मंगल गीत नैसर्गिक प्रतीत होते थे। सुनकर आत्मा मे ऐसा अनुभव होता था मानो विश्व मे सर्वत्र मंगल ही मंगल है। आनन्द की रसधार मानो आकाश से सारी पृथ्वी पर अवाध रूप से झर रही है। कुमार वडा आनन्दित हुआ। उसके मन मे जिनासा भी जागी यह कैसे गीत है ? कौन गा रहा है ? क्यो गाए जा रहे है ये गीत ? दौड़ा-दौडा गया वह अपनी माँ के पास और लगा दी प्रश्नो की झड़ी “माँ ! ये गीत कौन गा रहा है ? क्यो गा रहा है ?" माता ने शान्ति से बताया--"पडौस मे पुत्र उत्पन्न हुआ है। सब प्रसन्न है । इसलिए ये गीत गाए जा रहे है ।” । “अच्छा | पुत्र उत्पन्न होता है तो गीत गाए जाते हे ? मॉ, तब तो मैं उत्पन्न हुआ तव भी ऐसे ही गीत गाए गए होगे ?” । "अरे हॉ, ऐसे ही क्या, तू उत्पन्न हुआ तब तो और भी अधिक आनन्द मनाया गया था। खूब उत्सव हुआ था । अव चल भाग यहाँ से, मुझे काम करने दे।" __ बालक खेलता-कूदता फिर छत पर जा पहुंचा। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसा जन्म, कैसी १३५ किन्तु इस बार उसे रोने-धोने, चीखने की बडी ही दर्दनाक आवाजे सुनाई दी । आनन्द से झूमता उसका हृदय एकदम धक से रह गया । अनजाने ही उसकी आँखो से अश्रुधार बह निकली । वह भारी हृदय लेकर फिर अपनी माता के पास पहुँचा और पूछने लगा “माँ | ये लोग रो क्यो रहे है ? मुझे अच्छा नही लगता । मुझे दुख होता है ।" ? मृत्यु "दुख की तो बात ही है बेटा । जो पुत्र उत्पन्न हुआ था न, वह चला गया । इसीलिए सब लोग दुखी होकर रो रहे हैं ।" - माता ने समझाया । किन्तु वालक की जिज्ञासा और भी आगे वढी । उसने पूछा"वह लडका जो पैदा हुआ था कहाँ चला गया, माँ ? भारी हृदय से माँ ने बताया -- " वह मर गया, बेटा । अब वह कभी लोटकर नही आएगा ।" कुछ क्षण कुमार चुपचाप अपनी माँ के उदास चेहरे को देखता ओर विचार करता रहा | फिर बोला "माँ ! क्या मैं भी मर जाऊँगा ?" - माता ने झट से उसके मुख पर हाथ रख दिया और कहा - " ऐसी वात नही करते बेटा ! जा, तू अपना खेल ।” "नही माँ ' तू मुझे बता । मैं जाने विना मानूंगा नही । क्या मैं भी मर जाऊँगा ?" माता जानती थी कि बालक हठी है । एक बार जो धुन इसे लगी सो लगी । सहज ही मानने वाला यह नही है । अत विवश होकर बोली"हॉ मेरे बेटे । सत्य यही है कि जो भी जन्म लेता है, उसे एक न एक दिन मरना ही पडता है ।" कुमार फिर गभीर रहा। और फिर उसने प्रश्न किया "माँ | क्या कोई ऐसा उपाय नही कि मैं मरु नही, और तुम्हे रोना भी न पड़े?" भला कोई माता अपने ही पुत्र को, प्रश्नों का क्या उत्तर दे ? कहाँ तक उत्तर सकी दे अपने कलेजे के टुकडे को इन वह बेचारी इतना ही कह ? Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ क महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएँ ____ "बेटा । तू मुझे परेशान न कर। तेरे ऐसे प्रश्नो से मुझे दुख होता है।" पुत्र अपनी माता को कष्ट नहीं देना चाहता था, अत वह चुप हो गया । कोई प्रश्न उसने अब नही किया । किन्तु प्रश्न तो उसके हृदय मे कुंडली मारकर बैठ गया था—'मनुष्य क्यो मरता है ?' ज्यो-ज्यो कुमार इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयत्न करता, वह और भी उलझता चला जाता और प्रश्न का अटूट सिलसिला आगे बढ़ना ही जाता-क्या मनुष्य अमर नही हो सकता? क्या ऐसा कोई मार्ग ही नही कि मनुष्य अमर हो जाय ?" वालक धीरे-धीरे बडा होता रहा । प्रश्न उसके हृदय से नहीं निकला सो नही ही निकला। यौवन की अधी ऑधी मे भी वह भटका नही ओर प्रतिपल विचार करता रहा- 'मनुष्य क्यो मरता है ? मनुष्य अमृत क्यो नही हो सकता ?' एक बार भगवान अरिष्टनेमि उस नगरी मे पधारे। माता अपने पुत्र के साथ दर्शन करने गई। भगवान ने उपदेश दिया-और सहसा थावाकुमार को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया । भगवान की कृपा से उसने जान लिया कि मृत्यु को जीत कर अमृत होने का मार्ग कौनसा है ? माता की आज्ञा लेकर थावाकुमार साधना के उस अमृत-लोक की ओर चल पडा । दीक्षित होकर वह भगवान के साथ विचरण करने लगा। अब वह धर्म के अमृत-लोक मे था । वहाँ भला कैसा जन्म, कैसी मृत्यु ? -- थावापुत्र रास Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ माँ-बेटे देवकी के घर दो भिक्षु भिक्षा लेने के लिए आए। उसने अत्यन्त हर्षित होकर उन्हे भिक्षा प्रदान की । अपने को धन्य माना । कुछ ही समय पश्चात् दो भिक्षु फिर से देवकी के यहाँ भिक्षा लेने आए । देवकी और भी प्रसन्न हुई । उसने भिक्षा प्रदान की । भिक्षु चले गए । किन्तु थोडा ही समय व्यतीत हुआ था कि दो स्वरूपवान भिक्षु पुन देवकी के यहाँ भिक्षा लेने आए । देवकी उसी प्रकार हर्षित हुई । अपने भाग्य को सराहती रही । किन्तु उसे एक बात का वडा विस्मय हुआ । वह सोचने लगी- ऐसी समृद्ध द्वारिका नगरी मे, जहाँ कृष्ण - वासुदेव जैसे राजा राज्य करते है, क्या इन भिक्षुओं को भिक्षा प्रदान करने वाले लोग नही रहे कि इन्हे वार-बार मेरे ही घर भिक्षा के लिए आना पड रहा है ? आखिर उन भिक्षुओ से वह पूछ ही बैठी "भन्ते । मै बडी सौभाग्यशालिनी हैं कि मुझे आपकी पद-रज प्राप्त हुई और आपको भिक्षा प्रदान करने का अवसर मिला । किन्तु क्या द्वारिका धर्मनिष्ठ गृहपतियो से शून्य हो गई है कि आपको वार वार मेरे घर भिक्षा के लिए आना पड रहा है ?" वास्तविकता यह थी कि भगवान नेमिनाथ द्वारिका पधारे हुए थे । उनके भिक्षु नघ मे छह भिक्षु महोदर थे । उनका रूप, वय, आकृति आदि एकदम समान थी । भगवान से आज्ञा लेकर वे दो-दो की टोली में भिक्षा लेने निकले थे । इस प्रकार देवकी के घर कोई भी भिक्षु दुबारा नहीं गया ܕ ܊ ܐ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ था । देवकी ही उन्हे एक समान रूपाकृति के कारण दो ही भिक्षु समझ रही थी । इसीलिए उसने जिज्ञासावश वह प्रश्न किया था । उन मुनियो ने शान्त भाव से उसे बताया - " यह सब एक ही नही हे । अलग-अलग है । जो पहले आए, वे हम नही । दूसरे आए, वे पहले नही । हम जो तीसरी बार आए है, सो पहिली ही बार आए है । तुम्हे हम लोगो की समान आकृति के कारण भ्रम हुआ है, देवानुप्रिय । हम छह मुनि है । भगवान नेमिनाथ के हम शिष्य है । हमने जन्म लिया था ।" 1 एक ही वय, भद्दिलपुर के रूप और आकृति के । नाग गाथापति के घर यह बात सुनते ही देवकी को एक पुरानी बात स्मरण हो आईपोलासपुर नगर मे अतिमुक्त श्रमण ने कहा था - "देवकी, तू नल कुबेर जैसे सुन्दर, दर्शनीय और कान्त आठ पुत्रो को जन्म देगी । भरत क्षेत्र में अन्य कोई माता ऐसे सुन्दर पुत्रो को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नही कर सकेगी।" यह बात याद कर वह सोचने लगी- श्रमण की उस वाणी का क्या क्या वह वाणी मिथ्या हुई ? अहा । इन छह सुन्दर पुत्रो को जन्म देने वाली माता ही वस्तुत धन्य हुई है । ? हुआ शकाग्रस्त मन लिए वह भगवान के पास पहुँची। केवलज्ञानी भगवान ने उसकी शंका को स्वयं ही दूर करते हुए बताया " शंकित न हो, देवकी । भद्दिलपुर के नाग गाथापति की पत्नी सुलसा मृत वन्ध्या थी । उसने हरिणंगमेपी देव की भक्ति को थी । देव प्रसन्न हुआ था। तुम और सुलसा एक साथ गर्भ धारण करती थी और एक साथ पुत्रो को जन्म देती थी । देव तुम्हारे पुत्रो को सुलसा के पास ले जाता ओर सुलसा के मृत पुत्त्रो को तुम्हारे पास छोड जाता । तू अव शका ओर दुख को त्याग दे । जिन छह भिक्षुओं को तूने देख है, वे तेरे ही पुत्र है ।" विस्मित, हर्पित, पुलकित देवकी जब भगवान के पास से उठकर उन छह भिक्षुओ के पास गई तो पुत्र चात्सल्य उसके स्तनां से पवित्र दुग्ध-धारा वनकर वह चला था । - अन्त कृद्दशा - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ संशयात्मा विनश्यति मनुष्य के जीवन मे धैर्य का बहुत महत्त्व है । इसीलिए कहा जाता हे - धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय - यदि कोई व्यक्ति चाहे कि वह खडे-खडे ही हथेली पर सरसो उगा ले, तो भला यह कैसे सम्भव है ? प्राचीन काल मे चम्पा नगरी मे जिनदत्त और सागरदत्त नामक दो श्रेष्ठपुत्र रहते थे । मित्र थे । बचपन से ही साथ-साथ उठे-बैठे, खेले कूदे और बडे हुए थे । उनका प्रत्येक कार्य एक दूसरे के साथ ही होता था । वे इतने घनिष्ठ थे आपस मे कि उन्हे दो शरीर और एक प्राण भी कहा जा सकता था । एक दिन दोनो मित्र किसो उद्यान मे बैठे वातचीत कर रहे थे और प्रकृति की सुषमा का आनन्द ले रहे थे । उनके हृदय प्रेम और आनन्द के रस मे डूबे हुए थे । उसी समय उन्हे विचार आया कि आज तो वन विहार किया जाय । ऐसे सुन्दर मौसम मे घर मे ही बन्द होकर बैठे रहने मे तो कोई आनन्द नही | उमी नगरी मे उन समय देवदत्ता नामक एक वेश्या भी रहा करती पी। वह परम सुन्दरी थी और मगीत तथा नृत्य कला मे प्रवीण थी । रसिक एवं धनवान नगरवासियो के मन का अपनी कला एवं सोदर्य से रजन करना ही उसका व्यवसाय था । और राजा अजातशत्रु को उस सम्पन्न चम्पानगरी मे रसिको एवं धनपतियो की कोई कमी नही थी । अत देवदत्ता १३६ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ के पास भी धीरे-धीरे अपार सम्पत्ति एकत्र हो गई थी । उसकी एक ही मुसकान एव लास्य-भंगिमा पर लोग बहुमूल्य रत्नो की वर्षा कर देते थे । दोनो मित्रो को देवदत्ता की याद आई और अपने सेवको को नगरी से बाहर नन्दा नाम की पुष्करिणी में वन-विहार की पूरी तैयारी कर देने के आदेश प्रदान कर वे शीघ्र ही देवदत्ता के महालय मे जा पहुँचे । देवदत्ता को जब उन्होने अपनी योजना बताई तो वह प्रसन्न हुई ओर शीघ्र ही प्रस्तुत होकर बोली " चलिए, मैं प्रस्तुत हूँ । आप महानुभावो के साथ आज के इस आनन्दमय वातावरण मे वन-विहार करने से मुझे बडी प्रसन्नता होगी । ” रथो पर सवार होकर वे चल पडे । पुष्करिणी के किनारे बहुत समय तक वे आनन्द मे मग्न रहे । घूमते-फिरते एक स्थान पर जब वे पहुँचे तो एक मयूरी उनके पदचाप सुनकर भयभीत होकर एक स्थान से उड़कर वृक्ष की शाखा पर जा बैठी । कुतूहलवश वे लोग उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से मयूरी उडी थी । वहाँ उन्होने मयूरी के दो सुन्दर अडे देखे । मित्रो के मन मे विचार आया कि इन अडो को ले जाकर पाला जाय और जब उनमे से मयूर के बच्चे प्रगट हो तो उन्हे पाल-पोसकर बडा किया जाय । यह सोचकर उन्होंने वे अडे सावधानीपूर्वक उठा लिए ओर कुछ समय बाद देवदत्ता को विदाकर अपने घर लौट आए । दोनो मित्रो ने एक-एक अडा ले लिया था । किन्तु सागरदत्त कुछ उतावले स्वभाव का था । वह प्रतिदिन अडे के पास जाता, उसे हाथ मे लेकर देखता, कानो के पास ले जाकर उसमे से कोई आवाज आ रही है या नही, यह सुनने का प्रयत्न करता । संशय से भरा हृदय लिए वह सोचा करता-इस अडे मे से मयूर निकलेगा कि नही ? कब तक निकलेगा ? अव तक मयूर क्यो नही निकला ? इस प्रकार अपने सशय, उतावलेपन और अधैर्य के कारण वार-बार अडे को उठाने-धरने से उसने उसे नष्ट कर दिया । अडा निर्जीव हो गया । उसमे से मयूर तो क्या, मयूर की टॉग भी नही निकली । उधर जिनदत्त विवेकवान था । धैर्यवान था । उसे कोई संशय भी नही था कि अडे मे से मयूर निकलेगा कि नही । उसने सावधानी से उस अंडे को मुर्गियों के अंडो के वीच रख दिया था और उसे छूता तक नही था । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बदला किसी नगर मे कुछ क्षत्रिय परिवार थे। शस्त्रों के संचालन में क्षत्रिय स्वभावत निष्णात हुआ करते है । यद्यपि उनकी शस्त्र विद्या का उपयोग शत्रुओ से अपने देश की रक्षा के लिए ही होना चाहिए, किन्तु कभी - कभी मामूली सी ही बात पर भी वे अपने शस्त्रो का प्रयोग आपस मे भी कर बैठते थे । एक बार किसी क्षत्रिय परिवार के एक सदस्य को कोई निर्मम हत्यारा मार गया । मृत व्यक्ति का भाई वडा दुखी हुआ और शोक में इव गया । इसकी माता भी अपने बेटे की हत्या से अत्यन्त दुखी थी । किन्तु केवल दु ख करते रहने से तो कुछ आना-जाना नही था | बुढी माँ की नसो मे भी क्षत्रिय रक्त था । वह वीर पत्नी ओर वीर माता थी । उसके परिवार मे तो पीढियों से प्राण लेने-देने का खेल ही मानो चला करता था । कुछ समय शोक में डूबे रहने के बाद उसे अपने क्षत्रिय-रक्त का और क्षत्रिय कुल की आन का भान आया । आहत सर्पिणी की भांति वह फुफकार उठी - " बेटा । अव शोक का त्याग कर उठ खडा हो । तलवार उठा । त् मेरा पुत्र है | एक वीर क्षत्रियाणी का पुत्र हे । तेरी नसो मे वीर क्षत्रियो का रक्त है | अपने शत्रु से बदला न लेकर इस प्रकार रोते-धोते बैठे रहना तो कायरो का काम है | तुकायर नही, वोर क्षत्रिय है । उठ जाकर अपने शत्रु १०२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ से बदला ले । उसका शीप काट कर ला ओर मेरे चरणो मे रख । यदि ऐसा न कर सके तो फिर अपना मुख मुझे कभी न दिखाना । " तू जन्म से ही वीरता के संस्कारो मे पले क्षत्रिय को होश आया । माता की ललकार ने सामयिक रूप से स्तव्ध हो गई उसकी आत्मा को झकझोर कर जगा दिया । एक सच्चे वीर की भाँति उसने अपने आँसू पोछ दिए और नंगी तलवार लेकर प्रतिज्ञा की वदला - " माता । प्रतिज्ञा करता हूँ ओर तुझे वचन देता हूँ कि अपने भाई के हत्यारे को आकाश और पाताल जहाँ भी वह होगा, खोज निकालूंगा ओर उसका शीप काट कर तेरे चरणो मे रख दूंगा । यदि मैं ऐसा न कर सका तो समझना कि तूने मुझे जन्म ही नही दिया, तेरी कोख से कोई जीवित मनुष्य नही, पत्थर ही जन्मा था । " माता के चेहरे से शोक के वादल दूर हो गए । जन्म और मृत्यु का खेल तो चलता ही रहता है । किन्तु शत्रु से भरपूर बदला लिए विना कैसा जीवन ? उसने अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए कहा “यशस्वी हो । मृत्यु का भय कायरो को होता है । तू मेरा वीर पुत्र है । जा, काल के समान अपने शत्रु को चारो दिशाओ मे से खोजकर सिंह के समान झपटकर उसका रक्त पी जा । उसका शीप काट कर ला ।” माता को प्रणाम कर क्षत्रिय वीर चल पडा । उसके क्रोधित मुख को देखकर एक वार तो दिशाएँ भी यती-सी प्रतीत होती थी । लेकिन वह कायर हत्यारा तो जाने कहाँ जा छिपा था ? ग्राम-नगरपर्वत वन और रेगिस्तान, सभी स्थानो पर उसकी खोज उस क्षत्रिय ने की, किन्तु हत्यारा तो मानो अदृश्य होकर हवा मे जा मिला था । उसका कही भी कोई चिन्ह तक दिखाई नही दे रहा था । किन्तु क्षत्रिय हार मानने वाला नही था । थकने वाला नही था । उसे तो वैर का बदला लिए विना जीना ही नही था । अनन्तकाल तक भी यदि भटकना पडे तो वह भटकेगा, किन्तु शत्रु को तो खोजना ही है, बदला तो लेना ही है बारह वर्ष व्यतीत हो गए। आखिर एक दिन वह हत्यारा उस क्षत्रिय की दृष्टि से वच नही सका । उसे देखते ही क्षत्रिय की आँखो मे खून उतर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएं आया। उसने उसके भाई की हत्या तो की ही थी, बारह-बारह वर्ष तक भटकाया भी था । अब तो गिन-गिन कर वदला न लिया तो क्या किया? यह सोचकर क्षत्रिय ने हत्यारे की गर्दन पकड ली-"चल, नीच | चल, हत्यारे । अव तो तुझे अपनी माता के सामने ही यमलोक भेजूंगा ताकि उसका कलेजा भी ठण्डा हो।' माता के सामने उस हत्यारे को पटक कर क्षत्रिय ने कहा "ले, माँ । तेरे पुत्र के हत्यारे को पकड लाया हूँ। इस दुष्ट का शीप तू अपने ही हाथो से भुट्ट की तरह उडा दे।" पुत्र ने तलवार अपनी माता की ओर बढाई । किन्तु माता ने तलवार पकडने के लिए हाथ नही उठाया । वह एकटक उस रोते-गिडगिटाते हत्यारे को देख रही थी और सुन रही थी "क्षत्रियाणी माँ ! तुम तो वीरमाता हो । मैं नीच हत्यारा हूँ । मुझे क्षमा कर दो। मेरे प्राण बचा दो। मै भीख माँगता हूँ | मेरे बिना मेरी बूढी मॉ विलख-विलख कर मर जायगी। मेरे छोटे-छोटे बच्चे भूख से तडपतडप कर मर जायँगे । क्षत्रियाणी माँ | तुम्हारे हृदय मे तो एक माता का ।" क्षत्रिय-पुत्र ने क्रोध मे आकर एक ठोकर उस हत्यारे को मारी ओर कहा-"अव तुझे अपनी माँ और बच्चो की याद आई हे ? हत्यारे उस समय क्या हुआ था जब तूने मेरे भाई की हत्या की थी ? क्या उसके कोई माता नही थी ? कोई भाई नही था ? कोई बच्चे नही थे ?” ठोकर खाकर हत्यारे का सिर भन्ना गया था। कुछ क्षण सास लेकर वह फिर गिडगिडाया___“ठोकरें मारलो। और ठोकरे मारलो । जीवन भर ठोकरे मारते रहो मालिक | मुझे अपना दास बनाकर रखो और ठोकरें मारते रहो। केवल मेरी जान न लो । मेरे बच्चों को अनाय मत करो ।" “वस वस, बेटा । रहने दे। गेड दे। जाने दे इसे अपने बच्चो के पाम.... ...." "क्या कहती हो माँ ।”-क्षत्रिय ने अपनी माता की बात सुनकर क्हा- "इसे जाने दूं? इसे जीवित हो जाने दूँ ? तुम होश मे तो हो' Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mumerama - - - - - --- - बदला १४५ अपने वर का बदला लिए विना, इसका शीप काटे बिना इसे छोड दूं ?" "हॉ, बेटा | छोड दे । मैं कहती हैं, इसे छोड दे । क्षमा कर दे । तु अभी नही समझेगा, लेकिन मेरे शरीर मे एक मॉ का हृदय हे । मै समझ सकती हूँ । जो होना था वह हो गया। गया हुआ समय ओर गया हुआ जीव फिर तो लौटता नही । अब इसे मारने से क्या मिलेगा ? तेरा भाई तो अव लौटकर आएगा नहीं ..." ___ "लेकिन माँ | वेर का वदला. . . . .।" "वैर की यह परम्परा ही नष्ट कर देनी है । अन्यथा इसका कही अन्त ही नही होगा । इसी प्रकार हत्याएं होती रहेगी। इसी प्रकार बालक अनाथ होते रहेगे, कुलवधुएं विधवा होती रहेगी, माताएँ पुत्रविहीना होती रहेगी । नही बेटा | छोड दे इसे । वदला पूरा हो चुका।" __'बदला पूरा हो चुका ?'-वात कुछ क्षत्रिय के समझ मे नही बैठी। हतबुद्धि होकर माँ की ओर देखता रह गया। किन्तु उसकी तलवार स्वत ही धीरे-धीरे म्यान मे चली गई। सध्या को वीर क्षवियाणी ने अपने एक नही, दो बेटो को स्नेहपूर्वक भोजन कराया और फिर उनमे से एक को विदा करते हुए कहा ___ "बेटा । अब कभी क्रोध न करना, हिंसा न करना, किसी को दुख न देना । यदि तू ऐसा करेगा तो मैं समझूगी कि बदला पूरा हुआ।" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की शरण में - तेतलिपुर के राजा कनकरथ के राज्य मे एक स्वर्णकार रहता था। उसका नाम था कलाद और उसकी पत्नी थी भद्रा। उनकी एक पुत्री थी पोट्टिला । वह अनिंद्य सुन्दरी थी। ___राजा के अमात्य का नाम तेतलिपुत्र था। वह बडा योग्य और चतुर था। एक दिन पोट्टिला स्नान-ध्यान के पश्चात् अपनी दामियो-सहेलियो के साथ अपने भवन की छत पर स्वर्ण-कन्दुक से क्रीडा कर रही थी। उसका अद्भुत रूप निखर रहा था । क्रीडारत युवती ओर आकर्षक लग रही थी। ___ उसी समय अपने घोडे पर सवार होकर अमात्य तेतलिपुत्र उस मार्ग से गुजरा। उसकी दृष्टि जव पोट्टिला पर पड़ी तव सोदर्य का शून उसके हृदय मे गड गया। वह उस सुन्दरी पर उसी क्षण मोहित हो गया। अपने सेवको ने उसने पूछा-- "ऐसा रूप ओर यौवन मैंने अपने जीवन मे ओर कही नहीं देखा। यह सुन्दरी कौन है ?” सेवको ने बताया कि वह स्वर्णकार कलाद की पुत्री है । इतना ही नही, उन्होंने माथ ही यह भी कहा--"स्वामी । ऐसा प्रतीत होता हे कि कुशल स्वर्णकार ने किसी सोने की सुन्दर पुतती का स्वय अपनी बेटी के रूप मे निर्माण किया है।" १४६ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . धर्म की शरण मे १४७ अमात्य जो स्वय मोहित हो चुका था, और भी विचार मे डूवा और आगे बढ गया। सध्या होते-होते तो अमात्य ने अपने अनुचर कलाद के पास भेज दिए और उसकी बेटी की मगनी करली। स्वर्णकार ने अपनी स्वीकृति सहर्प प्रदान करते हुए कहा “मेरा परम सौभाग्य | मुझ गरीव की बेटी की मांग करके अमात्य ने मुझ पर वडी कृपा की है।" शीघ्र ही अमात्य ओर पोट्टिला का विवाह हो गया। दाम्पत्य-जीवन आनन्द से चलने लगा। राजा कनकरथ अजीव आदमी था। उसे अपने राज्य, धन और अधिकार का ऐसा लोभ था कि वह अपने पुत्रो को वडा होने से पूर्व ही विकलाग कर देता था कि कही कोई पुत्र वडा और योग्य होकर उसका राज्य उससे न छीन ले। प्राय ससार मे ऐसा होता है कि पिता अपने पुत्र को अपने से भी अधिक योग्य एवं गुणवान बना हुआ देखना चाहते है । इसी मे उन्हे अपने पितृत्व की सार्थकता दिखाई देती है। किन्तु राजा कनकरथ की बुद्धि उल्टी दिशा मे दौडती थी। राजा को इस वृत्ति से रानी बडी दुखी थी ।एक बार जब जब गर्भवती थी तो उसने सोचा कि किसी प्रकार इस वार उत्पन्न होने वाली सन्तान को बचाना चाहिए । सोचते-सोचते उसने अमात्य से ही कोई उपाय खोजने के लिए कहा-"भाई, कुछ करो। राजा तो मेरे बच्चो को जीवित ही नही रहने देता । उनका अग-भग कर देता है। ऐसा जीवन भी कोई जीवन है ? कोई न कोई उपाय करो जिससे इस वार मेरी सन्तान बच जाय ।" अमात्य विचार मे पड गया। उसे कोई उपाय सूझ नही रहा था। वोला _ “महारानी | इस समय मुझे कोई मार्ग दिखाई नही दे रहा । किन्तु मैं कुछ न कुछ तो अवश्य ही करूँगा। मुझे आपके साथ पूरी सहानुभूति है।" ___“ऐसा करो अमात्य, कि इस वार पुत्र उत्पन्न होते ही तुम उसे मेरे पास से किसी न किसी प्रकार से ले जाओ, राजा की दृष्टि वचाकर, और चुपचाप, गुप्त रूप से उसका पालन करो। ईश्वर ने चाहा तो वह सकुशल Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं वडा होकर वृद्धावस्था मे मेरी सेवा करेगा ।" - स्वयं रानी ने ही एक उपाय सुझाया । वात अमात्य को भी जच गई । भाग्यवशात् रानी और पोट्टिला ने एक ही दिन पुत्र और पुत्री को जन्म दिया। रानी ने गुपचुप रूप से अमात्य को बुला भेजा और अपना नवजात शिशुपुत्र उसे सोपते हुए कहा- "यह मेरी अमानत लो। इसे सुरक्षित रखना । भूलना नही कि यह तुम्हारी महारानी का पुत्र है, उसकी अमानत है ।" " प्राण देकर भी इसकी रक्षा करूंगा ।" यह वचन देकर अमात्य बालक को ले गया । पोट्टला ने मृत कन्या को जन्म दिया । उसे रानी के पास ले जाकर सूचना फैला दी कि रानी ने मृत कन्या को जन्म दिया है । इस प्रकार राजा भी निश्चिन्त हो गया और रानी भी । पोट्टिला रानी के पुत्र को अपने ही पुत्र के समान पालने लगी । अमात्य ने पुत्र - जन्मोत्सव बडे ठाठ से मनाया । उसका नाम कनकध्वज रखा और उसका कारण यह बताया कि राजा कनकरथ के राज्य मे उत्पन्न होने के कारण ही यह नाम उसने पसन्द किया है । वालक वढने लगा। धीरे-धीरे वह सुन्दर युवक हो गया। सभी कलाओं में पारंगत । उधर मनुष्य का मन ही तो है, जाने कब किस दिशा मे चल पडे । अमात्य, जो इतने उत्लास से पोट्टिला को अपनी पत्नी बनाकर लाया था, अव उससे विरक्ति प्रदर्शित करने लगा । उसका मन अपनी सुन्दरी पत्नी से भर गया था । पोट्टिला बेचारी के जीवन मे दुर्भाग्य का आरम्भ हुआ और वह दुखी हो गई, चिन्तित रहने लगी । वैसे तेतलिपुत्र ने पोट्टिला पर कोई बन्धन नही रखा था । उसे दानपुण्य करने की पूरी छूट थी और घर की स्वामिनी भी पति ने उसे बना रखा था । केवल प्रेम की सुवास उड गई थी । जीवन- पुप्प के रंग तो दीखने मे ज्यो के त्यो थे । पोट्टिला इतने में ही सन्तोष माने बैठी थी । नगरी में पधारी । वे एक वार सुत्रता नाम की एक आर्या उस विदुषी थी। उनका शिष्य परिवार भी बडा था ब्रह्मचारिणी थी । वे ईर्ष्या-समिति से युक्त Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की शरण मे १४६ एक दिन उनकी अन्तेवासिनी साध्वियां भिक्षा हेतु तेतलिपुत्र के घर गई । आनन्दपूर्वक उन्हे आहार प्रदान करने के बाद पोट्टिला ने कहा“आर्याओ ' अन्य सभी सुख उपलब्ध होते हुए भी मुझे एक कष्ट है । किसी समय मैं अपने पति को वडी प्रिय थी । किन्तु अव उतनी ही अप्रिय हो गई हूं। वे मेरा दर्शन तक करना नहीं चाहते, अन्य प्रसंग की तो वात ही व्यर्थ है । आप तो नाना स्थानो में विचरण करती है, जाती है । आपके पास अनेक प्रकार की ओपध चूर्ण-गोली आदि होगी, या मन्त्र-तन्त्र होगे, जिनसे मैं अपने पति को अपनी ओर पुन आकर्षित कर सकूं। यदि हो तो कृपा करके दीजिए ।" उत्तर मिला "हम तो निर्गन्थ श्रमणियाँ है । ऐसा वचन सुनना भी हमे नही कल्पता है। दोप लगता है । हम तो तुम्हे धर्म का उपदेश ही दे सकती है जिससे तुम्हे शान्ति मिले । तुम्हारी आत्मा का कल्याण हो ।” पोट्टिला ने कुछ क्षण विचार किया और फिर कहा - “आप ठीक कहती है । मुझे धर्मोपदेश दीजिए ।” आर्याओ ने उसे धर्म का मर्म समझाया । उसका समुचित प्रभाव हुआ । पोट्टिला ने सत्य का साक्षात्कार किया और आर्याओ से श्राविका धर्म अंगीकार कर लिया । पूर्ण श्रद्धा से उस धर्म का पालन करती हुई वह जीवन-यापन करने लगी । कुछ समय बाद उसे ससार से पूर्ण अरुचि हो गई और वैराग्य- रस ने उसके हृदय को सोच दिया । अपने पति से आज्ञा लेकर उसने आर्या सुव्रता से दीक्षा ले ली । शेप जीवन मे तप ध्यान की आराधना कर अन्त मे मृत्यु को प्राप्त कर वह देवलोक मे देवता के रूप मे उत्पन्न हुई । राजा कनकरथ भी समय आने पर इस संसार को छोड़ गया । अब राजा कौन हो ? उस समय तेतलिपुत्र ने समस्त राज - पुरुषो के मध्य सत्य को प्रगट किया और कहा "राज्य का उत्तराधिकारी कनकध्वज है । वह राजा का ही पुत्र है । योग्य और गुणवान भी है । " प्रजा जो चिन्तित थी, वह हर्प मे डूब गई । कनकध्वज राजा वन गया । महारानी पद्मावती ने अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए कहा - - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ "अमात्य के कारण ही तेरा जीवन हे वे तेरे लिए पिता के ही तुल्य हे । उनका सदा सम्मान करना । " १५० देवलोक मे पोट्टिला देव ने विचार किया कि तेतलिपुत्र को प्रतिबोध देना चाहिए | उसने बार-बार प्रयत्न भी किया किन्तु अमात्य सकेतो को ग्रहण न कर सका, वह राज्य कार्य में ही डूबा रहता । उसे प्रतिवोधित न होते देख पोट्टिल देव ने सोचा कि राजा अमात्य का वडा आदर करता है, अत. अमात्य भोग-विलास मे ही डूबा रहता है । किसी प्रकार राजा को अमात्य का विरोधी बनाना होगा, तभी उसे प्रतिवोध प्राप्त होगा । उस कार्य मे देव सफल भी हो गया । राजा ने अस्तु, एक दिन अमात्य जब राजा के पास पहुंचा तब उसकी उपेक्षा की । अमात्य दुखी ओर चिन्तित होकर घर आया । मार्ग मे भी किसी ने उसकी ओर ध्यान नही दिया, घर पर भी उसकी उपेक्षा हुई । यह देख उसने आत्महत्या करने का निश्चय किया । भयंकर कालकूट विष उसने पी लिया । पर कुछ भी नही हुआ । तीक्ष्ण तलवार से उसने अपना गला काट लेना चाहा । पर कुछ भी नही हुआ । अशोक वाटिका में आकर उसने फांसी लगा लेने की कोशिश की । पर कुछ भी नही हुआ । रस्सी ही टूट गई । अब उसने एक वडी शिला अपनी गर्दन से बाधी और पानी मे कूद गया । पर अथाह जल छिछला हो गया । आग जलाकर उसमे कुदा, पर अग्नि ही शान्त हो गई । अमात्य विस्मित, चकित, निराश ओर दूखी । मोचता है— कौन विश्वास करेगा कि मैंने मरने का इतना प्रयत्न किया, किन्तु कुछ भी न हुआ वह गहन विचारो मे डूब गया ? ? उसी समय देव प्रकट हुआ । पोट्टिला का रूप धारण कर, कुछ दूर खड़े रहकर उसने कहा "हे तेतलिपुत्र । आगे बड्डा है और पीछे हाथी का भय है। दोनो बगलों में सघन अन्धकार है। मध्य भाग मे वाणों की वर्षा हो रही है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गॉव मे आग लगी हे ओर वन धधक रहा है। अब आयुष्मान् । विचार करो-शरण कहाँ है ?" तेतलिपुत्र विस्मित-विमूढ । देव ने फिर पूण, ओर तब वह वोल उठा-"धर्म ही शरण है-धर्म ही शरण है।" “ठीक कहते हो । सयमी, तपी, जितेन्द्रिय पुरुप को कोई भय नही है। धर्म ही शरण है।" देव अदृश्य हो गया। तेतलिपुत्र को प्रतिवोध मिला। शुभ परिणामो के उदय होने से उसे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्व भवो का ज्ञान हो जाने के बाद उसने स्वयं ही महाव्रतो को अगीकार किया और विचरण करते हुए प्रमदवन मे आया। वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे शान्तिपूर्वक विहार करते हुए उसे पहले अध्ययन किए हुए चौदह पूर्वो का सहज ही स्मरण हो आया। शीघ्र ही तेतलिपुत्र अनगार ने शुभ परिणाम से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणोय, मोहनीय और अन्तराय चार घाति कर्मों का नाश किया। उन्हे उत्तम केवलज्ञान और दर्शन की प्राप्ति हुई। ___ इस प्रकार तेतलिपुत्र ने बहुत समय तक केवलि अवस्था में रहकर अन्त मे परम सिद्धि प्राप्त की। जो धर्म की शरण मे आया, वह स्वयं ही संसार के समस्त प्राणियो का शरणदाता बन गया। -जातासून १४ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कर्म-चक्र चम्पानगरी के सोम, सोमदत्त और सोममूर्ति बन्धुओ की पत्नियां थी नागश्री, भूतश्री तथा यक्षश्री । एक दिन नागश्री ने भोजन बनाया। कडवी लोकी थी। नागश्री जानती नही थी । साग जो बना वह कडवा, विषमय हो गया। उसने वह साग जैन मुनि धर्मरुचि को बहरा दिया, जिसके कारण दयामूर्ति मुनि की मृत्यु हो गई। लोगो को जब इस घटना का पता चला तब उन्होने नागश्री को बहुत धिक्कारा । उसके घर वालो ने भी ऐसी स्ती को घर में रखना उचित नहीं समझा और निकाल बाहर किया। अपने जीवन के अन्तिम समय मे आर्त एवं रौद्र के ध्यान के कारण वह मृत्यु पश्चात् नरकगामी बनी। अनेक जन्मो मे इसी प्रकार भटकते हुए एक जन्म मे वह चम्पानगरी मे ही सागरदत्त की पत्नी भद्रा की कुंख से उत्पन्न हुई। उसका नाम सुकुमालिका रखा गया। नाम के ही अनुरूप वह सुन्दर ओर सुकुमार थी, किन्तु विपकन्या थी। उसके पूर्व जन्मो के कुकृत्यो के परिणामो ने अभी उसको छोडा नहीं था। __उसका विवाह जिनदत्त सार्यबाह के पुत्र सागर से हुआ, किन्तु विपकन्या होने के कारण सागर ने उसका त्याग कर दिया। इसी प्रकार किमी दरिद्र व्यक्ति के माथ जब उसका विवाह किया गया, तो वह भी उसे गेट नागा। १५२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-चक्र १५३ निदान निराश ओर दुखी होकर सुकुमालिका ने आर्या गोपालिका से दीक्षा ले ली। एक बार सुभूति नामक उद्यान मे तप करते हुए उसने देवदत्ता नामक गणिका को पाँच पुरुपो के साथ क्रोडा करते देखा। उसकी सोई हुई वासनाएँ जाग उठी । उसने संकल्प किया कि यदि उसके तप का कोई भी फल हो, तो उसे भो पाँच पुरुपो का सयोग प्राप्त हो । जीवन क्रम चलता रहा । एक जन्म मे वह द्रपद राजा के घर कन्या वनकर जन्मी । उसका नाम द्रोपदी रखा गया । अवस्था प्राप्त होने पर जव उसका स्वयंवर रचा गया, तव वह पाँच पाण्डवो की पत्नी बन गई । एक बार महर्षि नारद घूमते-घामते हस्तिनापुर आ पहुंचे। उपस्थित जन-समुदाय ने उनका स्वागत किया। किन्तु नारद को असंयत और अविरत जानकर द्रोपदी ने उन्हे नमस्कार तक नहीं किया। नारद तो जन्म का हठी और छली था। उसने वैर की गाँठ बाँध ली। द्रोपदी से बदला लेने का उसका निश्चय हो गया। नारद अपरकंका नगरी के राजा पद्मनाभ के पास गया । द्रोपदी के रूप-गुण की प्रशसा कर बहुत-सी उल्टी-सीधी वाते की और देव की सहायता से द्रोपदी को वहाँ मॅगा लिया। पाण्डव परेशान और चिन्तित हो गए। किन्तु उनके सहायक थे श्रीकृष्ण । वासुदेव श्रीकृष्ण ने वस्तुस्थिति का पता लगाकर पद्मनाभ पर आक्रमण किया और युद्ध में उसे परास्त कर द्रोपदो को लौटा लिया। द्रोपदी को पाण्डवो के साथ रहते हुए अन्य अनेक प्रकार के कष्ट भी भोगने पडे । वस्तुत वे कष्ट स्वयं उसके अपने ही पूर्व कृत्यो के दुष्परिणाम थे। __ अन्त मे पाण्डवो ने प्रव्रज्या ग्रहण की और साधना के मार्ग पर चलते हुए सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। इसी प्रकार द्रोपदो भी आर्या बनी। अब उसने शुद्ध साधना की। उस साधना के बल से वह अन्त मे महाविदेह मे मुक्त होगी। -~-ज्ञाता० Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ त्याग का अर्थ मनुष्य स्वय चाहे कोई अच्छा कार्य न कर सके, किन्तु यदि कोई दूसरा व्यक्ति कुछ अच्छा कार्य करता है तो वह जल उठता है ओर उसकी निन्दा करने लगता है- अरे, इसमे क्या रखा है, यह तो हम भी कर सकते थे । । कर सकते थे, किन्तु किया तो नही कर ही नही सकते। जो कुछ वे कर सकते है की टॉग खीचकर उसे गिराने का प्रयत्न करें अथवा उसकी निन्दा करें | वस्तुत ऐसे व्यक्ति स्वयं कुछ वह यही कि कुछ करने वाले एक कठियारा था । उसने गणधर सुधर्मा स्वामी का उपदेश सुना और आत्म-ज्ञान प्राप्त होने से प्रव्रज्या ग्रहण कर साधु-जीवन व्यतीत करने लगा । सदा अप्रमत्त रहकर कठोर साधना वह किया करता । . किन्तु जिनसे स्वयं कभी कोई त्याग हो नही सकता ऐसे कापुरुष लोग चुप कैसे बैठते ? वे आपस मे उस श्रमण की निन्दा करके ही अपना नपुंसक पौरुप जताते "इस कठियारे को तो देखो, श्रमण बना है । हा भाई और करता भी क्या ? भूखा मरता था । खाने को दाने नही थे, तन ढकने को नही ये तो सोचा श्रमण ही बन जाओ। इस त्याग में क्या रखा है। इसके पास या ही क्या जो बडा त्यागी बना फिरता है ? ऐसा त्याग तो कोई भी कर सकता है ।” १५४ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग का अर्थ ऐसी निरर्थक बात उस श्रमण के कानों में उसकी मन की शांति उससे मग होती थी । विनय की , 2 जाती । उसी ने " प्रभु | मुझे अन्यत्र ने चलिए । यह बहुत निरा कहते है ।" अभयकुमार को जब उस स्थिति का पता चला तो वह तुरंत सुन स्वामी के पास पहुँचा । वह अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति था। उस युग में स कुमार की तीव्र बुद्धि की समानता करने वाले व्यक्ति ने गिनी। उसने सुधर्मा स्वामी से कहा " आप तनिक भी चिन्ता न कीजिए तथा चहा कीजिए । में इन लोगो की भ्रान्त धारणा का समुचित समाधान सही मार्ग पर ला दूंगा ।” अव अभयकुमार ने रत्नों की तीन टेरिया माजी नगर न घोषणा कराई कि अभयकुमार रत्न-दान करगे, च्छुक व्यक्ति एक हो जायँ । बिहार के न उन्ह वे ही सब लोग जो श्रमण के त्याग की निन्दा करते नहीं के, लोभ के मारे हजारो की संख्या मे एकत्र हो गए । अभयकुमार ने कहा "यह रत्न - राशि उसी व्यक्ति को दी जायगी जो अग्नि, जल जार नारी का त्याग करेगा ।" लोभी ओर लालची ओर विलासी सब लोग कभी उस रत्न - राशि की ओर देखते तथा कभी अपने साथियो की ओर । किन्तु उनमे से एक भी ऐसा न था जो आगे आकर कहता कि में इन तीन वस्तुओं का त्याग करता हूँ | सभी यह सोच रहे थे - जल का त्याग कैसे हो ? जत तो जीवन हे । अग्नि न होगी तो भोजन कैसे बनाएँगे ? ओर नारी के बिना रहेंगे कैसे गर्म लोहे पर जिस प्रकार हथोडा चोट करता है उस प्रकार गम्भीर स्वर मे अभयकुमार ने उस समय कहा मुर्खो ' केवल दूसरे की निन्दा करना ही सीखे हो ? लोभी इतने हो कि भिखारियो की तरह रत्न लेने चले आए। किन्तु तुममे से एक भी ऐसा Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ नही, किसी मे भी इतना साहस नही कि इन तीनो वस्तुओं का त्याग कर सके ?" "केवल बढ़-बढकर बाते बनाना ही सीखे हो, लेकिन समय आने पर कुछ कर सको ऐसा तुममे से एक भी नही है ।" " वस्तु छोटी हो या वडी, महत्व तो उस पर से ममत्व भाव हटाने का है । और यह कोई सरल बात नही है । सच्चे त्यागी ही ऐसा कर सकते हे, तुम लोगो के वश की वह बात नही है ।" " जिस वस्तु का त्याग किया जा रहा है वह वस्तु प्रधान नही होती, इस बात को अच्छी तरह समझ तो आत्मा पर कालुष्य की पर्ते मत त्याग की भावना ही प्रधान होती है । और किसी की निन्दा करके अपनी चढाओ ।" "नागरिको । जिसे तुम दरिद्र ओर कंगाल कहकर उसके त्याग की खिल्ली उडाते हो, जरा उसके हृदय की पवित्रता के पुनीत वैभव को देखो । उसने अपने मनोविकारो का त्याग किया है । क्या तुम ऐसा कर सके ? क्या तुम ऐसा कर सकते हो ?" निरुत्तर, लज्जित वे सब लोग वहाँ से चुपचाप खिसक गए। उन्हें अपनी भूल समझ में आ गई थी ओर वे जान गए थे कि त्याग का अर्थ क्या है | - वरावैकालिक 11.0 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० निरुत्तर जमाली भगवान महावीर संसार त्याग कर लोक कल्याण की दृष्टि से धर्म का सदुपदेश देते हुए स्थान-स्थान पर विचरण कर रहे थे । उनके उपदेशो का प्रभाव ऐसा था कि उन्हे सुनकर लोगो को सच्ची आत्मिक शान्ति प्राप्त होती थी और वे धर्म की ओर उन्मुख हो जाते थे । एक बार वे विचरण करने हुए कुण्डलपुर पधारे। उनकी बहिन सुदर्शना का पुत्र जमाली भी उनका उपदेश सुनने गया । विद्वान् था | अनेक कलाओ तथा धर्म नीतियों का उसे समुचित ज्ञान था । भगवान का उपदेश सुनकर वह इतना प्रभावित हुआ कि अपने साथ के पाँच सौ क्षत्रिय कुमारो के साथ उसने भगवान से दीक्षा ग्रहण कर ली । उसकी पत्नी थी प्रियदर्शना । वह भगवान महावीर की पुत्री ही थी । जव उसने देखा कि पति ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली है, तब उसने भी पति के मार्ग का अनुसरण करना ही श्रेयस्कर समझा और अपनी एक हजार सहचरियों के साथ उसने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । इस विशाल मुनि परिवार के साथ भगवान धर्मोपदेश देते हुए स्थानस्थान पर विचरण करते रहे । एक वार अनगार जमाली विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी मे पहुँच कर वहाँ तिन्दुक उद्यान में ठहरे। उस समय शरीर से वे बहुत दुर्बल हो चुके थे । अशक्ति इतनी आ चुकी थी कि चलना-फिरना तो दूर, वे बैठे भी नही रह सकते थे । अत उन्होने अपने शिष्यों से कहा १५७ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं " बहुत अशक्त हो गया हूँ । बैठना भी अव शक्य नही रहा । मेरे लिए शय्या तैयार कर दो ।" १५८ शिष्य शय्या तैयार करने लगे । कुछ समय लगना स्वाभाविक था । जमालो धैर्य न रख सके । अशक्ति के कारण धैर्य भी कम हो गया था । उन्होंने पूछा इतना विलम्व ? शय्या तैयार हो गई क्या ?” " शय्या तैयार हो रही है, गुरुदेव । अभी तैयार हुई नही ।" इस उत्तर को सुनकर जमाली विचार करने लगे-- भगवान महावीर का कथन है कि जो कार्य प्रारम्भ हो चुका है, उसे किया ही समझना चाहिए | किन्तु यह तो सत्य प्रतीत नही होता । यह तो प्रत्यक्ष मे ही लोकविरुद्ध दीखता है । ऐसा सोचते-सोचते जमाली ने निश्चय किया कि हे वह सत्य नहीं है, सत्य तो मैने ही खोज निकाला है। आया । उसने अपने शिष्यों से कहा "भगवान महावीर कहते है कि " जो कार्य प्रारम्भ हो गया है, उसे किया ही समझना चाहिए" - यह कथन ठीक नही है । में कहता हूं-- कार्य की समाप्ति पर ही उसे 'कृत' अथवा किया हुआ कहा जा सकता है। कार्य को आरम्भ करते ही 'कृत' कहना गलत है ।" भगवान जो कहते उसके मन मे गर्व इस प्रकार उसने अपना नया सिद्धान्त गढ लिया ओर स्वस्थ होकर विचरण करते हुए वह अपने इन विचारो का प्रचार करने लगा। प्रियदर्शना ने भी जमाली के पक्ष को ही मत्य मान लिया और वह भी ऐसा ही प्रचार करने लगी । उन दोनों के बहुत से शिप्य और शिष्याएँ इस प्रकार के विरोधी प्रचार से असन्तुष्ट होकर भगवान के शासन में चले गए । समय व्यतीत होता रहा । एक बार प्रियदर्शना टक नामक एक कुम्भकार के यहां ठहरी थी। वह भगवान का भक्त था । प्रियदर्शना ने उस अपने पक्ष मे लेने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उसे तो भगवान् की बात ही उचित लगी और वह टस से मस न हुआ । उसे दुखी किय भगवान की पुत्री ही उनके कथन में अथवा रखने लगी है विरोधी प्रचार करती है। नोचते-सोचते उसने प्रियदर्शना को मीठे माग का एक उपाय खोज ही लिया । रा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुत्तर जमाली १५८ जिस समय प्रियदर्शना की शिष्याएँ स्वाध्याय में निरत थी, उस समय ढक ने एक अगारा उनकी शादी पर रख दिया। मालूम होते ही प्रिय दर्शना उसकी भर्त्सना करती हुई बोली “आर्य | यह क्या करते हो ? हमारी शाटी जल गई है ।" ढक को इसी अवसर की तलाश थी। उसने कहा " आपके मत से आपकी बात ठीक नही है शाटी का अभी एक पल्ला ही जला है, पूरी शाटी नही जली । फिर 'शाटी जल गई' यह आप कैसे कहती है ? यह वचन प्रयोग तो आपके मत के प्रतिकूल है । " प्रियदर्शना ने सकेत को समझा और सत्य को भी समझ लिया । उसने अपने मिथ्या विचारो की आलोचना करके पुन. भगवान का शासन स्वीकार कर लिया | जमाली ने जब यह सुना तो उसे एक धक्का-सा लगा । उसके अहं पर चोट पहुँची । वह श्रावस्ती से चम्पा पहुँचा और भगवान के समक्ष जा पहुँचा और कहने लगा “देवानुप्रिय | जब मैं आपके पास से गया था तब छद्मस्थ था । अब मै सर्वज्ञ हूँ, केवली हूँ और जिन हूँ ।" गणधर गौतम भगवान के समीप ही बैठे थे । उन्होने जमाली से प्रश्न किया -- "यदि आप सर्वज्ञ है, तो बताइये कि यह लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? गणधर गौतम की ज्ञान गरिमा अद्भुत थी । जमाली हतप्रभ होकर मौन रह गया । कोई भी उत्तर वह न दे सका । तव भगवान ने शान्त और मधुर वाणी मे कहा - “जमाली । मेरा एक छोटे से छोटा शिष्य भी इन प्रश्नो का उत्तर दे सकता है । तुम वह भी न दे सके ।" जमाली के पास कोई उत्तर नही था, चुपचाप लौट आया । अनेक वर्षों तक उसने चारित्र का पालन किया । किन्तु अपने मिथ्या विचारो के कारण वह श्रद्धा-भ्रष्ट हो गया था । वह अपने जीवन का कल्याण नही कर सका । उसकी साधना निरर्थक हुई । -भगवती ह|३३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ धन्य थे वे मुनि ! देवकी और वसुदेव की आँखो का तारा, कृष्ण का लाडला, सारी द्वारिका नगरी का दुलारा गजसुकुमाल धीरे-धीरे बचपन से यौवन मे प्रवेश कर रहा था । वह सुन्दर था, सुकुमार था - फूलो जैसा कोमल ओर सुन्दर । लोग कहते थे-इतना सुन्दर ओर होनहार बालक कभी देखा न सुना ! किन्तु वमुदेव, देवकी ओर कृष्ण को एक चिन्ता गजसुकुमाल के विषय मे मताया करती थी । उसके जन्म से पूर्व ही आकाशवाणी हुई थी - 'तरुणाई के मोड पर पहुँचते ही राजकुमार भिक्षु जीवन अगोकार करेगा ।" अन वे सब लोग उसे कही इधर-उधर नहीं जाने देते थे । उन्हें आशंका रहती थी कि राजकुमार किसी ऐसी वस्तु को न देख ले, ऐसे व्यक्ति ने उसकी नेट न हो जाय, कि जिससे उसका मन वैराग्य की ओर खिच जाय । किन्तु एक दिन कृष्ण की सारी चतुराई धरी की धरी रह गई । भगवान नेमिनाथ द्वारिका पधार कर सहस्राम्र वन में विराने थे । देवकी और कृष्ण गजसुकुमाल में दृष्टि वचकार उनके दर्शन के लिए जाने लगे । किन्तु गजसुकुमाल ने देख लिया और वह कृष्ण के समीप ही हावी पर जा बैठा । विवश होकर उन्हें उसे अपने साथ ही जाना प मार्ग में कृष्ण की एक नवन की छत पर जातियों के नाव कीडारत ए सुन्दरी वातिका पर पडी । वह बालिका कृष्ण की ग ܕܐ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्य थे वे मुनि । १६१ सुकुमाल के लिए सभी प्रकार से सुयोग्य जान पडी । उसने मन ही मन निश्चय किया कि इस तालिका के माता-पिता से उसको मॉग वे करेंगे । वह वालिका सोमिल नामक ब्राह्मण की कन्या सोमा थी । अपने इस निश्चय को उन्होने कार्यरूप में परिणत भी कर दिया । सोमिल ने अपना भाग्य सराहा और सहर्ष कृष्ण का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । भगवान के दर्शन कर जब सब लोग अपने-अपने घर लौटे तब गजसुकुमाल अपना जीवन- ध्येय निश्चित कर चुका था । वैराग्य का दीपक उसके हृदय मे प्रज्वलित हो चुका था । और उसने अपना संकल्प सबके सामने प्रकट भी कर दिया । वहुत समझाया गया, बडे-बडे प्रलोभन दिए गए, किन्तु गजसुकुमाल समस्त वैभव-विलास को एकवारगी ही तिलाजलि देकर अपने मार्ग पर चल पडा – उसने भगवान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । और उसी दिन वह जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेने के प्रयत्न मे भी जुट गया । कैसा दृढ सकल्प था । कितनी अटल श्रद्धा थी । कैसा अद्भुत साहस था । साध्य वेला थी । दिन भर उडाने भरने के बाद पक्षी अपने नीडो को लौट रहे थे । प्रकृति अद्भुत सध्या राग मे डूबी थी । उस पवित्र वेला मे मुनि गजसुकुमाल एक स्थान पर ध्यानस्थ खडे थे— जीवन और जगत से दूर, बहुत दूर, ऊपर, बहुत ऊपर अपने आत्मलोक मे लवलीन, समाधिस्थ | उसी समय सोमिल ब्राह्मण उधर से गुजरा। उसने 'गजसुकुमाल को मुनिवेश मे देखा और सोचा- मेरा भावी जामाता इस वेश मे ? मेरी फूलो जैसी कोमल बेटी के जीवन के साथ यह खिलवाड ? पिता का हृदय था, उसमे ठेस लगी, और क्रोध मे आकर अपना भान भूल गया । भीपण अन्ध क्रोध से परिचालित होकर उसने समीप की तलैया से गीली मिट्टी निकाली और ध्यानस्थ तपस्वी के सिर पर पाल बाँधी । किसी जलती चिता से धधकते अगारे लाकर उसने उनके मस्तक पर रख दिए और वहाँ से भाग गया । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ धन्य थे वे मुनि ! देवकी और वसुदेव की आँखो का तारा, कृष्ण का लाडला, सारी द्वारिका नगरी का दुलारा गजसुकुमाल धीरे-धीरे बचपन से यौवन मे प्रवेश कर रहा था । वह सुन्दर था, सुकुमार था-फूलो जैसा कोमल और सुन्दर । लोग कहते थे-इतना सुन्दर और होनहार बालक कभी देखा न सुना । किन्तु वसुदेव, देवकी और कृष्ण को एक चिन्ता गजसुकुमाल के विषय मे सताया करती थी । उसके जन्म से पूर्व ही आकाशवाणी हुई थी _ 'तरुणाई के मोड पर पहुंचते ही राजकुमार भिक्षु जीवन अंगोकार करेगा।' अत वे सब लोग उसे कही इधर-उधर नहीं जाने देते थे। उन्हे आशंका रहती थी कि राजकुमार किसी ऐसी वस्तु को न देख ले, ऐसे व्यक्ति ने उसकी भेंट न हो जाय, कि जिससे उसका मन वैराग्य की ओर खिंच जाय। किन्तु एक दिन कृष्ण की सारी चतुराई धरी की धरी रह गई। भगवान नेमिनाथ द्वारिका पधार कर सहलाम्र वन मे विराजे ये। देवकी और कृष्ण गजसुकुमाल से दृष्टि बचकार उनके दर्शन के लिए जाने लगे। किन्तु गजसुकुमाल ने देख लिया और वह कृष्ण के समीप ही हाथी पर जा बैठा । विवश होकर उन्हे उसे अपने साथ ले ही जाना पडा। मार्ग मे कृष्ण की दृष्टि एक भवन की छत पर अपनी महेलियो के माय क्रीडारत एक सुन्दरी वालिका पर पडी । वह बालिका कृष्ण को गज १६० Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्य थे वे मुनि । १६१ सुकुमाल के लिए सभी प्रकार से सुयोग्य जान पडी । उसने मन ही मन निश्चय किया कि इस बालिका के माता-पिता से उसकी माँग वे करेंगे । वह वालिका सोमिल नामक ब्राह्मण की कन्या सोमा थी । अपने इस निश्चय को उन्होने कार्यरूप मे परिणत भी कर दिया । सोमिल ने अपना भाग्य सराहा और सहर्प कृष्ण का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । भगवान के दर्शन कर जब सब लोग अपने-अपने घर लौटे तब गजसुकुमाल अपना जीवन ध्येय निश्चित कर चुका था । वैराग्य का दीपक उसके हृदय मे प्रज्वलित हो चुका था । और उसने अपना सकल्प सबके सामने प्रकट भी कर दिया । बहुत समझाया गया, बडे-बडे प्रलोभन दिए गए, किन्तु गजसुकुमाल समस्त वैभव-विलास को एकवारगी ही तिलाजलि देकर अपने मार्ग पर चल पडा - उसने भगवान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । और उसी दिन वह जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेने के प्रयत्न मे भी जुट गया । कैसा दृढ सकल्प था । कितनी अटल श्रद्धा थी । कैसा अद्भुत साहस था । साध्य बेला थी । दिन भर उडाने भरने के बाद पक्षी अपने नीडो को लौट रहे थे । प्रकृति अद्भुत सध्या राग मे डूबी थी । उस पवित्र वेला मे मुनि गजसुकुमाल एक स्थान पर ध्यानस्थ खडे थे— जीवन और जगत से दूर, बहुत दूर, ऊपर, बहुत ऊपर अपने आत्मलोक मे लवलीन, समाधिस्थ | उसी समय सोमिल ब्राह्मण उधर से गुजरा। उसने गजसुकुमाल को मुनिवेश मे देखा और सोचा - मेरा भावी जामाता इस वेश मे ? मेरी फूलो जैसी कोमल वेटी के जीवन के साथ यह खिलवाड ? पिता का हृदय था, उसमे ठेस लगी, और क्रोध मे आकर अपना भान भूल गया । भीषण अन्ध क्रोध से परिचालित होकर उसने समीप की तलैया से गीली मिट्टी निकाली और ध्यानस्थ तपस्वी के सिर पर पाल बाँधी । किसी जलती चिता से धधकते अंगारे लाकर उसने उनके मस्तक पर रख दिए और वहाँ से भाग गया । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ भीषण उपसर्ग था । मुनि गजसुकुमाल का मस्तक जल रहा था । चमडी जल गई थी, धीरे-धीरे मास और मज्जा भी जलने लगे । जो वेदना उस समय तरुण तपस्वी को हुई होगी उसकी कल्पना भी दुष्कर है । वर्णन की तो बात ही क्या ? १६२ किन्तु धन्य है उस योगी का धैर्य ओर धन्य है उसका क्षमा भाव । मन के किसी गहन से गहन कोने मे भी, क्षणाश के लिए भी, तनिक भी वैर भाव नही, जरा-सा भी रोप या क्रोध नहीं, प्रतिशोध का विचार मात्र तक नही । गजसुकुमाल मुनि ने देह ओर आत्मा के भेद को जान लिया था । आत्मा की विभाव परिणति से स्वभाव परिणति मे रम चुके थे । सुख ओर दुख की सीमाओ को पार कर वे उस शाश्वत आनन्द की भूमि पर पहुँच गए थे जहाँ पहुँच कर आत्मा सव कुछ प्राप्त कर लेता है । धन्य थे वे मुनि जो एक ही दिन मे साधक बनकर अजर, अमर और शाश्वत बन सके । धधकते अंगारो से जब मस्तक जल रहा था तब उन मुनि ने अवश्य ही यह सोचा होगा - कोई किसी को कष्ट नही देता । अपने कर्मों का आत्मा स्वयं ही भोक्ता है । मेरे पूर्व कृत कर्म ही आज इस परिणाम के रूप में प्रकट हुए है । अच्छा ही है, इन कर्मो को आज भस्म हो जाने दूँ • धन्य थे वे मुनि जो ऐसी भीपण और दारुण स्थिति मे भी ऐसी उच्च और पवित्र भावना भा सके होगे । भगवान के चरणो मे श्रीकृष्ण बैठे थे । उन्होने पूछा “भगवन् । गजसुकुमाल कहाँ है ? वन्दन करना चाहता हू और अपने प्रश्न के उत्तर मे श्रीकृष्ण ने जो कुछ सुना वह उनके लिए अप्रत्याशित था । भगवान ने बताया יין "वह कृत-कृत्य हो गया, कृष्ण ?” विस्मय- विमूढ कृष्ण कुछ क्षण तो यह समझ ही न पाये कि भगवान ने क्या कहा है । धीरे-धीरे जब शब्दो का अर्थ उनके मस्तिष्क तक पहुँचा तब वह कातर हो गये । उन्होने पूछा “भगवन् | आपने यह क्या बताया ? क्या एक ही दिवस मे उस Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्य थे वे मुनि । छोटे-से, सुकोमल बाल-साधक ने साधना के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया? यह कैसे हुआ, भते ?" भगवान ने सारी घटना श्रीकृष्ण को बताई और कहा "आत्मा मे अनन्त वल है, कृष्ण । ऐसा कुछ नही जो वह न कर सके।" श्रीकृष्ण के शोक और विह्वलता की कोई सीमा न थी। उन्होने पूण "कौन है वह अनार्य ? भते | किसने यह दुष्कर्म करने का साहस किया है ?" "तुम नगर मे प्रवेश करते ही उसे देख सकोगे।" - भगवान ने कहा । श्रीकृष्ण भगवान को नमन कर चल पडे । उधर सोमिल ने जव सुना कि श्रीकृष्ण भगवान नेमिनाथ को वन्दन करने गए है, तब वह भयभीत हो गया कि अब उसका पाप प्रगट होकर ही रहेगा । वह अपने प्राणो का मोह लेकर, भयभीत होकर भागा। किन्तु नगर-द्वार के समीप ही उसने दूर से श्रीकृष्ण को गंभीर क्रोध की मुद्रा मे आते देखा और भयातुर होकर, पछाड खाकर भूमि पर गिर पड़ा। उसके पापी प्राण-पखेरू उड चुके थे। द्वारिका के घर-घर मे गजसुकुमाल के अपूर्व, अद्भुत क्षमाभाव का यशोगान गंज उठा। -अन्त कृद्दशा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ में भिक्षु बनूंगा! पोलासपुर की नगर वोथियो मे एक भव्य व्यक्तित्व वाले मुनि एक घर से दूसरे घर मे भिक्षा लेते हुए चले जा रहे थे। उनका मस्तक उन्नत, विशाल और कान्तिमय था । चमकते हुए नेत्रो से प्रेम, करुणा ओर शान्ति की अजस्र वर्पा हो रही थी। अन्य कोई नहीं, ये गणधर गौतम ही थे। बहुत से वालक इधर-उधर अपनी बाल-क्रीडा मे निमग्न थे। किसी ने गौतम को देखा, किसी ने नहीं देखा। ___ किन्तु एक बालक ने उन्हे ऐसा देखा कि उसके जीवन मे से फिर वह व्यक्तित्व कभी निकल ही न सका। वह बालक वडा सुन्दर, सुकुमार और तेजस्वी दिखाई देता था। गौतम को देखकर वह अपना खेल भूल गया। एक अज्ञात आकर्षण ने उसकी आत्मा को खीच लिया। अपने साथियो को छोडकर वह दोडा-दोडा गौतम के पास आया और पूछने लगा "आप कौन है ?" गौतम ने मन्द मुसकान बिखेरते हुए कहा"मैं एक भिक्ष हूँ । बस, मेरा तो इतना ही परिचय है।" किन्तु वालक की जिज्ञासा इतने उत्तर से शान्त नहीं हुई। उसने और पूछा "तो आप क्या कर रहे है ? इन घरो मे क्यो घूम रहे है ?" Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मै भिक्षु बनूंगा । " वत्स | मैं भिक्षा लेने के लिए इन घरो मे जाता हूँ ।" 1 १६५ बालक ने सोचा कि मुनि को बड़ा कष्ट हो रहा है, घर-घर में घूमना पड रहा है । वह तुरन्त बोला " आप हमारे घर चलिए । मेरो माता आपको खूब भोजन देगी ।" गौतम इस बालक के स्नेह और भक्ति के आगे विवश से हो गए। वालक ने उनकी अँगुली पकड़ ली और ले चला अपने घर की ओर । वह वालक पोलासपुर का राजकुमार अतिमुक्त था । जब वह गौतम को लेकर महल मे पहुँचा तो रानी वडी प्रसन्न हुई । उसने गोतम को भिक्षा प्रदान की । उन्होने अपनी मर्यादा के अनुसार भिक्षा ली और बालक अतिमुक्त के उत्तम सस्कारो से प्रसन्न हो लौटने लगे। तभी अतिमुक्त ने पूछा "मुनिवर । अब आप कहाँ जा रहे हे ?" गौतम ने जब बताया कि वे नगर से बाहर अपने धर्मगुरु के पास जा रहे है तो अतिमुक्त भी उनके दर्शन करने के लिए उतावला हो गया । उसके बाल मन मे विचार उठ रहा था - ऐसे भव्य मुनिराज के धर्मगुरु कैसे महान् होगे ? उनके दर्शन तो अवश्य ही करने चाहिए। उसने कहा-"मुझे उनके दर्शन करने ले चलिए । " अतिमुक्त गौतम के साथ प्रभु के पास आया । गौतम ने प्रभु को वन्दन किया । अतिमुक्त ने भी उसी प्रकार भक्तिभाव से प्रभु को वन्दन किया । प्रभु ने उसे अपनी मधुर वाणी मे उपदेश दिया । अतिमुक्त के जीवन की दिशा मे एक परिवर्तन का आरम्भ तो गणधर गौतम के दर्शन के साथ ही हो चुका था, अब प्रभु का उपदेश सुनकर वह पूर्णता को पहुँच गया । अतिमुक्त ने अटल सकल्प कर लिया कि वह भी वैसा ही बनेगा जैसे गौतम है, जैसे प्रभु है । घर आकर उसने अपना निश्चय अपने माता-पिता को कह सुनाया - मैं भिक्षु वनूँगा । माता-पिता ने इसे वालक के मन की एक क्षणिक - मौज समझा । कोई सामान्य-सा उत्तर देकर वे उसे खेलने-कूदने के लिए कहने लगे । किन्तु अतिमुक्त अपनी बात पर अड़ा रहा। उसने कहा- मैं तो भिक्षु वनूंगा । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं माता-पिता अब थोडा चाके । कुछ चिन्तित भी हुए। उसे समझाते हुए कहने लगे ___"बेटा । तू कैसी बचपने की बात करता है। भिक्षु बनना कोई बच्चो का खेल हे ? यह तो बडा कठिन कार्य हे, वत्स | जो अगारो पर चल सकता हो, वही भिक्षु बन सकता है । जाओ, तुम तो खेलो-कूदो ।” किन्तु उस तेजस्वी ओर निर्भय बालक को बहलाना अब किसी के वश की बात नही थी। उसका तो एक ही संकल्प और एक ही कथन था-मै भिक्षु बनूंगा। अपने माता-पिता की सारी वातो को सुनकर उसने यही कहा“पूज्य । मेरा निश्चय अटल है। अपनी शक्ति को मै जान चुका हूँ। मैं अगारो पर चल सकता हूँ । असिधारा से खेल सकता हूँ। कोई भी भय मुझे अपने मार्ग से डिगा नही सकता-मैं भिक्षु बनूंगा।" उस अडिग संकल्पवान आत्मा के समक्ष किसी को कुछ भी न चली। माता-पिता ने विवश होकर उसे मुनि-जीवन मे जाने की आज्ञा दी, किन्तु उससे पूर्व एक बार सिंहासन पर आसीन होने के लिए आग्रह किया। ___अतिमुक्त ने अपने पूज्य माता-पिता के इस आग्रह को निर्विकार भाव से स्वीकार किया और उसके बाद भगवान के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। वाल-मुनि अतिमुक्त भगवान के साथ साधना करते हुए विचरण करने लगा । गम्भीरता और विवेक उसमे जन्मजात थे। अब उसके ये गुण और भी विकसित होने लगे। फिर भी वालक तो वालक ही है । अवस्था का प्रभाव तो मनुष्य पर पडता ही है । एक-वार वा काल था। स्थविरो के साथ अतिमुक्त श्रमण भी विहार भूमि को निकला था। स्थविर इधर-उधर बिखर गए थे। अतिमुक्त ने देखा कि पानी कल-कल, छल-छल करता बह रहा है। बचपन के सस्कार उभर आए और उसने मिट्टी की पाल बाँधकर पानी को रोक लिया । छोटा-सा तालाव बन गया। अपना पान उसने उस जल मे छोड दिया आर नौका की कल्पना करता हुआ प्रसन्नता से झूम उठा। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु बनूंगा १६७ बाल-मुनि की काल्पनिक पात्र नोका जल की सतह पर थिरक - थिरक कर चल पडी । 1 तिर ।' और वाल मुनि मग्न होकर गाने लगे- 'तिर मेरी नँया तिर रे स्थविरो ने देखा और साधु-मर्यादा के विपरीत इस आचरण से वे रुष्ट हुए । उनका रोप उनके मुख पर प्रकट हो रहा था । अतिमुक्त श्रमण ने स्थविरो का यह रोप देखा । वाल-सस्कार विलीन हो गए । विवेक पुन स्वस्थान पर आ गया । अपनी भूल पर अतिमुक्त ने पश्चात्ताप किया और आलोचना द्वारा उनका हृदय फिर से पवित्र हो गया । स्थविरो ने भगवान के समीप पहुँच कर प्रश्न किया “भगवन् । यह लघु साधक अतिमुक्त कितने भवो मे मुक्त होगा ?" भगवान सर्वज्ञ थे । उन्होने शान्त भाव से बताया उस पर क्रोध और "अतिमुक्त इसी भव मे मुक्त होगा । वह स्वच्छ है, पावन है, विमल है । छोटा समझकर उसकी उपेक्षा न करो, स्थविरो। रोप न करो । अतिमुक्त देह से लघु है, किन्तु विचारो से आत्मा निर्विकार है । वह पूज्य और आदरणीय है । उसकी सेवा करो ।" महान् है । उसकी तुम से बने उतनी भगवान के वचनो मे अचल श्रद्धा रखने वाले स्थविर शान्त और मौन होकर उनकी वाणी सुन रहे थे । भगवान ने और भी स्पष्ट करते हुए कहा- " स्थविरो | तुम साधना की भूमि मे हो । इस भूमि मे देह की पूजा नही की जाती, गुणों की ही पूजा की जाती है । यह अतिमुक्त अवस्था से वालक है, देह से छोटा है । किन्तु विचार इसके गम्भीर और उच्च हे । सागर से भी गम्भीर और हिमालय से भी उच्च । अत स्थविरो । उसकी उपेक्षा न करो, उस पर रोप न करो । वने उतनी उसकी सेवा करो ।” स्थविरो ने भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य किया । ओर अवस्था मे छोटा-सा साधक अतिमुक्त अब पूरी लगन, एकान्त Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं श्रद्धा ओर एकनिष्ठ ध्यान से उन स्थविरो के पास ग्यारह अंगो का अध्ययन करने लगा। उसके व्यवहार मे पूर्ण विनय ओर भक्ति थी। अतिमुक्त ने कठोर तप किया। सम्पूर्ण संयम का पालन किया। इस तप ओर संयम के कारण उसकी छोटी-सी कोमल देह धीरे-धीरे अशक्त हो गई, मुरझा गई। गुण-संवत्सर तप की लम्बी साधना से तो देह ओर भी अधिक क्षीण हो गई । अतिमुक्त ने पीछे मुड़कर देखा ही नही। वह अपने तप के मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होता ही चला गया । ओर अन्त मे विपुलगिरि पर सलेखना कर वह मुक्त हुआ। -अन्त दृशा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ परीक्षा जीवन एक सग्राम है। इस जीवन-संग्राम मे जो वीर विजयी बनना चाहते है, उन्हे पग-पग पर कठिन परीक्षा देनी होती है ओर संघर्ष करना पडता है । इस सर्प और परीक्षा मे जो नर वीर उत्तीर्ण होते हैं, वे हो मनुष्यो की प्रसशा और पूजा के पात्र बनते है | सुभद्रा एक ऐसी ही धर्मवीर महिला थी । विदुषी भी थी। अपने जैन धर्म मे उसे दृढ और अचल श्रद्धा थी । उसके पिता जिनदत्त चम्पा - नगरी मे रहते थे और उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि अपनी गुणवती कन्या का विवाह वे किसी ऐसे ही युवक से करेंगे जो जैन धर्मावलम्बी होगा । सयोगवश सुभद्रा के रूप- गुण पर एक बौद्ध युवक मोहित हो गया । वह किसी भी मूल्य पर सुभद्रा से विवाह करना चाहता था । धीरे-धीरे सुभद्रा के गुणों से प्रेरित होकर तथा जैन धर्म की गहन उदात्तता से प्रभावित होकर उसने जैन धर्म अगीकार कर लिया । सुभद्रा का विवाह उस युवक से हो गया। वे दोनो सुखी थे । किन्तु सुभद्रा के सास-ससुर बौद्ध थे । इसलिए सास सदैव अपनी बहू मे दोप ढूंढने का ही प्रयत्न किया करती थी । उसे जैन धर्म से ही मूल मे द्वेष था । एक बार सास को नीचा दिखाने एवं अपमान करने का अवसर भी हाथ लग गया । यह दूसरी बात है कि सत्य और धर्मनिष्ठा के समक्ष उसकी एक न चली । १६६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ हुआ यह कि एक जिन- कल्पी श्रमण नगर मे पधारे । सुभद्रा उनके आगमन के समाचार सुनकर हर्पित हुई । दर्शन करने गई । वन्दन किया । उसी समय उसने देखा कि मुनि की एक आँख मे तिनका गिर गया है, उनसे मुनि को बडी पीडा है । सुभद्रा ने आहिस्ते से, कुशलता से अपनी जीभ से मुनि की आँख का तिनका निकाल दिया । ऐसा करते समय उसके भाल पर लगा सिन्दूर मुनि के भाल पर भी लग गया । सास-ननद को सुभद्रा के माथे कलक लगाने का अवसर मिल गया । उन्होने सुभद्रा के चरित्र पर दोषारोपण करना प्रारम्भ किया । सुभद्रा का पति शकित हुआ । उसने अपनी पत्नी से कहा "मैं यह क्या सुन रहा हूँ ? तुम्हारे चरित्र मे इतना बडा दोष होगा, यह मैने नही सोचा था । क्या तुम्हारे जैन धर्म ने तुम्हे यही शिक्षा दी है ?" सुभद्रा को दुख हुआ । किन्तु उसने शान्तिपूर्वक सारी सच्ची बात अपने पति को बताते हुए कहा " आपकी शका निर्मूल है । मेरा चरित्र निर्मल है । पूज्य मुनिवर की पीडा को दूर करना मेरा धर्म था । मैंने धर्म का ही पालन किया है । मन मे भी कोई अन्यथा भाव नही आया ।" किन्तु पति के कान भरे जा चुके थे । अत उसने अपनी पवित्र पत्नी की बात को सत्य नही माना । वह फिर से बौद्ध बन गया । सुभद्रा के लिए परीक्षा की घडी उपस्थित हुई । और वह वीर, धर्मनिष्ठ, निष्कलंक नारी उस परीक्षा के लिए प्रस्तुत हो गई । परीक्षा थी— छलनी में पानी भरकर ले आना होगा ओर नगर के द्वार बन्द रहेगे । कठोर परीक्षा थी । किन्तु जो सत्य पर स्थित है, उसे चिन्ता क्या ? सुभद्रा जब छलनी मे पानी भरकर चली तो जन-समुदाय अवाक्, एकटक देखता रह गया - एक भी बूँद पानी उस छलनी में से नहीं गिरा । ओर नगर के द्वार एक-एक कर स्वत ही खुलते चले गए, मानो उन द्वारा पर अदृश्य देवता द्वारपाल के रूप में नियुक्त हो, और सती नारी का स्वागत करने हेतु वे द्वार उन्मुक्त करने जा रहे हो । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीक्षा १७१ यह विस्मयपूर्ण वात देखकर सारा नगर हर्प और उल्लास से जयघोप करने लगा 'सती सुभद्रा की जय ।' 'जैन धर्म की जय ।' सुभद्रा को काई अहकार नहीं था । वह सदा की भाँति धीर, गम्भीर और प्रशान्त ही बनी रही। उसके सास-ससुर-ननद लज्जित हुए। जैन धर्म को अगीकार कर अब वे गोरव से नगरजनो से कहते "हमारी बहू साक्षात् देवी है । सती श्रेष्ठ है।'' सुभद्रा का पति भी पुन सद्धर्म मे खिचा चला आया। वह कहता"क्षमा नहीं करोगी, सुभद्र ? मुझ से बडी भूल हुई थी। पाप .." सुभद्रा शान्त स्वर मे उत्तर देती“धर्म में श्रद्धा रखनी चाहिए, स्वामी । धर्म मे अश्रद्धा ही पाप है।" हुआ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ चोर और साहूकार मगध की राजधानी राजगृही मे धन्ना श्रेष्ठि रहते थे । उनकी पत्नी भद्रा तथा वे दोनो ही धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे । सम्पत्ति तो उनके पास अथाह थी । उसका सदुपयोग भी वे करते थे । उनके द्वार से कभी कोई याचक खाली हाथ नही जाता था । भगवान महावीर ने जिस नगरी मे चोदह चातुर्मास व्यतीत किए हो, उस नगरी के पुण्य का क्या कहना वह नगरी तो इन्द्र की अमरावती को भी पीछे छोड देती थी । उस नगरी मे अभाव थे ही नही । किन्तु श्रेष्ठ को कोई सन्तान नही थी । उनके तथा भद्रा के लिए यह दुःख हिमालय जितना बडा था । सब कुछ था, किन्तु जैसे कुछ भी नही था । अपनी सूनी कोख देख-देखकर भद्रा आठ-आठ आंसू बहाया करती थी । किन्तु उपाय क्या था ? एक दिन भद्रा ने श्रेष्ठि से कहा" प्राणनाथ । सन्तान के होता है।" - अभाव मे अब तो जीना ही व्यर्थ प्रतीत श्रेष्ठि ने अपनी पत्नी की पीडा को समझा ओर उसे आश्वासन देने के लिए बोले C प्रिये । में तुम्हारे कष्ट को समझ सकता हू । में स्वयं भी इस अभाव के कारण कम दुखी या चिन्तित नही हु । किन्तु दु ख अथवा चिन्ता 1 १७२ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर और साहूकार १७३ करने से तो कुछ हाथ लगता नहीं। यदि कोई उपाय होता तो मै अवश्य करता। किन्तु यह तो अपने हाथ की बात ही नहो । जहाँ विवशता हे वहाँ धैर्य ओर सन्तोप धारण करने के अतिरिक्त ओर क्या किया जा सकता है ?" श्रेष्ठि ठीक ही कहते थे। भद्रा भी यह जानती थी। लेकिन इन वचनो से वह सन्तुष्ट नही हो पाती थी। वह बोली “स्वामी । एक वार और प्रयत्न करके देखना चाहिए। आप आज्ञा दे तो मै नागभूत यक्ष के देवालय मे जाकर उसकी पूजा-आराधना कम। कौन जाने यक्ष प्रसन्न होकर पुत्र का वरदान मुझे दे ही दे ?" पति से आज्ञा लेकर भद्रा ने यक्ष की उपासना की और उसके पुण्यो का उदय ही मानना चाहिए कि वह कुछ समय बाद गर्भवती हुई। समय आने पर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। नाम रखा गया देवदत्त । पति-पत्नी का ससार अव हरियाला हो गया। उनके सुख को सीमा न रही। वालक द्वितीया के चन्द्र के समान वृद्धि पाने लगा। उसे खिलाने और उसकी सार-सम्हाल करने के लिए श्रेष्ठि ने एक सेवक नियुक्त किया थापयक । वह चतुर था । वालको के मन को समझने वाला था। एक दिन भद्रा ने बालक को पंथक के साथ खेलने भेजा। किसी स्थान पर अन्य वालको के साथ खेलने के लिए उसे छोडकर पथक पास हो वैठ गया । वालको का खेल चलता रहा। उस समय राजगृही नगरी के बाहर किसी सुनसान, भयानक खडहर मे एक चोर रहा करता था। उसका नाम था विजय । वह अपने चौर-कर्म मे तो निष्णात था ही, साथ ही वह वडा ही क्रूर और निर्दयो भी था। उसके मुख की आकृति ही उसके हृदय की कठोरता और भीपणता को प्रगट करती थी। भयानक अंगारो जैसी आँखे, रूखे, बिखरे हुए बाल, घनी, डरावनी दाढी। विजय चोर से पार पाना वडा कठिन था। यदि वह एक बार किसी के धन को चुराने का निश्चय कर लेता तो फिर उस धन का स्वामी चाहे सात तालो मे ही उसे रख ले, किन्तु विजय चोर उसे चुरा ही लेता। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ भीषण से भीपण कर्म करके भी उस चोर को न पश्चात्ताप होता था न कोई आत्मग्लानि । यहाँ तक कि धन के लिए वह किसी की हत्या भी अत्यन्त निर्ममता से कर सकता था । १७४ उसी दुष्ट और दक्ष विजय चोर की दृष्टि चोरी के लिए नगर मे घूमते हुए देवदत्त पर पड गई। बात की बात मे वह देवदत्त को चुराकर नगर से बाहर दूर भयानक स्थल पर ले गया । वह स्थल किसी समय कोई सुन्दर उद्यान रहा होगा । किन्तु अव तो वह उजाड, सुनसान और भयोत्पादक वन गया था । कभी कोई व्यक्ति उधर जाने का साहस ही नही करता था । दिन रात वहाँ एक डराने वाली नीरवता व्याप्त रहती थी आपस मे उलझे हुए अनेको झाड-झंखाडो से परिपूर्ण उस वीहड स्थान पर एक पग रखना भी कठिन था । अनेक वन्य प्राणी वहाँ दिन-दहाडे विचरण किया करते थे और भयंकर विपधरो का फुत्कार दिशाओ मे गूंजा करता था । निर्दयी विजय चोर ने उस भयावह स्थल पर जाकर देवदत्त को मार डाला और उसके आभूषण लेकर वह उस विकट स्थल पर मालुक नामक अन्धकारमय कच्छ मे जा घुसा। उधर कुछ देर बाद पंथक का ध्यान जव वालको की ओर गया तो उसे देवदत्त कही दिखाई नही दिया। उसके तो पैरो तले से धरती ही खिसक गई। चारो ओर उसने बालक को खूब ढूंढा | ढूंढते ढूंढते वह थक गया और अन्त मे निराश हो गया । भय से ओर दुख से काँपता हुआ आखिर वह घर लौटा । पंथक को अकेला देखकर भद्रा ने विकल होकर पूछा "देवदत्त कहाँ है ? अरे, मेरा देवदत्त कहाँ है ? तु अकेला कैसे लोटा ? बोल, बोल मेरे बेटे को कहाँ छोड़ आया त् " बेचारे पंथक के तो वोल ही नही फूटे । वह रोता ही चला गया, कॉपता ही खड़ा रहा। भद्रा ने उसे पकडकर झकझोर दिया और चीखी' बोलता क्यों नही ? देवदत्त कहाँ है ? क्या त् गंगा हो गया है ? बोल, बोल ।” किसी प्रकार साहस बटोर कर पथक बोला Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर और साहूकार १७५ "माँ ! मुझे मार ही डालो । मुझसे ऐसी ही भूल हुई है । मेरा ध्यान चुराकर कोई पापी देवदत्त को चुरा ले गया ।" । सुनते ही भद्रा मूति हो गई। श्रेष्ठि के हाथो के तोते उड गए । उन्हे लगा मानो आसमान थर्रा कर भूमि पर आ गिरा है और धरती डोल रही है। सैकडो सेवक चारो दिशाओ मे दौड पडे। नगर का कोना कोना, गली-गली छान मारी गई, श्रेष्ठि स्वय पागलो की भाँति सारे नगर मे 'देवदत्त-देवदत्त' पुकारते दौडते रहे। नगरवासी उनकी यह हालत देखकर दुखी हो गए। सारी नगरी ही मानो देवदत्त को खोजने निकल पडी।। किन्तु अव देवदत्त था कहाँ जो मिल जाता ? वह तो विजय चोर के हाथ पड़ चुका था। कोतवाल को भी सूचना दी गई। वह राजगृही का कोतवाल था । अपने कार्य मे वह भी दक्ष था। शस्त्रो से सज्जित होकर वह तुरन्त निकल पडा । खोजते-खोजते वह उसी विकट स्थल पर जा पहुँचा जहाँ विजय चोर ने बालक की हत्या करके उसके शव को एक अंधेरे कुएँ मे डाल दिया था। वालक का शव खोज लिया गया। उसे देखकर श्रेष्ठि जीवित रहते हुए भी मृतवत् ही हो गए । उनकी दुनियाँ ही उजड गई थी। कोतवाल ने पैरो के निशान खोजकर विजय चोर का पीछा किया और उस भीपण और सघन मालुक कच्छ मे विजय चोर को जा पकडा। ___ सारी नगरी मे हाहाकार मचा देने वाले उस दुष्ट चोर को भारी सजा देकर कडे पहरे मे कैदखाने मे बन्द कर दिया गया। समय वलवान है और उसकी गति विचित्र है। एक बार धन्ना सार्थवाह से कोई अपराध हो गया, अथवा कहिए कि उसे अपराधी मान लिया गया। राजा ने न्याय करते हुए उन्हे भी कारावास का दण्ड दिया । सयोगवश उन्हे भी उसी कक्ष मे स्थान मिला जहाँ कि विजय चोर वन्द था। इतना ही नहीं, उन्हे और विजय चोर को एक साथ हाथ-पैर बाँधकर वेडियो मे जकड दिया गया । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं भोजन के समय सेठ के लिए घर से भोजन आया। चोर ने भी भोजन माँगा तो दुखी ओर जले-भुने सेठ ने कटु उत्तर दिया __ “अरे दुष्ट ! तेरी निर्लज्जता की भी कोई सीमा है ? पापी ! हत्यारे। निर्दयी । तूने मेरे इकलोते, फूल-से पुत्र की हत्या की ओर अब मुझसे भोजन मॉगता है ? तू भूख से घुल-घुल कर मर जाय तव भी मै तुझे एक ग्रास भी अन्न तथा एक बूंद भी पानी नहीं दूंगा।" सेठ ने भोजन कर लिया। चोर देखता रहा। कुछ समय बाद सेठ को शोच से निवृत्त होने की आवश्यकता हुई। चोर और साहूकार एक ही बेडी मे जकडे थे । जाये तो दोनो जायें । अकेला कोई कैसे जाय ? सेठ ने चोर को चलने के लिए कहा तो उसने साफ इकार कर दिया ___ "भोजन तो अकेले ही डकार गए, अब मुझे साथ चलने को कहते हो ? मुझे शंका नही है । आप ही पधारिए ।” कुछ समय तक श्रेष्ठि ने सब किया किन्तु कब तक ? आखिर उन्होने वडी दीनता से चोर से प्रार्थना की। तब चोर का दॉव आया। उसने कहा ___"प्रतिदिन अपने भोजन मे से आधा भोजन मुझे देने का वचन दो तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ । अन्यथा जो खायगा, वही जायगा । मुझे क्या गरज?" श्रेप्ठि को विवश होकर चोर की शर्त स्वीकार करनी ही पड़ी। दूसरे दिन जब सेठ के सेवक ने देखा कि सेठजी अपने भोजन में से आधा भोजन अपने पुत्र के हत्यारे को दे रहे है तो वह बडा दुखी हुआ। उसने घर पर आकर सारी बात भद्रा से कही । भद्रा भी यह जानकर बहुत दुखी हुई। लेकिन करती क्या । कुछ समय पश्चात् जब श्रेप्ठि कारागार से मुक्ति पाकर घर लौटे तव भद्रा ने उनसे बात तक नही की। उसका हृदय जल रहा था। श्रेष्ठि का मारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। उन्होने पूछा "भाग्यवान | म कारागार से मुक्त होकर आया हूँ। तुम्हे तो प्रसन्न होना चाहिए । इस प्रकार रुष्ट होकर क्यो बैठी हो?" आँखो से चिनगारियां बरसाती हुई भद्रा बोली Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर और साहूकार १७७ "मेरे बेटे के हत्यारे को भोजन कराते हुए आए हो ओर कहते हो कि मुझे प्रसन्न होना चाहिए ? धिक्कार है आपको । आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।" श्रेप्ठि तनिक मुस्कराए और अपनी पत्नी को समझाते हुए बोले “भद्र । जरा वात को सुनो और समझो। परिस्थिति का विचार करो । विना विचारे ही क्रोध क्यो करती हो? मैंने अपना मित्र या कोई हितैपी समझकर उसे भोजन नही दिया। यदि ऐसा करता तो अवश्य अपराधी होता। किन्तु उस परिस्थिति मे अन्य कोई मार्ग हो नही था।” श्रेष्ठि ने जब सारी स्थिति भद्रा के समक्ष रखी तब वह शान्त हुई और उसने अपने कटु व्यवहार के लिए अपने पति से क्षमा मांगी। सेठ-सेठानी का जीवन पूर्ववत् चलने लगा केवल एक अभाव जो था वह तो रहा ही। समय आने पर विजय चोर मृत्यु को प्राप्त कर घोर नरक मे गया। धन्ना सार्थवाह ने अन्त समय मे मुनि धर्मघोष से दीक्षा ग्रहण की, तप और संयम की आराधना की और मृत्यु का वरण कर देवलोक की ओर चल पडे । अपने ही कर्मों के अनुसार प्राणी अपनी-अपनी अलग-अलग राह पर चले जाते है । चोर अपने रास्ते । साहूकार अपने रास्ते । -ज्ञाता २ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ कः पन्थाः ? लोभ का कोई अन्त नही तथा विपय मृत्यु की ओर ले जाने वाले हे । किन्तु जब लोभ और विषय भोग की लालसा दोनों ही एक साथ किसी मनुष्य के जीवन मे आ मिले, तब तो उसका विनाश सुनिश्चित हो माना जाना चाहिए । लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व चम्पानगरी में जब राज कोणिक का शासन था तव वहाँ माकन्दी नामक एक सार्थवाह भी रहा करता था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था ओर उनके दो पुत्र थे- जिनरक्ष एवं जिनपाल । सार्थवाह धनाढ्य था । अटूट धनराशि उसके कोप मे जमा थी । उसके युवक एवं समर्थ पुत्रो ने भी ग्यारह बार लवण समुद्र को पार कर अनेक द्वीप द्वीपान्तरो मे जाकर व्यापार किया था ओर प्रचुर धन-सम्पत्ति अर्जित की थी । उस परिवार मे इतना धन था कि यदि वे बैठे-बैठे भी खाते रहते तो पीढियों तक वह धन समाप्त न होता । किन्तु दोनो भाई लोभ के वशीभूत हो चुके थे । वे ओर भी अधिक धन प्राप्त करना चाहते थे । अत उन्होंने अब बारहवी बार समुद्र यात्रा करने का निश्चय किया । माता-पिता ने बहुत समझाया कि बाहरवी समुद्र यात्रा शुभ नही होती, उसमे कष्ट एवं अनिष्ट की ही आशंका अधिक रहती है । ओर धनसम्पत्ति की कोई कमी नहीं है । अत यात्रा न की जाय । किन्तु दोनों पुनो १७= Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. पन्थाः । को तो लोभ चढा था, भला वे क्यो किसी की सुनने लगे ? निदान यात्रा की तैयारी कर, विशाल जलयान तैयार कर, उसमे प्रचुर व्यापार-सामग्री लादकर, और माता-पिता की सलाह की उपेक्षा कर वे एक दिन चल ही पडे । कुछ समय तक तो यात्रा कुशलतापूर्वक होती रही, किन्तु फिर एकाएक परिस्थिति बिगड गई । समुद्र मे तुफान उठा ओर देखते ही देखते पृथ्वी और आकाश अन्धकार से घिर गए। पहाडो के समान ऊँची और विशाल तथा अजगर के समान फुफकारती लहरो के भीपण थपेडो ने जलयान को वालको के खिलौने की भॉति उठा-उठाकर पटका और उसे चूर-चूर कर दिया। यान मे जितने भी व्यक्ति थे सब डूब गए। जो कुछ भी सामग्री थी वह समुद्र के गर्भ मे समा गई । भाग्यवशात् दोनो भाइयो के हाथ एक पटिया लग गयी जिसके सहारे अर्धमूच्छित अवस्था मे किसी प्रकार अपने प्राण बचाते हुए वे रत्नद्वीप के किनारे जा लगे । भूख-प्यास से वे बेहाल थे । लहरो के थपेडे खा-खाकर उनका शरीर जर्जर हो गया था और उनका पोर-पोर पीडा दे रहा था। जैसे-तैसे उन्होने कुछ फल-मूल खाकर अपनी क्षुधा को शान्त किया और नारियल का तेल निकालकर उससे अपने दुखते बदन को कुछ राहत पहुँचाई।। उस निर्जन द्वीप मे असहाय बैठे दोनो भाई सोच रहे थे कि अब क्या करे और कहाँ जायें ? उसी समय रत्नद्वीप मे रहने वाली रत्ना नामक देवी वहाँ आई। वह देवी वडी विलासिनी थी और हृदय से बडी कठोर भी थी। उन दोनो युवको को देखकर उसका मन विलास की कल्पना मे डूब गया । वह उन पर मुग्ध हो गई थी। फिर भी ऊपर ही ऊपर से कठोरता प्रदर्शित करती वह बोली “मेरे राज्य मे, मेरी आज्ञा के विना प्रवेश करने वाले तुम तोग निश्चय ही अपनी मृत्यु चाहते हो। तो लो, मैं इसी क्षण तुम्हारी अभितापा की पति किए देती हूं।" वेचारे सार्यवाह-वन्धु अत्यन्त भयभीत हो गए । दीनतापूर्वक वोले Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ "हे देवि । हम तो भाग्य के मारे है । अब तुम्हारी ही शरण मे ह् ।' चाहे मारो, चाहे जिलाओ ।" १८० उनकी कथा सुनकर, मन ही प्रसन्न होती वह देवी बोली" खैर, जो हुआ सो हुआ । अव यदि तुम मृत्यु चाहते हो तो वैसा कहो । किन्तु यदि जीवन चाहते तो मेरे साथ चलो, मेरे महल मे रहो, मेरे साथ भोग-विलास करो और मुझे धोखा देने का प्रयत्न न करो । अन्यथा इसी क्षण तुम्हारी मृत्यु आई जान लो ।” कोई विकल्प तो था नही, अत दोनो भाई चुपचाप देवी के साथ चल दिए । समय व्यतीत होता रहा । भोग विलास चलता रहा । एक दिन इन्द्र ने उस देवी को किसी कार्य से अन्यत्र जाने की आज्ञा दी | जाने से पूर्व देवी ने दोनो भाइयो को सावधान किया "देखो, महल मे ही रहना । यदि मन न लगे तो उद्यान में चले जाना । पूर्व दिशा के उद्यान मे सुन्दर सरोवर ओर वापिकाएँ है, वृक्ष-वताएँ हे, वहाँ तुम्हे सावन-भादो तथा आसोज कार्तिक का आभास होगा । वहाँ से भी उकता जाओ तो उत्तर दिशा के उद्यान मे चले जाना । वहा तुम्हे अग हन, पीप, माघ ओर फागुन का सुख मिलेगा । मान लो कि तुम वहाँ से भी ऊब जाओ तो भले ही पश्चिम के वन मे जाकर घूम-फिर आना । लेकिन याद रखना, भूलना नहीं, कि दक्षिण के उद्यान मे तुम्हे कदापि नही जाना है । उस उद्यान मे एक अति भयकर सर्प रहता है ।" इस प्रकार उन्हें समझा-बुझाकर ओर डरा धमकाकर देवी चली गई । दोनो भाई कुछ समय इधर- उबर टहलते रहे। फिर उनके मन मे कोतुहल जागा कि आखिर देवी ने दक्षिण के उद्यान मे जाने मे उन्हें क्यों रोका ? अवश्य ही कोई न कोई रहस्य होना चाहिए । वे अपने कुन्हुल को दवा न सके। धीरे-धीरे उमी उद्यान की ओर वडे | पास मे जाने-जाने वडी दुर्गन्ध आने लगी। कुछ आगे बढे तो हड्डियो का ढेर उन्हें दिखाई दिया । ओर थोडा ही आर आगे जाने पर तो वे एकएक चोक ही पडे। उन्होंने देखा कि एक आदमी एक सूली पर लटका हुआ या आर पीडा के कारण कराह रहा था । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ क पन्था ? विस्मय से जडीभूत और भय से विह्वल उन भाइयो ने किसी प्रकार साहस करके उस व्यक्ति से पूछा "क्यो भाई । तुम कौन हो ? यहाँ कैसे आ गए ? तुम्हे सूली पर किसने चढा दिया ?" पीडाजनित कराह को किसी प्रकार अपनी बची खुची शक्ति से थाम कर उस अभागे व्यक्ति ने कहा --- "भाई । मै एक व्यापारी हूँ । अश्वो का व्यापार करता हूँ। दुर्भाग्य से मेरा यान टूट गया और मैं इस द्वीप मे आकर इस दुष्टा देवी के चगुल मे पड गया । यह दुष्टा मेरे साथ जीभर कर काम भोग करती रही। किन्तु अव जवकि तुम लोग उसे मिल गए हो तो इसने मुझे इस दशा मे ला पटका है। इसकी कृतघ्नता, कठोरता और भोगेच्छा का कोई अन्त ही नहीं।" वह हड्डियो का ढेर, वह सूली पर चढा मनुष्य अपनी कथा अब स्वय ही कहने लगे । दोनो भाई जान गए कि कुछ समय मे जब इस पिशाचिनी को कोई अन्य व्यक्ति मिल जायगा तब उनकी भी यही दशा होगी। वे अपने प्राणो के भय से चीख उठने की स्थिति में आ गए। आखिर उन्होने उसी व्यक्ति से पूछ"इस राक्षसी से बचने का क्या कोई उपाय तुम जानते हो ?" सूली चढे अभागे ने बताया “पूर्व दिशा के उद्यान मे सेलग नामक एक यक्ष का निवास है। वह यक्ष अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अमावस्या को प्रकट होकर पुकारता है-"किसको तारूं ? किसको पार उतारूँ ? मैं, सेलग यक्ष उस देवी के चगुल मे फंसे हुए लोगो की रक्षा करता हूँ।"--भाइयो | यदि तुम अपने प्राण बचाना चाहते हो तो उस यक्ष ही शरण मे जाना और कहना-हमे तारो । हमे पार उतारो।'-वस, रक्षा का यही एक उपाय है । उस यक्ष मे ही इतनी शक्ति है कि वह तुम्हे जीवित उस राक्षसी की पहुंच से बाहर पहुँचा दे और कोई भी रास्ता नही है ।" दोनो भाइयो ने विचार किया कि उपाय तो मिल गया और जान बचाने का प्रयत्न भी अवश्य करना ही है, किन्तु इस व्यक्ति से भी तो पूछना Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ चाहिए कि जब इसे यह उपाय ज्ञात हो गया था तब इसने अपनी रक्षा क्यो नही की ? पूछने पर उसने बताया “अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त ओर किसे दोप दं? विषय-भोग की लालसा ने ही मेरे प्राण ले लिए समझो। मै कामान्ध हो गया था । मैं किन्तु भाई, तुम्हारे लिए अभी अवसर हे । शीव्रता करो, अन्यथा समय हाय से निकल जायगा।" दोनो भाई भारी हृदय लेकर वहाँ से चल पडे । स्नानादि से शुद्ध होकर यक्ष के प्रकट होने और बोलने की प्रतीक्षा करने लगे। समय आने पर यक्ष चिल्लाया-"किसको तारूं ? किसको पार उतारूं ?" "हमे तारो । हमे पार उतारो”-दोनो भाई हाथ जोडकर बोले । यक्ष प्रसन्न हुआ । बोला "ठीक है । तुम्हारी रक्षा करूंगा। किन्तु याद रखना, देवी जब आएगी तब पीछा करेगी । अनेक प्रकार से तुम्हे मोहित करने का प्रयत्न करेगी। डराएगी भी। यदि तुम तनिक भी विचलित हुए तो फिर मैं तुम्हारी रक्षा नही कर सकूँगा। भलो प्रकार सोच लो। कोई भी एक मार्ग चुन लो । या तो देवी के पास रहो ओर भोग विलास मे डूबे रहो, या दृढतापूर्वक मेरी शरण मे आओ और अपनी रक्षा करो।" देवी के चंगुल से बच निकलने का हो दृढ निश्चय दोनो भाइयो का जानकर बह यक्ष तुरन्त अश्व के रूप में परिवर्तित हो गया और उन्हे अपनी पीठ पर बैठाकर पवन वेग से चम्पानगरी की ओर चल पडा । देवी ने लोटकर दोनो भाइयो को गायव पाया तो तुरन्त अपने अवधिज्ञान का उपयोग कर उसने सारी स्थिति को जान लिया। वह क्रोध से जल उठी। नगी तलवार हाय मे लेकर वह अपनी विपुल शक्ति का प्रयोग कर तत्क्षण जिनरक्ष आर. जिनपाल के ममीप आ पहुंची। कडकडाती आवाज में वह बोली Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क पन्था.? १८३ "मेरी ओर पलटकर देखो, अन्यथा इसी क्षण तुम्हारे शीश धड से अलग कर दूंगी। किन्तु दोनो भाई दृढ रहे। भयभीत नही हुए। उन्होने पलटकर नही देखा । वे जानते थे कि पलटकर देखने का अर्थ होगा-निश्चित मृत्यु । जव धमकियो का कोई प्रभाव पडता दिखाई नही दिया तब देवी ने सम्मोहन का अस्त्र प्रयुक्त किया। अत्यन्त रूपसी रमणी का स्वरूप धारण कर वह नाना हाव-भाव प्रगट करती विलाप-सा करने लगी “अरे, तुम तो मेरे प्राणाधार हो। एक बार मेरी ओर देखो तो सहो । मैं तुम्हारे वियोग मे जीवित ही कैसे रहूँगी ?" उसी समय देवी ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि जिनपाल तो दृढ है, अडिग है, किन्तु जिनरक्ष का हृदय विचलित हो रहा है अत' उसने अपना लक्ष्य उसे ही बनाया और कहने लगी __"प्यारे जिनरक्ष ! यह जिनपाल तो व्यर्थ है। मेरे प्रिय तो तुम्ही हो । मेरा रोम-रोम तुम्ही पर वारी है। मैं तो तुम्हारे लिए अपने प्राण भी दे सकती हूँ। एक बार मेरी ओर तुम देखो तो सही।" जिनरक्ष ने अपने हृदय पर से अधिकार खो दिया। उसका संयम शिथिल हो गया। मोह के नागपाश से वह आबद्ध हो गया। इन्ही भावनाओ के साथ उसकी मृत्यु का मार्ग भी निश्चित हो गया। यक्ष ने जान लिया कि जिनरक्ष विचलित हो गया है। अत उसने उसे अपनी पीठ पर से गिरा दिया । राक्षसी-देवी झपट पडो। अब जिनरक्ष उसकी शक्ति की सीमा मे था। तीक्ष्ण तलवार की नोक से उसके शरीर को आर-पार छेदती हुई वह वोली "विपय-लोलुप । नरक के कीडे । मुझे धोखा देकर भागना चाहता था ? मूर्ख, सुन्दर रमणी का आलिंगन-सुख लेना चाहता था ? ले, अब अपनी भोगालालसा• का मीठा रस अच्छी तरह चख ले ।” जिनरक्ष ने अपना मार्ग स्वय ही चुना~मृत्यु का मार्ग । क्योकि वह विपय-भोगो की ओर दौडा था। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं जिनपाल ज्ञानी था। विपय भोगो की असारता वह जानता था। उसने उस विनाश के, मृत्य के मार्ग से मुख मोड लिया, हृदय मे दृढता रखो और सुरक्षित अपने घर लौट आया । क्या पाठक विचार करेंगे कि उन्हे किस मार्ग पर जाना हे-- क पन्था ? ज्ञाताह Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पुत्रवधू कोई भी गृह जिस लक्ष्मी से सुख-सम्पन्न बनता है, ऐसी एक गृह लक्ष्मी की यह छोटी-सी कहानी है धन्ना सार्थवाह राजगृही नगरी में निवास करते थे । अपार धनसम्पत्ति के स्वामी थे । लोग उन्हें दूसरा कुबेर ही मानते थे । परोपकारी, दयालु, दानी ऐसे कि लोग उनके द्वार पर जमघट लगाए ही रहते । कोई आर्थिक सहायता की याचना से, कोई अन्य प्रकार के परामर्श हेतु । उनकी पत्नी भद्रा भी पति की पूर्ण अनुगामिनी थी, बल्कि कहिए कि उनकी छाया ही थी, उतनी ही गुणवती, वैसी ही आदर्श । उनके चार पुत्र थे - धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित | चारो पुत्रो के विवाह हो चुके थे । एक वार श्रेष्ठि को विचार आया -- समय परिवर्तनशील है । जीवन नश्वर है । पल का भी भरोसा नही । जिस प्रकार बिजली इस क्षण चमकती है और दूसरे ही क्षण विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार यह जीवन भी है । इस संसार मे आना ओर जाना लगा ही रहता है । वडे से बडे समर्थ व्यक्ति इस संसार मे आए और चले गए। कोई सदा नही रहा । यह विचार मस्तिष्क मे उपजने पर श्रेष्ठि ने निश्चय किया कि जव तक मैं हूँ, अपने सामने ही अपने परिवार की व्यवस्था करदूँ । आगे जाने क्या हो, क्या न हो ? १८५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं अस्तु, एक दिन उसने अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को तथा नगर के अन्य प्रतिष्ठित, प्रमुख पुरुषो को अपने घर आमन्त्रित किया । उनका उचित स्वागत-सत्कार किया और फिर सबसे पहले अपनी सबसे बडी पुत्रवधू को वुलाकर उसे शालि (चावल) के पाँच दाने देकर कहा १८६ ८८ " बहू ! ये शालि ले जाओ । इन्हें सुरक्षित रखो ओर इनकी वृद्धि करो । जब भी मैं वापस मागूं तब लौटा देना ।” वडी बहू उज्झिआ वे शालि ले तो गई किन्तु सोचने लगी कि भला इन दानो को मैं कहाँ तक सम्हाल कर रखूं ? जब भी श्वसुर जी दाने मांगेगे, मै भडार मे से निकालकर दे दूंगी। यह सोचकर उसने उन्हें फेक दिया | अब दूसरी बहू भोगवती को भी उसी प्रकार दाने दिए गए। उसने भी लिए और सोचा - ससुर जी ने दाने दिए है तो फेंकना तो नही चाहिए, चलो उन्हें खा ही डालती हूँ। यह सोचकर वह उन्हें खा गई ओर उनके विषय मे भूलभाल कर अपने काम मे लगी । तीसरी पुत्रवधू को जब दाने दिए गए तो उसने सोचा कि श्वसुर जी ने दाने दिए है तो अवश्य कुछ न कुछ महत्त्व होना चाहिए । अत इतना विचार कर उसने उन्हें एक मूल्यवान रत्न- मजूपा में सुरक्षित रख दिया। उन्हें वह प्रतिदिन सम्हाल भी लिया करती थी । अब बारी आई चोथी ओर सबसे छोटी पुत्रवधू रोहिणी की । उमने शालि लेकर सोचा- श्वसुर जी ने शालि दिए हे ओर कहा है कि में इनकी रक्षा ओर वृद्धि कम् । अत उसने वे दाने अपने पिता के पास भेजकर कहलाया- 'पिताजी, आप ऋतु आने पर इन्हें खेत में वो दे और सावधानी से इनकी रक्षा करें ।' रोहिणी के कथनानुसार उसके पिता ने वर्षा ऋतु आने पर उन्हें एक छोटी-मी क्यारी मे वो दिया । उपयुक्त समय पर फसल काट ली ओर ख लिया । इस प्रकार पाच वर्ष व्यतीत हो गए। प्रतिवर्ष जितने भी शांति ब उन्हें बोला जाता और फसल काट ली जाती । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र-वधू १८७ पाँच वर्प वाद धन्ना श्रेष्ठि ने फिर से अपने सम्बन्धियो तथा प्रमुख पुरजनो को बुलाया और उनके सामने ही एक-एक पुत्रवधू से शालि के दाने वापिस माँगे । बडो पूत्रवधु कोठार मे गई ओर पाँच शालि लाकर उसने दे दिए । धन्ना श्रेष्ठि ने पूछा "बहू । क्या ये वही शालि हे जो मैने तुम्हे दिए थे ?" बहू ने सच-सच कहा “नही, पिताजी । भला में उन्हे कहाँ तक सम्हालकर रखती ? ये शालि तो मैं कोठार मे से लाई हूँ।" उत्तर सुनकर श्रेष्ठि ने सोचा कि यह पुत्रवधू उसकी विशाल सम्पत्ति की रक्षा नहीं कर सकेगी। अत उन्होने उसे भविष्य मे घर की सफाई, लीपना-पोतना, गर्म जल करना आदि कार्य सौप दिए । दूसरी पूत्रवधू ने भी कोठार से शालि लाकर दे दिए और बताया"मैने उन्हे फेका नही था, खा लिया था।" श्रेष्ठि ने सोचा कि यह पुत्रवव पहिली से अधिक विचारवान अवश्य है, किन्तु फिर भी धन-सम्पत्ति की रक्षा करना उसके भी वश का नही है । इसे खाना-पीना ही अधिक प्रिय प्रतीत होता है । अत उस पुत्रवधू को पीसने-कूटने, भोजन बनाने और परोसने का कार्य सौप दिया गया । तीसरी पुत्रवधू ने मजूपा मे से शालि निकालकर जब दिए तो श्रेष्ठि ने सोचा-मेरी सम्पत्ति को रक्षा यह कर सकती है। अतः इसे रत्नआभूपण, स्वर्ण, धन-धान्य आदि सुरक्षित रखने का कार्य सौपना चाहिए। ऐसा ही किया गया। अव वारी आई चौथी और सबसे छोटो पुत्रवधू रोहिणी की। उससे जब शालि माँगे गए तब उसने कहा "पिताजी । वे शालि लाने के लिए कृपया मुझे कुछ गाडियो और छकडो की व्यवस्था करा दीजिए । मै अकेली अथवा कुछ व्यक्ति तो वे शालि ला नहीं सकेगे।" रोहिणी के इस विचित्र उत्तर को सुनकर उपस्थित सभी व्यक्ति चोके-भला शालि के पाँच दानो को लाने के लिए गाडियो और छकडो की आवश्यकता? आखिर श्रेष्ठि ने पूछा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं “वटी । यह तू क्या कह रही हे ? पाँच शालि लाने के लिए तु मला गाडियाँ ओर छकडे क्यो मॉग रही है ? ठीक-ठीक और साफ-साफ बात कह।" बुद्विमती रोहिणी ने एक सच्ची गृहलक्ष्मी को शोभा दे ऐसी मन्द, मधुर और सलज्ज मुसकान बिखेरते हुए कहा "पिताजी । आपने मुझे उन शालि के दानो को सुरक्षित रखने तथा उनको वृद्धि करने का आदेश प्रदान किया था। अत. आपकी आज्ञा को शिरोधार्य कर मैने उन्हें अपने पिताजी के पास भेज दिया था। प्रतिवर्ष उन्ह खेत मे बोते और फसल काटते हुए अब वे शालि इतने अधिक हो गए हैं कि गाड़ियो और छकडो मे लादकर तया बोरियो मे भरकर ही उन्हें लाया जा सकता है।" श्रेष्ठि के मुख पर प्रसन्नता और आनन्द छा गया। उन्हें ऐसी ही बुद्धिमती पुत्रवधु की तलाश थी। सभी उपस्थित व्यक्तियो के समक्ष उन्होंने उमे गृह-स्वामिनी के पद पर प्रतिष्ठित किया और उनके इस निर्णय की सभी ने सराहना की। काश । हमारे देश के घर-घर मे एसी गृह-लदिमया होती। -ज्ञाता Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ जागे तभी सबेरा दो अलग-अलग दिशाओ मे चलने वाले दो पुत्र थे मगध के सम्राट विम्बसार श्रेणिक के। एक अभयकुमार और दूसरा कोणिक । अभयकुमार ज्ञानी, वोर. विनीत और बुद्धिमान था। कोणिक इससे बिलकुल उल्टास्वार्थी, अविनीत और निष्ठुर । किन्तु श्रेणिक पिता थे। उनके लिए लिए तो दोनो पुत्र दो आँखो के हो समान थे। दोनो प्रिय । कोणिक जब गर्भ मे था तभी उसके भावी जीवन की कल्पना हो गई थी। उसकी माता चेलना को दोहद हुआ था कि वह अपने पति के कलेजे का मॉस खाए। जिस पुत्र के गर्भ मे आने से ही उसकी माता की भावना इस प्रकार की बने, उसका जीवन कैसा हो सकता है, यह कल्पना कठिन नहीं है। माता ने तो प्रयत्न भी किया कि ऐसे कुलक्षणी पुत्र का तो उत्पन्न न होना ही श्रेष्ठ है अत उसने गर्भ को गिराने का भी प्रयत्न किया। किन्तु सफल न हुई । जन्म के पश्चात् भी उसने नवजात शिशु को कुरडी पर फिकवा दिया । किन्तु होनहार को टाला नहीं जा सकता। कोणिक को कुछ कुकृत्य करने के लिए जीवित रहना था और वह रहा । किन्तु श्रेणिक सदा कोणिक को भी प्यार करते रहे। उन्होने चेलना से सदा यही कहा~ १८६ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएं “रानी । अपना ही पुत्र है, जैसा भी है। जो होना है वह तो होकर ही रहेगा। चिन्ता न करो। उसे भी बैमा ही प्यार दो जैमा अभयकुमार को।” पुत्र पलते रहे। यौवन का आगमन होने पर कोणिक का विवाह आठ राज-कन्याओ के साथ कर दिया गया । वह रस-राग मे डूब गया । किन्तु कोणिक अधिक समय तक शान्त वैठा न रह सका। वह अब राजा बनना चाहता था। कैसे बने ? पिता जब तक स्वस्थ और जीवित है तब तक उसे राज्य कैसे मिले ? । अन्तत' उसने अपने वृद्ध पिता को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया-उसी पिता को, जिसने उसके जीवन की रक्षा की थी, पाला पोसा था, प्रेम दिया था वह भी सब कुछ जानते हुए। कोणिक राजा बन बैठा। अपने पिता को वह कडी कैद मे रखता था। उसमे कोई मिल भी नही सकता था। अपनी माता को भी उसने दिन में केवल एक बार पिता से मिलने की अनुमति दी थी। कोणिक की लिप्सा, अहकार और निष्ठुरता का इससे अधिक प्रमाण और क्या हो सकता था ? एक बार कोणिक अपनी माता से मिलने गया। यही उसके जीवन मे एक महान् परिवर्तन का क्षण था। माता उदास थी। उसने पूछा• माता । आप इतनी उदास क्यो है ?" माता का हृदय आज फट पडा । उमने बताया- "कोणिक । त् तो अन्धा है। तुझे मन्य दिखाई नहीं देता। तुझे नही मालूम कि तेरे पिता मम्राट् बिम्बसार तुझे कितना प्यार करते है। काश । त् यह जानने की कोशिश करता आर उनकी महानता को समझ सकता।” धीरे-धीरे गनी चेलना ने कोणिक को मारी बात बताई। उसके गन में आने से लेकर अब तक की। उन घटनाओ को मुन र कोणिक का हाय तत्क्षण वदल गया। उनकी गसमी प्रवति ममाप्त हो गई, जार उनले अन्तर का देवता प्रगट हो गया। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागे तभी सवेरा १६१ दोडा-दोडा वह गया अपने पिता से क्षमा माँगने और उन्हे बन्धनमुक्त करने । लेकिन होनी कुछ और थी । राजा ने अपने क्रूर पुत्र को तेजी से आता देखा तो सोचा- अब यह जाने मुझे और कैसी पीडा देने आ रहा है ? हत्या भी कर सकता है । जाने कितने कष्ट देकर मेरे प्राण ले । और राजा ने ताल पुट विप खाकर क्षण मात्र मे अपने प्राण त्याग दिए । पश्चात्ताप की अग्नि मे जलता हुआ कोणिक हाहाकार कर उठा । वन्दी घर की दीवारे हाहाकार कर उठी । राजमहल की मीनारे हाहाकार कर उठी । सारी नगरी हाहाकार कर उठी-पुत्र के अज्ञान और निष्ठुरता के कारण पिता को ऐसी दुखद मृत्यु पर सारी सृष्टि हाहाकार कर उठी । कोणिक सिर पीट कर रह गया । वह अपने महान् पिता से क्षमा तक न मॉंग सका । लेकिन उसका जीवन बदल गया । अपने विशाल साम्राज्य के ग्यारह भाग करके उसने अपने भाइयो मे वॉट दिए और पिता की मृत्यु के शोक को भुलाने के लिए वह मगध छोडकर अग देश की चम्पा नगरी मे जाकर रहने लगा । अव कोणिक क्रूर नही था, अहकारी नही था, स्वार्थी नही था । इन दुर्गुणों का स्थान मृदुता, नम्रता और विनय ने ले लिया था । एक वार भगवान महावीर जव चम्पा नगरी मे पधारे तो कोणिक उनके दर्शन करने व उपदेश सुनने गया । वडे उत्साह और समारोहपूर्वक गया । हृदय मे भक्ति-भाव को धारण किए हुए गया । उसने सुना, भगवान ने कहा "जल - बुद्बुद होता है न 1 एक क्षण मात्र मे ही फूटकर विलीन हो जाता है । यह जीवन भी वैसा ही है । "घास की नोक पर, कुशाग्र पर ओस की बूंद ठहरी होती है न । कितने समय के लिए ? पवन का एक हलका सा झोका आता है, और वह बूंद मिट्टी मे मिल जाती है । यह जीवन भी वैसा ही है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं " अत. भव्य प्राणियो । विचार करो | अच्छे कर्मों का परिणाम अच्छा आर बुरे कर्मो का परिणाम बुरा होता है । इससे पृथक कुछ हो नहीं सकता ।" भगवान की कल्याणी वाणी ने कोणिक के हृदय में ज्ञान ज्योति को जला दिया । वह अब भक्तिपूर्वक, विनयपूर्वक अपना जीवन-यापन करन लगा । उसे अनुभव होता था कि जैसे वह क लम्बी नींद से जागा है आर मवेरा हो गया है । [ --- उबवाई सुत्त Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ मैं क्या माँगू ? - नगर मे धूमधाम थी। नए राजपुरोहित की शोभायात्रा निकल रही थी। पुराने पुरोहित काश्यप की विधवा पत्नी यशा इस शोभायात्रा को देखकर उदास थी और ऑसू उसकी आँखो से टप-टप गिर रहे थे। वह सोच रही थी-पति गये, सब कुछ चला गया। पुत्र ने माता के आँसू देखे और पूछा"माँ। क्या हुआ ? तू रोती क्यो है ? क्या तुझे कोई दु.ख है ?" माँ ने उत्तर दिया "बेटा । दु ख के सिवा अब और शेप रहा ही क्या है ? एक दिन तेरे पिता ही राजपुरोहित थे। राजा जितशत्रु उनका बडा आदर करता था। सारी प्रजा ही उनकी पूजा करती थी। आज उनकी मृत्यु के पश्चात् सव कुछ बदल गया है । सव कुछ जैसे उन्ही के साथ चला गया।" वालक से अपनी माता का दुख देखा नहीं गया। वह योग्य पिता का योग्य पुत्र था। वालक होते हुए भी एक दृढ निश्चय-भरे स्वर मे उसने पूछा "माँ | क्या मैं अपने पिता के समान ही नही बन सकता? क्या मै राजपुरोहित के पद पर नियुक्त नहीं हो सकता?" ___ माता का हृदय अपने पुत्र की इस शुभाकाक्षा से प्रफुल्लित हो उठा। वह वोली ___ "क्यो नहीं हो सकता ? अवश्य हो सकता है। किन्तु तू पहले पढेलिखे तवन" १९३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ "वस | इतनी सी बात ? तू रोना छोड, मै पढूंगा, माँ | ओर एक दिन अपने पिता के पद पर अवश्य बैलूंगा।" । बालक कपिल को पढने की धुन लग गई। किन्तु उसकी माता जानती थी कि कौशाम्बी मे रहकर कपिल पूरी तरह विद्याध्ययन नही कर सकेगा। वहाँ के पण्डित ईर्ष्यालु थे, स्वार्थी थे। राजपुरोहित काश्यप का पुत्र यदि पढलिखकर विद्वान हो गया तो अपने पिता के पद पर आसीन हो जायगा, इम भय से वे उसे पूरी शिक्षा नही देगे । अत यशा ने अपने बेटे को अपने पति के मित्र इन्द्रदत्त के पास श्रावस्ती भेज दिया। उपाध्याय इन्द्रदत्त बड़े विद्वान और सरल व्यक्ति थे। श्रावस्ती का बच्चा-बच्चा उन्हे जानता था। कपिल जब उनके पास पहुंचा तो उन्होने अपने दिवगत मित्र के पुत्र को आलिगन मे भर लिया और कहा-"अरे, तु तो मेरा ही पुत्र है । कोई अन्य नही । तू मुझे अपने पिता के समान ही समझना। कोई निन्ता न करना।' नगरी के धनपति शालिभद्र के यहाँ कपिल के आवास की व्यवस्था हो गई और उसका विद्याध्ययन आरम्म हो गया । धीरे-धीरे कपिल युवक हो गया। किन्तु जीवन के उसी विकट सकटकाल में कपिल चूत गया । श्रेष्ठि शालिभद्र की एक सुन्दरी दासी जो कि कपिल की मेवा किया करती थी, उससे कपिल को प्रेम हो गया । प्रेम अथा होता ही है। कपिल भी उस आंधी मे ऐसा उडा कि वह अब विद्याध्ययन भी भूल गया और उपाध्याय के पास गुरुकुल मे जाना भी उसने बहुत कम कर दिया। उपाध्याय ने उसे समझाया, डॉटा-फटकारा, बुरा-भता कहा, अपनी माता को दिये हुए वचन की याद दिलाई, दिवगत पिता के गोरव का स्मरण गा-किन्तु प्रेमी के गले कुछ न उतग । वह तो पागत होकर दामी ती हावा मात्र बनकर रह गया। र बार नगर में वन-महोत्सव की तैयारियां हो रही थी। युवा वतिया ना रहे थे। कपिल की प्रेमिका दामी ने उस समर पर जाने प्रेनी ने कहा नगर की नारी नन्दरिया मजबन रही है। तुम यदि मेरे fir वान वत्र नही तानरते तो मावारण ना वस्त्रहीनाकर दो। रला. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मै क्या मांगू ? १६५ भूपण नही ला सकते तो इतने पैसे तो लाकर दो कि मै पुष्पमालाएँ ही खरीद सकूँ। तुम्हे छोड मै और किससे याचना करूँ ? अपनी सखी-सहेलियो के बीच मे ये पुराने वस्त्र पहनकर कैसे जाऊँ ?" कपिल चिन्ता मे पड गया। वह तो दूर देश से एक ब्रह्मचारी विद्यार्थी के रूप मे यहाँ आया था। उसके पास क्या धन था ? कैसे वह अपनी प्रेमिका की मांगो की पूर्ति करे? प्रेमी को मौन देखकर प्रेमिका ने उकसाया____ "ऐसे चुप क्या बैठे हो ? ससार बसाना है तो कुछ पुरुपार्थ तो करना ही पड़ेगा । तुम ब्राह्मणपुत्र हो । मै तुम्हे उपाय बताती हूँ। भिक्षा माँगने मे तुम्हे कोई सकोच नही होना चाहिए । श्रेष्ठि धनदत्त का नियम है कि जो भी कोई व्यक्ति प्रात काल उसे सबसे पहले आशीर्वाद देने जाता है उसे वह दो माशा स्वर्ण दान मे देता है । तुम वह स्वर्ण लाओ। अभी कुछ काम तो निकल ही जायगा।" कपिल को मार्ग सूझ गया। रात मे वह सोचता रहा–'सबसे पहले जाऊँगा, स्वर्ण लाकर प्रेमिका को प्रसन्न कर दूंगा।' इसी विचार के साथ उसे चिन्ता भी हुई, 'कही मुझसे पहले ही कोई अन्य याचक धनदत्त के पास न पहुँच जाय । अन्यथा मेरी आशा पर पानी फिर जायगा। प्रेमिका रूठ जायगी।' इन विचारो के कारण उसे नीद ही नहीं आई। करवटे बदलतेवदलते जब थक गया तो आतुरता का मारा वह घर से निकल पडा । उसे भान ही नहीं रहा कि प्रात काल होने मे अभी बहुत विलम्ब है । चारो ओर घिरे हुए अन्धकार की ओर भी उसकी दृष्टि नही गई । उस पागल प्रेमी को तो एक ही धुन थी-'कोई मुझसे पहले ही न जा पहुंचे। प्रेमिका रूठ न जाय ।' अँधेरी रात मे एक व्यक्ति को चुपचाप चला जाता देख, पहरेदारो ने उसे टोका-"कौन है ? इस अंधेरी रात में कहाँ जा रहा है ? चोरी करने का इरादा है, क्या ?" कपिल ने घबराकर कहा-"नही भाई । चोरी करने क्यो जाऊँगा? बाह्मण का पुत्र हूँ। मै तो श्रेष्ठि धनदत्त के घर जा रहा हूँ। उसे आशीर्वाद दंगा और स्वर्ण प्राप्त करूंगा।" Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ किन्तु पहरेदार सन्तुष्ट नहीं हुए, भला ऐसी अंधेरी आधी गत में भी कोई भिक्षा लेने जाता है ? इस समय तो कोई चोर ही घर से बाहर निकलता है। ओर विद्याध्ययन कर राजपुरोहित का पद प्राप्त करने की महत्त्वाकाक्षा लेकर घर मे चले कपिल पण्डित को कारागार में बन्द कर दिया गया। ___ क्या मे क्या हो गया ? कहाँ को चले थे, कहाँ जा पहुँचे ? उद्देश्य या था, ओर प्राप्ति क्या हुई ? महापण्डित काश्यप का पुत्र कारागार मे ? साधारण चोर-उचक्को, शराबी-लम्पटो और खूनी हत्यारो के बीच कपिल ब्राह्मण ? हे भगवान । तूने यह क्या दिन दिखाया ? मेरी बुद्धि को क्या हो गया? प्रेमिका की मुस्कान मे माता के ऑम भूल गया? हाय, यह मेग कैमा अध पतन हो गया? मोचता-मोनता भोला ब्रह्मचारी बडा दुखी हुआ। उसकी मूच्छित आत्मा जैसे महमा जाग पडी ओर उसे धिक्कारने लगी--धिक्कारती ही चली गई। राना प्रमेनजित अपराधियो का न्याय स्वय ही किया करते थे । प्रात काल मनी अपराधियों को जब राजा के समक्ष उपस्थित किया गया ता पिल ब्राह्मण की स्थिति विचित्र थी। लज्जा के मारे उसकी आखे फार ही न उती थी। पश्चाताप मे उसका हृदय जला जा रहा था। नीर-दीर का विवेक जो न कर सके वह राजा ही क्या ? प्रसेनजित की दृष्टि तीव्र थी। उसने एक ही नजर में भांप लिया कि कपिल अपरात्री नहीं हो सकता । वह बेचाग किमी श्रम में फम गया है। मम्फारवान युवा दिवाई देता है । उन्होने पूछा --- कौन हो तुम? किमलिए गत मे निकले ये ?" महागात प्राह्मण पुत्र है । भिक्षा लेने निकला था। पहरेदागे । चोर मानकर मुझे पर लिया । म निरपराध है।" नत्र व हो । रोगे तो नामा मिलेगी। सट दोगे तो राजा र दण्ड तो अब आपके हाथ में है। गोदाम Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ दे | किन्तु महापण्डित राजपुरोहित काश्यप का पुत्र असत्य भाषण नही करता ।" मैं क्या माँगू ? राजा पहले से ही उस युवक के व्यक्तित्व से फूट रही सस्कारशीलता को देख रहा था । अब उसे विश्वास हो गया । कोमल स्वर में बोला" तुम्हे क्या चाहिए, वटुक । जो चाहो, वह माँग लो । जितना स्वर्ण चाहिए, ले लो | मै वचन देता है, जो माँगोगे वही मिलेगा । " 1 कपिल विचार मे पड गया - विधि का विधान भी विचित्र है । कहाँ तो चोरी के अपराध मे दण्डित होने की स्थिति थी और कहाँ अब मनचाहा पुरस्कार मिल रहा है । कितना अच्छा अवसर है । एक हजार स्वर्णमुद्राएँ माँग लूं ? नही थोडी होगी, एक लाख माँगू ? लेकिन राजा के पास क्या कमी है, एक कोटि ही क्यो न माँग लूं ? जीवनभर सुख से रहूँगा । कपिल की विचारधारा जो चली सो चली । वह सोचता ही रहा, सोचता ही रहा सोचता ही चला गया राजा ने अधीर होकर कहा .. “कव तक सोचोगे ? जो चाहिए वह माँग लो। मै वचनबद्ध हूँ ।" कपिल के मुख पर धीरे-धीरे एक अद्भुत परिवर्तन दिखाई देने लगा था । एक नैसर्गिक प्रकाश उसके नेत्रो से फूटता प्रतीत होता था । अव वह मन ही मन विचार कर रहा था - क्या माँगूँ ? क्या कोई धन ऐसा भी है जो कभी समाप्त ही न हो ? जब लेने पर आया हूँ तो ऐसा ही धन लूँगा । इन सोने-चांदी के ठीकरो का क्या करूँगा ? गौरव और गम्भीरता से कपिल ने अव अपना सिर ऊँचा किया । राजा के नेत्रो से अब उसने निस्सकोच अपने नेत्र मिलाए और कहा } "राजन् । परमात्मा की आप पर कृपा हो । मुझे जो चाहिए था वह मिल गया है । मैने अपनी आत्मा को जान लिया है । इस आत्मा का अक्षय आनन्द-कोश, अनन्त वैभव, मुझे प्राप्त हो गया है । अब मुझे और कुछ नही चाहिए । इस प्राप्ति के समक्ष शेष सब कुछ धूलि के समान है । अव मै क्या माँगूँ ?” कपिल ने उसी क्षण हाथ उठाकर अपने केशो का लुचन कर लिया । सब कुछ त्याग कर वह समस्त निधियो का स्वामी बन गया । - उत्तराध्ययन, चूणि ८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ किन्तु पहरेदार सन्तुष्ट नही हुए, भला ऐसी अंधेरी जाधी गत मे भी कोई भिक्षा लेने जाता है ? इस समय तो कोई चोर ही घर से बाहर निकलता है। ओर विद्याध्ययन कर गजपुरोहित का पद प्राप्त करने की महत्त्वाकाक्षा लेकर घर में चले कपिल पण्डिन को कारागार मे बन्द कर दिया गया। क्या मे क्या हो गया? कहाँ को चले गे, कहाँ जा पहुंचे ? उद्देश्य क्या था, और प्राप्ति क्या हुई ? महापण्डित काश्यप का पुत्र कारागार मे? साधारण चोर-उचक्को, शरावी-लम्पटो और खूनी हत्यारो के बीच कपिल ब्राह्मण ? हे भगवान । तूने यह क्या दिन दिवाया? मेरी बुद्धि को क्या हो गया? प्रेमिका की मुस्कान में माता के ऑम् भूल गया? हाय, यह मेरा कैसा अध पतन हो गया? सोचता-सोचता भोला ब्रह्मचारी बडा दुखी हुआ। उमकी मूच्छित आत्मा जैसे सहसा जाग पडी ओर उसे धिक्कारने तगी- धिक्कारती ही चली गई। राजा प्रसेनजित अपराधियो का न्याय स्वय ही किया करते थे। प्रात काल सभी अपराधियो को जब राजा के समक्ष उपस्थित किया गया तो कपिल ब्राह्मण की स्थिति विचित्र थी । लज्जा के मारे उसकी आँखे ऊपर ही न उठती थी। पश्चाताप से उसका हृदय जला जा रहा था। नीर-क्षीर का विवेक जो न कर सके वह राजा ही क्या ? प्रसेनजित की दृष्टि तीव्र थी। उसने एक ही नजर मे भाँप लिया कि कपिल अपराधी नही हो सकता । वह बेचारा किसी भ्रम मे फंस गया है। सस्कारवान युवक दिखाई देता है । उन्होने पूछा "कौन हो तुम ? किसलिए रात मे निकले थे?" "महाराज | ब्राह्मणपुत्र हूँ। भिक्षा लेने निकला था। पहरेदारो ने चोर मानकर मुझे पकड लिया । मै निरपराध हूँ।" "सच-सच कहो । सत्य कहोगे तो क्षमा मिलेगी। झूठ कहोगे तो कठोर दण्ड ।" __ "महाराज | क्षमा और दण्ड तो अब आपके हाथ मे है। जो चाहे, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मै क्या मांगू? १६७ दे । किन्तु महापण्डित राजपुरोहित काश्यप का पुत्र असत्य भापण नही करता।" राजा पहले से ही उस युवक के व्यक्तित्व से फूट रही सस्कारशीलता को देख रहा था । अब उसे विश्वास हो गया । कोमल स्वर मे बोला "तुम्हे क्या चाहिए, बटुक | जो चाहो, वह मॉग लो। जितना स्वर्ण चाहिए, ले लो । मैं वचन देता है, जो मांगोगे वही मिलेगा।" कपिल विचार मे पड गया-विधि का विधान भी विचित्र है । कहाँ तो चोरी के अपराध मे दण्डित होने की स्थिति थी और कहाँ अव मनचाहा पुरस्कार मिल रहा है। कितना अच्छा अवसर है । एक हजार स्वर्णमुद्राएँ मॉग लूँ ? नहीं थोडी होगी, एक लाख माँगू ? लेकिन राजा के पास क्या कमी है, एक कोटि ही क्यो न मॉग लूँ ? जीवनभर सुख से रहूँगा। कपिल की विचारधारा जो चली सो चली। वह सोचता ही रहा, सोचता ही रहा · 'सोचता ही चला गया " । राजा ने अधीर होकर कहा"कब तक सोचोगे ? जो चाहिए वह मॉग लो। मै वचनवद्ध हूँ।" कपिल के मुख पर धीरे-धीरे एक अद्भुत परिवर्तन दिखाई देने लगा था । एक नैसर्गिक प्रकाश उसके नेत्रो से फूटता प्रतीत होता था। अव वह मन ही मन विचार कर रहा था क्या मांगू? क्या कोई धन ऐसा भी है जो कभी समाप्त ही न हो ? जव लेने पर आया हूँ तो ऐसा ही धन लूंगा। इन सोने-चांदी के ठीकरो का क्या करूँगा? गौरव और गम्भीरता से कपिल ने अब अपना सिर ऊँचा किया। राजा के नेत्रो से अब उसने निस्सकोच अपने नेत्र मिलाए और कहा “राजन् । परमात्मा की आप पर कृपा हो । मुझे जो चाहिए था वह मिल गया है । मैने अपनी आत्मा को जान लिया है । इस आत्मा का अक्षय आनन्द-कोश, अनन्त वैभव, मुझे प्राप्त हो गया है। अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए। इस प्राप्ति के समक्ष शेप सब कुछ धूलि के समान है। अव मैं क्या मॉगं ?" कपिल ने उसी क्षण हाथ उठाकर अपने केशो का लुचन कर लिया। सब कुछ त्याग कर वह समस्त निधियो का स्वामी बन गया। -उत्तराध्ययन, चूणि ८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ शुभ संकल्प भारतवर्ष आज के समान दयनीय स्थिति मे सदा ही रहा हो, ऐसी बात नही है । किसी जमाने में भारत सोने की चिडिया कहलाता था । आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व का युग भी भारत की समृद्धि एव गोरव का युग था । उसी युग की यह एक कथा है । दक्षिण मे एक विशाल, अपरिमित वैभव और धनधान्य से परिपूर्ण नगरी थी - राजगृही । सम्राट् श्रेणिक उस नगरी मे राज्य करते थे । उनके राज्य मे केवल एक ही व्यक्ति ऐसा था जिसके हृदय मे कोई वेदना थी । और वह व्यक्ति था - राजा की ही रानी, धारिणी । 1 रानी धारिणी इसलिए दुखी थी कि उसकी गोद सूनी थी । किन्तु सदाचारी, धर्मनिष्ठ और सयमी व्यक्ति सदा ही कष्ट मे नही रह सकते । रानी धारिणी के भी पुण्यो का उदयकाल आ रहा था । एक रात उसने स्वप्न देखा - एक सुन्दर श्वेत हाथी उसके मुख मे प्रवेश कर रहा है | प्रात काल रानी ने राजा को अपना स्वप्न जब सुनाया तब राजा ने राज्य के श्रेष्ठ ज्योतिर्विदों को राजसभा मे बुलाकर इस स्वप्न का फलादेश पूछा । ज्योतिर्विदों ने विचार कर बताया "महाराज ! यह स्वप्न अत्यन्त मगलमय एव कल्याणकारी है । इसके फलस्वरूप रानी को नौ मास व्यतीत होने पर श्रेष्ठ पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी । वह पुत्ररत्न विस्तृत राज्य-सुख भोगने के उपरान्त अन्त मे ससार से १६८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सकल्प १६६ विमुख होकर, अनगार बनकर इस देह के बन्धन से सदा के लिए मुक्त होगा और अपनी आत्मा का परम कल्याण करेगा ।" यह फलादेश सुनकर राजा-रानी के आनन्द की सीमा न रही । सारा राज्य हर्ष-विभोर हो उठा । महारानी का गर्भ धीरे-धीरे वढने लगा। तीसरे महीने मे रानी को दोहद उत्पन्न हुआ । उनकी इच्छा हुई - मेघ सारे आकाश में घिरकर गर्जन करने लगे, विजली चमक उठे, मयूरो का केकारव दिशाओ मे गूंज उठे, वर्पा की फुहारो से पृथ्वी का मन स्फुरित हो उठे, सारी धरती हरी मखमली चादर से आच्छादित हो जाय और ऐसे समय में, मै अपने प्रिय पति सम्राट् श्रेणिक के साथ हाथी पर बैठकर वैभारगिरि का भ्रमण करूँ । यह आकाक्षा रानी को हुई, किन्तु वर्षाकाल तो था नही । सारा आकाश निरभ्र और नीला था । कही वादल का एक टुकड़ा भी दिखाई नही देता था । रानी की इच्छा पूरी हो तो कैसे ? निदान अपने मन की इच्छा को मन मे ही दबाये रानी दिन - दिन दुर्बल होने लगी। उसकी यह स्थिति जब एक प्रिय दासी से देखी न गई तो उसने जाकर सम्राट् को सारी बात कह सुनाई । सुनकर वे भी चिन्ता मे पड गये । किन्तु उपाय क्या था ? उपाय कोई नही था । आशा की कोई किरण कही दिखाई नही देती थी । उदास राजा राज्य सभा मे पहुँचा । चिन्ता का कारण जानकर राजसभा भी मूक होकर बैठ गई । उसी समय राजपुत्र अभयकुमार ने राजसभा मे प्रवेश किया । वह सम्राट् श्रेणिक और रानी नन्दा से उत्पन्न अत्यन्त मेधावी और पराक्रमी राजपुत्र था । उसकी तीव्र और त्वरित बुद्धि वेजोड थी । उसने एक ही दृष्टि मे देख लिया कि आज राजा सहित सारी राजसभा किसी गम्भीर चिन्ता मे निमग्न है। पूछा "पिताजी | क्या कारण है कि आज आप उदास प्रतीत होते हे ? इस पृथ्वी पर ऐसी कौनसी वात उत्पन्न हो गई जो प्रतापी सम्राट् श्रेणिक को भी उदास और चिन्तित कर दे ?" श्रेणिक जानते थे कि अभयकुमार वीर है, बुद्धिमान है, समर्थ है । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ किन्तु जो असम्भव हे उसे सम्भव कैसे किया जा सकता है ? फिर भी उन्होने सारी बात उसे बताई। सुनकर कुछ देर अभयकुमार ने विचार किया और फिर कहा "पिताजी | आप चिन्ता न करे । मेरे रहते माता की यह अभिलापा अवश्य पूर्ण होगी।" राजसभा भग हुई। अभयकुमार की प्रतिज्ञा में सभी को विश्वास था । फिर भी राजा मोचते थे-आखिर यह लडका करेगा क्या? x धुन का धनी अभयकुमार आज तीन दिन से पौपवशाला मे निराहार, मौन, ध्यानमग्न बैठा था। उसकी मुखमुद्रा से स्पष्ट प्रतीत होता या कि चाहे अनन्तकाल व्यतीत हो जाय, किन्तु वह तव तक अपने आसन से हिलेगा नही जब तक उसके सकल्प की पूर्ति नही हो जाती। देवलोक मे महाऋद्धिधारी एक देव ने अपने अवधिज्ञान से जानापृथ्वी पर उसका मित्र अभयकुमार उसे पुकार रहा है । क्षणभर मे ही अपने पुण्डरीक विमान मे बैठकर वह अभयकुमार के पास आ पहुंचा। अपना परिचय देकर उसने कहा "मित्र । आपने मुझे स्मरण किया। कहो क्या आज्ञा है ?" ज्यो ही अभयकुमार ने अपनी इच्छा प्रकट की, सारे आकाश मे कालीकाली घटाएँ उमड पडी। दिशाओ मे मेघो का गर्जन गुजायमान होने लगा। ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे वकाल अपने पूर्ण यौवन पर हो। अभयकुमार की साधना सफल हुई और रानी धारिणी का दोहद पूर्ण हुआ। सुखपूर्वक समय व्यतीत होता रहा और नौ मास पूर्ण होने पर महारानी ने एक सुन्दर वालक को जन्म दिया। प्रजा खुशी से नाच उठी। राजा ने याचको को मनचाहा दान दिया। धारिणी के पुत्र का नाम रखा गया 'मेघकुमार'। द्वितीया के चन्द्र के समान वह बालक वृद्धि पाने लगा । इसकी देह की कान्ति अद्भुत थी। आठ वर्ष का होने पर मेघकुमार को विद्याध्ययन हेतु आचार्य के पास भेजा गया और वह शीघ्र ही, अल्पकाल मे ही, सभी कलाओ और विद्याओ मे निष्णात होकर आश्रम से लौट आया। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ शुभ सकल्प यौवनकाल भी आया। मेघकुमार की देह अव पूर्ण चन्द्र के समान शोभित हो रही थी। उसके मुख पर एक नैसर्गिक शोभा छाई रहती थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो शक्ति और स्वास्थ्य ने ही उसके अग-प्रत्यगो का निर्माण किया हो। राजा श्रेणिक ने समुचित अवसर जानकर आठ सुन्दरी, सुलक्षणा राजकुमारियो के साथ मेघकुमार का विवाह कर दिया। वे आठो राजकुमारियाँ अप्ट-सिद्धियो के समान मगलमयी थी। उनका प्रत्येक अग तो सुन्दर था ही, साथ ही वे विनय, नम्रता, लज्जा तथा शान्ति की मूर्ति प्रतीत होती थी। ____ मेघकुमार अपनी आठो पत्नियो सहित सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे। ससार के प्राणियो को अहिसा धर्म के उपदेश द्वारा परम कल्याण का मार्ग बताते हुए भगवान महावीर एक वार राजगृही नगरी मे पधारकर गुणशील नामक उद्यान मे ठहरे । अनेक देशो मे विचरण करते हुए वे वहाँ पधारे थे । अनन्तज्ञान, परम करुणा. वीतरागता और कठोर तपश्चरण ही उनका जीवन था। प्रभु के आगमन का समाचार सुनकर सारी नगरी हर्षविभोर होकर उनके दर्शन और उपदेश-श्रवण हेतु उमड पडी। मेघकुमार ने भी अपने महल के गवाक्ष से यह दृश्य देखा, समाचार सुना और भगवान के दर्शन हेतु चल पडा। राजा भी गया, रानी भी गई, सेवक भी गये, सैनिक भी गये । भगवान के अमृत-वचनो ने लोगो की सूखी जीवन-सरिता मे अमृत वृष्टि का कार्य किया। उन्होने बताया कि जीव, अजीव, आत्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष का वास्तविक स्वरूप क्या है । जीव और कर्म का सम्बन्ध क्यो और कैसे होता है ? कर्मों के जाल में फंसकर जीव कैसे अनन्तकाल तक अनेक योनियो मे भटकता है। इन कमों से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है? प्रत्येक श्रोता आज अपने जीवन को धन्य मान रहा था। घर बैठे गगा का आना शायद इसे ही कहा जाता है । गगा ही क्या, भगवान स्वय आज उनके पुण्योदय स्वरूप वहाँ पधारे थे। ___ अस्तु, उपदेश सुनकर अपने जीवन को कृतार्थ मानते हुए तथा अपनीअपनी शक्ति के अनुसार व्रत एव तपश्चरण के नियम लेकर लोग लौटे। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएं किन्तु मेघकुमार का हृदय तो मानो डूब ही गया था। उनके अन्तस्तल मे तो प्रभु के वचन अब भी गूंज रहे थे ओर गूंजते ही चले जा रहे थे। उन्हे प्रतीत हो रहा था मानो दिशाएं कह रही हो-मसार क्षणभगुर है। जीवन के सुख अशाश्वत है। धीरे-धीरे वे उठे और प्रभु के चरणो मे प्रणिपात कर बोले "भगवन् । मुझे तो नया जीवन मिल गया है । मसार की असारता को आज मैने जान लिया है। प्रभु । आग मुझे अपनी शरण मे लीजिए। मुझे बन्धन से मुक्ति की ओर ले चलिए।" भगवान ने शातभाव से उत्तर दिया"देवानुप्रिय । जैसे सुख उपजे वैसा ही करो।" मेघकुमार भगवान के अनुमति-सूचक शब्दो को सुनकर हर्पित होकर अपने माता-पिता के पास पहुंचे । कहा - "पूज्यपाद | आज भगवान का उपदेश मुनकर मेरी आँखे खुल गई है । ससार असार है । नश्वर है । सच्चा और शाश्वत सुख आत्मा की पूर्ण मुक्ति मे ही है। अत मै उस शाश्वत मुख की प्राप्ति हेतु प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।" वेटे की बात सुनकर माता तो मूच्छित ही हो गई। ऐसा कोमल, भोगो को छोडकर क्या वह भिक्षा मॉग-मॉगकर खाएगा? हे भगवान, क्या मेरा बेटा मुझे तडपता छोडकर चला जायगा ? उपचार हुआ। रानी धारिणी होश में आई और विलाप करने लगी। जैसे-तैसे उसे शान्त कर राजा ने कहा "वेटा | अभी तेरी आयु ही क्या है ? अभी तूने ससार का सुख भोगा ही कहाँ है ? समय आने दे, समय पर देखा जायगा।" किन्तु मेधकुमार का सकल्प अडिग था। उसने कहा "पिताजी । भगवान के सत्य वचन सुन लेने के पश्चात् अब मेरा इस माया मे लिप्त रहना सभव नहीं । आप ही सोचिए-कौन किसका पुत्र है और कौन किसका पिता या माता? ये सम्बन्ध तो इस क्षणभगुर ससार के है।" Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ संकल्प २०३ "माँ | तू मुझे सुखभोग करने को कहती है, किन्तु इन भोगो की अभिलापा क्या कभी पूर्ण भी होती है ? यह तो बढती ही चली जाती है । अत दुख न कर | मुझे सच्चे सुख और कल्याण के मार्ग पर जाने से न रोक ।" मेघकुमार को अपने निश्चय पर अटल देखकर भी राजा श्रेणिक ने एक बार फिर प्रयत्न किया "बेटा । तुम कहते तो ठीक हो, किन्तु सयम अत्यन्त कठोर है । वह कॉटो का पथ है | अगारो की राह है । तुम कोमल हो। कैसे उस मार्ग पर चलोगे ? साधु-जीवन मे अनेक प्रकार के सकट पग-पग पर आते है । तुम कैसे उन सकटो का सामना करोगे ? जगल - जगल भटकना पड़ेगा । भूखप्यास, सर्दी-गर्मी सब सहन करने पडेगे । यह सब कुछ तुम कैसे कर सकोगे ?" किन्तु मेघकुमार टस से मस न हुए । वीर पुरुष एक बार सकल्प करले तो फिर कौन उसे अपने सकल्प से डिगा सकता है अन्ततः राजा-रानी को, अथवा कहिए कि माता-पिता को ही हार माननी पडी । लेकिन उन्होने अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट की “अच्छा पुत्र, जव तुम अपने निश्चय पर दृढ हो, तो तुम्हारा कल्याण हो । किन्तु हमारी एक इच्छा की पूर्ति करते जाओ । केवल एक दिन के लिए ही सही, तुम एक बार राज्य सिंहासन पर बैठो। हमारी आँखे कुछ तो तृप्ति का अनुभव करे । उसके बाद तुम साधु-जीवन मे प्रवेश करने के लिए स्वतन्त्र होगे ।" पूज्य माता-पिता की यह आज्ञा शिरोधार्य करना मेघकुमार ने अपना कर्त्तव्य समझा । धूमधाम के साथ उनका राज्याभिषेक हुआ । शान्तभाव से मेघकुमार ने इस समायोजन को स्वीकार किया । X X X दूसरे दिन राजा मेघकुमार 'मेघमुनि' वन गये । माता ने अपने हृदय को स्थिर कर लिया था । उन्होने अन्तिम आशीप वचन कहे थे"मेघकुमार | मेरे वीर पुत्र । अव जव तुम सयम के मार्ग पर चल ही पडे हो तो सयम मे शिथिलता कभी न लाना ।" भगवान ने दीक्षा के समय वचन कहे थे- “भव्य ! अव से जीवन पर्यन्त तुम्हारा एक ही लक्ष्य रहना चाहिए । ! Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ उठते-बैठते, चलते-सोते, प्रत्येक क्रिया करते हुए, प्रत्येक पल सतत जाग्रत रहकर सयम मार्ग का अनुसरण करना । अहिसा का पूर्ण रूप से पालन करना । मुनियो के महाव्रतो का निर्दोष रूप से निर्वाह करना ।" २०४ मेघमुनि नव दीक्षित थे। सबसे छोटे थे । अत रात्रि मे जब सोने का समय हुआ तो उनका स्थान सबसे पीछे द्वार के समीप था। रात्रि मे to कोई मुनि किसी आवश्यक कार्य से आते-जाते तो मेघमुनि को वारवार पैर सिकोडने पडते । कभी-कभी किसी मुनि का पैर उन्हें लग भी जाता । इस प्रकार सारी रात उन्हें कष्ट रहा और वे ठीक से शयन भी न कर सके । इस स्थिति से उनके चित्त मे विचारो का आन्दोलन आरम्भ हो गया । वे सोचने लगे---मैने भूल तो नही की ? मै सम्राट श्रेणिक का पुत्र इस प्रकार मुनियो की लाते खाते क्यो पडा हूँ ? माता-पिता ने क्या सत्य नही कहा था कि मुनि जीवन अत्यन्त कठोर हे ? साथ ही उन्हे स्मरण हुआ - माता ने कहा था कि अब तुम जब सयम धारण कर ही रहे हो तो सयम मे शिथिलता न लाना । मेरे दूध को न लजाना । विचारो के इस द्वन्द मे पड़े मेघमुनि ने अन्त मे यही निश्चय किया कि घर लौट चलना चाहिए। माता-पिता तो मुझे लौटा देखकर अवश्य ही प्रसन्न होगे । यह निर्णय लेकर प्रात काल जब वे भगवान के समक्ष पहुँचे तो दिव्यज्ञान को धारण करने वाले प्रभु ने भुवन मोहिनी मधुर मुस्कान के साथ कहा "क्यो मुनि मेघ । तुम इतने अधीर कैसे हो गये ? एक रात के तनिक से कष्ट से ही विचलित हो गये ? क्या तुम्हे अपने पूर्वभव का स्मरण नही, जब तुमने दूसरो को सुख पहुँचाने के लिए घोर कष्ट सहन किया था ? अरे, उस कष्ट की तुलना में यह कप्ट तो कुछ भी नही था । तुमने अपनी शक्ति को पहिचाना नही ।" मेघमुनि को बडी लज्जा का अनुभव हुआ । उन्होने अपने हाथ जोडसे निनय की -- "भगवन् । मुझे मेरे पूर्वजन्म की कथा सुनाइये ।" भगवान ने सुनाया - कर प्रभु Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सकल्प २०५ अव से तीसरे भव की यह घटना है। वैताढ्य पर्वत के समीप तुम एक हाथियो के यूथ के प्रधान थे । सात हाथ ऊँचे, नौ हाथ लम्बे और श्वेत वर्ण के थे । एक वार गीष्म ऋतु मे उस वन मे प्रचण्ड दावाग्नि फैल गई । वन के जीव-जन्तु उस भयानक अग्नि मे जल-जलकर भस्म होने लगे। प्राण बचाने के लिए सब भागे। तुम भी भागे। भागते-भागते प्यास से तुम्हारा कण्ठ जलने लगा। पानी पीने की अभिलापा से तुम एक कीचड से भरे तालाब मे उतरे और उसके दलदल मे धंस गये। उसी समय एक दूसरा हाथी वहाँ आया। वह तुमसे शत्रुता रखता था, क्योकि किसी समय तुमने उसे अपने यूथ से निष्कासित कर दिया था। उसे प्रतिशोध लेने का अवसर मिल गया। अपने पैने दांतो से उसने तुम्हारे शरीर को वेध डाला। इस प्रकार सात दिन तक कष्ट झेलकर तुमने अपना वह जीवन समाप्त किया। अगले भव मे गगा नदी के किनारे तुम पुन हाथी के ही रूप मे जन्मे और तुम्ही हाथियो के समुदाय के प्रधान बन गये। सयोग से उस वन मे भी दावाग्नि का प्रकोप हुआ । उसे देखकर तुम्हे अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया। अत विचारपूर्वक तुमने वर्षाऋतु मे अपने यूथ के हाथीहथिनियो की सहायता से उस वन मे चार कोस की लम्बाई-चौडाई मे सारे वृक्षो आदि को साफकर एक गोलाकार वनस्पति रहित मण्डल बना लिया। भविष्य मे सुरक्षा की दृष्टि से तुमने यह कार्य किया था। एक बार फिर ग्रीष्म ऋतु मे धरती प्रचण्ड ताप से जलने लगी। दावानल सुलग उठा। उस समय तुम अपने यूथ को लेकर उस सुरक्षित मडल मे आ गये । वन के अन्य अनेक छोटे-बड़े प्राणी भी अपने प्राण-बचाने के लिए वहाँ दौडे आये। तुमने सबको शरण दी। उसी समय एक खरगोश शरण खोजता वहाँ आया। किन्तु अब उस स्थान पर तिल मात्र जगह न थी। सयोगवश उसी समय तुमने अपने शरीर को खुजाने के लिए अपना एक पैर उठाया और उस खाली स्थान पर वह खरगोश आकर बैठ गया। तुमने जब पैर वापिस जमीन पर रखना चाहा तो वहाँ वह कोमल, कमजोर काया वाला खरगोश बैठा था। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ तुम चाहते तो अपना पैर नीचे रख देते और कप्ट न पाते । किन्तु उस छोटे से, भोले, असहाय, निरुपाय खरगोश पर तुम्हे करुणा उपजी । तुमने उस पर दया करके स्वय कष्ट सहन किया और अपना पैर अधर ही रखा । इस अनुकम्पा के माहात्म्य से तुम्हे मनुष्यत्व की प्राप्ति हुई । वह भयानक दावानल ढाई दिन तक सुलगा। पूरे समय तुम्हारा पैर अधर में ही रहा । दावानल की समाप्ति पर जब सब जीव वहाँ से चले गये तव तुमने अपना पैर पृथ्वी पर टिकाना चाहा । किन्तु इतने लम्बे समय तक अधर रहने के कारण वह सुन्न पड गया था । तुम उसे टिका न सके और धराशायी हो गये । तीन दिन तक उसी स्थिति मे निराहार पडे रहकर तुम मृत्यु को प्राप्त कर सम्राट श्रेणिक के पुत्र होकर उत्पन्न हुए । I हे मेघ । हाथी के जन्म मे इतना कष्ट सहा, उसका मुफल प्राप्त किया और अब मनुष्य होकर क्या इतने से कष्ट से घबरा जाओगे ? विचार करो । २०६ मुनि विगलित हो गये थे । प्रभु के चरणो मे वन्दन करते हुए “भगवन् | मै अज्ञानी इस सयमरत्न को कंकर मानकर फेक देना चाहता था । आपने पुन मेरे ज्ञान नेत्रो को खोल दिया है । मै आज से अपना जीवन प्राणीमात्र की सेवा मे ही व्यतीत करूँगा । प्रभो। एक बार मुझे क्षमा प्रदान कीजिए । " भगवान के मुखारविन्द पर वही दिव्य स्मित खिला हुआ था । वोले X X X मेघमुनि ने अपने सकल्प का पालन किया । अटल और अडिग साधना पूर्वक वे तपश्चरण एव ज्ञानाराधना मे लीन रहे । समय व्यतीत होता चला गया | भगवान के साथ विचरण करते-करते वे शीघ्र ही ग्यारह अग के पाठी हो गये । एक-एक दिन से लेकर छह-छह महीने तक उपवास धारण करके वे रहने लगे । उनका जीवन ज्ञान तथा चारित्र का एक सुन्दर उदाहरण ही बन गया । भगवान की आज्ञा प्राप्त कर उन्होने परिमाओ का सूत्रविधि से अनुष्ठान किया और तत्पश्चात् गुणरत्न सवत्सर करने की आज्ञा भी उन्हे प्रभु से प्राप्त हो गई। उनकी नित्य वर्धन पाती हुई शक्तियों को देखकर भगवान ने उन्हें ऐसी अनुमति प्रदान की । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सकल्प २०७ मेघमुनि इसी प्रकार कठिन से कठिनतर तप करते रहे। धीरे-धीरे काल-क्रमानुसार उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया। तव, अन्त मे मेघमुनि ने समाधिमरण का निश्चय कर प्रभु से आज्ञा चाही। भगवान ने उचित जानकर आज्ञा दी । मेघमुनि ने समस्त मुनियो से जाने-अनजाने हुई भूलो के लिए क्षमायाचना की। यद्यपि मुनि तो समभाव मे चलते है, किसी के प्रति राग-द्वप नही रखते, किन्तु फिर भी कदाचित् कोई दोप प्रवृत्ति मे आ ही गया हो तो उसके लिए मन-वचन-काया से क्षमायाचना करना उचित है। विपुलाचल पर्वत । शिला पर घास का नाममात्र का विछौना। मेघमुनि सिद्धो एव तीर्थकरो की स्तुति कर, अपने लिए हुए नियमो, व्रतो, प्रतिज्ञाओ की निर्दोपिता पर विचार कर, जीवनपर्यन्त आहार-जल का परित्याग कर शय्या पर एक करवट लेटे है। एक मास तक इसी प्रकार समाधि मे मग्न रहने के पश्चात् अतीव निर्मल परिणामो के साथ मेघमुनि ने अपने आयुष्य को समाप्त किया। एक वीरपुरुप का शुभ सकल्प इस प्रकार चरमता को प्राप्त हुआ। - ज्ञाता धर्म कथा १ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० विष- वृक्ष यदि कोई व्यक्ति जानते-बुझते हुए भी अपनी हानि करना चाहे तो उसे कौन रोक सकता है ? आँखे रखते हुए भी यदि कोई अन्धा बने और खाई मे गिरना चाहे तो उसे कौन रोक सकता है ? अपने ही पैरो पर स्वय ही कुल्हाडी मारने वाले को कौन रोक सकता है ? प्रसिद्ध चम्पानगरी की यह कथा है । पाठक इस नगरी से परिचित है । राजा जितशत्रु के विषय मे भी जान चुके है । उस नगरी मे एक सार्थवाह रहा करता था । उसका नाम था - धन्य । उस सार्थवाह के पास अपार धनराशि थी । दूर-दूर के देशो मे उसका व्यापार चलता था । घनधान्य एव ऐश्वर्य मे उसकी समता करने वाला कोई अन्य उस नगरी मे नही था । उसका जीवन आनन्द से व्यतीत हो रहा था । एक वार मध्यरात्रि को विचार करते-करते उसने व्यापार के लिए अन्यत्र जाने का निश्चय किया । इस बार इस प्रयोजन हेतु उसने अहिच्छत्र नगरी को चुना। यह नगरी चम्पा से उत्तर-पूर्व दिशा मे थी । बडी ही विशाल तथा समृद्ध नगरी थी वह भी । वहाँ कनककेतु नामक राजा राज्य करता था । राजा कनककेतु अत्यन्त गुणवान था । गुणी व्यक्तियो का बडा आदर करता था । हिमवन्त पर्वत के समान उसका आकर्षक तथा महान् व्यक्तित्व था । उसकी छत्रछाया मे प्रजा बडे सुख से रहती थी । अपने निश्चय के अनुसार धन्य सार्थवाह ने व्यापार के लिए अनेक २०८ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष-वृक्ष २०६ वस्तुएं इकट्ठी की, अपने कौटुम्बिक पुरुपो से विचार-विमर्श किया और सबकी सम्मति लेकर नगर मे घोपणा करा दी कि धन्य सार्थवाह व्यापार के निमित्त अहिच्छत्र नगरी को जा रहा है, जो भी व्यक्ति उसके साथ जाना चाहे, जा सकता है । यात्रा के लिए आवश्यक सभी वस्तुएँ-वस्त्र, भोजन, औपधि इत्यादि यात्रियो को सार्थवाह के द्वारा प्रदान की जायेगी। यह घोषणा सुनकर बहुत से लोग जो कि अहिच्छत्र नगरी को जाना चाहते थे किन्तु उपयुक्त समय और सुविधा की प्रतीक्षा मे ठहरे हुए थे, धन्य सार्थवाह के समीप आ गये। किसी के पास वस्त्र नही थे, किसी के पास जूते । धन्य सार्थवाह ने सभी लोगो को सारी आवश्यक सामग्री दे दी। उस जमाने में समर्थ लोग इसी प्रकार अन्य लोगो की निस्वार्थ सेवा किया करते थे। शुभ मुहूर्त मे यात्रियो का काफिला उमग के साथ चल पडा। मार्ग लम्बा था। यातायात के साधन प्राचीनकाल मे इतने तीव्रगामी नही थे जितने कि आज है । अत यात्रा मे समय अधिक लगा करता था। अनेक स्थानों पर बीच-बीच मे पडाव डालने पडते थे। मार्ग मे कही नदियाँ पडती थी, कही ऊँचे-ऊँचे पर्वत, कही लम्बे-चौड़े मैदान और कही घनघोर जगल । इन सवको पार करते हुए यात्री वडी कठिनाई से बहुत समय मे अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच पाते थे। __ धन्य सार्थवाह का काफिला धीरे-धीरे मजिल-दर-मजिल आगे बढता जा रहा था। चलते-चलते उपयुक्त स्थान देखकर पडाव कर भोजन और विश्राम करते हुए वह काफिला अग देश के बीच मे से गुजरता हुआ देश की सीमा पर जा पहुंचा। देश की सीमा से आगे पहुँचकर धन्य सार्थवाह ने फिर पडाव डाला। उस स्थान से आगे घनघोर जगल था। उसमे बहुत प्रकार के वृक्ष थे। कुछ तो ऐसे वृक्ष थे जिन्हे अनेक मनुष्यो ने पहले कभी देखा ही नही था। उनमे से कुछ वृक्ष ऐसे भी थे जो कि विषैले थे। धन्य सार्थवाह अनेक यात्राएँ कर चुका था। अनुभवी और ज्ञानी या । इस मार्ग से भी वह कई वार गुजर चुका था। अत वह उस जगल तथा वहाँ के वृक्षो से भली-भांति परिचित या। अपने साथ के अन्य यात्रियो को सावधान करने के लिए उसने सबसे कहा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ "वन्धुओ | उस स्थान से आगे वडा विकट वन है । उस वन मे अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ है । मैं विशेष रूप से एक वृक्ष की ओर आपका व्यान आकर्पित करना चाहता हूँ । उस वृक्ष का नाम है - नन्दीफल । इस जंगल के मध्य भाग मे ये वृक्ष लगे हुए है। देखने में ये वृक्ष बहुत मनोहर है। उनका रंग-रूप सुन्दर और आकर्षक है । उनकी छाया भी अत्यन्त गीतल और सुखद है । ये वृक्ष गहरे हरे रंग के है और सवन है । पत्तो, पुप्पो तथा फलो से लदे हुए हैं । किन्तु आप लोग सावधान रहे, जितने आकर्षक ये वृक्ष है, उतने ही भयकर भी है । ये विपवृक्ष है ।" २१० धन्य सार्थवाह की इतनी बात सुनकर सब लोग चिन्तित हुए । सार्थवाह ने आगे कहा “इन वृक्षो से हमे सावधान रहना है। जो भी व्यक्ति असावधान होकर इन वृक्षो के पत्तो या फलो का भक्षण करेगा, इतना ही नही, जो भी व्यक्ति इनकी छाया मे बैठेगा, वह कुछ समय तो सुख का अनुभव करेगा, किन्तु अन्त मे उसकी मृत्यु निश्चित है । इसलिए मैं आप सबको पहले मे ही सावधान कर देना चाहता हूँ । कोई व्यक्ति इन वृक्षो के समीप भी न जाये ।" काफिला आगे वढा । चलते-चलते वह उस जगल के ठीक मध्य मे आ पहुँचा, जहाँ पर मृत्यु के दूत वे नन्दीफल नामक वृक्ष लगे हुए थे । उन सुन्दर वृक्षो को देखकर कोई भी व्यक्ति यह कल्पना तक नही कर सकता था कि वे इतने भयानक होगे । उनकी शोभा देखते ही बनती थी । वे खूव हरे-भरे थे । सुन्दर फूलो और चित्त को आकर्पित करने वाले फलो से लदे हुए । उनकी शाखाएँ पवन में झूम-झूमकर यात्रियो को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी । इस संसार मे कुछ ऐसे व्यसन है जो मनुष्य को इसी प्रकार अपनी ओर आकर्षित करते है । सेवन करने मे वे मधुर प्रतीत होते है, किन्तु उनका परिणाम होता है विनाश | ये वृक्ष और उनके फल भी ऐसे ही थे । धन्य सार्थवाह ने उन वृक्षो से कुछ दूर ही अपना पडाव डाला । किन्तु आगे बढकर जो स्वय ही विनाश को आमन्त्रित करे उसे कौन रोक सकता है ? Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ विष-वृक्ष सार्थवाह द्वारा पहले से ही चेतावनी दे दिये जाने के उपरान्त भी स्वाद-लोलुप कुछ लोगो की जिह्वा वश मे न रह सकी। उन लोगो ने उन वृक्षो के सुन्दर और मधुर लगने वाले फलो को खा ही लिया। इसी प्रकार कुछ लोगो ने सोचा कि केवल छाया में बैठने से क्या होता है ? ऐसी शीतल छाया मे तो अवश्य विश्राम करना चाहिए। यह सोचकर उन अभागे लोगो ने उनकी छाया मे ही विश्राम लिया। परिणाम अनिवार्य था। जिन-जिन लोगो ने उन वृक्षो के फलो को खाया अथवा उनकी छाया में विश्राम किया, वे सदा-सदा के लिए मृत्यु की शीतल छाया में विश्राम करने चल दिये । शेप जिन लोगो ने धन्य सार्थवाह की बात और चेतावनी पर ध्यान दिया था, जिन्होने अपने मन पर अधिकार रखा था, जिन्होने अन्य ही वृक्षो के फल खाये तथा अन्य ही वृक्षो के नीचे विश्राम किया था, वे सुखपूर्वक जीवित रहे। ससार के कामभोग उस नन्दीफल नामक वृक्ष के समान ही विषमय हैं। धर्म हमे निरन्तर यह शिक्षा देता रहता है कि हमे सयम से काम लेना चाहिए। अपनी इन्द्रियो को सयमपूर्वक कामभोगो से बचाना चाहिए । जो व्यक्ति यह जानते हुए भी अपनी इन्द्रियो के वश मे होकर सासारिक कामभोगो मे लिप्त और अनुरक्त हो जाते है, उन्हे अन्त मे वही परिणाम भोगना पडता है जैसा कि नन्दीफल नामक वृक्ष के फल खाने वालो को भोगना पड़ा। ऐसे व्यक्ति, निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी, गृहस्थ अथवा गृहस्थी, इन्द्रियो के वश मे होकर इस लोक में भी अनेक लोगो के धिक्कार के पात्र होते हैं तथा परलोक मे भी दुख पाते है। उन्हे अनन्तकाल तक चार प्रकार की गतियो में भ्रमण करना पडता है। दूसरे प्रकार के व्यक्ति जो सयम रखते है, वे इस भव मे अनेक श्रमणश्रमणियो तथा श्रावक-श्राविकाओ द्वारा पूजनीय होते है तथा परभव मे भी सुख प्राप्त करते हुए अन्त मे अनुक्रम से ससार-सागर के पार उतर जाते है । काफिला आगे बढ़ता गया । अन्त मे मजिल आ गई । अहिच्छत्र नगर के बाहर एक उद्यान मे पडाव डाल दिया गया । यथासमय मूल्यवान भेट लेकर धन्य सार्थवाह राजा कनककेतु की सेवा मे उपस्थित हुआ । राजा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ प्रसन्न हुआ। उसने धन्य सार्थवाह को अपने गज्य मे नि शुल्क व्यापार करने की अनुमति प्रदान की। व्यापार द्वारा विपुल धनराशि अर्जित कर धन्य सार्थवाह अपने घर लौट आया ओर सुख मे अपना जीवन व्यतीत करने लगा। एक बार चम्पानगरी मे स्थविर भगवन्त का पदार्पण हुआ । बन्य सार्थवाह उनके उपदेश सुनकर प्रभावित हुआ और दीक्षा ग्रहण कर तप और धर्म का जीवन व्यतीत करने लगा । अन्त मे उसे सिद्धि प्राप्त हुई। मनुष्य के समक्ष दोनो मार्ग खुले पडे है । एक मार्ग उसे विनाश की ओर, विप की ओर ले जाता है तथा दूसरा मार्ग उमे मुक्ति की ओर, अमृत की ओर । मनुष्य को चाहिए कि वह अमृत का, मुक्ति का मार्ग चुने तथा जन्म-मरण के इस चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाय । ममार के कामभोग विपवृक्ष है। इनका त्याग करना ही उचित है। -ज्ञाता धर्म कथा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ भावी के गर्भ में श्री कृष्ण ने जब सुना कि भगवान नेमिनाथ उनकी द्वारिका नगरी के वाहर उपवन मे आकर विराजे है, तो वे प्रसन्न हो गये। राजकाज तो चलता ही रहता है, जीवन-भर का वखेडा है यह-ऐसा सोचकर और प्रभु-दर्शन के लिए उत्कठित होकर वे रानी पद्मावती सहित चल पड़े । दर्शन, वन्दन, उपदेश-श्रवण के पश्चात् अन्य जन तो अपने-अपने घरो को लौट गये, किन्तु श्रीकृष्ण के मन मे आज कुछ जिज्ञासाएँ जाग रही थी। उनका समाधान जानने के लिए वे वही ठहर गये और उचित समय जानकर भगवान से पूछने लगे "भन्ते । मैने अपनी इस द्वारिका नगरी को सजाने-सँवारने और समृद्ध करने मे कोई वात उठा नही रखी है । वडा परिश्रम किया है । आज यह नगरी देवलोक के समान सुशोभित एव समृद्ध है । यहाँ की प्रजा भी सुखी है। भविष्य मे इस नगरी का विनाश तो नही होगा ?" वास्तविकता यह थी कि श्रीकृष्ण यादव कुमारो मे निरन्तर बढती जा रही सुरा और सुन्दरी के प्रति आसक्ति से आशकित हो गये थे। अत वे इसके परिणाम को जानना चाहते थे। भगवान ने वताया-- "कृष्ण | तुम तो ज्ञानी हो । क्या तुम नही जानते कि इस ससार मे एक भी वस्तु शाश्वत नही है ? केवल आत्मा ही शाश्वत है। शेप सब कुछ तो एक न एक दिन विनाश को प्राप्त होने ही वाला है । तुम्हारी यह द्वारिका नगरी भी एक दिन विनप्ट होगी।" २१३ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ कृष्ण गम्भीर हुए। वोले " इसका कारण क्या होगा, प्रभु । निमित्त क्या होगा ?" भगवान ने बताया " यादव - कुमारो से प्रताडित होकर द्वैपायन ऋषि कुपित होगे । उन्ही के द्वारा इस नगरी का विनाश होगा ।" कृष्ण की आशका सत्य ही निकली। कुछ क्षण विचार करने के बाद उन्होने दूसरा प्रश्न किया "क्या मैं भिक्षु वन सकूंगा, भन्ते ।" "नही, कृष्ण । तुम भिक्षु नही बन सकोगे ।" स्वाभाविक था कि कृष्ण इसका कारण जानना चाहते। उन्होंने पूछा -- " भन्ते । मै भिक्षु क्यो नही वन सकूँगा ?" भगवान ने इस प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट कथन किया "कृष्ण ! तुम वासुदेव हो । आज तक के मानव इतिहास मे किसी भी वासुदेव ने प्रव्रज्या नही ली, ले भी नही सकता और ले सकेगा भी नही । यह संसार का शाश्वत नियम है ।" श्रीकृष्ण और भी उलझ गये। सोचते-सोचते उन्होने फिर पूछा“भन्ते । ऐसी स्थिति मे यहाँ से जीवन का अन्त हो जाने पर मै कहाँ और किस रूप मे रहूँगा ?" सव कुछ जानने वाले भगवान ने शान्त, मधुर, सहज वाणी में कहा 1 "कृष्ण | यह द्वारिका नगरी जल रही होगी। सुरा और सुन्दरी के नशे मे डूबे हुए इस नगरी के यादव कुमार इस अग्नि में भस्म हो रहे होगे । उस समय तुम, बलभद्र और तुम्हारे माता-पिता यहाँ से निकलकर पाण्डवमथुरा की ओर जाओगे । उस समय मे वसुदेव और देवकी की मृत्यु हो जाने पर कौशाम्बी वन मे एक वृक्ष के नीचे लेटे हुए तुम्हारे पैर मे जराकुमार बाण मारेगा । उससे तुम्हारे जीवन का अन्त हो जायगा और तुम वहाँ से तीसरी पृथ्वी में जीवन धारण करोगे । उस समय बलभद्र भी तुम्हारे पास नहीं होगा, क्योंकि वह तुम्हारे लिए जल लाने गया होगा ।" श्रीकृष्ण गम्भीर व्यक्ति थे । किन्तु अपने इस दुखद भविष्य को जान Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावी के गर्भ में २१५ कर वे भी मन ही मन कुछ भाराकान्त हो गये । उन्हे इस स्थिति मे देखकर भगवान ने उनके हृदय मे आशा का सचार करते हुए कहा "किन्तु कृष्ण, तुम चिन्ता मे न पडो । यह तो भावी है और ऐसा ही होगा। लेकिन तुम्हारा आगे का जीवन सुखद है।" कृष्ण ने उत्साहित होकर पूछा"यह कैसे होगा, भन्ते । मै तो सच ही निराश होने लगा था।" भगवान ने बताया"शतद्वार नगर मे एक अमम तीर्थकर होगा।" "अहा ! तब क्या होगा भन्ते ?" "होगा क्या, वह अमम तीर्थंकर तुम ही हो।" भगवान के इस अमृत वचन को सुनकर श्रीकृष्ण आनन्द के महासागर मे डूब गये । अपनी सम्पूर्ण शक्ति से गहन सिहनाद कर, प्रभु के चरणो की वन्दना कर वे लौट पडे । -अन्तकृत अग सूत्र Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कौड़ी को तो खूब सम्हाला किसी समय एक वणिक विदेश से एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ कमाकर स्वदेश लौट रहा था। रास्ते मे कुछ और लोग मिल गये। उन्ही साथियो के साथ वह लम्बा मार्ग तय करने लगा । वणिक ने मार्ग मे व्यय करने के लिए कुछ रुपयो को भुनवा कर अस्सी काकिणी साथ रख ली। प्रतिदिन एक-एक काकिणी खर्च करते-करते अन्त मे एक काकिणी शेप रही, किन्तु उसे वह पिछले गाँव मे जहाँ इससे पूर्व वह ठहरा था, भूल आया । मार्ग मे कुछ दूर चले आने के बाद एकाएक उसे याद आया कि वह एक काकिणी कही भूल आया है। साथ वालो से बोला-- "भाई । एक बडी विचित्र बात हो गई, मैं एक काकिणी पीछे कही भूल आया हूँ। अभी वापस जाकर उसे ढूंढकर लाता हूँ।" साथियो ने कहा -- “जाने भी दो, एक काकिणी कौन-सी बडी बात है ? इतनी दूर जाना, ढूँढना, मिले या न मिले, व्यर्थ मे एक दिन का समय नष्ट होगा।" इस प्रकार साथियो ने उसे बहुत समझाया, किन्तु वह न माना। बोला "जानते हो धनोपार्जन मे कितनी कठिनाई होती हे ? यो ही सरनता से एक काकिणी छोड दू, यह मेरे लिए सभव नही है। अभी जाता है और उसे ढूंढ कर ले आता हूँ। मैं इतना मुर्ख नही हू कि गाँठ से जाए और पता भी न लगाऊँ कि वह कहाँ गई ?" मायियो ने उनी जिद्द के आगे अधिक विवाद करना उचित न ननझा । हारकर वे बोले- अच्छा भाई हम तो चलते है। अगले गाँव में तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे । लौटने की शीघ्रता करना।" माथी आगे निकल गये। वह वणिक वापम पिछले गाव की ओर २१६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ कौडी को तो खूब सम्हाला चल पडा । मार्ग मे चलते हुए उसने विचार किया -- साथ की हजार स्वर्ण मुद्राएँ कहाँ-कहाँ बाँधे फिरूँगा ? इतना बोझ उतनी दूर ले जाना आवश्यक नही है । आखिर तो यही लौटना ही है । जंगल के किसी एकान्त स्थान पर इसे छिपाकर रख दूँ, लौटकर पुन ले लूंगा । यह सोचकर उसने इधर-उधर देखा, कोई दिखाई नही दिया । निश्चित होकर एक वृक्ष के नीचे गड्ढा खोदकर मुद्राएँ उसमे छिपा दी और ऊपर कुछ चिह्न बना कर वह गाँव की ओर चल पडा । } कोई वस्तु गड्ढे में दबाते दूर खडे एक व्यक्ति ने उसे देख लिया था । उसने जब देखा कि वणिक चला गया है तो वह उस स्थान पर गया और गड्ढे पर की मिट्टी हटाकर देखा -- स्वर्णमुद्राएँ चमचमा रही है । उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा, खुशी से वह उछल पड़ा – “धन्य है भगवान तू सबका रखवाला है । आज इतनी सारी स्वर्ण मुद्राएँ तूने मेरे लिए ही यहाँ रखवाई है।” इस प्रकार वार वार भगवान को धन्यवाद देता वह सारी मुद्राओ को समेट कर चलता बना । अभागा वणिक उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पहले ठहरा था । काकिणी को इधर-उधर देखा, लोगो से पूछताछ की, पर वह नही मिली । निराश होकर वह लौट पडा । जब वह लौटकर वृक्ष के पास स्वर्ण मुद्राएँ लेने आया तो गड्ढा खुदा हुआ देखा । उसके पैरो के नीचे से धरती सरक गई । स्वर्ण मुद्राएँ गायब थी । उसकी आँखो के आगे अँधेरा छा गया । सिर पीट-पाट कर वह रोने लगा - "हाय | मेरी जीवन भर की गाढी कमाई व्यर्थ ही चली गई, अव मैं कही का न रहा । कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँगा ? मेरे बाल-बच्चे क्या खायेगे इस प्रकार अपने को कोसता रोता हुआ वह साथियो के 1 " पास आया । सभी साथी लोग उसे उसकी मूर्खता पर धिक्कारने लगे । स्वर्णमुद्राओ के गायब हो जाने की गहन चिन्ता मे वह कृशकाय, दीन-हीन होकर दर-दर मारा-मारा फिरने लगा। एक काकिणी के लोभ का सवरण न कर पाने वाला हजार मुद्राओ से हाथ धो बैठा। सच है लोभ जब अपनी सीमा का अतिक्रमण करने लगता है तो दुख को अपने पैर जमाने के लिए पूरी सुविधा हो जाती है । लोभी व्यक्ति स्वयं ही अपने विनाश का कारण बनता है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ साधु और चन्द्रमा आज राजगृही नगरी मे बडी चहल-पहल थी। चारो ओर नगर-जन वडे उत्साह से किसी उत्सव की तैयारी में लगे हुए-से प्रतीत होते थे। उनके प्रसन्न-मुख को देखकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे उन सबको आज कोई बहुत बडी निधि प्राप्त होने को है । एक-दूसरे से लोग मिलते और उमंग से भरकर पूछते “अरे भाई ! किधर चले ? अब तक तैयार नही हुए क्या? भगवान के दर्शन करने नही चलोगे क्या ?" "खूब ' तुम्हे सारी राजगृही नगरी मे क्या मै ही एक मूर्ख दिखाई दिया हूँ जो कि मुझसे यह पूछते हो कि क्या मैं भगवान के दर्शन करने नही जाऊँगा? अरे, घर पर गगा आये तो क्या कोई हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा ?" "यही तो, यही तो । मै भी यही तो कह कि जन्म-जन्म के पुण्यो के फलस्वम्प तो ऐसा सौभाग्य प्राप्त होता हे . " "हाँ भई, बस अब चलते है । देर हो रही है।" इसी प्रकार की उत्साह भरी बाते उस विशाल राजगृही नगरी के नमस्त नागरिको के मुख से सुनाई पड़ती थी। वे सब भाग-दौडकर भगवान के दर्शन के लिए जाने की तैयारी में लगे थे। यही हाल नाग्यिो का भी था। उन्हे किमी भी स्थान पर जाने के लिए तैयार होने में बहा ममय लगता है। किन्तु आज तो मानो वे पुरुपो से भी होड़ ले रही थी। पुष नैयार हो चुके हो या नहीं, किन्तु नारिया आन २१८ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ साधु और चन्द्रमा उनसे भी जल्दी तैयार होकर भगवान के दर्शन के लिए जाने को आतुर थी। किसी महिला को कुछ विलम्ब होता भी तो दुनरी उसने तहतो __ "अरे महारानी जी । अब छोडो भी ये साज-निगा। शृगार तो जन्मभर होते रहेगे, किन्तु भगवान के दर्शन बार-बार नहीं होते।" "चल हट । कर कौन रहा है शृगार में तो वम रे तयार हूं बारी काम बाद मे होता रहेगा।"-दूसरी कहती और घर का अधूग काम छोड-छाडकर झट से निकल पडती । इस प्रकार उस दिन गनगृही नगरी में जिधर देखो उधर ही आनन्द, उत्साह और आतुरता का एक समुद्र-ना ही उफन पडा था। ___और वालक ? वालको के स्वभाव को कौन नहीं जानता मिली भी उत्सव मे जाना हो बालक सबसे पहले तैयार होते है और आगे-आगे चलते है। फिर आज तो भगवान पधारे थे, उनके दर्शन के लिए जाना था. अत आज उनकी उमंग का तो कोई पार ही नहीं था। अपने माता-पिता या बड़े भाई-बहिनो को वे खीच-खीचकर लिए जा रहे थे । “जल्दी करो न, माता ! आपने कितनी देर लगा दी, पिताजी । मब लोग तो जा रहे है और आप अभी तैयार ही नहीं हुए । जल्दी करो, चलो न अव • • ." उस दिन राजगृही नगरी मे ऐसा ही वातावरण था। कारण था भगवान महावीर का उस नगरी मे पदार्पण । अनुक्रम से एक ग्राम से दुसरे ग्राम जाते हुए भगवान महावीर उस दिन राजगृही नगरी में पहुँचकर नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा मे गुणशील नामक उद्यान मे, जिसमे कि एक पवित्र चैत्य था, ठहरे थे। उन्ही के दर्शनो तथा उपदेश का पुण्य-लाभ करने के लिए सारी नगरी उत्साहित हो रही थी। एक ओर उस नगरी के निवासियो का यह हाल था और दूसरी ओर उस नगरी का राजा-श्रेणिक अपने सारे राज-परिवार को तैयार करके अपनी चतुरगिनी सेना के साथ भगवान के दर्शन के लिए आतुर हो रहा था। अन्त मे परिपद् निकली और भगवान की सेवा मे उपस्थित हुई। भगवान ने धर्म का उपदेश देकर भव्य प्राणियो को कृतार्य किया । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएँ उसके बाद भगवान के प्रमुख शिष्य गौतम स्वामी के मन मे एक जिज्ञासा हुई। उन्होने भगवान से प्रश्न किया २२० “भगवन् | जीव किस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हे और किस प्रकार हानि को प्राप्त होते है ? धर्म का यह तत्त्व समझाकर कृतार्थ कीजिए ।" गौतम स्वामी के प्रश्न का अर्थ यही था कि जीव के गुणो की वृद्धि अथवा विकास कैसे होता है तथा उसके गुणो की हानि अथवा ह्रास कैसे होता है । क्योकि जीव तो शाश्वत्, अनादि और अनन्त है, अतएव उनकी सख्या मे वृद्धि अथवा हानि नही होती है। एक-एक जीव असख्यात् असख्यात् प्रदेश वाला है। उसके प्रदेशो मे भी कभी वृद्धि या हानि नही होती । वृद्धि अथवा हानि जीव के गुणो मे ही होती है । भगवान ने गौतम स्वामी के प्रश्न का भाव जानकर उत्तर दिया " हे गौतम । तुमने चन्द्रमा को देखा हे न "देखा है भगवन् ײן " पूर्णिमा और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के चन्द्र मे कोई अन्तर तुमने पाया है " יין “अन्तर है, भगवन् " बहुत अन्तर है गौतम । जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण (शुक्लता) से हीन होता है, सौम्यता से हीन होता हस्निग्धता (अक्षता) से हीन होता है, कान्ति ( मनोहरता ) से हीन होता है इसी प्रकार दीप्ति ( चमक ) से, युक्ति (आकाश के साथ सयोग) से, छाया (प्रतिविम्व ) या शोभा से प्रभा (उदयकाल मे कान्ति की स्फुरणा ) से, जोस् (दामन आदि करने के सामर्थ्य) मे, लेश्या (किरण रूप लेश्या) मे, और मण्डल (गोलाई) से हीन होता है । इसी प्रकार कृष्णपक्ष की द्वितीया चन्द्रमा, प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है, मण्डल से भी हीन होता है। उसके बाद तृतीया का चन्द्रमा द्वितीया के चन्द्रमा की अपेक्षा भी वर्ण से हीन, मंडल से हीन होता है । यह सत्य है कि नही ?" יין यह पूर्णत सत्य है, भगवन् इसी प्रकार आगे-जागे उसी क्रम से हीन-हीन होता हुआ अमावस्या " Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु और चन्द्रमा २२१ का चन्द्र, चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण आदि से सर्वथा नष्ट होता है, मण्डल से नष्ट होता है, अर्थात् उसमे वर्ण आदि का अभाव हो जाता है ।" "ऐसा ही होता है, प्रभो !" "तो गौतम । इसी प्रकार जीव के विषय मे विचार करो, तुम्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल जायगा । जो हमारा साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर क्षान्ति-क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति (निर्लोभता) से आर्जव से, मार्दव से, लाघव से, सत्य से, तप से, त्याग से, आकिचन्य से और ब्रह्मचर्य से, अर्थात् दस मुनिधर्मो से हीन होता है, वह उसके पश्चात् इन गुणो से हीन से हीनतर होता जाता है । इस प्रकार, इस क्रम से हीन से हीनतर होता हुआ उसके क्षमा आदि गुण सर्वथा नष्ट हो जाते है, उसका ब्रह्मचर्य भी नष्ट हो जाता है । यही जीव की हानि है ।" 1 भगवान के द्वारा इतनी स्पष्टता से यह तत्त्व समझा दिये जाने पर गौतम स्वामी ने कहा "यह स्पष्ट हो गया, भगवन् {" "हाँ । अव तुम स्वय ही जान सकते हो कि जीव की वृद्धि किस प्रकार होती है । जो हमारा साधु या साध्वी दीक्षित होकर क्षमा, ब्रह्मचर्य आदि से वृद्धि प्राप्त करता है वह उसके बाद इन गुणो मे और भी अधिक वृद्धि प्राप्त करता है और अन्त मे निश्चय ही इस क्रम से वढते-बढते वह क्षमा आदि से और ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण हो जाता है । दूसरे शब्दो मे कहा जाय तो अमावस्या का गुणहीन चन्द्र पूर्णिमा के पूर्ण कलायुक्त चन्द्र के समान शोभित होने लगता है ।" गौतम स्वामी के मुख पर ज्ञान का स्निग्ध प्रकाश छा गया । उन्होने कहा “भगवन् | मै जान गया कि जीव किस प्रकार वृद्धि अथवा हानि को प्राप्त होता है ।" तव भगवान ने कहा 3 " और यह सब सद्गुरु की उपासना से निरन्तर प्रमादहीन रहने से तथा चारित्रावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से होता है । क्षमा आदि गुणो की क्रमश वृद्धि ऐसी ही क्रिया से होती है और अन्त मे वृद्धि होते-होते वे गुण पूर्णता को प्राप्त होते है ।" Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ इतना कहकर भगवान मोन हो गये । गौतम स्वामी मन ही मन विचार कर रहे थे - चन्द्रमा के स्थान पर साधु को समझना चाहिए । प्रमाद नहीं करना चाहिए । प्रमाद साधु रूपी चन्द्रमा के लिए राहु के समान है । जैसे चन्द्रमा पूर्ण होकर भी क्रमण हानि को प्राप्त होता-होता सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसी प्रकार गुणो से परिपूर्ण साधु भी कुशील जनो के ससर्ग आदि से चारित्र - हीन होता जाता है ओर अन्त में उसे बिलकुल ही खो बैठता है । किन्तु हीन गुणवाला होकर भी सुशील माधु का समर्ग आदि पाकर वह कमग पूर्ण गुणों वाला बन जाता है । २२२ देर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अमृत या विष ? किसी भी वस्तु का अति सेवन अहितकर होता है । अति सेवन से अमृत भी विष वन जाता है । एक राजा आम खाने का बडा शौकीन था । नित्य-प्रति चुने-चुने, भाँति-भाँति के आमो का बडे चाव से आस्वादन लेता था और खूब लेता था । आम के अत्यधिक सेवन से राजा 'विशुचिका' नामक रोग से बुरी तरह आक्रान्त हो गया । अनेक वैद्य उपचार में लगे किन्तु 'ज्यो- ज्यो दवा की, रोग वढता गया ।' राजा असह्य पीडा की अग्नि मे तिल-तिल कर जलने लगा । एक बार राजा ने एक अनुभवी वैद्य को चिकित्सा के लिए बुलवाया वैद्य ने राजा के रोग की परीक्षा करने के उपरान्त वताया -- “राजन् ' यह रोग अत्यधिक आम खाने से उत्पन्न हुआ है । साधारण चिकित्सा से यह ठीक होने वाला नही । उचित औषधि से मै इसे निर्मूल तो कर सकता हूँ किन्तु औषधि का पथ्य कठिन है । यदि उसका पालन कर सको तो इलाज किया जाये ।" रोग की भयंकर पीड़ा से कराहते हुए राजा ने कहा--"वैद्यराज । आप मुझे रोगमुक्त कर दीजिए, जैसा कहेगे वैसा ही पथ्य का निर्वाह करूँगा ।" वैद्यराज ने कहा--" आपको आम अत्यधिक प्रिय है । रुग्णावस्था मे भी आप उसके मधुर स्वादो के लोभ का सवरण नही कर पा रहे है । लेकिन अव आपको यह दृढ निश्चय करना होगा कि यावज्जीवन आम नही खाऊँगा 1 २२३ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं तभी आप रोग मुक्त हो सकेगे।" राजा ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। वैद्यराज ने ओपधि द्वाग थोड़े दिनो मे राजा को स्वस्थ कर दिया। वैद्यगज ने विदा माँगी । गजकोप मे बहुत-सा द्रव्य देकर वैद्यराज को प्रसन्नतापूर्वक राजा ने विदा किया। जाते समय वैद्यजी ने परिवार एव मन्त्रीगणो को विशेप रूप से सावधान करते हुए कहा "आपको इस बात की पूर्ण मतर्कता रखनी होगी कि गजा आम खाना तो दूर उसका म्पर्श भी न करे, अन्यथा रोग पुन उठ खडा होगा ओर तब इसकी चिकित्सा बिल्कुल ही असभव एव दु साध्य हो जाएगी।" वैद्यगज के कथनानुसार गजा ने आम खाना बिल्कुल छोड दिया। आम खाने की बात तो दूर रही, राजधानी मे आम का व्यापार तक निपिद्ध कर दिया गया। राज्यभर के सभी आम्रतरु कटवा दिये गये-'न रहेगा बाँस, न बजेगी वासुरी'। एक बार राजा अपने मन्त्री के साथ अश्वारूढ होकर गज्य-सीमा का अतिक्रमण करता हुआ बहुत दूर निकल गया । वहाँ एक विशाल वन या। धूप और श्रम के कारण राजा और मन्त्री क्लान्त एव श्रान्त हो गये ये । अत विश्राम के लिए उन्होने एक आम वृक्ष की छाया में अपने घोडे गेक दिए । मन्त्री ने सलाह दी--"महाराज | कुछ आगे चलिए, आम के पेड की छाया मे बैठना ठीक नहीं है।" गजा हॅम पड़ा-“मन्त्री जी । यह मब तो वैद्यो-हकीमो की चाले होती है । अपना मतलब जिस प्रकार सीधा हो वही उपाय वैद्य या हकीम अपनाते है । भला आम की छाया में विश्राम करने से कभी गेग उत्पन्न हो मरना हफिर हमे यहा अधिक समय तक तो टहरना नही है। कुछ सा विश्राम लेने के बाद आगे बढ जाना है। हम आम तो ग्वा नहीं रहे है। आग्विर मन्त्री को ही राजा की बात माननी पड़ी। दोनो उस वृक्ष के नीचे विबाम करने लगे। शीतल वायु चल रही थी। आबो मे नीद तैग्ने लगी। इतने में वायु का एक झोमा खाकर एक अति सुन्दर पा हआ आम गजा के पास ही टपक पटा । गजा ने पीले रग समोरन ने गमरता हुआ आम देखा तो उसके मुंह में पानी भर आया। नाम को हाथ में उठाकर वह उसकी मुगन्धि लेने लगा। उसके मधुर रम Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमृत या विष ? २२५ और स्वाद की प्रशसा करने लगा । यह देखकर मन्त्री ने निवेदन किया-~ "महाराज । एक प्रवीण वैद्य की सलाह की अवहेलना कर आप अपने ही हाथो अपना अहित कर डालेगे। इसी फल से आप दारुण विपत्ति मे पड़े थे, यही आपके विशुचिका नामक असाध्य रोग का कारण था । वैद्यराज ने एक वार तो उस रोग से मुक्ति दिला दी किन्तु पुन रोगी होने पर स्वस्थ कर सकने मे अपनी असमर्थता भी प्रकट कर गये है । अत आप इसे दूर फेक दीजिए। ऐसा न हो कि इसी एक आम के लालच से आपका वहमूल्य जीवन खतरे मे पड जाए।" ___ राजा ने कहा- “मन्त्री । तुम निरे बुद्ध हो । एक आम की गणना इस इतने वडे शरीर मे भला कहाँ हो सकती है ? यदि एक आम खाने से ही रोग आक्रमण कर दे तो ससार के सभी व्यक्ति इससे सावधान हो जाएं। इसे विप-वृक्ष की सज्ञा दे दे । यह तो वैद्य का एक डराने वाला हौआ मात्र है।" ऐसा कहते हुए जिह्वा के स्वाद के वशीभूत वह राजा उस आम के स्वाद की प्रशसा करता हुआ उसे आखिर खा ही गया। विश्राम के पश्चात् राजा और मन्त्री पुन घोड़े पर सवार होकर राजधानी की ओर लौट पड़े । मार्ग मे ही राजा उदर-पीडा से व्याकुल हो उठा । प्रासाद तक पहुँचते-पहुँचते वह भयकर दाह से कराहने लगा । तत्काल उन पहले वाले वेद्यराज जी को बुलवाया गया। आम खाने की भयकर भूल से राजा को छटपटाता हुआ देखकर वैद्यराज जी ने अपनी असमर्थता प्रकट की और कहा "राजन् । आपने अपने ही हाथो अपने पैरो पर कुल्हाडी मार ली है । सर्वनाश हो गया। अब इस रोग को दूर करने की कोई औपधि या उपाय नहीं है।" कप्टो से कातर राजा वैद्य एव मन्त्री की अवहेलना करने की अपनी मूर्खता पर पछताता हुआ अमह्य वेदना से प्रताडित हो मृत्यु का ग्रास बन गया। क्षणिक स्वाद के प्रलोभन ने राजा का अमूल्य जीवन असमय मे हरण कर लिया। अहितकारी पदार्थों की आसक्ति कितनी दुस्सह और दारुण होती है । दुरुपयोग किये जाने पर अमृत भी विप वन जाता है। -उत्तरा० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ सबसे सीधा रास्ता - भगवान महावीर अनुक्रम से विचरण करते-करते जिम दिशा मे भी चले जाते थे, उम दिशा और उम स्थान के समस्त प्राणी परम आनन्दित हो उठते थे। भगवान के दर्शन का लाभ बड़े भाग्य मे ही प्राप्त होता है । अत एक बार जब भगवान महावीर एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते-करते गजगृही नगरी मे पधारे, तब वहाँ के निवामियो के हर्ष का सोर्ट पार ही न रहा। गगृही नगरी में पधारकर भगवान महावीर गुणशील नामक चैत्य मे बिगजे। उस नगरी का गजा येणिक वडा धर्मात्मा था। भगवान के आगमन के मुसवाद को जानकर तो वह अत्यन्त आनन्दित हुआ। वह नमन्त नगर निवामियो के साथ भगवान के दर्शन तथा धर्मोपदेश का लाभ लेने गया । उपयुक्त रीति से भगवान की बन्दना करके नया उपदेश सुनकर मनी नगर न लौट गये। दमके पश्चात् गौतम म्वामी के मन मे एक प्रश्न उठा। उसका नमाधान उन्होंने भगवान से पूछा भगवन् । जीव किस प्रकार आगवक अथवा विगवा होते है?" भगवान ने विचार किया कि किसी अच्छे उदाहरण महित ही उम प्रदन ता उत्तर देना चाहिए । अस्तु उन्होने कहा तम! तुमने समुद्र के किनारे लगने वाले दाबद्रव नामक वृक्ष तो देने हैन । हा नगवन् ! दाबद्रव वृक्ष मेने देने है।" Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे सीधा रास्ता २२७ "वे दावद्रव वृक्ष कृष्ण वर्ण वाले, निकुरव (गुच्छा) रूप है । पत्तो वाले, फूलो वाले, फतो वाले, अपनी हरियाली के कारण मनोहर और श्री से अत्यन्त शोभित है । "अब जब द्वीप सम्बन्धी ईपत् पुरोवात जर्थात् कुछ-कुछ स्निग्ध अथवा पूर्व दिशा सम्वन्धी वायु, पथ्यवात अर्थात् सामान्यत वनस्पति के लिए हितकारक या पछाही वायु, मद ( धीमी-धीमी) वायु और महावातप्रचण्ड वायु चलती है, तब बहुत से दावद्रव वृक्ष जीर्ण जैसे हो जाते है. झोड हो जाते है, अर्थात् सडे पत्तो वाले हो जाते है । अतएव वे खिरे हुहु पीले पत्तो, पुष्पो और फलो वाले हो जाते है और सूत्रे पेडों की तरह मुरझाते हुए खड़े रहते है | " इसी प्रकार हे गौतम । जो साधु या साध्वी दीक्षित होकर बहुत से साधुओ, वहुत-सी साध्वियो, बहुत-से श्रावको और बहुत-सी श्राविकाओ के प्रतिकूल वचनो को सम्यक् प्रकार से सहन करता है, यावत् विशेष रूप से सहन करता है, किन्तु बहुत से अन्य तीर्थिको के तथा गृहस्थों के दुर्वचन को सम्यक् प्रकार से सहन नही करता है, यावत् विशेष रूप से सहन नही करता है, ऐसे पुरुष को मैंने देश विरोधक कहा है । “जब समुद्र सम्बन्धी ईपत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, मदवात और महावात वहती है, तब बहुत से दावद्रव वृक्ष जीर्ण से हो जाते है, झोड हो जाते है, बावत् मुरझाते - मुरझाते खडे रहते हैं । किन्तु कोई-कोई वृक्ष पत्रित, पुष्पित रहते हुए ही अत्यन्त शोभायमान होते रहते है । " इसी प्रकार जो साधु अथवा साध्वी दीक्षित होकर बहुत से अन्य तीर्थिको के और बहुत-से गृहस्थो के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है और बहुत-से साधुओ, बहुत-सी साध्वियो, बहुत-से श्रावको तथा बहुत-सी श्राविकाओ के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से महन नही करता, उस पुरुष को मैंने देशाराधक कहा है । "जब द्वीप सम्वन्धी और समुद्र सम्बन्धी एक भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् महावात नही वहती, तब सब दावद्रव वृक्ष जीर्ण सरीने हो जाते है, यावत् मुरझाये मुरझाये रहते है । "इमी प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो । जो साधु या साध्वी यावत् प्रव्रजित होकर बहुत से साधुओ, बहुत-सी साध्वियो, बहुत-से श्रावको, बहुत Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ सी श्राविकाओ के, बहुत-से अन्य तीथिको एव बहुत-से गृहस्थो के दुर्वचनो को मम्यक् प्रकार महन नहीं करता, उस पुरुप को मैने सर्वविराधक कहा है। "ओर अन्त मे, जब द्वीप सम्बन्धी भी और समुद्र सम्बन्धी भी ईपत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात बहती है तब मभी दाबद्रव वृक्ष पत्रित, पुप्पित, फलित रहक र सुशोभित रहते है। "हे गौतम । इसी प्रकार जो साधु या साध्वी बहुत-से श्रमणो के, बहुत-मी श्रमणियो के, बहुत-से श्रावको के, बहुत-सी श्राविकाओ के, बहुत-से अन्य तीथिको के और बहुत-से गृहस्थो के अर्थात् सबके दुर्वचन सम्यक् प्रकार सहन करता है, उस पुरुप को मैने सर्वाराधक कहा है।" ओर भी स्पष्ट करते हुए भगवान ने कहा___ "अर्थ यह है गौतम । कि मैने जो दावद्रव वृक्ष की उपमा दी, वह मायु के लिए है। ऐसा मानो कि साधु दावद्रव वृक्ष के समान है। इसी प्रकार द्वीप की वायु के समान स्वपक्षी साधु आदि के वचन, समुद्री वायु के समान अन्य तीथिको के वचन और पुप्प-फल आदि के समान मोक्षमार्ग की आरावना समझना चाहिए। पुप्प आदि के नाश का अर्थ हे मोक्षमार्ग की विराधना। ___मने जैसे द्वीप की वायु के ससर्ग से वृक्षो की समृद्धि बताई, उसी प्रकार नाधर्मी के दुर्वचन महने से मोक्षमार्ग की आराधना ओर दुर्वचन न मन से विराधना समझना चाहिए। अन्य तीथिको के दुर्वचन न महने से मोक्षमार्ग की अल्प विराधना होती है। जैसे समुद्री वायु से पुप्प आदि की योडी ममृद्धि और बहुत असमृद्धि बताई, उसी प्रकार पर-तीथिको के दुर्वचन नहन रने और स्वपक्ष के महन न करने से थोडी आराधना ओर बहुत विरावना होती है और दोनो के दुर्वचन सहन न करके क्रोध आदि करने ने नर्वथा विगधना और सहन करने से सर्वथा आराधना होती है । अत अभिप्राय यह है कि हे गौतम साधु को सभी के दुर्वचन माभाव ने नहन करना चाहिए । क्षमा माधु का मवमे बडा आधार है । मोक्ष की नागपना की वह एकमात्र कजी है। क्षमाभाव मोक्ष की मजिल का सबने नीषा गस्ता है।" Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्राग्रह छोड़ो एक बार एक नगर मे कुछ व्यापारियो को अपने व्यापार मे भारी हानि उठानी पडी । यहाँ तक कि पास की मूल पूँजी भी प्राय समाप्त हो चली । “आगे और भी परिस्थिति खराब होगी, " ऐसा विचार कर सभी व्यापारियो ने आपस मे विचार-विमर्श कर, सहमत होकर अन्यत्र किसी दूरवर्ती स्थान पर जाकर व्यापार करके धन कमाने की योजना बनाई । निर्णय के अनुसार व्यापारियो का वह काफिला कुछ अन्य दरिद्र साथियो को साथ लेकर यात्रा पर निकल पड़ा । काफी मार्ग पार कर लेने के पश्चात् उन्हे पहाडियो से घिरा एक निर्जन स्थान दिखाई पडा । वहाँ पहुँचने पर व्यापारियो ने देखा कि उस स्थान पर इधर-उधर काफी मात्रा मे लोहा बिखरा पड़ा है और जब उन्हे यह ज्ञात हुआ कि यहाँ पर लोहे की खान है तो सभी बहुत प्रसन्न हुए। "यह तो व्यापार का अच्छा साधन बन जायेगा," ऐसा विचार कर सबने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार लोहे के गट्ठर वॉध लिए। “नगर मे जाकर बेच देगे तो कुछ पैसे उपलब्ध हो जायेगे ।" ऐसा विचार करके जव वे कुछ आगे बढे तो उन्हे ' त्रपु ' ( शीशारागा ) की खान मिली। उन्होने सोचा 'लोहे' से इसकी कीमत ज्यादा होती है, अत क्यों न लोहे को यही छोडकर इसे बाँध ले ।" यह विचार कर वे सभी रागा के गट्ठर बाँधने की तैयारी करने लगे । तभी उनमे से एक व्यापारी बोला - "वास्तव मे तुम लोग अस्थिर विचार के व्यक्ति हो । जब एक वस्तु ले रखी है तो उसे छोड़कर दूसरी पर २२६ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ क्यो आकर्षित होते हो? इतनी दूर से सिर पर उठाकर लाये गये लोहे को छोडना कहाँ की बुद्धिमानी हे ?" दुसरे साथियो ने उसे "लोहे से गंगे का अधिक मूल्य प्राप्त होगा" कहकर समझाने का प्रयास किया, किन्तु वह अपने हठ पर अडिग ही रहा । निदान सब आगे चले । आगे चलने पर उन्हे ताँबे की खाने मिती । राँगा छोडनर जब तॉवा लेने की बात आई तो पहले व्यापारी को यह बिल्कुल नही रुचा । वात समझाने पर भी वह अपनी हठ पर अडा ही रहा। ___अन्य व्यापारियो ने सोचा--- "हठ के वशीभूत होकर यह मूर्खता कर रहा है तो इसे लोहा ही लिए रहने दो, लेकिन हम सबको धन कमाना हे इमलिए लाभदायक वस्तु का त्याग क्यो करे ?" ऐसा सोचकर उन लोगो ने गंगे को वही छोडकर ताँबे के गट्टर बाँध लिए। जैसे-जैसे ब्यापारी आगे चलते गये वैसे-वैसे उन्हे क्रमश चादी और फिर सोने की खाने मिली। सब पीछे से उठाए हुए गट्ठर वही डालकर आगे की वहम्त्य वस्तुओ के गट्ठर बाँधते गये । साथ ही उस हठी व्यापारी तो भी समझाते रहे-"लोहे का भारी-भरकम गट्ठर फेक दो, उसमे तुम्हे कौन-सी विशेष रकम प्राप्त हो जायेगी ? सामने पडे सोने-चांदी की अवहाना कर तुम्हे अन्त में पछताना पड़ेगा । भाग्य मे यदि ऐगा अवसर आ गया है तो इसे व्यर्थ चूकना परले सिरे की मुर्खता ही होगी।" पहला माथी उन लोगो की वात सनकर खीझ उठा-"तुम लोग Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ आग्रह छोडो मणि है । एक ही मणि से तुम्हारा जन्म-भर का दारिद्र्य दूर हो जायेगा । अत अब तो लोहे का गट्ठर फेक दो और मन चाहे जितने वजन व लो ।” ऐसा कहकर एक बार फिर उस हठी व्यापारी को समझाने प्रयास उसके साथियो ने किया । उत्तर मे पुन उस व्यापारी ने कहा - "एक बार पह दिया कि मे अपनी दूर से लाई वस्तु को किसी भी मूल्य पर छोड़ने को तैयार नहीं है । तुम्हारे समान लोभी नही है । क्षणिक बुद्धि के बल पर गंद उधर लुढकना मुझे कतई पसन्द नहीं है । वारवारमुने मत छी । तुम्हें जंचे वैसा करो !" फिर भी साथियों से न रहा गया। वे जानते थे परिणाम क्या होगा ? उसके हित की बात सोचते हुए वे पुन नागहने लगे - "भाई । तुम अपना लोहे का गट्ठर भले ही मोह के वशीभूत होन त्याग सको, किन्तु अधिक नही तो केवल एक ही 'मणि' ले तो लग जीवन भर दरिद्रता की चक्की में पिसते हुए अपनी नादानी पर हाव भा कर पछताते रहोगे ।" साथियो के इस आग्रह पर वह हठी व्यापारी अब आगबबूला हो उठा और कहने लगा- "तुम लोग नाहक मेरा पीछा पकड रहे हो, म दरिद्र ही रह जाऊँगा तो तुम धन्ना सेठो की ड्योढी पर भीख माँगने नही आऊँगा । जाओ अपना-अपना भाग्य वदलो ।" साथियो ने देखा कि यह किसी भी तरह अपना हठ छोड़ने को तैयार नही है तो आपस मे कहने लगे-- "भाई जाने भी दो । नाहक इसे क्यो तग कर रहे हो । जब इसके भाग्य मे फूटी कौडी ही नही है तो हम सब मिलकर इसके भाग्य मे कंगन कैसे चढ़ा सकते है ?" वज्ररत्न मणि को लेकर कुछ दिनो के बाद वे सभी व्यापारी अपने जनपद को लौट आये। एक-एक ही मणि ने उन सब के भाग्य को बदल दिया । वे मालामाल हो गये। सबकी अपनी-अपनी गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ खडी हो गईं। नौकर-चाकर, हाथी-घोड़े रथ आदि सभी उनके महलो मे खडे हो गये । सारी सुख-सुविधा से वे भरपूर हो गये । जो अभागा व्यापारी लोहे का गट्ठर लाद कर इतनी दूर लाया, उसे वेचने पर उसे जो कुछ भी थोडा मूल्य मिला, उससे उसने दो-चार दिनो के Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ खाने-पीने का सामान खरीद लिया । कुछ पैसे उसमे से बचा कर मामूली मोदा खरीद कर वह नगर मे फेरी करने लगा । फेरी से प्राप्त थोड़े से द्रव्य से किसी प्रकार अपनी आजीविका चलाता हुआ कष्टमय जीवन व्यतीत करने लगा। एक दिन फेरी करता हुआ वह एक महल के निकट जब पहुचा तो महल के स्वामी ने इस फेरी वाले को पहचान लिया। उसका मन पुरानी स्मृतियो मे डूबने लगा--"यह वही अभागा व्यापारी है जिसे हम लोगो ने समझाने की पूरी कोशिश की थी, किन्तु भाग्य बडा प्रवल होता है । अपनी हठधर्मी के कारण ही इसकी यह दुर्दशा हो रही है ।" उसने तत्काल परिचारक को भेजकर उसे महलो मे बुलवाया। फेरी वाला बहुत प्रसन्न हुआ, सोचने लगा-आज अच्छे मुहूर्त मे घर से निकला हूँ, एक ही स्थान पर सारा माल विक जायेगा। महल मे पहुंचते ही सेठ ने उसकी ओर देखा और अनुभव किया कि यह तो नाक्षात् दरिद्रता की मूर्ति है, फटे-पुराने चिथडो मे लिपटा उसका कृशशरीर अपनी दयनीय स्थिति की कथा स्वय कह रहा था। सेठ ने पूछा--"क्यो भाई | इसके पहले मुझे कभी देखा है ?" फेरी वाले ने बडी दीनता से उत्तर दिया--"नही मालिक | आज पहली बार ही इस महल मे आया हूँ और आपके दर्शन कर रहा हूँ।" मेठ ने फिर कहा--"एक बार याद तो करो, शायद हमारी तुम्हारी मुलाकात कही हुई हो?" फेरी वाले ने जब सेठ की सहज गभीर बात सुनी तो वह बडे गोर में उनकी ओर देखने लगा। तत्क्षण ही उसकी पुगनी म्मृतिया उभर कर नामने आ गईं "अरे, यह तो उन्ही व्यापारियो मे मे एक है, जिन्होंने व्यापार ती इच्छा से दवी प्रदेशो की यात्रा की थी। इन लोगो ने मार्ग में मुझे बहन नमझाया भी था कि लोहे का गट्ठर त्यागकर चादी, मोना, रलवजन ले लो, लेकिन मेरी हठधर्मी ने दन मबकी बातो का पूरी तरह निकार दिया था। आज ये मय वचरत्न के कारण ही विपत वैभवशाली कार बनाटा हो गये है, जबकि म दर-दर की ठोकरे पा रहा हूँ।" की बात को मने दुगग्रह पर इतना पश्चाताप मार दुग हुन पार पर्व पर गिर पटा और बेहोश हो गया। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ आग्रह छोडो सेठ के आदेश पर नौकरो ने उसे उठाया । साधारण परिचर्या के बाद जब उसे होश आया तो वह फूट-फूटकर रोने लगा - "कहाँ यह गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, नौकर-चाकर, सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ और कहाँ मै सडको की धूल फॉकने वाला गरीब । सारा दिन फेरी करने के पश्चात भी जिसे भर-पेट भोजन और तन ढँकने को गज भर कपडा भी नही मिल पाता ।" I सेठ ने पुन पुरानी स्मृतियो को ताजा करते हुए कहा - "भाई उस समय तो तुम हम लोगो को गालियाँ देते और कोसते थे । हमारी अस्थिरता का उपहास करते थे, लेकिन तुम्हारी स्थिरता तुम्हे दरिद्रता से उबार न सकी । अव रोने-धोने और पछताने से क्या लाभ ?" फेरी वाले ने दोनो हाथ जोडकर विनीत स्वरो मे सेठ से क्षमा याचना की । सेठ ने पुराना साथी जानकर उसे बहुत सारी सम्पत्ति देकर विदा किया । 1 मिथ्या आग्रह छोडकर " सच्चाई को स्वीकार करना" यदि अन्य व्यापारियो की तरह उसे भी उचित लगता तो इस तरह दरिद्रता की चक्की मे उसे न पिसना पडता । औरो की तरह वह भी ऐश्वर्यशाली बन जाता और सुख पाता । - राजप्रश्नीय Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ आखिर सबकी एक गति किसी जंगल के एक छोर पर सघन छायादार एक वृक्ष था। वह अत्यन्त विशाल तो या ही साथ ही अति प्राचीन भी था। युगो से अपनी नागाओ-प्रशालाओं को फैलाए बूढे तपस्वी की भाँति जटाजूट मे आवेष्टित हजारो पशु-पक्षियों का आश्रयदाता वनहर वह खडा था । उसका मूलअन्य उतना विशाल था कि उसमे से निकली चारो ओर फैली हुई सैकडो - प्यारो छोटी-बडी गाखाए ऊपर उठती हुई मानो आकाश चूम लेने को उत्सुक थी। गणित तुफानो और शझावातो को सहता हुआ भी वह अटिंग जार स्थिर ही रहा। अनगिनत हरे-भरे पत्तो से लहलहाती हुई उसकी डालिया हवा में झूमती रहती थी। वायु के एक हलके स्पर्श से ही हजारो पत्ते एक साथ नृत्य कर उठते थे । उस विशालकाय वृक्ष पर एक वृद्ध पीला पता भी था जो हवा के नावारण झोली मे ही आन्दोलित हो उठता था। वह अपने जीवन की अन्तिम बडियो की प्रतीक्षा कर रहा था । बन्धन शिथिल हो गये थे। का के मुखमे जाने के लिए नव वायु का एक झोका ही उसके लिए काफी था । नासिर वह बडी भी आ पहुंची। हवा के एक तीव्र शोके से उस पको उस महावृक्ष से अलग कर दिया। उड़ चला वह पवन पाथ। उसे इतना जवान ही कहा जा मुड़कर अपने साथियों की दे -1 2 जीवन वा बटन से चार 1 ܐ ܐ ܝ नाहट कोमल कापलान उस पीपी-वाना उम Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आखिर सबको एक गति २३५ प्रकार सारा सम्बन्ध तोडकर हवा के झोको में उलटते-गतटते की चल पड़े ?" उस वृद्ध पत्ते ने धैर्य रखते हुए कहा- "सुकुमार कोरला 'तुन नादान हो । आज तुम सब मेरी इस स्थिति को देखकर उपहास कर रही हो, यह उचित नहीं है । एक दिन मैने भी तुम्हारी ही तरह शव को अँगडाइयाँ ली थी, सुकुमार बचपन देखा था। मैं भी किसी दिन तगार्ड के मादक सुनहले सपने सँजोता हुआ मधुर गग में सगीत-लहरी विचन्ता था। अपनी शाखा पर विहँसता और पुलकित होता या और तुम्हारी ही तरह प्रत्येक विनष्ट होने वाले बूढे पत्ते का मजाक उडाया करता था। पर नाज स्वय भी इस स्थिति मे पहुँचकर जीर्ण-शीर्ण अवस्था मे विदा ले रहा है। भूलो मत | हमारी ही तरह कत तुम्हारी भी वारी आयेगी। इस वृक्ष पर हँसने वाली सभी नवोदित कोपलो की कालान्तर मे यही गति होती है। सवको एक दिन विदा लेनी ही पडती है।" इतनी बात कहकर वह अवस्था प्राप्त पत्ता अन्य जीर्ण-शीर्ण पत्तो के वीच आकर लुप्त हो गया। ऐसा कोई भी तो नहीं जिसे एक न एक दिन जीवन-सरिता के कगार से फिसल कर अतल जल मे समाधिस्थ न हो जाना पडे । --अनुयोगद्वार Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्मण सेठ का बैल - गनी की निद्रा भग हो गई। बिजलियाँ चमक रही थी। बादल गक्षसो की तरह गरज रहे थे। मुसलाधार वृष्टि हो रही थी। वर्षाकाल था। गनी महत की खिड़की के पास आ बैठी। बाहर का दृश्य देखने नगी । बीच-बीच में बिजली के चमकने से जो प्रकाश फैलता था उममे उसने देवा-ए व्यक्ति नदी में से कुछ निकाल कर लाता है, किनारे पर रन देता है और फिर नदी मे उतरता है। व्यान में बार-बार देखने पर रानी को पता चला कि वह व्यक्ति नदी के प्रवाह मे बह-बहकर आती हुई लकडिया एकत्र कर रहा है। उसने नोचा-कोई बहुत गरीब आदमी हे बेचारा ।। प्रात काल होने पर रानी ने राजा से कहा--- आपके गज्य में ऐमे-ऐमे गरीब व्यक्ति भी है ? ऐमा फैमा राज्य हे आपना" गत्रा या श्रेणिक और रानी थी चेलना । अगित को बडा आश्चर्य हुआ। वह प्रजायन्मल था। प्रना दुख को दूर करने के लिए मदेव तत्पर रहता था। उसने उमी समय अपने मनुकर भजार म व्यक्ति का पता लगवाया और परिणामम्बना गना हे सामने स्थित न्यि गो-मम्मण मेठ । ना दाग 'छे जाने पर मन बताया Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्मण सेठ का बैल "राजन् । आपकी ही प्रजा हूँ। मेग नाम है मम्मण सेवा में काम एक बैल तो है, दूसरे बैल की प्राप्ति के लिए ही यह परिश्रम कर न्हा या।' राजा को दया आ गई । मोचा~-गरीब है वेवाग। कहा "जाओ, मेरी गोशाला से एक बैल तुम ले जाओ । तनोमो वात लिए इतना कष्ट क्यो उठा रहे हो ? आविर मेरी सम्पनि में भी नोमान प्रजा का भाग है।" राजा की आज्ञा सुनकर गोशाला का अध्यन मम्मग ने गोनाना ले गया । सैकडो-हजारो बैल थे, एक मे एक बटर, कुछ आगामोरजक __ मे हाथियो जैसे, कुछ तेज और वल मे सिंह जंगे। किन्तु हमारे मम्मण सेठ को एक भी बैल पमन्द नहीं आग! राजा ने सुना तो वडा आश्चर्य हुआ उमे । पूछा-"नया नाममा कोई वैल पसन्द नही आया ? इतने सारे वैलो मे मे ?" “राजन् । मुझे तो मेरे बैल की जोड का वैन चाहिए। उमीन: का वैल आपकी गोशाला मे नही है।। मम्मण सेठ के इस उत्तर से राजगृही के प्रतापी गगा बेणि विस्मय और झुंझलाहट का पार न रहा । कुछ खीझ के साथ उसने कहा--- "ऐसा कैसा बैल है तुम्हारा ? लाकर मुझे दिखनाओ तो जग।" मम्मण सेठ ने कहा "राजन् । आदेश सिर-माथे। किन्तु मेरा बैल यहाँ नहीं आ माना। आप कृपा कर मेरे घर पधारे।" गजा ने सोचा कि अजीव झक्की आदमी से पाला पड गया। किन्तु वे विचारवान थे। धीरज रखकर मम्मण के साथ चल पडे । मम्मण सेठ की विशाल हवेली खण्डहर जैसी हो रही थी। कोई सारसंभाल नही । ऐसी, जैसे आदमी के नही, भूतो के रहने के लिए हो। राजा चुपचाप चलता रहा। मम्मण उसे तलघर मे ले गया। अँधेरा ही अँधेरा था। किन्तु वहाँ जाकर मम्मण ने किसी वस्तु के ऊपर से एक फटी गुदडी हटाई और पलक मारते ही तीव्र प्रकाश से राजा की आँखे चौधिया गई। धीरे-धीरे दृष्टि जमाकर उसने देखा-स्वर्ण का एक बैल है। हीरेपन्न मोती-माणिक्यो से जड़ा हुआ है। रत्न-राशि जगर-मगर कर रही है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ श्रेणिक विम्बमार देखता ही रह गया। मम्मण बोला "मुझ गरीव का यह बैल है, राजन् । इमकी जोड का दूसग बेल लाने के लिए ही दिन-गत श्रम करता हूँ । बडी मितव्यगता से गुजारा करता हूँ।" सुनकर पेणिक ने फिर मन ही मन सोचा-अजीव झक्की के पाले पड गया मै आज । ओर वह चुपचाप लोट आया। ऐसे सस्ती को वह कहता भी तो क्या? एक बार श्रेणिक ने भगवान महावीर मे पूछा "भन्ते । इस मम्मण सेठ के पास इतना विपुल धन है, फिर भी वह तो दुखी का दुली ही है। न स्वग खाना है, न अन्य को देता है । तनिक-मा दान-पूण भी वह नही कर सकता। ऐसा क्यो ?' भगवान ने कहा देवानुप्रिय । वह पाप का धन है। इस कारण वह उसे किसी शुभ नागनिही कर माता । धन दो प्रकार से प्राप्त होता है-पुण्गानुपन्नी पुण्य मे, बार पापानुबन्धी पुण्य से । जिम धन को पाकर मनुष्य । ददर मे शुभ कार्य करने की प्रेरणा हो, नहीं पहना है, और अप्ठ है। किन्तु तिन को पार ऐसा सकला न जागे वह दूसरा है, अशुभ है, निरया है। इस प्रकार के धन मे मनुष्य की कोई भलाई नहीं होती। उमसे तो धन मोह होता है भार वह बढता ही रहता है। उम धन में ऐमी आमक्कि उस मनुष्य की होती है कि उसमे कभी कोई शुभ कार्य नहीं होता। देवानुप्रिय । धन तो गृहस्थ जीवन के लिए माधन है। मानो वह है नहीं। उने नाय कनी बनने नी नहीं देना चाहिए। वह मम्मण इतना धन एकत्र करके भी दमी कारण मुखी न हो नमा । जीवनभर बह दुखी ही रहा और नरकयाम ही उसका भविष्य है। बनने मोड करने का अन्य परिणाम हो नी नहीं माना।' Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ मार्ग-दर्शन - इन्द्र की अमरावती से होड लेने वाली एम. नगर्ग पोति । और उस नगरी का शासन करते थे स्वय वासुदेव श्रीहरण । ना अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत् ही करते थे। किसी दीन-दुली तो तो उन्हे तव तक शान्ति न मिलती जब तक कि वे उसके गारे दुग सारा दैन्य दूर न कर देते । प्रजा भी अपने ऐमे गजा के पि पनि आशीर्वादो की मगल-वर्पा किया करती थी। एक दिन अपने गजराज पर आसीन वे ससैन्य, सगग्विार भगवान नेमिनाथ के दर्शन करने नगर से वाहर जा रहे थे। विशाल राजपर उनके जय-जयकार से गूंज रहा था। मार्ग मे उनकी तीक्ष्ण दृष्टि एक वृद्ध पर पडी । वृद्ध अशक्त था, मारी देह पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थी। चलते-फिरते उसके हाथ-पैर कॉपते थे। निर्धन भी होगा वेचारा । तभी तो उस आयु और उस शारीरिक स्थिति मे भी एकएक ईंट उठाकर वह अपने घर में धीरे-धीरे ले जा रहा था। देखकर लगता था कि वह गरीव अव गिरा, तब गिरा। _कृष्ण ने ज्योही उसे देखा, कूदकर वे अपने गजराज से नीचे आ गये। गरक्षक देखते ही रह गये कि यह क्या हुआ । कृष्ण ने एक ईंट उठाई और वृद्ध के घर मे जाकर रख दी। फिर क्या था ? विशाल सैन्य साथ था। अपने राजा को ईट उठाकर २३६ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ वृद्ध के घर मे रखते देखकर मारे सैनिको ने एक-एक ईंट उठाई और घर मे पहुंचा दी। देखते-देखते ही सारी ईटे यथास्थान पहुंच गई। छोटी-सी बात है और छोटी-सी घटना है । किन्तु यह संकेत करती है कि लोकनायक युगपुरुप मानवता का मार्गदर्शन किस प्रकार करते है । अपने आचरण से वे मानवता का इतिहास गढ़ते है, और अपने व्यवहार से वे मानवता को उम राजमार्ग पर ले आते है जो कल्याण की दिशा मे जाता है । कृष्ण चाहते तो आदेश भी दे सकते थे और उपदेश भी । उनके आदेश तत्क्षण पालन भी होता । किन्तु अपने आचरण से उन्होंने जो कर दिवाया वह प्रजा के हृदय में वज्रलेख बनकर अकित हो गया । - अन्तकृत अगस Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध किसी युग मे इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र मे काल्दी नामक एक नगरी थी। उस नगरी से एक योजन दूर कौशाम्ब नाम का एक मान वन था । अनेक प्रकार के वन्य-पशु वहाँ स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण करते थे। एक दिन बहुत से मृगो का एक झुण्ड चौकडियाँ भरता उस वन में विचरण कर रहा था। अचानक कोई आहट पाकर वह सारा झुण्ड वन में विलीन हो गया, केवल एक मृगी भाग न सकी। राजकुमार मणिरय कुमार अपना धनुप-बाण ताने वहाँ आ पहुँचा। मृगी अपने विवश भोले नयनो से उसे देखती रह गई । राजकुमार मगया पर जब निकलता था तब वह दया को महलो मे ही छोड आता था। किन्तु आज एक आश्चर्य हुआ। मृगी आँखो मे आँसू भरे राजकुमार का स्थिर होकर देख रही थी, एकटक | भागने का कोई उपक्रम नही। राजकुमार भी स्तव्ध । धीरे-धीरे वह मगी अपनी मृत्यु की चिन्ता त्याग कर राजकुमार के समीप आकर खडी हो गई। राजकुमार के हृदय को भी जान क्या हुआ कि उसने अपना धनुप-बाण तोड कर फेक दिया और स्नेहप्वक मृगी की देह को सहलाने लगा। मगी चूपचाप अपनी बडी-बडी आखा से ऑसू ढलकाती रही। यह देखकर राजकुमार ने विचार किया कि अवश्य ही यह मृगी किसी पूर्व जन्म मे उसकी कोई प्रिय होनी चाहिए। ____ विचार करते-करते उसे स्मरण हुआ कि आज नगरी मे भगवान महावीर पधारे है। केवलज्ञानी भगवान से इस रहस्य को जान लेने के लिए वह लौट पडा। किन्तु मगी ने राजकुमार का साथ नही छोडा। वन २४१ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ भी उसके पीछे-पीछे भगवान के ममीप जा पहुंची। राजकुमार ने भगवान से पूछा "प्रभु | मुझे अत्यन्त स्नेह करने वाली यह म गी कौन है ?" भूतकाल, वर्तमान और भविष्य मे घटित हुई, हो रही तथा होने वाली सभी बातो को जानने वाले सर्वज्ञानी भगवान ने उपस्थित सभी प्राणियो को बोध देने के लिए कुमार को उसके पूर्व भव की कथा बताई "इस भरतक्षेत्र मे साकेतपुर नाम का एक नगर है। उस नगर में मदन नाम का गजा था। अनग नाम का उसका कुमार था। उस नगरी मे कुवेर के समान धनाढ्य वैश्रयण नामक एक सेठ रहता था जिसका प्रियकर नामक एक पुत्र था । वह सौम्य, मज्जन, कुशल, दाता, दयालु और श्रद्धालु था। प्रियमित्र नामक सेठ की कन्या सुन्दरी से उसका विवाह हुआ था। पति-पत्नी मे अगाध स्नेह था। एक दिन प्रियकर का गरीर व्याधिग्रस्त हुआ। सुन्दरी ने पति की सेवा मे दिन-रात एक कर दिया। किन्तु अशुभ कर्मो के उदय से होनहार होकर ही रही। प्रियकर की मृत्यु हो गई । परिवार के लोग रो-धोकर अन्त मे अन्तिम सस्कार हेतु उसका शव घर से बाहर निकालने लगे। किन्तु सुन्दरी का मन अपने पति के प्रति प्रगाढ स्नेह से लिप्त था। वह उसका सस्कार करने ही नहीं देती थी। सबने समझाया, किन्तु मोहभरी पत्नी समझती ही नही थी। वह पति की मत देह से लिपट-लिपटकर उससे बोलती जाती थी, जैसे कि वह जीवित ही हो । मोहान्ध व्यक्ति को सार-असार का ज्ञान होता ही कहाँ है ? थक कर परिवार वाले वहाँ से चले गये। सुन्दरी शव को लिए बैठी रही। दूसरे दिन शव से दुर्गंध आने लगी किन्तु प्रेम के अधीन हुई वह मोहान्ध प्रेमिका उसे न छोड सकी। स्वजनो ने फिर समझाया, किन्तु वह न समझी और यह सोचकर कि लोग उसे पागल समझते हे, वह शव को उठाकर श्मशान में पहुंची। भूख मिटाने के लिए वह नगर मे से भिक्षा मॉग लाती और उसमे से अच्छी-अच्छी वस्तुएँ पति के सामने रखकर कहती-'प्रियतम । इसमे से जो मग्न भोजन हो वह आप ले तथा जो नीरम हो वह मुझे दे।' इस प्रकार वह नीरम भोजन करती हुई किसी कापालिक की पुत्री Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिवोध या राक्षसी, पिशाचिनी की तरह उमशान मे रहने लगी। उसके पिता ने राजा से प्रार्थना की-'हे देव । मेरी पुत्री किसी दुष्ट ग्रह से गसित हो गई है। आप घोपणा करा दे कि जो कोई व्यक्ति उसे अच्छी कर देगा उसे मैं मनोवाछित वस्तु प्रदान करूँगा।" गजा ने घोपणा करा दी। राजकुमार ने भी यह सुना और सोचा कि यह प्रेम की दीवानी है, प्रेमरूपी पिशाच से ही ग्रस्त है। इसे अन्य कोई रोग नही है । मै उसे प्रतिवोध दूंगा। कुमार एक स्त्री का शव लेकर श्मशान मे पहुँचा। शव उसने सुन्दरी के सामने रख दिया। वोला कोई किसी से नहीं। राजकुमार भी चुपचाप सब कुछ वैसा ही करने लगा जैसा सुन्दरी किया करती थी। यह देखकर एक दिन सुन्दरी ने कुमार से पूछा-'यह तुम क्या करते हो?' राजकुमार ने कहा-'यह मेरी सौभाग्यवती, गुणवती प्रिया है। इसका शरीर कुछ अस्वस्थ हो गया है, लोग कहने लगे कि यह तो मर गई है। इसका सस्कार कर देना चाहिए, वे झूठ बोलते है। इसलिए मैं इसे यहाँ ले आया हूँ।' सुनकर सुन्दरी ने कहा-'तुमने ठीक किया। समान स्वभाव वाले हम अव मित्र है।' राजकुमार बोला-'तू मेरी बहिन और यह मेरा बहनोई है । इसका नाम क्या है ? सुन्दरी ने बताया और कुमार की प्रिया का नाम पूछा। भाई-बहिन बनकर वे रहने लगे। दोनो मे से कोई जव किसी कार्य से कही जाता तो अपना शव दूसरे को सौप जाता। एक दिन कुमार ने सुन्दरी से कहा 'बहिन | आज तेरे पति ने मेरी प्रिया से कुछ कहा, किन्तु मैं ठीक से वह समझ नहीं सका।' सुन्दरी क्रोधित हुई, पति से बोली-'मैंने तुम्हारे लिए कुल, गृह, माता-पिता आदि सबको छोडा और तुम अन्य स्त्री की अभिलापा करते हो' पति ने कोई उत्तर नहीं दिया। शव था, वह भला क्या उत्तर देता? एक दिन सुन्दरी अपने पति का शव कुमार को सौप कर गई। कुमार ने दोनो शव एक कुएँ मे डाल दिए और सुन्दरी के पास पहुंचा। उसे देवा र सुन्दरी ने पूछा-'अरे भाई । तुम उन दोनो को किसे सौप कर Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं आए ? कुमार ने उत्तर दिया- 'अपनी प्रिया मायादेवी का रक्षण करने के लिए मैने प्रियकर को सौपा है ओर प्रियकर की रक्षा करने को मैने मायादेवी को सौपा है । अव, चलो हम भी वहाँ चले ।' ? दोनो लौटे, किन्तु वहाँ न प्रियकर था, न मायादेवी । यह देखकर सुन्दरी बहुत दुखी हुई । कुमार भी कपटपूर्वक मूच्छित हो गया । कुछ देर बाद अपनी सज्ञा लौटा कर वह बोला-' है वहिन । अब हम क्या करे तेरा पति मेरी प्रिया को लेकर भाग गया है । यह उसने ठीक नही किया ।' सुन्दरी सोचने लगी- मेरा पति इसकी प्रिया का हरण कर ले गया । वह अनार्य, निर्दय तथा कृतघ्न प्रतीत होता है । कुमार ने फिर पूछा - 'भद्रे | अब हम क्या करे " सुन्दरी ने उत्तर दिया- 'भाई मुझे तो कुछ भी समझ मे नही आता । जैसा तुम ठीक समझो वैसा ही करे ।' कुमार ने कहा - 'तू सत्य कहती है । तुझे कुछ समझ मे नही आता । देख मेरी बात सुन, इस संसार मे यह जीव अकेला ही प्रयाण करता है । इसमे प्रिय कौन ? प्रिया कौन ? सयोग अपने परिणाम मे वियोग देने वाले ही होते है और उदयकाल अस्त को प्राप्त होता है । भोग महारोग के समान दुखदायी होते है । यह जानकर वहिन | सम्यक्त्व को अगीकार कर ।' सुन्दरी को बोध हुआ। वह लौटकर अपने घर आ गई । यह कथा सुनाकर भगवान ने कहा- "हे मणिरथकुमार उस सुन्दरी का जीव तुम हो और उस जन्म का तुम्हारा पति प्रियकर ससार मे भ्रमण करता हुआ अब इस वन मे इस मृगी के रूप मे उत्पन्न हुआ है । आज तुम्हे देखकर इस मृगी को अपने पूर्व भव का स्मरण हो आया है और वह तुमसे स्नेह करने लगी है ।" सुनकर और बोध पाकर कुमार ने भगवान से प्रार्थना की- "प्रभु । मैं इम असार संसार से थक गया हूँ । मुझे अपनी शरण मे लीजिए ।" और वह भगवान के चरणो मे झुक गया । * Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिदोष - यह ससार अच्छी और बुरी वस्तुओ से भरा हे । सत्य और अगत्ग की ऑखमिचौनी यहाँ प्रतिक्षण चल रही है। सावधान व्यक्ति को ओरो खोलकर आगे बढना चाहिए। भरतक्षेत्र के तीन खण्डो के स्वामी श्रीकृष्ण द्वारिका नगरी में शासन करते थे। उनके राज्य मे चारो ओर सुख-समृद्धि थी। वे न्यायी थे और प्रजा को पुत्रवत् प्यार करते थे। उनके राज्य मे अन्याय नहीं हो सकता था, अनीति नही पनप सकती थी। वे दूध का दूध और पानी का पानी करने की क्षमता रखते थे। श्रीकृष्ण के राज्य मे एक सेठानी रहती थी। उसका नाम थायावच्चा। उसके एक पुत्र था, जिसका नाम था थावच्चाकुमार । सेठानी के पास जितना अखूट धन था, उसके पुत्र के पास भी गुण, कुशलता तथा विद्वत्ता की उतनी ही सम्पत्ति थी। जव थावच्चाकुमार सभी विद्याओ मे पारङ्गत हो गया तथा यौवन मे उसने प्रवेश किया तब उसकी माता ने बत्तीस सुलक्षणा सुन्दरी कन्याओ के साथ उमका विवाह कर दिया। स्वय थावच्चाकुमार भी रूप में कामदेव के समान था। उसके दिन आनन्द के साथ व्यतीत हो रहे थे। उस समय भगवान नेमिनाथ सर्वज्ञ स्थिति मे एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते हुए भव्य प्राणियो को धर्म तथा आत्मकल्याण का उपदेश देते हुए, द्वारिका नगरी मे पधारे । प्रभु की अमृतवाणी का क्या कहना ? एक ही बार उनके वचन सुनकर प्राणी ऐसा अनुभव करते थे जैसे २४५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ उनके जन्म-जन्मान्तरो के पाप धुल गये हो ओर उनके पवित्र पुण्यो का उदय हो आया हो। जब प्रभु पधारे तो लोक उनके दर्शनो के लिए समुद्र की भाँति उमड पडा । इस कथा का नायक थावच्चाकुमार भी भगवान की सेवा में पहुंचा। श्रीकृष्ण भगवान नेमिनाथ के सासारिक अवस्था के भाई थे। वे तो आनन्द से झूम ही उठे और समाचार सुनते ही भगवान के समीप पहुंचे। ___भगवान का उपदेश सुनकर थावच्चाकुमार के मन मे ससार से विरक्ति उत्पन्न हो गई । प्रभु ने बताया था कि आत्मा का सच्चा म्बत्प क्या है ? क्यो वह ससार के बन्धनो मे भटक जाता है और भव-भ्रमण करता है ? इस भव-भ्रमण से सदा के लिए मुक्त होने का मार्ग कोन-सा है ? अस्तु, थावच्चाकुमार ने जब अपनी माता से मुनि दीक्षा लेने के लिए आज्ञा मांगी तब वह बडी दुखी हो गई । अपने लाडले बेटे को सयम के उस कठोर मार्ग पर जाने से उसने बहुत रोका। किन्तु यावच्चाकुमार का निश्चय तो अटल था । वह धर्म के तत्त्व को तथा आत्मा के सत्य को जान चुका था। श्रीकृष्ण ने भी कुमार को समझाते हुए कहा "कुमार | अभी तुम्हारे दीक्षित होने का समय नहीं आया। अभी तुम युवक हो । अपनी माता के इकलौते वेटे हो। समय आने पर दीक्षा लेना। हाँ, यदि तुम्हे कोई कप्ट हो तो वह मुझे बताओ, मै तुम्हारा कप्ट दूर करूंगा।" तीन खण्ड के अधिपति सम्राट श्रीकृष्ण के लिए कौनसी बात अशाच थी ? वे सभी कुछ कर सकते थे । सभी के कष्ट दूर कर सकते थे। उनकी बात सुनकर कुमार ने बडी नम्रता के माथ कहा 'महाराज | आप ममर्य है । कृपालु है । और मझे विश्वास है कि आप मबके कष्ट दूर कर सकते है। मुझे भी कष्ट है, एक नहीं, मुझे दो कष्ट ह । यदि आप उन्हे दूर करदे तो मै बचन देता हूँ कि में दीक्षा नहीं लगा।" बीण को आशा बॅधी । पचा बोनो, में तुम्हारे लिए क्या समकता हूँ?" कुमार ने कहा- 'मम्राट् । मने रहा कि मुझे दो काट ह। एक तो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिदोष २४७ यह कि शीघ्र ही वृद्धावस्था आकर मेरे शरीर को जीर्ण कर देगी तथा मेरे यौवन को निगल जायगी तथा दूसरा यह कि काल किसी भी पल आकर मुझे निगल जायगा | कृपया इन कष्टो से मुझे बचा लीजिए, आपकी शक्ति तो अपरम्पार है ।" सुनने वाले स्तब्ध रह गये । श्रीकृष्ण कुमार के चातुर्य और उसके कथन के सत्य मर्म को समझकर बोले- “कुमार तुम्हारा कल्याण हो । मेरे पास तो क्या, इस सृष्टि मे किसी के पास भी ऐसी शक्ति नही है जो तुम्हारे इन कष्टो को दूर कर सके । तुम ठीक ही कहते हो । अत तुम्हे आज्ञा है, दीक्षा की तैयारी तुम कर सकते हो ।" स्वय सम्राट श्रीकृष्ण ने थावच्चाकुमार की भगवती दीक्षा की तैयारी की और वे दीक्षित हो गये । भगवान की कृपा से सयम की आराधना अविचलित भाव से करते हुए शीघ्र ही थावच्चाकुमार ने चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया । एक वार मुनि थावच्चाकुमार भगवान से आज्ञा लेकर अपने शिष्यो सहित विचार करते हुए सेलगपुर नामक नगर के सुभूमि नामक उद्यान मे आकर ठहरे । वहाँ के राजा ने उनका उपदेश सुना और उस उपदेश से प्रभावित होकर उसके श्रावक-धर्म के व्रत ग्रहण कर लिये । इसी प्रकार विचरण करते-करते मुनि सौगन्धिक नगर मे जब पहुँचे तो अन्य लोगो के साथ वहाँ का नगर सेठ सुदर्शन भी मुनि के उपदेशामृत का पान करने आया । यद्यपि वह साख्य मत को स्वीकार कर चुका था, किन्तु फिर भी वह सत्यान्वेषी था और किसी एक मतवाद से ही बँध जाने वाला व्यक्ति नही था । उसने मुनिवर का उपदेश सुना और अपनी कतिपय शकाओ के निवारण हेतु उसने मुनिवर से विनयपूर्वक प्रश्न किया "मुनिवर | आपका मूल धर्म क्या है "सुदर्शन | हमारा मूल धर्म विनय है । यह विनय दो प्रकार का होता है-एक, श्रावक का विनय और दूसरा, साधु का विनय । श्रावक स्थूल रूप से एक देश से हिंसा आदि पापो का त्याग करता है, जबकि माधु मनवचन काया से हिंसा नही करते, असत्य भाषण नही करते, किसी का द्रव्य हरण नही करते और परिग्रह नहीं रखते। इन दोनो प्रकार के विनयमुल ܐܐ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ धर्म का पालन करते हुए जीव क्रमश कर्मों का क्षय करता हुआ मुक्ति प्राप्त करता है।" धर्म का मर्म इसी प्रकार कुछ विस्तारपूर्वक सुदर्शन को समझाकर मुनिवर ने उससे पूछा "तुम्हारा धर्म क्या है, सुदर्शन ?" "हमारा धर्म तो शुचिमूलक है। तीर्थस्थान तथा जलाभिषेक से शुचि होती है। “तुम भ्रम मे हो । इस प्रकार के जलाभिषेक आदि मे तो केवल शरीर की ही शुद्धि हो सकती है। किन्तु, सुदर्शन, आत्मा पर जो मैल चढा है, क्रोध-काम-लोभ-मोह आदि, वह कैसे दूर होगी? स्नानादि मात्र से तो वह दूर नही हो सकती । उसे दूर करने का तो मात्र यही उपाय हे कि जीव हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, मोह, मान, क्रोध इत्यादि से दूर रहे। अरे, सुदर्शन, तुम तो विचारवान हो, तनिक विचार करो कि क्या ये कपाय जलाभिषेक आदि से दूर हो सकते है ?" सुदर्शन ने विचार किया और उसे मुनिवर के कथन की सत्यता को समझने मे विलम्ब नहीं हुआ। उसने प्रसन्नतापूर्वक जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। कुछ समय बाद वे सन्यासी जिनसे कि सुदर्शन ने शुचिधर्म लिया था, वहाँ आये और यह जानकर कि सुदर्शन ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया है, वे मुनिवर से वाद-विवाद करने जा पहुंचे । उस वाद-विवाद का परिणाम यह हुआ कि मुनिवर के ज्ञान और उनके सत्य धर्म से सन्यासी अत्यन्त प्रभावित हो गये । उनका हृदय मुनिवर के प्रति भक्तिभाव मे भर उठा। वे आग्रही व्यक्ति नहीं थे । सत्य के ही अन्वेषी थे । अत उन्होने याचना की मुनिवर | में अन्धकार मे या । आपने मेरे अज्ञान के अन्धकार को हटा दिया । अब आप मझे जैनधर्म में दीक्षित करने की कृपा भी कीजिए।" मनिवर को क्या आपत्ति हो सकती थी? प्रत्येक प्राणी को मन्मार्ग दिवाना ही उन्हे इप्ट था। जत उम सन्यामी को उनके शिष्यो महित जैनधर्म की दीक्षा प्रदान करदी गई । दन प्रसार कुछ काल तक ज्ञान, ध्यान और तपश्चरण में अपने Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिदोष २४ε सयमी जीवन को निरत रखते हुए अन्त मे पुण्डरीक पर्वत पर समाधि धारग कर अष्ट कर्मों का नाश कर थावच्चा मुनि ने मोक्ष प्राप्त किया । वे सन्यासी अव सुक मुनि के नाम से पुकारे जाने लगे थे। एक बार विचरण करते हुए वे सेलगपुर पधारे । वहाँ के राजा सेलग के हृदय पर सुक मुनि के उपदेश का ऐसा प्रभाव पडा कि उसने तुरन्त दीक्षा लेने का निश्चय किया । उसके मन्त्रियो ने भी इस शुभ कार्य मे रोक लगाने का कोई प्रयत्न नही किया । अतः राजा ने अपने पुत्र मण्डूर को बुलाकर कहा " पुत्र ! मै तो अब इस सासारिक जीवन से विदा ले रहा हूँ । तुम सुयोग्य हो । राज्य के उत्तरदायित्व को अब तुम सम्हालना और न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना। मैं तो अब एक दूसरे ही माम्राज्य मे जात्मा के शत्रुओ से युद्ध करके उस युद्ध मे विजय प्राप्त करने जा रहा हूँ ।" राजा सलग दीक्षित होकर साधना करने लगे । ज्ञानार्जन तथा कठोर तपश्चरण मे वे लीन हो गये । इस तपस्या मे वे ऐसे खो गये कि उन्हें न तो खाने-पीने की ही कोई सुध रही और न सोने-बैठने की ही । प्रतिपल वे तो ज्ञान-ध्यान मे ही डूबे रहते । कठोर तपस्या के कारण शीघ्र ही उन्होने अपनी समस्त इन्द्रियो को वश मे कर लिया । किन्तु राजसुख मे पला हुआ उनका शरीर एक साथ इतनी कठोर तपस्या को सहन नही कर सका अथवा पूर्व कर्मों का ही उदय कहिए कि उन्हे पित्त ज्वर ने ग्रस लिया और खुजली रोग हो गया । रोग हो तो हो । पीडा है तो होती रहे । ज्ञानी और तपस्वी व्यक्ति इनकी चिन्ता ही कहाँ करता है ? सेलग मुनि भी अपने शरीर की ओर से उपेक्षा भाव धारण किये रहे और विचरण करते-करते एक वार सेलग नगरी मे ही पधारे । जनता उनके दर्शन के लिए उमड पडी । राजा मण्डूक भी गया । सभा विसर्जित होने के बाद मुनि के रोग-पीडित शरीर को देखकर राजा ने विनय की- "मुनिवर ! शरीर धर्म का एक साधन है । आपका शरीर रोग से पीडित है | कृपा कर नगर मे पधारिये । कुछ समय उपचार ग्रहण कर स्वस्थ होने पर पुन विचरण करिये । हमे सेवा का इतना अवसर तो प्रदान करिये ।" Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ प्रार्थना अनुचित नही थी । मुनिराज ने स्वीकार कर लिया । वे नगर मे चले आये। उपचार हुआ और शीघ्र ही वे स्वस्थ व नीरोग हो गये । २५० नही हुई । उनकी किन्तु इन कर्मो की गति को क्या कहिए ? नीरोग हो जाने के बाद भी मुनिराज की उस स्थान से विहार करने की इच्छा आत्मा मे असावधानी आ गई थी । वे उसी नगरी में रहने की ही इच्छा करने लगे, आनन्द मनाने लगे और नशीले पदार्थो का सेवन करने लगे । ज्ञानी और ध्यानी होते हुए भी अशुभ कर्मों के उदय के कारण उनकी आत्मा असावधान हो गई और कर्म उन्हें नीचे की ओर घसीटने लगे । उनके साथ जो अन्य मुनि थे, वे बडे विचार मे पडे – समस्त राजवैभव को तृण की भाँति त्यागकर इतनी कठोर तपस्या करने वाले राजप की यह क्या दशा ? सासारिक प्रलोभनो ने उन्हें फिर से अपनी ओर इस प्रकार आकर्षित कर लिया जैसे चुम्बक लोहे को करता है । राजप ने अपनी समस्त मर्यादा को त्याग दिया, सयम नियम की उन्हें तनिक भी चिन्ता न रही ? विवश होकर उन्होने पथक मुनि को उनकी सेवा मे छोड़कर अन्यत्र विहार कर दिया । पथक मुनि गुरु की सेवा करते रहे। एक दिन कार्तिक मास की पुर्णिमा को राजप आनन्द से भोजनादि कर शयन-सुख ले रहे थे । पथक मुनि ने कार्तिक मास का प्रतिक्रमण किया और 'खमासमणो' द्वारा गुरु से क्षमा माँगने के लिए उनके चरणो का स्पर्श किया। गुरु की सुख-निद्रा भग हुई और वे क्रोध में भरकर चीख उठे "अरे, यह कौन दुप्ट मेरी सुख की नीद मे व्याघात उत्पन्न कर रहा है।" पथक मुनि ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक हाथ जोडकर उत्तर दिया"गुरुदेव ! यह तो में आपका विनीत शिष्य पथक हूँ। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके आपसे अपने अपराधों की क्षमा माग रहा हू । गुरुदेव, मेरे अपराध को क्षमा करिये। मुझसे आपकी नींद मे व्याघात उत्पन्न हो गया, किन्तु मेरी ऐसी भावना नहीं थी । " - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ लेकिन अब राजप की नीद सचमुच ही टूट गई थी । उसी क्षण विजली की कौध के समान उनके बहुत समय से बन्द ज्ञान - नेत्र 'खुल गये थे । उन्हे विचार आया- अरे, यह क्या हो गया था ? मै कैसी निद्रा मे डूब गया था ? पवित्र मुनि-जीवन की मंगलमय मर्यादा को तिलांजलि देकर मै किन सासारिक प्रलोभनो के गर्त मे गिर पडा था ? अरे, तनिक-सी असावधानीवश मैने घोर तपस्या द्वारा अर्जित अपनी समस्त चरित्र - सम्पदा ही लुटा दी ? दृष्टिदोष राजप की नीद खुल गई । पश्चाताप की अग्नि ने उनके हृदय मे जमकर आ बैठी सारी दुर्बलता को भस्म कर दिया । दूसरे दिन प्रात काल होते ही राजप अपने शिष्य पथक के साथ उस नगरी से विहार कर गये । कठोर सयम और तपस्या द्वारा उन्होने कुछ काल के लिए अपने जीवन मे आई सारी शिथिलता को दूर कर दिया और भविष्य मे कभी एक क्षण के लिए भी अपने जीवन मे प्रमाद नही आने दिया । इस शुभ समाचार को सुनकर उनके सारे शिष्य फिर से उनकी सेवा मे लौट आये । भूले-भटके प्राणियो को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए अन्त मे पुण्डरीक पर्वत पर समाधि धारण कर राजर्षि ने मोक्ष प्राप्त किया । पलभर भी प्रमाद नही करना चाहिए। सावधान मनुष्य को अपनी दृष्टि आत्म-कल्याण के विन्दु पर स्थिर रखनी चाहिए । निर्दोप दृष्टि ही मुक्ति की मजिल को देख सकती है । -ज्ञाता धर्म कथा ✩ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चलो मेरे साथ ! मगध की राजधानी राजगृही अपने समय की एक अनुपम नगरी थी। उस नगरी मे सुख और समृद्धि तो चारो ओर बिखरी दिखाई देती ही थी, इसके साथ ही प्रकृति की छटा भी उस नगरी के आस-पास दर्शनीय ही थी । चारो ओर सुन्दर-सुन्दर उद्यान ओर सरोवर फैले हुए थे । उन स्वच्छ सरोवरो मे स्नान कर राजगृही के नागरिक ओर अन्य पथिक अपनी सारी कान भूल जाते थे तथा उन उद्यानों मे घडीभर के लिए विश्राम कर लोग अपने सारे विपाद को दूर कर देते थे । भगवान महावीर जिस समय इस भूतल पर विचरण करते हुए भव्य जीवों का कल्याण कर रहे थे, उस समय की यह कथा है अर्जुन नामक एक माली राजगृही में रहता था । नगरी में बाहर उसका एक विशाल उद्यान था । भाँति भाति के सुन्दर, सुगन्धित पुष्पों से उसका वह उद्यान सदैव एक रंग-बिरंगे गलीचे की तरह शोभित होता था । अर्जुन की आजीविका का साधन वह उद्यान ही था । उसी उद्यान में एक यक्ष- मन्दिर था । यक्ष के हाथ मे एक विशाल मुद्गर था । इसीलिए नोग उस पक्ष को 'मुद्गरपाणि' यक्ष के नाम से पुकारने लगे थे । अर्जुन माली उस यक्ष को अपना कुलदेवता मानकर बडी भक्तिपूर्वक उसकी पूजा दिया करता था । सनार में जच्छाई और बुराई साथ-साथ चलती ही रहती है। कुछ तोग अच्छे होते ह तो कुछ लोग बुरे भी। राजगृही नगरी में भी उस समय २५२ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ जहाँ अभयकुमार, सुदर्शन एव पूर्णिया श्रावक जैसे उत्तम पुरुष निवास करते थे, वही कुछ धूर्त, लम्पट और दुष्ट व्यक्ति भी थे । 1 चलो मेरे साथ दुष्टो की एक तो पूरी टोली ही थी । उसमे छह व्यक्ति थे । स्थानस्थान पर उत्पात मचाते रहना और सभ्य तथा भले नागरिको को पीडा पहुँचाना इस दुष्ट ललितागोष्ठी का दैनिक कार्यक्रम था । एक दिन यह टोली अर्जुनमाली के बगीचे में जा पहुंची। वहाँ अर्जुन अपनी पत्नी के साथ पुप्प चयन कर रहा था । उसकी पत्नी बन्धुमती के सौन्दर्य को देखकर वह टोली वासना से पीडित हो उठी । उन्होने बन्धुमती के साथ दुराचार करने का निश्चय किया और अवसर की ताक मे यक्षमन्दिर मे आकर वे लोग छिप गये । कुछ समय बाद जव अर्जुनमाली यक्ष की पूजा करने मन्दिर मे आया और अपना सिर झुकाकर वह यक्ष को प्रणाम करने लगा, तब उन दुष्टो ने कूदकर अर्जुन को दबोच लिया और उसे रस्सियो से बाँधकर उसी के सामने उसकी पत्नी के साथ दुराचार करने लगे । अर्जुनमाली की आँखो मे खून उतर आया । क्रोधित होकर वह बन्धन मुक्त होने के लिए कसमसाने लगा, किन्तु वन्धन कठोर थे । वे नहीं टूटे | तव अर्जुनमाली को अपने कुलदेवता यक्ष का स्मरण हुआ और वह उससे मन ही मन कहने लगा- " मैंने तेरी पूजा इसीलिए की थी कि तू मुझे यह दुर्दिन दिखाए ? धिक्कार है तेरे यक्षत्व पर, अन्यथा मुझे शक्ति दे कि मैं इन दुप्टो को इनके पाप का दण्ड दे सकूं ।" हृदय की गहरी भावना का प्रभाव समझिए अथवा सच्ची श्रद्धा की शक्ति, किन्तु उसी क्षण वह यक्ष अपने भक्त की देह मे प्रविष्ट हो गया तड तड तड' करते हुए सारे वन्धन टूट गये । अर्जुनमाली के हाथों मे यक्ष का वह विकराल मुद्गर आ गया और एक ही बार मे उसने उन छहो लम्पटो तथा बन्धुमती का काम तमाम कर दिया । किन्तु इसके पश्चात् भी अर्जुनमाली का क्रोध शान्त नही हुआ । यक्ष उसकी देह मे समाया हुआ था और वह उससे आविष्ट था । अब तो अर्जुनमाली के सामने जो भी जीवित मनुष्य पड जाता वही काल का ग्रास बन जाता । साक्षात् यमराज की भाँति अर्जुनमाली चारो ओर मृत्यु का ताण्डव नृत्य करता हुआ घूमने लगा । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ महानोर युग की प्रतिनिधि कथाएँ की उसने नियम बना लिया था कि प्रतिदिन छह पुरुपो ओर एक स्त्री हत्या करके ही विश्राम लूंगा और ऐसा ही वह करता भी था। उस दुर्घटना का ऐसा भयानक प्रभाव बेचारे उस सीधे-साधे मानी पर पड़ा था। नगरी में हाहाकार मच गया । विनाश का ताण्डव होने लगा । प्रतिदिन छह पुरुषो ओर एक स्त्री की हत्या कोई साधारण सी बात तो है नहीं । राजा श्रेणिक भी चिन्तित हुआ । प्रजा का पालन करने वाले राजा ने अपने सैनिक भेजकर अर्जुन को रोकना चाहा, किन्तु अर्जुन की यक्ष शक्ति के सामने किसी की कुछ न चली। वह तो मृत्यु का महादूत बना हुआ था । मौन ही जिसकी आई हो, वही उसके सामने जाग, फिर चाहे वह कोई भी हो । नगरद्वार बन्द कर दिये गये। लोगो का नगर से बाहर निकलना ही बन्द हो गया । नगर के बाहर चारो ओर निर्जन, सुनसान हो गया मृत्यु का मान्नाटा छा गया। उसी समय भगवान महावीर राजगृही नगरी मे पधार कर बाहर गुणनील उद्यान में ठहरे। उनके आगमन का समाचार तो किसी प्रकार नगरवासियों को मिल गया, और उनके हृदय भगवान के चरणो मे शीघ्रातिशीघ्र पहुंचने के लिए बेचैन हो उठे, किन्तु उपाय क्या ? नगरी ओर गुणनील उद्यान के बीच अर्जुनमाली के रूप मे साक्षात् मृत्यु विचरण कर रही थी । कौन जा सकता था उस मृत्यु के खुले हुए मुख मे ? हताश लोगो ने प्रभु की बन्दना घर बैठे ही करके सन्तोष किया । किन्तु उस नगरी मे एक ऐसा भी धर्मवीर युवक था जो प्रभु के आगमन का संवाद सुनकर रुक न सका और चल पड़ा मृत्यु को जीतकर अमृत का वरदान पाने । वह तेजस्वी और निष्ठावान युवक था - सुदर्शन | उसे सभी ने रोकना चाहा। माता-पिता ने बन्धुवान्धवों ने, उाटमित्रो ने किन्तु वह किसी के रोके नहीं था । उसका निश्चय अटल था, और उनका एक ही उत्तर था - 'प्रभु द्वार पर आकर ठहरे हो ओर में भीतर बन्द रह यह सम्भव नहीं ।' " अपनी जनव आत्मा में जवन्त भक्ति लिए वह युवर नगर से बाहर मानेसुन को बाहर जाने देना और विकरान अट्टहास चत्र पहा । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता हुआ अपनी भीम-गदा लिए वह उसकी ओर दौड पडा-बहुत दिन बाद आज उसे शिकार जो मिला था। लेकिन सुदर्शन के रूप में अर्जुनमाली के लिए एक आश्चर्य ही प्रगट हुआ था अथवा कहा जाय कि उसकी जीवन-दिशा का एक नया मोड, एक नया स्वर्ण-अवसर ही उपस्थित हुआ था। किन्तु अर्जुनमाली को इसका ज्ञान उस समय तक नही था। वह तो अपने शिकार की ओर ही लपका था, उसके रक्त से अपनी मृत्यु-पिपासा को शान्त करने हेतु । अपनी विशाल, लौह-गदा उसने हवा मे तहराई और सुदर्शन के मस्तक पर उसने भीपण प्रहार करना चाहा । किन्तु उसका हाथ आकाश मे उठा ही रह गया · · सुदर्शन ने जब अर्जुनमाली को अपनी ओर बढते देखा तब उसने निर्भय रहकर सथारा के रूप में सागारिक प्रतिमा धारण कर ली थी। उसका हृदय शान्त था और ध्यान अविचल । उसी का परिणाम था कि अर्जुन के शरीर मे स्थित यक्ष का तेज उस अभय धर्ममूर्ति के समक्ष समाप्त हो गया था और वह उसे त्याग कर चला गया था। अपनी सामान्य स्थिति मे आकर अर्जुनमाली सुदर्शन के चरणो मे गिर गया था। होश आने पर उसने देखा कि उसके सामने मनुष्य के रूप मे एक देवता खडा था-ध्यानमग्न, स्थिर, निर्भय, शान्त, प्रेम की साक्षात् मानवमूर्ति । सुदर्शन का ध्यान टूटा । अर्जुन ने विनय की-'देवता । तुमने मुझे उवार लिया । मै हिंसा और प्रतिशोध के दावानल मे जल रहा था। तुमने मुझे शान्ति और प्रेम के सरोवर मे स्नान कराकर नया जीवन प्रदान किया' । किन्तु अब मेरे पापो का क्या प्रायश्चित्त होगा? मैने कितने निरपराध प्राणियो की निर्मम हत्या कर डाली है ? मेरी आत्मा को शान्ति कसे प्राप्त होगी? मुझे शरण कहाँ मिलेगी?' __ मन्द, मधुर, दयापूर्ण मुस्कान के साथ सुदर्शन ने अर्जुन को उठाया और कहा 'चलो मेरे माय, अर्जुन । दु ख न करो। जो हुआ सो हो गया। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ भी तुम अपने हृदय को शुद्ध कर सकते हो । अपने हृदय मे रहे हुए राक्षस को हटाकर तुम उसी मे सदा निवास करने वाले देवता को जागृत कर सकते हो । चलो मेरे माय हम मव के जो चरणदाता है वे भगवान महावीर समीप ही है। चलो, चलो मेरे साथ ।" दूर-दूर में लोग इस घटना को देख रहे थे और विस्मय मे डूबे हुए थे-ऐमा भयानक गक्षम कैमे क्षणमात्र में बदल गया ? मुदर्शन ने यह कैमा चमत्कार किया? अर्जुन को लेकर सुदर्शन प्रभु के समीप पहुंचा । केवलज्ञानी, अशरणगरण प्रभु ने पीडित अर्जुनमाली को अपनी और धर्म की गरण मे ले लिया। माहम बटोर कर पीछे-पीछे चली आई जन-मेदिनी जय-जयकार कर उठी-'भगवान महावीर स्वामी की जय । जैनधर्म की जय ।' प्रबजित होकर अर्जुन मुनि ने घोर तप किया । बहुत से नाममझ लोग __ अब भी उनके पूर्वकृत्यो का स्मरण कर उनकी प्रताडना करते थे और उन्हे पीटित करते थे। किन्तु अर्जुन मुनि अब धैर्य, क्षमा और प्रेम की प्रतिमति बन चुके थे। ममभाव उनकी आत्मा मे अचल होकर स्थित हो चुका था। उसके बाद अर्जुन मुनि अपने लक्ष्य मे कभी विचलित नही हुए । उनसरी माधना-यात्रा तभी ममाप्त हुई जब वे केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो गये। अन्तकृतद्वशा० ६३ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहिधर्म की आराधना दुर्लभ और मूल्यवान वस्तु कौन प्राप्त करना नही चाहता ? किन्तु वह मूल्यवान वस्तु क्या है, उसका ज्ञान ही यदि मनुष्य को हो जाय तो वेडा पार होते देर न लगे। वस्तुत यह मनुष्य जीवन ही दुर्लभ है । एक बार यह प्राप्त हो जाय और मानव अपने विवेक से चलता हुआ यदि पुरुपार्थ करे तो फिर अन्य कुछ भी दुर्लभ नही। आनन्द नामक एक गाथापति (गृहपति) की यह कथा है वाणिज्य ग्राम मे जितशत्र नामक राजा राज्य करता था। वह उदार था, न्यायप्रिय था और प्रजापालक था। ग्राम के ईशाण कोण मे धुतिपलाश नामक एक सुन्दर उद्यान था। द्युतिपलाश नामक यक्ष का आयतन होने के कारण ही उस उद्यान का यह नाम पड गया था। __ उसी ग्राम मे आनन्द अपने परिवार सहित रहता था। शिवानन्दा नामक उसकी पत्नी थी। धन-सम्पत्ति की उसके पास कोई कमी नही थी। कराडा का वह स्वामी था। उसके पास चार ब्रज (गोकुल) भी थे। प्रत्येक अज म दस हजार गाये थी। इस अपार सम्पत्ति के कारण उसे महधिक कहा जाता था। पति-परायणा सुन्दर पत्नी तथा इस अपार और अटूट सम्पत्ति के कारण उसका जीवन आनन्द से व्यतीत होता था। गृहपति आनन्द बुद्धिमान भी या और व्यवहार-कुशन भी। राजा तथा नारी प्रजा उससे सदैव मत्रणा लिया करते थे। एक वार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान गहावीर वाणिज्य २५७ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ ग्राम मे पधारे। समवसरण लगा। भगवान के आगमन का सवाद सुनकर राजा जितशत्रु परम हर्पित होकर भगवान के दर्शन करने तथा उनका उपदेश सुनने के लिए सपरिवार गया । गृहपति आनन्द ने भी जब यह सवाद सुना तो विचार किया - 'ऐसे पुण्य अवसर भाग्य से ही प्राप्त होते है । अन्यथा गृहकार्यो की झझट तो जीवन भर लगी ही रहती है ।' यह विचार कर वह भी भगवान के दर्शन हेतु जाने के लिए तैयार होने लगा । स्नानादि से निवृत्त होकर तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करके वह द्युतिपलाश उद्यान की ओर चल पडा। आधे रास्ते पर ही वाहन को त्याग कर वह पैदल ही भगवान के समीप पहुँचा । भगवान के दिव्य प्रभामण्डल को देखकर उसका हृदय हर्प से विभोर हो उठा। तीन बार प्रदक्षिणा करके वह उपदेश श्रवण करने के लिए बैठा । भगवान के सदुपदेश को सुनकर मारी जनता आनन्द से विभोर हो उठी । गृहपति आनन्द भी भक्ति से परिपूर्ण हो उठा था । वह बोला I "भते | आज मेरे ज्ञान नेत्र खुलते से प्रतीत होते हैं । मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन मे प्रतीति एवं रुचि रखता हूँ । इसमे मेरी श्रद्धा है । जैसा तत्त्व आपने कहा है, सब वैसे ही है - यह सत्य है । मै इस धर्म की चाह रखता है | आपके समीप राजा, युवराज, दाण्डनिक, सेनापति, नगर-रक्षक, सार्थवाह, श्रेष्ठी, कौटुम्बिक आदि सभी मुण्डित होकर आगार धर्म से अनगार मे आते हैं । किन्तु मैं साधु जीवन की कठिन चर्या में निर्गमन के लिए अपने को असमर्थ व अयोग्य पाता हूँ । अत गृहस्थ धर्म के द्वादश व्रतो के ग्रहण की इच्छा कर रहा हूँ ।" ― भगवान ने अमृतमय वचन कहे " जैमी तुम्हारी इच्छा हो वैसा ही करो । किन्तु शुभ कार्य मे विलम्ब नहीं करना चाहिए ।" गृहपति आनन्द ने तत्काल बारह व्रतो को स्वीकार करते हुए कहाभते । मे दो करण और तीन योग से स्थूलप्राणातिपात, स्थूलमुषानाद व स्थूलनदत्तादान का प्रत्याख्यान करता है । स्वभार्या के अतिरिक्त अन्य मेरी माना है। इच्छापरिमाण वन के अन्तर्गत चार हिरण्य विसरक्षित र व्यवसाय में प्रयोजित वार हिरण्य कोटि तथा धन-धान्य नादि के प्रविस्तार में प्रयोजित चार हिरण्य छोटि इस प्रकार कव こ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहिधर्म की आराधना २५६ हिरण्य कोटि के अतिरिक्त धन- संग्रह का त्याग करता हूँ । चार गो व्रज के अतिरिक्त और व्रज का भी विसर्जन करता हूँ । क्षेत्र भूमि मे पाँच सौ हल से अधिक, प्रदेशान्तर मे जाने के लिए एव घरेलू काम के लिए पाँच-पाँच सौ शकटो से अधिक का त्याग करता हूँ ।" इसी प्रकार आनन्द ने वाहन, वस्त्र, भोजन, आभूषण इत्यादि सभी पदार्थो के विषय मे एक निश्चित सीमा अगीकार करली | इसके बाद भगवान ने कहा - " आनन्द । जीवाजीव की विभक्ति के ज्ञाता व अपनी मर्यादा मे विहरण करने वाले श्रमणोपासक को व्रतो के अतिचार भी जानने चाहिए ।" गृहपति आनन्द ने भगवान से अतिचार का विस्तृत विवेचन करने के लिए प्रार्थना की । भगवान महावीर ने अतिचारो की स्पष्ट व्याख्या कर आनन्द की जिज्ञासा का समाधान किया । आनन्द ने पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ग्रहण किये। एक अभिग्रह ग्रहण करते हुए आनन्द ने भगवान से निवेदन किया- “भते | आज से इतर तैथिको की, इतर तैथिको के देवताओ व इतर तैथिको द्वारा स्वीकृत चैत्यो को नमस्कार नही करूँगा । उनके द्वारा वार्ता का आरम्भ न होने पर, उनसे वार्तालाप करना, गुरुबुद्धि से उन्हे अशन-पान खादिम - स्वादिम आदि देना मुझे नही कल्पता है । इस अभिग्रह मे मेरे छ अपवाद होगे । राजा, गण, बलवान, देवताओ के अभियोग से, गुरु आदि के निग्रह से और अरण्य आदि का प्रसंग उपस्थित होने पर मुझे उन्हें दान देना कल्पता है ।" अपनी दृढनिष्ठा से आनन्द ने कहा - "भते । निर्ग्रन्थो को प्रासुक व एपणीय अशन-पान, खादिम स्वादिम, वस्त्र कवल, प्रतिग्रह ( पात्र), पादप्रोच्छन, पीठ फलक, शय्या, सस्तारक, औषध, भेपज का प्रतिलाभ करना मुझे कल्पता है ।" अपनी अनेक जिज्ञासाओ का तात्त्विक ढंग से समाधान पाकर विधिपूर्वक भगवान की वन्दना कर गृहपति आनन्द अपने घर आया । घर आकर उसने अपनी पत्नी को व्रत ग्रहण की बात सविस्तार वताई । शिवानन्दा ने पति के मुख से सारी बात श्रवण कर लेने के पश्चात् स्वयं भी व्रत ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की । पति का सह अनुमोदन पाकर वह स्नानादि से निवृत्त हुई, बहुमूल्य वस्त्राभरण से अलंकृत हो, दासियो के Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ परिकर में घिरी सुन्दर मुसज्जित यान पर आरूढ हो भगवान महावीर के समवशरण मे पहुंची । महती परिपद् के माथ भगवान की देशना सुनकर वह आत्मविभोर हो गई । भगवान के समक्ष द्वादग व्रत का विधि-विधानपूर्वक गृहस्य-धर्म मे पालन करने का सकल्प लेकर अपने घर बापम आ गई। पुनश्च , गणधर गोतम ने भगवान से पूछा-"प्रभो । श्रमणोपासक गृहपति आनन्द क्या आपके समक्ष प्रव्रजित होने में समर्थ हे ?" केवलज्ञानी भगवान महावीर ने उत्तर दिया-“गोतम । ऐमा नही है। आनन्द बहुत वर्षो तक श्रावक पर्याय का पालन करता हुआ अनशनपूर्वक शरीर त्याग कर सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में नार पल्योपम की स्थिति में उत्पन्न होगा।" इधर आनन्द ओर शिवानन्दा दोनो ही जीव-अजीव की पर्यायो पर अनुनिन्तन करते हुए सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगे। शीलवत, अणुव्रत, प्रत्याग्यान तथा पोपत्र-उपवास आदि करते हए अपनी आत्मा को भावित ग्नेि लगे। वीरे-धीरे चोदह वर्प व्यतीत हो गये । पन्द्रहवे वर्ष का प्रारम्भ ती या कि एक बार रात्रि के उत्तरार्ध मे धर्म-जागरण करते हुए आनन्द के मन मे माप उदय हुआ--"नगर के राजा, युवराज, नगर-रक्षक, नगरप्रधान आदि आत्मीय-जनो का मै आधार हूँ। अधिकाश कार्यों मे ने मभी मुझने मन्त्रणा करते रहते है। इसी व्यस्तता ओर व्यग्रता के फलम्बा भगवान महावीर का दर्शन स्वीकृत कर धर्म-प्रज्ञप्ति को क्रियान्वित करने का मुभवमर आज तक नहीं मिल पाया। शुभ मका भी यदाकदा उठते है, क्यो न टमका मदुपयोग किया जाय ?'' ऐसा विचार आते ही माता ने बल पडा । वह पुन मोचने लगा--"कल प्रात काल होते ही जानि-स्वजनो मित्रो को निमन्त्रित कर उन्ही के समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को घर का माग दापिन्व माप वाणिज्य नगर के उत्तर-पूर्व दिशा मे अवस्थित होनाग उपनगर के जाना की पौपधनाला मे भगवान की धर्म-प्रज्ञप्ति पीकार कर विचरण कर।" नादर होते ही मन के नकल्पानुमार मनी ज्ञातजनो को निमन्धिना र उन्हें यावत् नोसन आदि ने सन्तुष्ट व मम्मानित करते हा अमणोपानर नन्द ने अपने विचार प्रगट किये। मब की मम्मति मे ज्येष्ठ न रो दुव गदागिन्य मापा और उपस्थित जनो को मनोधित करने हा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ गृहिधर्म की आराधना कहने लगा- "भाई । मै एकान्त मे धर्मजागरण मे प्रवृत्त रहना चाहता हूँ, इसलिए भविष्य मे किसी भी प्रकार का सम्पर्क-सम्बन्ध मुझसे कोई न रखे और न ही कोई मन्त्रणा (सलाह) करे।" अपने स्वजनो की अनुज्ञा प्राप्त कर गृहपति आनन्द कोल्नाग सन्निवेशस्थ पौषधशाला मे आया। विधिवत् उक्त स्थान की प्रतिलेखना कर भगवान महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरण करने लगा। ___गृहपति आनन्द ने श्रावक की ग्यारह प्रतिमा स्वीकार की। सूत्र कल्प और मार्ग के अनुसार प्रत्येक प्रतिमा को काया द्वारा ग्रहण करते हुए उपयोग द्वारा रक्षण मे प्रवृत्त हुआ। अतिचारो का त्याग करते हुए विशुद्ध हुआ। प्रतिमाओ के स्वीकरण और उनमे होने वाले घोर तपश्चरण से उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया। धर्म जागरण करते हुए एक दिन ग्रहपति आनन्द के मन मे फिर विचार-सकल्प का उदय हुआ-"इस अनुष्ठान मे शरीर कृश हो चला है । हड्डियो का ढाँचा मात्र यह रह गया है। फिर भी मुझ मे अब तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, श्रद्धा, घृति और सवेग है । क्यो न मै इनकी उपस्थिति मे ही अपश्चिम मारणान्तिक सलेखना से युक्त होकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान करूं।" अपने सकल्प को तत्काल आनन्द ने कार्य रूप मे परिणत कर दिया। शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम व विशुद्ध होती हुई लेश्याओ से श्रमणोपासक आनन्द के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ। उसे निर्मल अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई। इन्ही दिनो भगवान महावीर पुन वाणिज्य ग्राम पधारे । गौतम स्वामी वेले की तपस्या पूर्ण कर भगवान की आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए नगर मे आये । जनता मे श्रमणोपासक आनन्द के आमरण अनशन की चर्चा सुनकर गौतम स्वामी इन्हें देखने की भावना से पौपधशाला मे आये । गौतम म्वामी के आगमन पर आनन्द को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वह शारीरिक असमर्थतावश उठ न सके। लेटे-लेटे ही आनन्द ने उन्हे वन्दन किया और उनके चरण स्पर्श किये। आनन्द ने कहा-"भगवन् । क्या आमरण अनशन मे गृहस्थ को अवविज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?" गौतम बोले-हाँ, हो सकता है।" Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ आनन्द ने तब कहा-"भगवन् । मुझे अवविज्ञान प्राप्त हुआ है। उसके बल पर मै उत्तर दिशा मे चूलहेमवन्त पर्वत तक, दक्षिण, पश्चिम एव पूर्व दिशा मे पाँच सौ योजन समुद्र तक, ऊपर सौधर्म देवलोक तक, नीचे प्रथम नरक के लोलुप्य नरकावास तक देख सकता हूँ। मुझे इतना विशाल अवधिज्ञान प्राप्त हुआ है।" गौतम को आश्चर्य हुआ। उन्होने कहा-"आनन्द | गृहस्थ को इतना विशाल अवधिज्ञान नहीं मिल सकता । अनशन मे तुमसे यह मिथ्या सभापण हुआ है, अत शीव्र इसकी आलोचना व प्रायश्चित्त कर तुम्हे शुद्ध हो जाना चाहिए।" यह सुनकर आनन्द ने प्रश्न किया-"प्रभो । भगवान महावीर के शासन मे सत्याचरण का प्रायश्चित्त होता है या असत्याचरण का ?" "असत्याचरण का।" गौतम ने दृढ स्वर मे कहा। आनन्द-"प्रभो । तव तो यह प्रायश्चित्त कही आपको ही तो नहीं करना होगा? क्योकि असत्याचरण तो आपसे ही हुआ है।" गौतम का मन सशकित हुआ। वहाँ से चलकर वे भगवान महावीर के सन्निकट आये और उन्हे सारा हाल कह सुनाया। __भगवान महावीर ने कहा-“गौतम | इस प्रसग पर असत्याचरण तो तुमसे ही हुआ है । तुम आनन्द के पास जाकर तुरन्त क्षमा याचना करो।" विनयमूर्ति गौतम शीघ्रतापूर्वक आनन्द के पास पौपधशाला पहुंचे। वे बोले-"आनन्द | तुम धन्य हो । भगवान महावीर ने तुम्हारे वचन को सत्य घोपित किया है । मेरे कथन से तुमको कप्ट हुआ होगा? मृपा-भाषण के लिए मै क्षमा चाहता हूँ।" ऐसा कहकर गौतम भगवान के पास लौट आये। आनन्द ने वीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करते हुए अन्तिम काल मे अनशन-आलोचना आदि कर शरीर त्यागा और वह सौधर्म कल्प के अरुणाभ विमान में उत्पन्न हुआ। गृहस्थ-जीवन मे श्रावक के बारह व्रतो का विधिवत् पालन करते हुए भी उस दुर्लभ पद को प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी अभिलापा योगिजन करते है। -उपासकदशा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब पछताये होत क्या ? मेतार्य जन्म से चाण्डाल थे । उन्होने श्रमण भगवान महावीर के सघ मे दीक्षा ग्रहण की थी। ज्ञान और समता की साधना से उनका सयमी जीवन चमक उठा । सयम की कठोर साधना के लिए सघ की मर्यादा से मुक्त होकर एकाकी रहने लगे। परिभ्रमण करते हुए वे एक बार राजगृह मे आये। भिक्षा के लिए वे एक स्वर्णकार के पास पहुँचे। स्वर्णकार मुनि को देखकर हर्प-विभोर हो उठा। वन्दन कर निवेदन किया भगवन् । एक क्षण आप यहाँ पर रुके, मैं अभी घर मे जाकर आता है। मुनि वही पर खड़े रह गये। स्वर्णकार की दुकान मे क्रौच पक्षी का एक युगल वठा हुआ था। वह वहाँ पड़े हुए स्वर्णयवो को निगल गया। स्वर्णकार ने आकर ज्यो ही देखा कि स्वर्णयव वहाँ नही है तो वह स्तब्ध हो गया। उसने मुनि से स्वर्णयवो के सम्बन्ध मे प्रश्न किया। मुनि मौन रहे । स्वर्णकार को आवेश आ गया । वह बोला-"मुनिवर | मै अभीजभी आपके सामने स्वर्णयव छोडकर गया था। आपके अतिरिक्त यहाँ पर कोई आया भी नही है अत आपने ही मेरे स्वर्णयवो को लिया है।" मुनि अब भी मौन थे। मुनि के मौन से स्वर्णकार तिलमिला उठा। उसने कहा-"मुनिवर । वे स्वर्णयव मेरे नहीं है । वे सम्राट् श्रेणिक के है। मै उनके अन्त पुर के लिए आभपण तैयार कर रहा है। यदि वे स्वर्णयव मुझे नहीं मिलेगे तो आप जानते है कि मेरी क्या दुर्दशा होगी? आप सम्राट श्रेणिक के दामाद रहे है। आपने २६३ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ अपने विराट् वैभव को छोडकर दीक्षा ग्रहण की हे । श्रमण भगवान महावीर के महान सघ के आप तेजस्वी सदस्य है। अत मन के लोभ को छोडकर मेरी वस्तु पुन मुझे लौटा दे । भूल मानव से होती है, आप से भी भूल हो सकती है। अभी आपकी भूल को अन्य कोई भी नहीं जानता । मेरी बात को माने और मुझे मेरी वस्तु लौटा दे ओर भूल का प्रायश्चित्त कर अपना शुद्धीकरण करे।" स्वर्णकार के यह कहने पर भी मुनि ने मौन न खोला । स्वर्णकार ने समझा कि मुनि का मन स्वर्णयव पर ललचा गया है। वे विना दण्ड दिये मानेगे नही । वह द्वार बन्दकर शीघ्र ही गीला चर्मपट्ट लाया और कसकर मुनि के सिर पर वाँध दिया । मुनि भूमि पर लुढक गये। सूर्य के उग्रताप से चर्मपट्ट धीरे-धीरे सूखने लगा। मुनि चिन्तन करने लगे-स्वर्णकार का इसमे किञ्चित् भी दोप नही है । वह वेचारा भी राजा के उग्र दण्ड के कारण भयभीत है, यदि मै मौन छोड़कर सत्य-तथ्य का समुद्घाटन करता तो क्रौच-युगल की हत्या हो जाती । दूसरे के प्राणो की बलि देने से तो यही श्रेयस्कर है कि मैं अपने प्राणो की बलि दे दूं। मुनि ध्यानस्थ हो गये। उन्होने अपना बलिदान दे दिया। उसी समय एक लकडहारे ने लकडी का गट्ठर स्वर्णकार के मकान मे डाला, उसकी तेज आवाज से भयभीत होकर क्रौच पक्षी को बीट हो गई, उसमे स्वर्णयव निकल आये । स्वर्णकार उसे देख कर पश्चाताप करने लगा। अरे | मैने निरपराध मुनि की हत्या कर दी। पर अब क्या हो सकता था ? Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप के भागीदार __ कालसौकरिक राजगृह का सबसे बडा कसाई था। प्रतिदिन उसके कसाईखाने मे सैकडो भैसे मारे जाते थे । एक दिन राजा श्रेणिक ने कालसौकरिक को अपने पास बुलाकर कहा-"कालसौकरिक । तुम भैसा मारना छोड दो, मैं तुम्हे इतना धन दूंगा कि जिससे तुम्हारा सारा परिवार समृद्ध हो जायेगा।" सम्राट् के प्रस्ताव की अवहेलना करते हुए कालसौकरिक ने कहा"राजन् । मै आपकी अन्य कोई भी वात सहर्ष मान सकता हूँ, पर आपकी भैसा न मारने की बात मुझे बिलकुल पसन्द नही है । मुझे बिना भैसा मारे चैन ही नही पडता है।" सम्राट ने अनुचरो को आदेश देकर कालसौकरिक को अन्धकूप मे डलवा दिया । राजा प्रसन्न होकर भगवान महावीर के पास पहुँचा। वन्दन कर निवेदन किया-"भगवन् । मैने कालसौकरिक को भैसे मारने छुडवा दिये हैं।" भगवान ने कहा-"श्रेणिक । यह बिल्कुल ही असम्भव है।" "भगवन् । मैंने उसे अन्धकूप मे रखा है, वहाँ पर वह भैसो को किस प्रकार मारेगा?" भगवान ने कहा-"तुम्हारा कथन सही है, पर क्या अन गीली मिट्टी नही है ?" "भगवन् । गीली मिट्टी से क्या तात्पर्य है ?" “गीली मिट्टी से वह दिन भर भैसो की आकृति व . Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ उन्हे मारने का उसी प्रकार अभिनय करता रहा । इसीलिए मैंने कहा है कि कालसीकरिक को भैसे मारना छुडवाना सभव नही है।" सम्राट् ने स्वय जाकर देखा कि अन्धकूप मे कालसौकरिक के कर । हाथ भैसे मारने मे लगे हुए है । सम्राट् ने उसे मुक्त कर दिया। कुछ समय के पश्चात् कालसौकरिक मर गया। परिवार के लोग आये और दाह-सस्कार किया। सुलस कालसौकरिक का ज्येष्ठ पुत्र था। परिजनो ने एक भैसे को मारकर अपने पिता के पद को सँभालने का अनुरोध किया। सुलस ने उनके प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा-"मैने भगवान महावीर का पावन उपदेश सुना है। मै कसाई का धन्धा नहीं कर सकता । जैसे मुझे मेरे प्राण प्रिय है वैसे ही दूसरो को अपने प्राण प्रिय है। फिर मै अपने प्राणो की रक्षा के लिए दूसरो के प्राण कैसे लूट सकता हूँ।" स्वजन-वर्ग ने कहा-प्राणी-हिसा मे जो पाप होगा, उसके भागीदार हम है । उन्हे प्रतिबोध देने के लिए सुलस ने अपने पिता की तेज कुठार को हाथ मे उठाया । अपने सामने खड़े हुए भैसे को प्रेम की दृष्टि से देखा और वह कुठार अपनी जघा पर दे मारी । वह मूच्छित होकर गिर पडा। जघा से रक्त के फव्वारे छूटने लगे। कुछ समय के पश्चात् सावधान होने पर उसने कहा-"मेरे प्यारे वन्धुओ | यह घाव मुझे अत्यधिक कष्ट दे रहा है, कृपया आप मेरी पीडा को ले लीजिए जिससे मुझे शान्ति हो।" परिजन वर्ग ने उदास मन से कहा-"यह किस प्रकार सम्भव हो सकता है। किसी अन्य की पीडा को अन्य कोई व्यक्ति कैसे ले सकता है ?" सुलस ने तपाक से कहा-"आप मेरी पीडा नही ले सकते, तब आप मेरे पाप को कैसे ले सकेगे?" स्वजनो के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। सुलस ने कहा-"चाहे पैतृक-धन्धा भी क्यो न हो, यदि वह पापपूर्ण है तो पुत्र को नहीं करना चाहिए। यदि पिता अन्धा हे तो पुत्र को भी अन्धा हो जाना चाहिए । यह बुद्विमानी नही है।" Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रहस्य भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति अनगार ज्ञानी थे, विवेकी थे और सत्य के अन्तिम छोर तक पहुँचने की उनकी जिज्ञासा वडी तीव्र थी। किसी भी विपय मे कोई शका उत्पन्न हो, तो उसका समाधान प्राप्त किये विना वे रुकते नही थे। एक वार शुक्ल ध्यान मे लीन वे विचरण कर रहे थे। जीवात्मा पर विचार करते-करते एक शका उनके मन मे उत्पन्न हुई और वे उसका समाधान पाने के लिए उत्कठित हुए। भगवान महावीर के अतिरिक्त अन्य कौन था जो उनका समाधान प्रस्तुत कर सकता? सयोगवश उस समय भगवान समीप ही राजगृह नामक नगर मे गुणशील नाम के विख्यात चैत्य मे ठहरे थे। इन्द्रभूति भगवान की सेवा मे उपस्थित हुए। सविनय वन्दन करने के उपरान्त उन्होने प्रभु से प्रश्न किया ___ "भगवन् । जीव किस प्रकार शीघ्र ही गुरुता अथवा लघुता को प्राप्त करता है ?" भगवान ने विचार किया कि उदाहरण सहित यह तत्त्व शिष्य को समझाना चाहिए। अत उन्होने कहा कल्पना करो, एक तूबा है, जो सूखा है, छिद्र रहित है, बहुत बडा है। क्या वह पानी मे डुवेगा? नही भगवन् । गौतम ने निवेदन दिया। तूंवे का स्वभाव तो पानी पर तैरने का है। २६७ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ उस तूबे पर कोई व्यक्ति अच्छी तरह से दर्भ और कुश लपेट देता है। और फिर उस पर मिट्टी का लेप भी चढ़ा देता है। कुछ समय तक उसे धूप सुखा देता है | जब वह अच्छी तरह सूख जाता है तब पहले के समान ही उस तूबे पर फिर से दर्भ और कुश लपेट देता है और उसी प्रकार मिट्टी का लेप लगाकर सुखा देता है और इसी प्रकार वह आठ बार यह विधि 'दुहराता है । जव आठ वार उस तूवे पर दर्भ - कुश - मिट्टी का लेप लगकर मूख जाता है । तब वह उसे किसी जल में लेजाकर डालता है । बताओ, गौतम | वह डूबेगा या तैरेगा । २६८ भगवन् । वह तूवा जिस पर आठ लेप लग चुके है डूव ही जायेगा । एक ईपत् हास्य की मधुर रेखा प्रभु के मुखचन्द्र पर झलक आई । सौम्यता की चन्द्रिका छिटक गई । तब उन्होने अपने शिष्य को उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए समझाया - " हे गौतम | वह तूवा वास्तव मे तो हलका था। उसे जल मे डूबना नही चाहिए था । किन्तु मिट्टी के आठ वार के लेप के कारण वह गुरुता को प्राप्त हो गया और जल को लॉघकर जल के तल रही हुई धरती तक चला गया । क्यो, ऐसा ही हुआ न " "हाँ, भगवन् ! ऐसा ही हुआ ।" - इन्द्रभूति अनगार के मस्तिष्क मे तत्त्व का प्रकाश छा गया था । " इसी प्रकार, हे गौतम । जीव भी प्राणातिपात से, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से, अठारह पाप-स्थानको के सेवन से क्रमश आठ कर्म प्रकृतियो का उपार्जन करते है | उन्ही कर्म - प्रकृतियो की गुरुता के कारण, उसी गुरुता के भार के परिणामस्वरूप जीव मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, इस पृथ्वीतल को लाँघकर नीचे, नरक मे स्थित होते है । जीव गुरुत्व को किस प्रकार प्राप्त होते है, यह तो तुम भली प्रकार से अब समझ गये न ?" - भगवान ने पूछा । “हाँ भगवन् । मै जान गया कि जीव किस प्रकार गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ।" - मन्तुष्ट इन्द्रभूति अनगार ने उत्तर दिया । "अव हे गौतम | मै तुम्हे यह रहस्य समझाता हू कि जीव किस प्रकार शीघ्र लघुत्व को प्राप्त करते है । विचार करो, यदि उस तूबे का Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ एक रहस्य सबसे ऊपर का मिट्टी का लेप गल जाय और नष्ट होकर तूबे पर से हट जाय, तब क्या होगा ?" "भगवन् । तव तूवा कुछ हल्का हो जायगा ।" 1 "हाँ कुछ हल्का तो हो ही जायगा । तुम ठीक कहते हो । और हल्का हो जाने से क्या होगा ? क्या वह पृथ्वीतल से कुछ ऊपर आकर नही ठहरेगा ?" - प्रभु ने प्रश्न किया । "ऐसा ही होगा भगवन् ।' "इसी प्रकार, यदि उस तूबे का दूसरा मिट्टी का लेप भी गल जाय और नष्ट हो जाय, तब वह पृथ्वीतल से कुछ और अधिक ऊपर आकर ठहरेगा और जव क्रमश उसके आठो मिट्टी के लेप गलकर नष्ट हो जायँगे और तूबे से पृथक् हो जायेंगे, तब क्या होगा ?" इन्द्रभूति गौतम भगवान के ज्ञान तथा विवेचन की सटीक सरलता पर मुग्ध हो रहे थे । वे बोले - "मै रहस्य जान गया प्रभु । तब वह तूवा जैसे का तैसा शुद्ध और हल्का हो जायगा और जल की सतह पर आकर तैरने लगेगा ।" अपने विवेकी शिष्य से यह समुचित उत्तर पाकर भगवान ने स्पष्ट समझाया " इसी प्रकार, हे गौतम । प्राणातिपातविरमण यावत् मिथ्यादर्शन शल्य विरमण से क्रमश आठ प्रकृतियो को नष्ट करके जीव आकाशतल की ओर उड़कर लोकाग्र मे स्थित हो जाते है । गौतम । जीव इस प्रकार लघुत्व को प्राप्त होते है । स्पष्ट हुआ न "भगवन् । आप सर्वज्ञ है ।" ?" Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ संयम का चमत्कार वाराणसी भारत की एक महान नगरी थी। उसकी शोभा और समृद्धि अलकापुरी के समान थी। सुन्दर, विशाल और गगनस्पर्गी भव्यभवन जन-जन के मन को मन्त्रमुग्ध कर देते थे । नगरी के बाहर गगा महानदी कल-कल छल-छल वह रही थी। गगा के किनारे मृतगगानीर नामक सरोवर था। उसका पानी अमृत के समान मधुर और स्फटिक के समान निर्मल था। उसमे विविध प्रकार के कमल खिल रहे थे। उनकी मधुर सौरभ से सारा वातावरण महक रहा था। हजारो जलचर उस सरोवर मे निर्भय होकर निवास करते थे। सरोवर के सन्निकट ही मालुकाकच्छ नामक एक सुन्दर वन-खण्ड था। उसमे हजारो वृक्ष थे, जिनकी सघन छाया सारे दिन छायी रहती थी और उस शीतल छाया मे अनेक वनचर पशु क्रीडा किया करते थे। सन्ध्या का समय था। धीरे-धीरे अन्धकार दैत्य के समान बढ रहा था। उस समय दो कछुए आहार की अन्वेपणा के लिए धीरे से सरोवर के बाहर निकले । सरोवर के सन्निकट चमचमाती हुई रेती पर वे चहलकदमी करने लगे। उमी समय मालुकाकच्छ मे रहने वाले दो शृगाल पानी पीने के लिए मरोवर पर आए । शृगालो ने कलुओ को घुमते हुए देखा । उनकी आँखो मे नई चमक आ गई। उनकी जवान लपलपा उठी। उन्होने निश्चय किया कि आज हम इन कछुओ का आहार करेगे, क्योकि ये मधुर जल मे निवास २७० Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ सयम का चमत्कार करते है, इनका मास वडा ही स्वादिष्ट होगा। दोनो एक-दूसरे के विचार से सहमत हो गये। एक शृगाल ने दूसरे से कहा-"सावधान हो जाओ, परस्पर वार्तालाप न करो, क्योकि कछुए वडे चतुर होते है।" दूसरे ने कहा-"तुम्हारा कथन सत्य है पर ये मक्कारी मे हमसे आगे नही वढ सकेगे।" कछुए, शृगालो की आहट पाकर रुक गये, किन्तु सरोवर इतना दूर था कि वे भागकर भी उसकी शरण मे नही पहुँच सकते थे। अत एक कछुए ने दूसरे से कहा--"भाई । सावधान हो जाओ। ये शृगाल बडे पापी है। ये हमारे प्राणो को नष्ट करने वाले है अत अपने हाथ, पैर, गर्दन व शरीर के सभी अगोपागो को इस प्रकार भीतर करलो कि इन्हे यह ज्ञात हो कि यह तो मृत है।" कछुए ने अपनी वात पूर्ण की ही थी कि दोनो शृगाल वहाँ पर आ गये । उन्होने दांतो से उन पर प्रहार किया। तीक्ष्ण पजो से उनको नोचा, इधर से उधर उलट-पुलट कर देखा, पर ढाल के सदृश ऊपर की मजबूत हड्डी पर उसका कोई असर नही हुआ । परेशान होकर एक ने दूसरे शृगाल से आँख के सकेत से कहा-अब यहाँ से धीरे से चल दो। __ पास की झाडी मे जाकर वे दोनो छिपकर बैठ गये। और पहले ने दूसरे से कहा-“जहाँ पर शक्ति काम न करती हो, वहाँ पर बुद्धि से काम लेना चाहिए। कुछ समय तक चुपचाप यहाँ पर बैठे रहो। कुछ क्षणो मे ये कछुए सरोवर की ओर जव जायेगे तव हम इन्हे दबोचकर खा लेगे।" उन दो कछुओ मे से एक कछुआ उतावले स्वभाव का था। उसके मन मे धैर्य और सयम का अभाव था। साथी ने उसे पहले ही समझा दिया था कि शृगाल पास की झाडी मे छिपे रहेगे अत हाथ, पैर, मुंह आदि दीर्घकाल तक वाहर मत निकालना । पर अपने साथी के कथन की उपेक्षा कर ज्यो ही उसने अपना एक पैर वाहर निकाला त्यो ही एक शृगाल ने लपक कर उसे अपने तीक्ष्ण दांतो से खा लिया। एक पैर खो देने के बाद भी उसे अक्ल नहीं आई । कुछ समय के पश्चात् दूसरा पैर निकाला, वह भी शृगाल ने खा लिया। इस प्रकार उसके हाथ और गर्दन सभी को शृगाल खा गये । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ धैर्य के अभाव मे और असयम के कारण उसे अपने प्राणो से हाथ धोना पड़ा। दूसरा कछुआ विवेकवान व सयमी था। उसे अपनी इन्द्रियो पर पूर्ण अधिकार था । वह शान्त-भाव से बैठा रहा। उन शृगालो ने अनेक प्रयास किये किन्तु उन्हे सफलता नहीं मिली। अन्त मे निराश होकर वे उलटे पैरो लौट गये । जब कछुए को यह पूर्ण विश्वास हो गया कि शृगाल चले गये है तब उसने अत्यन्त सावधानी से अपने अगोपागो को बाहर निकाला और इधर-उधर देखकर वह शीघ्र ही दौडकर मगेवर मे पहुच गया और अपने स्नेही साथियो से जा मिला। श्रमण भगवान महावीर ने कथा का सार प्रस्तुत करते हुए कहा"जो प्रथम कछुए के समान साधक है, वह विनष्ट होता हे और द्वितीय कछुए के समान जो साधक है वह इन्द्रियो पर सयम रखकर अपने जीवन को चमकाता है।" मयम जीवन है । उसके सामने पाप की गक्ति पराजित हो जाती है। अत· मयम मे जीवन को चमकाओ। -~-ज्ञाता धर्म कथा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ संयम से सिद्धि वात बहुत पुरानी है । कुरु जनपद मे इपुकार नामक एक सुन्दर नगर था । उस नगर का अधिपति इषुकार था और उसकी पत्नी का नाम कमलावती था। ___ इषुकार नगर मे भृगु नामक एक प्रतिभा सम्पन्न राजपुरोहित रहता था । उसकी पत्नी का नाम यशा था। वह वशिष्ठ कुल मे जन्मी थी अत उसका अपर नाम वाशिष्ठी भी था । सन्तान के अभाव मे वे दोनो रात-दिन चिन्ता के सागर मे डुबकी लगाया करते थे । एक वार दो देव जिनका जन्म भृगुपुरोहित के यहाँ होने वाला था। वे जैन श्रमण के वेश को धारण कर भृगुपुरोहित के घर पहुंचे। मुनियो को देखकर भृगु और यशा अत्यन्त प्रसन्न हुए । वन्दन कर उन्होने मुनियो से उपदेश श्रवण किया । श्रावक के व्रत ग्रहण किये। पुरोहित ने प्रश्न किया-भगवन् । हमारे कोई पुत्र होगा या नही ? मुनियो ने उत्तर देते हुए कहा-पुरोहित जी । तुम व्यर्थ की चिन्ता न करो, हम कहते है कि तुम्हारे एक नहीं अपितु दो पुत्र होगे, पर एक बात है ? पुरोहित ने प्रतिप्रश्न किया-भगवन् । वह कौनसी बात है ? जिसे आप कहने मे मकोच कर रहे है ? सकोच की तो कोई बात नहीं, पर तुम्हे सुनकर मन मे विचार होगा। किन्तु सत्य तथ्य को प्रकट करना तो हम मुनियो का कर्तव्य है। कहिए गुरुदेव | शीघ्र कहिए | भृगु ने निवेदन किया। वे दोनो बालक बात्यावस्था मे ही श्रमण वनेगे। श्रमण वनकर वे अत्यधिक जिनधर्म की प्रभावना करेगे । अत तुम्हे चिन्तित होने की आवसाना नहीं। मुनि वहाँ से प्रम्गन कर गये । कुछ समय के पश्चात् दोनो ने भृगु २७३ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ पुरोहित के यहाँ पुत्रो के रूप मे जन्म ग्रहण किया। वे बहुत ही सुन्दर थे । यगा उन्हे देखकर आनन्द-विभोर थी, किन्तु मन मे यह भय समाया हुआ था कि मुनियो की भविष्यवाणी के अनुसार ये कही दीक्षा न ग्रहण कर ले अत उन्होने नगर को छोडकर व्रज मे निवाम किया जहाँ पर कोई मुनि न आ मके । यशा अपने पुत्रो के मन में समय-समय पर माधुओ के प्रति भय की भावना पैदा करती रहती थी। वह उनसे कहती-साधुओ के पास मत जाना । वे छोटे-छोटे बच्चो को उठाकर ले जाते है। उन्हे मार कर उनका मॉस खा जाते है । और तो क्या उनसे बात भी मत करना। मॉ की शिक्षा के फलस्वरूप दोनो बालक सावुओ के नाम से ही काँपते थे। एक बार दोनो वालक ग्वेलते-खेलते गाँव से बहुत दूर निकल गये। उन्होने दूर से देखा कई साधु उस मार्ग से आ रहे है । उन्हे देखकर वे घवरा गये। अब क्या करे ? बचने का कोई उपाय नही था, अत वे शीघ्र ही पास के एक सघन वट-वृक्ष चढ गये । सयोगवश सावु भी उस वृक्ष की गीतल छाया मे आकर बैठे। वालको का भय बढा। माता-पिता की शिक्षा स्मृतिपटल पर नाचने लगी । छुपे हुए चुपचाप देखने लगे कि साधु क्या करते है ? साधुओ ने पेड के नीचे आकर इधर-उधर देखा-भाला कि कहीं पर जीव-जन्तु तो नहीं है। धीरे से चीटो को एक ओर सुरक्षित किया, और बडी यतना के साथ बैठकर भोजन जो पात्र में माथ ताये थे वह करने लगे। दोनो बाराको ने उनके दयाशील व्यवहार को देखा, उनका करुणापूर्ण वार्तालाप सुना । उनके अन्तर्मानम का भय दूर हो गया। इससे पूर्व भी हमने कभी इनको देखा है ? ये वित्कुत ही अपरिचित तो नहीं लगते है ? धीरे-धीरे धुंधली-सी स्मृति अवचेतन मन पर रूपाकार होने लगी। वह कुछ गहरी होकर स्पष्ट होने लगी। कुछ ही क्षणो मे उन्हे अपने पूर्व भव का स्मरण हो आया। उनका सम्पूर्ण भय दूर हो गया। अन्तर्मन प्रसन्नता से झूम उठा । वे वृक्ष से नीचे उतरे ओर मुनियो को बन्दन किया। मुनियो ने उनको प्रतिबोध दिया। वे घर आये और माता-पिता मे निवेदन किया "हमने देखा है-मानव-जीवन अनित्य है, उसमे भी विघ्न बहुत है, आयु अल्प है इसलिए घर मे हमे कोई आनन्द नही ह। हम मुनि-चर्या को म्वीकार करने के लिए आपकी अनुमति चाहते है।" . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयम से सिद्धि २७५ ___ माता-पिता ने अनेक तर्क-वितर्क देकर उन्हे समझाने का प्रयास किया, किन्तु उनके सभी तर्कों का पुत्रो ने खण्डन कर दिया। अन्त मे उन्होने भी अपने पुत्रो के साथ सयम लेने का निर्णय किया। भृगु पुरोहित सम्पन्न था। उसके पास विराट् वैभव था। सम्पत्ति का उत्तराधिकारी न होने से प्रश्न उबुद्ध हुआ कि इसका मालिक कौन हो ? तत्कालीन परम्परा के अनुसार यह समाधान किया गया कि जिस सम्पत्ति का कोई अधिपति नही है उसका अधिपति राजा है। महारानी कमलावती ने सुना कि भृगु पुरोहित, उसकी पत्नी यशा और उनके दोनो पुत्र विराट् सम्पत्ति को त्यागकर सयम-साधना के महामार्ग पर बढ रहे है और उनके द्वारा त्यक्त वैभव राज्यागार मे लाया जा रहा है । यह वात महारानी को पसन्द नही आई। उसने राजा से स्पष्ट गब्दो मे कहा राजन् । वमन खाने वाले पुरुप की कभी प्रशसा नही होती । आप एक ब्राह्मण द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते है, यह कहाँ का न्याय है ? इस विराट् विश्व का सम्पूर्ण धन भी आपको मिल जाये तो भी आपकी इच्छाओ की पूर्ति नहीं होगी। धर्म के अतिरिक्त कोई भी वस्तु आपको त्राण नहीं दे सकती। जैसे पक्षिणी पिंजडे मे आनन्द की अनुभूति नही करती, वैसे ही मुझे भी इस बन्धन मे आनन्द का अनुभव नही हो रहा है । मै इसे छोडकर सयम-साधना, तप आराधना करना चाहती हूँ। कुछ ममय रुक कर पुन रानी ने कहा-राजन् | यह धन मॉस के टुकडे के ममान है। जैसे मॉस-खण्ड पर चील, कौवे और गीध झपटते है वैमे ही धनलोलुप व्यक्ति धन पर झपटता है । हमारे लिए श्रेयस्कर यही है कि प्रस्तुत नश्वर धन को छोडकर शाश्वत धन की अन्वेपणा करे । रानी की बात सुनकर राजा की भावना मे परिवर्तन होता है । राजा और रानी दोनो ही भोगो से विरक्त हो जाते है । मयम को स्वीकार कर जीवन को पवित्र बनाते है। इस प्रकार राजा, रानी, पुरोहित, पुरोहितानी व दोनो कुमारो ने नयम ने मिद्धि प्राप्त की। -उत्तराध्ययन १४ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपःपूत जीवन मथुरा नगरी मे राजा शख राज्य कर रहे थे। स्थविर मुनियो से धर्म के मर्म को श्रवण कर उनके अन्तर्मानस मे वैराग्य का पयोधि उछाले मारने लगा। राज्य को त्यागकर वे मुनि बने । गम्भीर अध्ययन कर गीतार्थ वने। एक बार वे परिभ्रमण करते हुए हस्तिनापुर आये। हस्तिनापुर मे प्रवेश करने के दो मार्ग थे । एक मार्ग का नाम हुताशन था। वह सारे दिन तप्त तवे की तरह जलता रहता था। भीष्म ग्रीष्म मे यदि कोई भूला-भटका पथिक उस मार्ग पर चला जाता तो वह रास्ते मे ही अपने प्यारे प्राण खो देता। मुनि शख ने मोचा, मुझे किस मार्ग से जाना चाहिए। उन्होने सडक के सन्निकट भव्य-भवन के गवाक्ष मे बैठे हुए सोमदेव ब्राह्मण से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि मुझे किस मार्ग से जाना चाहिए? मोमदेव के अन्तर्मानस मे विद्वे पाग्नि जल रही थी। उसने मुनि को हुताशन मार्ग की ओर जाने का सकेत किया। मनि के मुस्तैदी कदम उसी मार्ग की ओर चल पडे। वे लब्धि सम्पन्न थे। उनके पाद-म्पर्श से मार्ग बर्फ की तरह ठण्डा हो गया । सोमदेव को अपने पापाचरण पर पश्चाताप हुआ। मुनि महान् है । इन्हीं के पुण्य के प्रवल प्रभाव में अग्नि-जैसा मार्ग भी हिम-स्पर्श हो गया है। में पापी है। मैने भय कर पाप-कर्म किया है। उसने दौडकर मुनि के चरण पकड लिये और पाप से मुक्त होने का उपाय पूछा । मुनि ने श्रमण धर्म की महत्ता का २७६ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ तप पूत जीवन प्रतिपादन किया। मुनि के प्रवचन से प्रभावित होकर उसने सयम धर्म गहण किया, किन्तु उसके मन मे जाति, रूप और ऐश्वर्य का गर्व बना रहा। सोमदेव मुनि मरकर वहाँ से देव बने और वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर मृत गगा नदी के तट पर बलकोट्ठ नामक हरिकेश का पुत्र 'वल' हुआ। उसका स्वभाव अत्यन्त क्रोधी था और पूर्वभव मे जाति आदि का अभिमान करने के कारण उसका रूप कौवे के समान काला था। __ एक वार वसन्तोत्सव चल रहा था। सभी उत्सव का आनन्द लूट रहे थे। किन्तु क्रोधी बल को कोई पूछ भी नही रहा था। वह एकान्त मे एकाकी खडा-खडा देख रहा था । उसने देखा एक भयकर विपधर वावी मे से बाहर निकला, लोगो ने उसे मार दिया। कुछ क्षणो के पश्चात् दूसरा निर्विप सर्प निकला, किन्तु उसे किसी ने छेडा भी नही। 'वल' के हृतत्री के तार झनझना उठे जिसमे विष है उसे कष्ट है और जो निर्विप है, उसे किसी भी प्रकार का खतरा नही है । चिन्तन करते हुए उन्हे जाति-स्मरण ज्ञान हुआ, और वे साधु बन गये। मुनि हरिकेशवल श्रमण वनकर उत्कृष्ट तप का आचरण करने लगे । एक वार परिभ्रमण करते हुए वे वाराणसी आये और वहाँ पर 'तेदुक' उद्यान मे ठहरे । मुनि के उग्रतप के प्रभाव से 'गडीतिदुग' नामक एक यक्ष मुनि का परम भक्त हो गया। वह दिन-रात मुनि की सेवा मे रहने लगा। वाराणसी के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा बडी सुन्दर थी। उसे अपने रूप और यौवन पर बडा गर्व था। वह एक बार अपनी सहेलियो व दासियो के साथ उसी उद्यान मे आई और यक्ष की अर्चना करने के लिए ज्यो ही यक्षायतन मे पहुँची, वहाँ पर उसकी दृष्टि ध्यान मे तल्लीन मुनि के कृश व मलीन तन पर जा टिकी। उसने घृणा से मुनि के शरीर पर थूक दिया। यक्ष ने देखा इस पापिनी ने मुनि का भयकर अपमान किया है। जरा इसे चमत्कार दिखाना चाहिए । उसने भद्रा के शरीर मे प्रवेश किया। प्रवेश करते ही भद्रा पागलो की भॉति प्रताप करने लगी। दासियो ने बडी कठिनता से उसे गजमहल मे पहुँचाया। तात्रिक व यात्रिको ने अनेक उपचार किये, पर सफलता प्राप्त नहीं हुई । राजा चिन्तित हो उठा। यक्ष ने प्रकट होकर कहा-इस कुमारी ने उग्र तपस्वी सन्त की Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाए हान् अवहेलना की है, यदि इसका पाणिग्रहण उसी मुनि के साथ किया गाय तो मैं इसे छोड सकता हूँ अन्यथा तुम चाहे कितने भी उपचार करो, सफलता प्राप्त नहीं होगी। राजा ने कुमारी को जीवित रखने की अभिनापा से यक्ष की बात स्वीकार की। विवाह के योग्य वस्त्रालकारो से सुसज्जित कर ओर विवाह की नमस्त सामग्री लेकर राजा यक्षायतन मे पहुंचा। मुनि को नमन कर प्रार्थना करने लगा-मह । मेरी कन्या को स्वीकार करे। मुनि ने कहा-मै श्रमण हूँ, श्रमण के सामने ऐमी अनुवित वाते नहीं केया करते । जिम मकान मे स्त्री रहती हो वहाँ पर मुनि नहीं रहते, फिर त्री के साथ पाणिगहण का प्रश्न ही कहाँ ? मुनि सदा मोक्ष के इच्छुक हे वे शाश्वत आनन्द चाहते है, वे स्त्रियो मे किस प्रकार आसक्त हो सकते है ? कन्या को मुनि के श्री चरणो मे छोडकर राजा उलटे पैर अपने महलो मे लौट गया। यक्ष रातभर विविध प्रकार के रूप बनाकर कन्या को उगता रहा । प्रभात हुआ। कन्या अपने पिता के पास पहुंची और रात की चीती घटना पिता को सुनाई। पुरोहित रुद्रदेव राजा के पास ही बैठा था। उसने कहा-गजन् । यह ऋपि-पत्नी है। ऋषि के द्वारा त्यक्त होने से यह महज ही ब्राह्मण की सम्पत्ति हो जाती है । अत आप इसे किसी ब्राह्मण को प्रदान कर दे। गजा ने वह कन्या उसे दे दी। पुरोहित ने एक विराट् यज्ञ का आयोजन किया। दूर-दूर के विद्वान उस यज्ञ मे आमन्त्रित किये गये । वढिया भोजन की तैयारी होने लगी। मुनि हरिकेशबल एक-एक मास का उग ता कर रहे थे। पारणे के लिए घूमते हुए उमी यज्ञ मण्डप मे जा पहुंचे। मुनि के विद्रुप रूप को देखकर जाति-मद मे उन्मत्त बने हुए वे ब्राह्मण खिल-खिलाकर हंस पडे । अरे । वह नाना-न लूटा नर-पिशाच कहाँ मे आ गया ? किस आगा से आया है ? दने शीत्र ही नहाँ से हटा दो। उन नागपो ती बहानी-करतून देलकर उन्हे प्रतियोत्र देने के निए तिन्दुर यद मुनि के शरीर में प्रवेश कर गया। उगन कहा - 'म अनार, नयमी, ब्रह्मवारी, परिगहन रहित ह। भिक्षा का समय है, या निक्षा प्राप्त करने के लिए यहा पर जाना है। आपके यहा तो इतना Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप पूत जीवन २७६ सारा भोजन बन रहा है और दिया जा रहा है, उसमे से कुछ भोजन मुझे भी दिया जाय । रुद्रदेव ने स्पष्ट इन्कार करते हुए कहा - यह भोजन तो ब्राह्मणो के लिए है, हम तुम्हे यह भोजन नही देगे । यक्ष ने कहा- किसान ऐसी भूमि मे बीज वपन करता है, जहाँ पर उसके पैदा होने की आशा होती है । मुझे दान दो तुम्हे अवश्य ही लाभ प्राप्त होगा । रुद्रदेव ने कहा- मुझे पता है वह स्थान कौनसा है ? ब्राह्मणो से बढकर कोई भी उत्तम क्षेत्र नही है । यक्ष ने कहा- जिनमे क्रोध की आँधी आ रही हो, मान के सर्प फूत्कारे मार रहे हो, माया और लोभ के बवण्डर उठ रहे हो, वे जाति से भले ही ब्राह्मण हो किन्तु गुणो से ब्राह्मण नही है । वे वेदो का सही अर्थ नही जानते है, वे पुण्य क्षेत्र नही है । रुद्रदेव ने कहा - भले ही यह अन्न-पान सडक र नष्ट हो जाये, किन्तु ब्राह्मणो का अवर्णवाद बोलने वाले, मै तुम्हे नही दूँगा । यक्ष ने कहा- मैं जितेन्द्रिय हूँ, समिति और गुप्ति से युक्त हूँ, निर्दोष आहार लेता हूँ, यदि तुम मुझे आहार प्रदान नही करोगे, तो इस विराट् यज्ञ का फल भी तुम्हे प्राप्त नही होगा । रुद्रदेव ने आपे से बाहर होकर कहा- छात्रो। इसे मार-पीटकर, गलहत्या देकर बाहर निकाल दो । आदेश प्राप्त होते ही छात्र मुनि को मारने के लिए आगे वढे । भद्रा ने देखा महान् अनर्थ होने जा रहा है। उसने उच्च स्वर से कहा- यह तो महान ऋषि है, इसने ही मेरा त्याग किया है । देवता के अभियोग से उत्प्रेरित होकर राजा ने मुझे इसे प्रदान किया किन्तु इस महामुनि ने मुझे मन से भी नही चाहा । इसकी अवहेलना मत करो । कही यह अपने दिव्य तेज से तुम्हे भस्म न करदे | यक्ष ने मुनि को मारने के लिए आये हुए युवको को भूमि पर गिरा दिया और उनको ऐसा मारा कि सारा शरीर लहू-लुहान हो गया, और रुधिर के वमन होने लगे । छात्रो की वह स्थिति देखकर रुद्रदेव भद्रा के साथ मुनि के चरणो Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ में गिर पड़ा भन्ते । अनजान मे हमने आपकी जो अवहेलना की है, हमे क्षमा करे | मुनि क्षमाशील होते हैं वे किसी पर भी क्रोध नही करते । यक्ष मुनि के शरीर से निकलकर अलग हो गया । मुनि ने मधुर मुस्कान विनेरते हुए कहा - मेरे अन्तर्मानस मे न पहले प्रक्रेप था, न अभी हे और न आगे भी रहेगा । किन्तु मेरी सेवा मे जो यक्ष हे उसी का यह चमत्कार है । भद्रा और रुद्रदेव के अत्यधिक स्नेह भरे आग्रह से मुनि ने आहार ग्रहण किया । सर्वत्र प्रसन्नता का वातावरण छा गया। जन-जन की जिह्वा पर ये बोल फूट रहे थे कि जाति से कोई महान नही होता, ये मुनि चाण्डाल 录 पुत्र है, पर इनके तप की महिमा और गरिमा तो देखो । साक्षात् देव भी इनके चरणो की उपासना करते है । रुद्रदेव की जिज्ञासा पर मुनि ने सच्चे यज्ञ के मर्म का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा-तप ज्योति है । जीव ज्योति स्थान है । मन, वचन आर की मप्रवृत्ति घी डालने की कछियाँ है । शरीर अग्नि जलाने के कण्डे है। कर्म ईंधन है । सयम की प्रवृत्ति शान्ति पाठ है, इस प्रकार प्रशस्त हिमक यज्ञ कर अपने जीवन को चमकाइए । मुनि के त जीवन से सभी के जीवन का नक्शा ही बदल गया । - उत्तराध्ययन १२ २८० * Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० मेरा कोई नहीं मालव प्रान्त मे सुदर्शनपुर नामक एक सुन्दर नगर था। मणिरथ वहाँ का राज्य सचालन करता था। उनका कनिष्ठ भ्राता युगवाहु था। उसकी पत्नी का नाम मदनरेखा था । मदनरेखा रूप मे अप्सरा से कम नही थी। मदनरेखा के रूप पर मुग्ध होकर मणिरथ ने कपट से युगवाहु को मार दिया। उस समय मदनरेखा गर्भवती थी। उसने भयकर जगल मे एक पुत्र को जन्म दिया। उस नवजात गिशु को मिथिला नरेश पद्मरथ अपने राजमहल मे गया और उस बालक का नाम 'नमि' रखा। राजा पद्मरथ धर्मनिष्ठ था। उसके अन्य कोई भी सन्तान नही थी अत नमि का वहुत ही स्नेह से पालन-पोपण किया। राजा पद्मरथ ने जव श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया तब 'नमि' मिथिला का राजा बना। एक वार राजा 'नमि' को भयकर दाह-ज्वर की पीडा हुई। छह मास तक घोर वेदना होती रही। उपचार होते रहे किन्तु कुछ भी लाभ नहीं हुआ। एक अनुभवी वैद्य आया। उसने शरीर पर चन्दन का लेप लगाने के लिए कहा । रानियाँ चन्दन घिसने लगी। उनके हाथो मे पहने हुए ककण वज रहे थे । वेदना से आकुल-व्याकुल राजा ककण की आवाज सहन न कर सका । उसने ककण उतारने को कहा । सभी रानियो ने सौभाग्य-चिह्न स्वरूप एक-एक करुण को छोडकर सभी ककण उतार दिये । कुछ समय के पश्चात् राजा ने मन्त्री से पूछा-"पहले ककण का २८१ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाए शब्द सुनाई दे रहा था, अब क्यों नहीं दे रहा है ? क्या अब चन्दन विमना दन्द हो गया है मन्त्री ने कहा--" स्वामिन् । ककणो के घर्पण का शब्द आपको नही सुहा रहा था । उस शब्द ध्वनि से आपको अपार कष्ट हो रहा था, जत आपकी शान्ति के लिए रानियो ने सोभाग्य चिह्न स्वरूप एक-एक करुण को रखकर शेप सभी ककण उतार दिये हैं । एक ककण से घर्षण नहीं होता, और घर्षण के विना शब्द कहाँ से हो ।" राजा के लिए यह घटना केवल घटना नही रही । प्रस्तुत घटना ने राजा की मनोगत बदल दी । वह चिन्तन करने लगा - जहाँ अनेक है, वहा संघर्ष है, दुख है, पीडा है । जहाँ पर एक है वहाँ पर शान्ति है, जहां शरीर, इन्द्रिय, मन और इनसे भी आगे धन एवं परिवार की बेतुकी भीड है वहा पर दुस है जहाँ केवल एक आत्मभाव है वहाँ पर सुख ही सुख है । राजा के अन्तर्मन में वैराग्य-भावना जागृत हुई, वह निर्ग्रन्थ मुनि हो गया । सारा राज्य वैभव ज्यो का त्यो छोडकर नगर के बाहर एकान्तयान्त स्थान में जाकर साधना के लिए खड़ा हो गया । अमराओ का मधुर नृत्य चल रहा था । शक्रेन्द्र उस नृत्य को देखने मे तीन था कि उसे ज्ञात हुआ कि नमि राजा यकायक मुनि वन गये हैयह त्याग उन्होंने भावुकतावश किया है या इसके पीछे चिन्तन है । ह् जानने के लिए स्वर्ग का राजा इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर नमि राजर्षि के पास आया और राजर्षि से कहा २८२ ܙܙܕ ―― 'हे राजपि । आज मिथिला के प्रासादो ओर गृहों में कोलाहा से परिपूर्ण दारण शब्द क्यो सुनाई दे रहे है " राजर्षि ने एक सुन्दर रूपक के माध्यम से कहा- "मथुरा मे एक नैत्य वृक्ष था, जो शीतल छाया वाला, मनोरम, पत्र, पुष्प एव फलों से युक्त आर बहुत पक्षियों के लिए उपकारक था ।" दिन प्रचण्ड आधी ने उस मनोरम वृदा को गिरा दिया। उसके गिर जाने से उसके नाति रहने वाले ये पक्षी, दुखी, शरण जार पीडित कन्दत कर रहे हैं।" ह यह वायु है। इन्द्र पुनह तत रहा है। भगवन् आप अपने रविवास की जोर 1 यह नापका मन्दिर नहीं देते " Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काई नही नमि राजर्षि ने अध्यात्म चिन्तन की गहराई मे डुबकी लगाते हुए कहा - "वे हम लोग है जिनके पास कुछ भी नही है, सुख पूर्वक रहते है, सुख पूर्वक जीते है | मिथिला जल रही है उसमे मेरा कुछ भी नही जल रहा है ।" पुण और स्त्रियो से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नही होती और अप्रिय भी नही होती । सव बन्धनो से मुक्त ‘मै अकेला हूं, मेरा कोई नही है ।' इन्द्र ने अनुभव किया मिथिला तो क्या राजपि शरीर, मन, इन्द्रिय, उनके विषय-भोग, भोह और अज्ञान इन सभी को पारकर ऐसी आध्यात्मिक दुनिया में पहुँच गये है जहाँ पर उनका कोई शत्रु नही है, सभी मित्र ही मित्र है । वह उनके आध्यात्मिक तेजस्वी जीवन से प्रभावित होकर उनके चरणो मे गिर पडा । उनकी प्रशसा के मधुर गीत गाता हुआ अपने स्थान लौट गया । - उत्तराध्ययन ६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ सत्यमेव जयते - - अमण भगवान महावीर का समवसरण एक बार राजगृह नगर के बाहर लगा हुआ था। भगवान के पीयूपवर्षी प्रवचन का पान करने के लिए रजाने भक्तगण पहुंचे थे। प्रवचन पूर्ण हुआ। श्रोतागण अपने-अपने स्थान ती मोर चल दिये । किन्तु एक चोर वही पर दुवक कर बैठा था । एक सन्त न पछा- 'मे बैठे हो भैया ?" आज का दिन धन्य है | आज मैने अपने जीवन मे सर्वप्रथम भगवान ती मगलमय वाणी मुनी । वाणी क्या है, मानो अनमोल रत्नो की ही वर्गा हो रही हो ।" मन्त ने कहा--"रन्नो की वी तो हुई, पर तुमने कितने रत्न ग्रहण किये ह 'पदि तुमने एकाध रन्न भी ग्रहण नहीं किया तो यह बहुम्त्य रत्नवर्षा तुम्हारे किम काम की।" चोर चिन्तन के मागर में इबकी लगाने लगा कि मुझे क्या लेना चाहि मे चोर ह । चोरी करना मेग धन्धा है। यदि म चोरी करना ही छोड ईनो मेग साग परिवार भग्व से छटपटाकर मार जायेगा । यदि मने चोग मा पापार्म नहीं छोड़ा तो फिर अन्य क्या छोडूं ? उसने अपनी ममन्या मन के मामने प्रस्तुत की। नन्न मनोविज्ञान का स्कम जाता था। वह मानव-मन को परखनेसीमा में निपात था। उसने कहा- भाई तुम चोरी न छोडो, अभी चोरी छोटने ना हमाग आगह भी नहीं है। तृमने पिने जीवन की मत्य पटना मुसने कही है। अपने जीवन की सबमे वही समजोरी को पिना किमी Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यमेव जयते २८५ सकोच के प्रकट किया है । अत मै चाहता हूँ कि तुम झूठ न बोलकर सदा सत्य वोला करो।" सन्त की जादूभरी वाणी से चोर इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसी समय प्रतिज्ञा ग्रहण की कि आज से मै कभी भी झूठ न बोलूंगा, सदा सत्य ही बोलूंगा। सन्त ने प्रतिज्ञा दिलाते हुए कहा-"प्रतिज्ञा तो ले रहे हो, प्रतिज्ञा लेना जितना सरल व सीधा है उतना प्रतिज्ञा को पालन करना कठिन है।" चोर ने दृढता के साथ कहा-"नही महाराज | मै सच्चे मन से प्रतिज्ञा ग्रहण कर रहा हूँ। प्राणो को त्याग करके भी प्रण को निभाऊँगा।" प्रतिज्ञा लेकर चोर घर पहुँचा । पर उसके कर्ण-कुहरो मे भगवान की वाणी गूंज रही थी। वह विचारने लगा कि अभी तो घर मे खाने-पीने की कोई कमी नहीं है फिर व्यर्थ ही चोरी कर दूसरो को कष्ट क्यो ढूँ। जव घर मे खाने को न रहेगा, तब ही चोरी की बात सोचूंगा। उसने अनेक दिनो तक चोरी नही की, जो पास मे था उसे खाता रहा। जब घर मे सभी वस्तुएँ समाप्त हो गई, तो वह चोरी के लिए निकला। उसके कदम अपने लक्ष्य की ओर पड रहे थे और साथ ही चिन्तन भी चल रहा था कि यदि किसी साधारण व्यक्ति के यहाँ चोरी करूँगा तो उसे कितनी कठिनाई होगी, वह कितने ही दिन तक रोता रहेगा, इसलिए चोरी ऐसे स्थान पर करनी चाहिए, जिससे उसके मालिक को चिन्ता न हो, वह शोक-सागर मे डुबकी न लगाये । अच्छा तो, आज राजा के यहाँ पर ही चोरी करे । उसके यहाँ तो विराट् वैभव अठखेलियाँ कर रहा है। वहाँ से यदि कुछ धन ले भी आया तो उसे किसी प्रकार का कष्ट नही होगा। ___ राजा के खजाने की चोरी करने के लिए मुझे पहले से तैयारी करनी पडेगी । यो ही चला गया तो निराशा देवी के ही दर्शन होगे। उसने गुप्त रूप से जाकर राजा के खजाने के तालो को देखा। उनकी चाबियाँ बनाई और एक रात सेठ का रूप बनाकर चावियो का गुच्छा लेकर वह खजाने की ओर चोरी करने के लिए चल पडा। उस दिन राजा श्रेणिक और महामन्त्री अभयकुमार अपनी प्रजा के सुख-दु ख की सही स्थिति जानने के लिए वेप परिवर्तन कर नगर की गलियो Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ मे घूम रहे थे। उन्हे सेठ बना हुआ चोर मामने मिल गया। राजा ने पूछा-"कौन ?" चोर के सामने प्रश्न क्या था, एक गम्भीर समस्या थी। उसे ममझते हुए देर न लगी कि प्रश्नकर्ता साधारण गक्ति नहीं किन्तु स्वय सम्राट और मन्त्री है। वह एक क्षण हिचकिचाया, पर दूसरे ही क्षण मंभल गया, उसने मन मे दृढ निश्चय किया कि सत्य ही बोलना है। राजा ने कडककर दुवाग पूछा--"बोलता क्यो नहीं, कौन है ?" "मै चोर हूँ।" "कहाँ जा रहा है ?" गजा ने दूसरा प्रश्न किया। "चोरी करने जा रहा हूँ।" नोर का उत्तर सुनकर राजा और मन्त्री मन मे विचारने लगे, व्यर्थ ही हमने एक राह चलते हुए व्यक्ति को टोका। चोर अपने को कभी भी अपने मुंह से चोर नही कहता । वह अपना परिचय सदा साहूकार के रूप मे ही देता है । यह चोर नही साहूकार है । वे मुस्कराते हुए बगल से निकल गये। सेठ बना हुआ चोर राजमहलो मे पहुँचा। पहरेदार खडे थे। उन्होंने पूछा-"कौन है ?" चोर ने बिना किसी हिचकिचाहट के वही उत्तर दिया-"चोर हूँ।" पहरेदारो ने सोचा-राजा और मन्त्री वेप परिवर्तन कर अभी बाहर गये है उन्होने किसी राज्य अधिकारी को भेजा है इसलिए वे मार्ग से हट गये । चोर ने खजाने का ताला खोला । अन्दर जाकर इधर-उधर देखा, वैभव विखरा पड़ा था। उसने चार वहुमूत्य जवाहरात के डिब्वे देते । मेरे जीवन निर्वाह के लिए दो डिब्बे ही पर्याप्त है। इन दो डिब्बो से तो मेरा सारा परिवार सुखी हो जायेगा और सदा के लिए चोरी जैसे निकृष्ट कार्य को छोडकर अपने जीवन को पवित्र बनाने का प्रयास करूंगा। उसने शीघ्र ही चार डिव्वो मे से दो डिब्बे बगल मे दवाये, खजाने का ताला बन्द कर, शीघ्र ही लौट गया। चोर ज्योही आगे बढा, त्योही सामने से राजा और मन्त्री आ गये। राजा ने पूछा-"कौन ?" "श्रीमान् | मैंने एक बार पूर्व भी बताया था कि मै चोर हूँ। अव आप ही बताइये कि और क्या परिचय दूं।" Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा--"अच्छा तो कहाँ पर गये थे ?" चोर--- "चोरी करने गया था।" राजा--"किसके यहाँ पर चोरी की ?" चोर-- "राज-खजाने मे गया था। यदि गरीब के यहाँ जाता तो उमे कितना कष्ट होता।" राजा-"राज-खजाने से क्या लाये हो ?" चोर--"सिर्फ जवाहरात के बहुमूल्य दो डिब्बे चुराकर लाया हूँ।" राजा ने और मन्त्री अभयकुमार ने सोचा यह मजाक कर रहा है, उन्होने हँसते-हँसते राजमहलो की ओर कदम बढा दिये और चोर ने अपने घर की ओर प्रभात की सुनहरी किरणे फूटी । खजाची ने ज्यो ही खजाना खोला तो उसे ज्ञात हुआ कि दो जवाहरात के डिब्बे कोई चुराकर ले गया है। खजाची विचारने लगा कि चोरी हुई है तो मुझे भी इस सुनहरे अवसर से लाभ उठाना चाहिए । जो दो डिव्वे शेप बचे थे वे उसने धीरे से अपने घर पहुँचा दिये । फिर राजा से निवेदन किया, राजन् ! आज रात को राज-खजाने मे चोरी हो गई है । जवाहरात के चार डिब्बे चोर चुराकर ले गया है। __राजा ने पहरेदारो को बुलाकर पूछा-चोरी कैसे हुई ? तुम पहरा दे रहे थे या नीद ले रहे थे। पहरेदारो ने कहा-राजन् । रात को एक सेठ आया था, हमने उससे पूछा कि तुम कौन हो, तो उसने अपने आपको चोर बतलाया। चोर कहने से हमने सोचा यह चोर नही आपके ही द्वारा प्रेषित कोई विशिष्ट अधिकारी है, हमारे पूछने पर नाराज होकर यह अपने आपको झूठ-मूठ चोर कह रहा है। ___राजा ने सोचा वह वस्तुत वहुत ही तेज-तर्रार निकला। वह साहूकार नही चोर ही था, पर साधारण चोर मे कभी भी इस प्रकार का साहस नही हो सकता । वह सत्यवादी है। राजा ने अपने प्रधानमन्त्री अभय से कहा-उस चोर का अवश्य ही पता लगाना चाहिए, यदि आज उपेक्षा की गई तो वह दिन भी दूर नहीं है जिम दिन खजाने मे मक्खियाँ भिनभनाने लगेगी। मन्त्री अभय ने चोर का पता लगाने के लिए राजगृह मे ढिढोरा पिटवाया कि जिसने गत मे राज-खजाने मे चोरी की हो वह राजसभा मे उपस्थित हो जाय। लोगो ने दिढोरा सुना। वे खिल-खिलाकर हँस पडे । एक-दूसरे से Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ कहने लगे कि ज्ञात होता है कि गजा पागल हो गया है । आज दिन तक न ऐसा कभी मुना है, न देखा है । कही पर इस तरह चोर पकडे गये है ? कोई भी कैसा भी चोर क्यो न हो, वह गजदरबार में आकर ऐसा कभी नहीं कह सकता कि मैं चोर हूँ। ढिंढोरा पीटता हुआ व्यक्ति आगे बढ़ रहा था। वह ज्यो ही चोर के द्वार पर पहुँचा । चोर ने ढिढोरा सुना, मन ही मन विचारने लगा, आज मेरे मत्यव्रत की कठोर परीक्षा है। पहले भी मैं इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ हूँ। सत्य की अपराजेय शक्ति के मैंने साक्षात दर्शन किये हे । अब मैं पीछे नही हट सकता। रात मे मैने अपना सही रूप राजा, मत्री ओर पहरेदारो के सामने रखा है । अव भी वही रूप सामने रखूगा। प्राण भले ही चले जायं, पर मैं सत्य को छोड नही सकता। उसने सिपाहियो से कहा-गत को राज-खजाने मे मैन चोरी की है। सिपाहियो ने उसे पकडकर राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने उसे पहचान लिया। राजा ने पूछा-"क्या तुमने राज-खजाने मे चोरी की थी" चोर-'राजन् मैं तो आपको रात मे ही स्पष्ट रूप से बता चुका हूं।' राजा--"स्पष्ट रूप से बताओ, तुमने रात को क्या चुराया ?" चोर-“गत को ही मैने बताया था कि मैने दो जवाहगत के डिब्बे चुराये है।" राजा-"किन्तु खजाने मे से चार डिव्ये गायब हो गये है।" चोर--"मैने तो दो डिब्बे चुराये है । शेप के सम्बन्ध में मुझे कुछ मी ज्ञात नहीं है । यदि मुझे झूठ ही बोलना होता तो स्वेच्छा से यहाँ पर नहीं आता और रात को भी आपके सामने मिथ्या बोलता। मैने एक बार भगवान महावीर की वाणी सूनी है और उससे प्रभावित होकर सत्य बोलने की प्रतिज्ञा ग्रहण की है जिसके कारण ही प्राणो की बाजी लगाकर के भी आपकी राज सभा मे उपस्थित हुआ है । सत्य ने ही मेरे मन मे बल पैदा किया है।" राजा के भय से कोपाध्यक्ष ने अपनी भूल स्वीकार की। राजा ने चोर की सत्यवादिता से प्रभावित होकर उसे कोपाध्यक्ष के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया। सत्य का मार्ग कठिन है, पर सत्य की सदा विजय होती है। Page #252 --------------------------------------------------------------------------  Page #253 --------------------------------------------------------------------------  Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्रमुनि : ए जैन तत्त्वविद्या के जाने-माने लेख का जन्म आज से ४२ वर्ष पूर्व वि० स था। नो वर्ष की आयु मे गुरुवर्य श्री ! मे भागवती दीक्षा ग्रहण की । सस्कृतआगमो के गहन अध्ययन-अनुशीलन मे आपकी प्रज्ञा विवेचना-प्रधान 41 मूलक है। किसी भी विषय पर लिखते । पहुचकर प्रमाण और तर्क के साय उसे प्री ' चार तीर्थकरो पर आपने चार विर शीलनात्मक ग्रन्थ लिखे है । कल्पसूत्र में व्याख्या प्रस्तुत की है । लघु-कथा, निवन्ध । व विचार-सुभापित पर भी लगभग २५-६ है। अब तक ४ दर्जन से अधिक पुस्तके प्र ___सरल एवं विनम्रचेता, सदा प्रसन्न स्वभाव के निर्मल आकर्पक व्यक्तित्व के धा। जन साहित्य के अनगी लेखको मे सर्वाधिव गोrier Arr. -~- . m 2 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ नगरी से बाहर उत्तरपूर्व दिशा में एक विशाल खाई थी। वह वडी गन्दी थी। उसका जल चर्वी, मांस, रक्त आदि से युक्त था । शव उस खाई में पडे रहते थे। कीडो-कृमियो से भरा हुआ वह पानी अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त तथा अमनोज्ञ था। देखते ही घृणा उत्पन्न होती तथा समीप जाते ही जी घवराने लगता। एक दिन राजा भोजन करने बैठा था। साथ मे और भी अनेक राजा तथा धनी व्यक्ति थे । भोजन कर लेने के उपरान्त राजा जितशत्र ने कहा "देवानुप्रियो । यह उत्तम अशन, पान है । उसका स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और वाणी सभी कुछ श्रेष्ठ है। इन्द्रियो तथा शरीर को सुख देने वाला है।" राजा की वात मे हाँ मे हाँ मिलाने वालो की इस ससार मे क्या कमी हो सकती है ? जितने भी उपस्थित जन थे उन सभी ने राजा की वात स्वीकार की। कोई बोला "अहा राजन् । आप जैसा कहते है वैसा ही है।" "अहा राजन् । इस भोजन-पान आदि का क्या कहना? यह तो अद्भुत है।" "इसके वर्ण, रस, गन्ध आदि अत्यन्त उत्तम है।" “आनन्द की सीमा है, राजन् । यह अशनपान अत्यन्त मनोज्ञ है।" सव ने हाँ मे हाँ मिलाई, और खूब मिलाई । राजा को प्रसन्न करने का अवसर कौन चूके ? किन्तु उस मण्डली मे एक ऐसा भी व्यक्ति था जो चुपचाप उस सारे वार्तालाप को सुन रहा था। वह कुछ भी बोला नही । वह व्यक्ति अन्य कोई नही, मन्त्री सुबुद्धि था। राजा ने जव मन्त्री को मौन देखा तो कहा"अरे मनिवर ! आप मौन है । कुछ कहते नहीं। यह मनोज्ञ अशन, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबुद्धि की बुद्धि ६५ पान, खादिम - स्वादिम आदि उत्तम वर्णादि से युक्त और समस्त इन्द्रियो तथा गात्र को आनन्द प्रदान करने वाला है ।" राजा ने अपने कथन को मन्त्री के सामने इस अभिप्राय से दुहराया कि वह इसका अनुमोदन करेगा | लेकिन मन्त्री तो मौन ही रहा । विवेकवान पुरुष केवल किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के उद्देश्य से ही कोई बात स्वीकार या अस्वीकार नही करते । वे जब कहते है तब सारपूर्ण बात ही कहते है । मन्त्री को अब भी मौन ही देखकर राजा को कुछ आश्चर्य हुआ । उसने अपनी बात फिर से दुहराई । किन्तु परिणाम वही - मौन | तब राजा को कुछ क्रोध आया। उसने तीसरी बार वही बात कुछ तीखे स्वरो मे कहकर मन्त्री से पूछा " तुम उत्तर क्यो नही देते सुबुद्धि ? मैं पूछ रहा हूँ और तुम बोलते नही । तुम्हारा जो भी विचार हो वह तुरन्त कहो ।” राजा का यह आदेश पाकर मन्त्री ने कहा " स्वामी । यह अशन-पान मनोज्ञ है, उत्तम है, इस विषय मे मुझे कोई विस्मय नही है । यह सब तो पुद्गलो से निर्मित है और पुद्गलो का स्वरूप परिवर्तनशील है । उत्तम एव शुभ रूप-रस- गन्ध वाले - पुद्गल भी कालक्रम से गन्दे और खराब हो सकते है तथा जो अशुभ और खराब हे वे भी उत्तम और शुभ हो सकते है । तत्व की बात तो यह है राजन् । कि सभी पुद्गलो मे प्रयोग ( जीव के प्रयत्न) तथा विजत्रा (स्वाभाविक रूप से) परिणमन होता रहता है ।" बात पते की थी । तात्विक थी । किन्तु वहाँ तत्व की बात सुनने कौन बैठा था ? राजा को तत्व नही सुनना था, केवल अपनी बात का अनुमोदन चाहिए था । जव मन्त्री ने उसकी बात का अनुमोदन नही किया, उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाई, तो वह उससे स्प्ट होकर अन्य लोगो से वातचीत करने लगा । मन्त्री के प्रति उसके मन मे उपेक्षा का भाव आ गया । मन्त्री भी यह देखकर शान्त भाव से अपना कार्य देखने के लिए उठ कर अन्यत्र चला गया । कुछ दिन व्यतीत हो गए। एक वार राजा अश्व पर सवार होकर घुमने निकला । साथ मे अनेक सैनिक थे तथा मन्त्री भी था । घूमते-घूमते Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं राजा उस खाई के समीप जा पहुँचा । उस गन्दे पानी की दुर्गन्ध से उमका माथा चकरा गया और कान-मुंह ढंककर वह वहाँ से भाग खडा हुआ। खाई से दूर जाने पर राजा बोला"उफ | कितना गन्दा, कसा दुर्गन्धिपूर्ण पानी है ?" राजा के मुँह से यह बात सुनते ही साथ वाले सभी लोगो ने उसकी वात का अनुमोदन करते हुए स्वीकृति मे सिर हिलाया। किन्तु अपने स्वभाव के अनुसार मन्त्री मौन ही रहा। राजा ने उसे मौन देखा, अपनी वात दुहराई और अनुमोदन की आशा की। किन्तु अनुमोदन नही मिला। दूसरे शब्दो मे, मन्त्री ने उसकी हाँ मे हाँ नही मिलाई। राजा ने कुपित होकर उत्तर देने का आदेश दिया तव मन्त्री ने कहा "राजन् ! इस खाई के पानी के अच्छा या बुरा होने के विषय मे मुझे कोई विस्मय नही है। यदि आपको स्मरण हो तो एक बार पहिले भी मेने आपसे कहा था कि शुभ और अच्छे रूप-रस-गन्ध वाले पुद्गल भी अशुभ रूप मे परिणत हो जाते है तथा जो अशुभ दिखाई देते है वे शुभ रूप मे । राजन् । मनुष्य के प्रयत्न से तथा स्वाभाविक रूप से पुद्गलो मे परिवर्तन होता ही रहता है।” फिर वही वात हुई । राजा को उपदेश नहीं सुनना था, अपनी बात का अनुमोदन ही चाहिए था । रुष्ट होकर वह बोला “मन्त्री | तुम केवल नाम के ही सुबुद्धि प्रतीत होते हो। स्वय को वडे बुद्धिमान मानकर दुराग्रह करते हो।" राजा ने कडवी बात कह दी, किन्तु मन्त्री शान्त रहा । उसने मन मे निश्चय किया कि यह तत्व को वात राजा को किसी दिन अन्य प्रकार से समझा दूंगा। घर आकर मन्त्री ने कुम्हार के यहाँ से कुछ नए घडे मॅगाए ओर उनमे खाई का वही गन्दा जल भरवा कर मँगवाया। उस जल को अच्छी तरह छानकर दूसरे घडो मे भरवाया और उनका मुंह वन्द करा कर मुहर लगवा दी। सात दिन और सात रात्रि के बाद जल को फिर से दूसरे घडो मे जनकर भरा गया और उसी प्रकार मुहर लगा दी गई। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबुद्धि को बुद्धि ६७ यह प्रक्रिया सात सप्ताह तक चलती रही । इस प्रक्रिया द्वारा वह पानी अन्त मे एक दम शुद्ध, स्वास्थ्यप्रद, सुगन्धित -- एक शब्द मे 'उदक रत्न' हो गया । तब मन्त्री ने उसमे कुछ और भी ऐसे द्रव्य मिलाए जिनसे वह पानी अमृत तुल्य ही हो गया । अव उस जल को लेकर मन्त्री राजा के महल मे गया और राजा के जलगृह के अधिकारी को वह जल राजा के उपयोग हेतु सौप दिया । राजा के भोजन का समय हुआ । उसने जब जल दिया तो बडा आनन्दित हुआ । ऐसा सुस्वादु, अमृत तुल्य जल आज कहाँ से आया ? उसे विस्मय हुआ । साथ के अन्य लोगो ने भी ऐसा उत्तम जल कभी पिया नही था । प्रशसा के पुल वध गए, झडियॉ लग गईं । राजा ने जलगृह के अधिकारी को बुलाकर पूछा"कहाँ से आया आज इतना उत्तम जल ?” 1 “स्वामी ' यह जल आज मुझे मन्त्रिवर ने लाकर दिया है ।" मन्त्री को बुलाया गया । उसके आने पर राजा ने कहा"अरे मन्त्री जी । इतना उत्तम जल कहाँ से ले आए ? यह तो अमृत है । प्रतिदिन तुम मुझे ऐसा जल पीने के लिए क्यो नही देते ?" मन्त्री ने सारी बात साफ-साफ कह दी । वोला - " स्वामी, यह जल तो उसी खाई का है । " राजा तो जैसे आसमान से गिर पडा । उसे अत्यन्त आश्चर्य वल्कि उसे मन्त्री की बात पर विश्वास ही नही हुआ । बोला 1 - ין हुआ I "तुम्हारा दिमाग घूम गया है, मन्त्रिवर । तुम कह क्या रहे हो ? होश मे तो हो ? कहाँ यह अमृत के समान जल और कहाँ वह उस खाई का निकृष्ट गन्दा पानी ? असम्भव है . मन्त्री ने कहा "असम्भव नही, सम्भव है, तथा सत्य है स्वामी | याद कीजिए, मैंने आपसे कहा था कि पुद्गलो का परिणमन होता है । मनुष्य के प्रयत्न से तथा स्वाभाविक रूप से भी । किन्तु आपने मेरी बात पर विचार नही किया था । इसी हेतु मैंने उन पानी को शुद्ध करके आपके समक्ष प्रस्तुत किया है ताकि आप तत्व को समझ सके । " Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं राजा को विश्वास नही हुआ । बात ही ऐसी थी। उसने परीक्षा कर स्वयं निर्णय करने की ठानी, सेवको को आदेश दिया। सेवको ने आना का पालन करते हुए वही प्रक्रिया दुहराई जैसी कि मन्त्री ने प्रयुक्त की थी। परिणाम भी वही हुआ। खाई का दुर्गन्धयुक्त, गन्दा जल अमृत के समान, उत्तम और स्वास्थ्यवर्धक हो गया। तब राजा जितशत्रु को मन्त्री की बात पर विश्वास हुआ। उसके तत्वज्ञान से वह प्रभावित हुआ । उसे बुलाकर कहा “मन्त्रिवर | तुम सचमुच जानी हो । यथा नाम तथा गुण हो । क्षमा चाहता हूँ। मुझे जिनवचन मुनाओ।" मन्त्री ने राजा को केवली-भापित धर्म के तत्व समझाए। जीवअजीव के भेद बताए । कर्म-वन्ध के कारण और निवारण के उपाय कहे । राजा जितशत्रु का आत्मलोक प्रकाशित हो उठा। केवली भगवन्तो द्वारा कहे गए धर्म को सुनकर उसका हृदय आनन्द से भर उठा। आत्मकल्याण का मार्ग उसे साफ-साफ दिखाई पड़ने लगा। उसने कहा-- ___ "मन्त्रिवर | तुमने मेरा बडा उपकार किया। मै निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। मैं पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाबतो को तुम से ग्रहण करना चाहता हूँ।" राजा ने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिए । जीव-अजीव का ज्ञाता हो गया। माधु-साध्वियो की सेवा करता हुआ वह जीवन-यापन करने लगा। लगभग बारह वर्ष पश्चात् चम्पा नगरी मे स्थविर मुनि का आगमन हुआ । उनके सदुपदेश मे प्रभावित होकर राजा ने अपने पुत्र अदीनशत्रु का राज्याभिषेक किया और मन्त्री महित दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षित होकर जितशत्रु मुनि ने ग्यारह अगो का अध्ययन किया। वों तक दीक्षा पर्याय पालन कर अन्त मे एक मास की सलेखना कर उन्होने मिद्धि प्राप्त की। सुबुद्वि मुनि ने भी ऐसा ही किया ओर मुक्त हुए । एक के सहारे मरा जीव भी ससार-सागर के पार उतर गया। --ज्ञाता० १११२ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ संयम-असंयम कोई व्यक्ति वडे परिश्रम से जीवन भर मे कुछ पूँजी इकट्ठी करे और फिर उसे एक ही दिन मे उडा दे, अथवा वर्षों की मेहनत के बाद कोई सुन्दर भवन बनाया जाय और जब वह बनकर तैयार हो जाय तब उसमे आग लगा दी जाय, तो ऐसे व्यक्ति को और इस प्रकार का कार्य करने वालो को क्या कहा जाय ? राजा पद्मनाभ ने बहुत वर्षों तक राज्य-सुख भोगा और फिर अन्त मे दीक्षा ग्रहण कर, वडे पुत्र पुण्डरीक को राज्य सौपकर विचरण करने लगा। छोटा राजकुमार कण्डरीक जीवन से विरक्त था। उसने भी कुछ समय पश्चात् दीक्षा ग्रहण कर ली। कण्डरीक अनगार ने तप किया, साधना की और सयम की बहुमूल्य पूंजी एकत्र की । सयोगवश एक वार उन्हे दाह ज्वर ने पकड लिया। किसी भी प्रकार इस ज्वर ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। सारे शरीर मे आग-सी लगी रहती । मुनि इस रोग से व्याकुल हो गए। रोग ग्रसित, व्याकुल मुनि विचरते-विचरते पुण्डरीक की राजधानी मे आ पहुँचे । उनके आगमन की सूचना पाकर और उन्हे रोग से पीडित देखकर बडे भाई ने उनका समुचित उपचार कराया। धीरे-धीरे रोग शान्त हो गया। _गेग तो शान्त हो गया किन्तु मुनि का मन विचलित हो गया । यह व्याधि, मन की यह फिसतन, उस शरीर की व्याधि से भी अधिक भयकर सिद्ध हुई। चिकित्सालय की सुख-सुविधाओ के कारण मुनि कण्डरीक का मन विषय-भोगो मे आसक्त हो गया। भीतर ही भीतर तृप्णा की आग से Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं जलने लगे। मुनि जीवन होने के कारण मुख से कुछ कह भी नही सकते थे और संयम उनसे हो नही रहा था। बडी दुविधा मे समय बीतने लगा। किन्तु सत्य तो छिपाए छिपता नही । भेद प्रकट होता ही है । रोग उपशान्त होने के बाद भी मुनि का वही जमे रहना तथा सयम मे शिथिलता वरतना पुण्डरीक को उचित नही जान पडा । उन्होने मुनि को मनोवैज्ञानिक रूप से, अप्रत्यक्ष तरीके से समझाने का प्रयत्न किया। मुनि के समक्ष उनकी प्रशंसा करते हुए वे बोले “महाराज ! आपका यह तपस्वी-जीवन धन्य है, आदर्श है। कठोर सयम का पालन करते हुए आप जनपद में विहार करते हे तथा जन-कल्याण मे रत रहते है । क्षुधा-तृषा आदि को सहन कर साधना-पथ पर अडिग होकर आगे ही आगे बढते जाते है। हम लोग तो विषय-वासनाओ के दास है, पामर है। वीरोचित जीवन तो आपका ही है कि किसी भी वस्तु से, किसी भी व्यक्ति से किसी स्थान से, आप कोई मोह नहीं रखते। आप परम सयमी है । हम जैसे असंयमी व्यक्ति तो इन व्रतो को एक दिन भी निभा नहीं सकते ।" पुण्डरीक द्वारा की गई अपनी इस प्रकार की प्रशसा सुनकर मुनि कण्डरीक मन ही मन जल कर रह गए। अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु उन्हे उस स्थान से विहार कर चले ही जाना पड़ा, यद्यपि उनका मन पीछे ही छूट गया, भोगो के कीचड मे लिप्त । साधु जीवन कठोर कंटको का मार्ग है। केवल वस्त्र वदल लेने से ही साधता नही आ जाती । सच्चे मन से जब समस्त सासारिक आकाक्षाओ को निर्मल कर दिया जाता है, जब संयम मे सुख का अनुभव होने लगता है, तभी सच्ची साधुता आती है। सुदीर्घ काल तक साधवेश मे रहने पर भी मुनि कण्डरीक का मन साधना मे रत नहीं हो सका। अब वे राज्य त्याग कर साधु बन जाने की अपनी भूल मानते ओर पछताते थे। उनका मन बार-बार विपय-भोगो को कामना करता था और उन्ही की ओर भागता था । अन्त मे जब उनसे नहीं रहा गया तो वे भाई पुण्डरीक की राजधानी मे लाट आए और साफ-साफ बोले भाई । में इस मुनि धर्म से उकता गया है। अव एक क्षण भी इसे स्वीकार करके में नहीं रह सकता । क्षमा कर, मेरी आत्मा भोग की इच्छुक Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयम-असयम ७१ है, योग की नहीं। मैं विवश हूँ ।” कहते-कहते उनकी आँखो से आँसुओ की धारा बह चली। पुण्डरीक नही चाहता था कि भाई अपने जीवन को नीचा गिरा ले और सारो मेहनत को व्यर्थ कर दे। उसने समझाने का यत्न किया, किन्तु कण्डरीक तो सयम-पालन मे अब अपने आपको बिलकुल असमर्थ पा रहे थे। यह स्थिति देखकर राजा पुण्डरीक ने अपनी आत्मा को टटोला । वह जाग पडी थी और संयम-पालन के लिए प्रस्तुत थी। उन्होने कण्डरीक को राज्य सौपा और स्वय दीक्षित होकर चल पडे । जीवन-भर भोगो मे लिप्त रहने वाली आत्मा क्षणभर मे चैतन्य होकर योगी बन गई। कण्डरीक अव राजा था। विषय-भोगो मे वह ऐसा लिप्त हुआ कि उसे अपने तन की भी कोई सुधि न रही। वह योग से भोग की ओर आकर उसमे आकण्ठ डूब गया। परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही उसे नाना प्रकार की व्याधियो ने ग्रस लिया। अन्त मे व्याधि-ग्रस्त विनष्ट शरीर को 'हायहाय' करता हुआ छोडकर वह आर्तध्यान वश प्राण त्याग कर सातवे नरक मे नैरयिक वना। एक भव्य भवन क्षणमात्र मे धूलि-धूसरित हो गया। एक साधक की वर्षों मे कमाई हुई सयम की पूंजी लुट गई । उधर पुण्डरीक मुनि ने अपने मन को पूरी तरह साध लिया था। जीवन की अन्तिम बेला मे वह राज्य से विरक्त होकर स्थविर मुनियो की सेवा मे गए, संयम व्रत अंगीकार किया, स्वाध्याय, ध्यान, तपस्या मे निरत रहे और अपनी आत्मा को उज्ज्वल से उज्ज्वलतर बनाते रहे। शरीर क्षीणधर्मा होता है । रूखा-सूखा आहार ग्रहण करते-करते मुनि का शरीर कृश तथा रुग्ण हो उठा। तीव्र वेदना उत्पन्न होने लगी। किन्तु वे धैर्यपूर्वक इस वेदना को भी सहते रहे । अन्तिम क्षणो मे आत्मालोचन करते हुए समाधिपूर्वक शुभ भावो से मरण प्राप्त कर वे सर्वार्थसिद्ध विमान मे उत्कृष्ट स्थिति वाले देव के रूप मे उत्पन्न हुए। सम्पूर्ण मन से की गई अल्प समय की सयम-साधना से भी पुण्डरीक को उत्कृष्ट न्विति की देवयोनि प्राप्त हुई। जबकि दीर्घकाल तक मुनि जीवन व्यतीत करने के पश्चात् भी तनिक-सी विपयासक्ति के कारण कण्डरीक का मारा परिचम एव साधना व्यर्थ हो ग और उसे नरकगामी वनना पड़ा। सयम-अमयम के ये दो छोर है। -ज्ञाता १११६ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दीप- शिखा वारात लेकर यदुकुलभूपण राजकुमार नेमि चले । राजकुमारी राजमती प्रतीक्षा की घडियाँ गिन रही थी । उल्लाम ओर आनन्द मन मे दवाए दबता नही था । चेहरे की सलज्ज स्मित के मिस फूटा पडता था । किन्तु कुछ अप्रत्याशित घटित होना था । बाजे-गाजे की मधुर-मगल ध्वनियों को चीरता हुआ कुछ पशुओ का करुण चीत्कार राजकुमार नेमि के कानो से जा टकराया । " इस समय यह चीत्कार कैसा ?” राजकुमार ने जानना चाहा । और जो कुछ राजकुमार ने जाना, उसे जानकर उनका जीवन सफल हो गया । कितने व्यक्ति है जो यह मर्म जान पाते है कि जीवन किसी प्राणी को पीडा देने मे नही, प्रेम देने में है ? उन मूक पशुओ की पीडा को राजकुमार नेमि ने जाना जिनका वध केवल इसलिए किया जाता था कि एक राजकुमार का विवाह होगा, कुछ लोग मास और मदिरा से अपनी रसना को तृप्त करेंगे । केवल इस हेतु हजारो निर्दोष पशुओं की निर्मम हत्या | आपकी जीभ का स्वाद ही सब कुछ हुआ, उन जीवो के प्राणो का कुछ भी मुल्य नही ? अनुचित है । जो अनुचित है, वह पाप है । राजकुमार नेमि ने विवाह करना तो दूर समार ही त्याग दिया । उमग-उल्लास भरी राजकुमारी राजमती सोचती ही रह गई - क्या हो गया यह ? अब आगे क्या ? ७२ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीप-शिखा किन्तु दीप-शिखा जल चुकी थी। उसके प्रकाश मे राजमती ने अपना मार्ग खोज लिया। हृदय से एक बार जिसे अपना पति मान लिया था, वही उसे मार्ग दिखा गया था। रथनेमि ने राजमती के साथ विवाह करना चाहा । उसकी वासना उद्दाम थी । पर राजमती कौन-सी रुई की पुतली थी कि जो चाहे वह उसे फूंक मार कर उडा ले जाय? उसने कहा "जुन खाइयेगा ? किसी का वमन किया हुआ पदार्थ ग्रहण कीजिएगा ? आपकी आत्मा क्या मर चुकी है ?" रथनेमि जाग पडा । मरी नही थी उसकी आत्मा, मूच्छित थी, मोहविमूच्छित । वह जाग उठी। रथनेमि श्रमण वन गया। दीप-शिखा जल चुकी थी न ? उसके प्रकाश मे खोजना चाहने वालो को अपना-अपना मार्ग मिल सकता था। एक वार राजमती भगवान नेमिनाथ के दर्शन कर गिरनार पर्वत से नीचे उतर रही थी। वर्षाकाल था। वर्षा हुई और उसके वस्त्र भीग गए। भीगे वस्त्रो को सुखा लेने के लिए वह पर्वत की एक कन्दरा मे प्रविष्ट हुई और वस्त्रो को सुखाने के लिए फैला दिया । सयोगवश श्रमण रथनेमि उसी कन्दरा मे ध्यान कर रहे थे । निर्वस्त्रा राजुल को देख उनका हृदय फिर डोल गया । वासना के वेग ने उनकी तपस्या के तट पर भीषण पछाडे खाना आरम्भ कर दिया "राजुल । राजमती । चलो संसार मे लौट चले। सुख पाएँ । यह सौन्दर्य, यह यौवन क्या इस नीरस तपस्या के लिए है ?" एक बार फिर राजमती ने डूबते हुए को उवारा "रथनेमि । असावधानी मत करो। अमृत-फल का त्याग कर फिर उसी घृणित जुठन मे मुंह मारना चाहते हो ? तुम मनुष्य हो अथवा • ?" इतना ही पर्याप्त हुआ। मनुष्य जाग पडा या ओर दीप-शिखा जल रही थी। -~-दशवकालिक-२ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ गुरु और शिष्य जो कुछ लिखा हुआ हो या गुरु द्वारा बताया गया हो, उसे केवल रट लेना ओर दुहरा देना ही वास्तविक पढाई नही है । सच्ची पढाई अथवा सच्ची शिक्षा तभी होती हे जवकि वह आचरण में उतर जाय । रामायण और महाभारत का नाम जानता है । कहानियाँ भी वह सुनता रहता है। लेकिन ऐसे उनके जीवन और चरित्र से सच्ची शिक्षा ग्रहण भारत का बच्चा राम ओर युधिष्ठिर की कितने बालक होंगे जो करते ह युधिष्ठिर की ही एक बात लीजिए कौरव और पाण्डव जब बालक ही थे तब उनकी शिक्षा के लिए गुरु द्रोणाचार्य को नियुक्त किया गया । उनके आश्रम में वे लोग रहते ओर पढ़ते ये । शस्त्र चलाना भी सीखते थे और शास्त्र भी पढ़ते थे । उसी समय की एक छोटी सी, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण घटना हैएक दिन गुरु द्रोणाचार्य ने पाठ याद करने के लिए दिया - "सदा सत्य बोलो । क्रोध न करो ।" पढाई का समय समाप्त हुआ । बालक खेलने-कूदने मे लग गए । किन्तु केवल एक बालक ऐसा था जो एकान्त मे बैठा कुछ सोच रहा था। वह बालकथा - युधिष्ठिर, पाण्डवों में सबसे बड़ा भाई । ओर वह सोच क्या रहा था? वह सोच रहा था-मदा मत्य बोलो - कितना कठिन पाठ है? यह पाठ कैसे याद होगा ? कभी झूठ बोलना ही नहीं है, चाहे कुछ भी हो जाय, हो, चाहे प्राण ही चले जायें, किन्तु मत्य हो बोलना है, झूठ नहीं बोलना है-गुरु जी ने कहा है- इस पाठ को अच्छी तरह याद कर लो । ७४ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ___ गुरु और शिष्य ७५ करना तो होगा ही। और यह भी याद करना होगा-क्रोध न करो। बालक इस पाठ को याद करने में मग्न हो गया। दूसरे दिन पढाई के समय द्रोणाचार्य ने पूछा"बच्चो ! तुम सबने कल का पाठ याद कर लिया ?" एक-एक कर सभी वालको ने उत्तर दिया "हाँ गुरुजी । याद कर लिया । बहुत सरल पाठ था कल तो-सदा सत्य बोलो, क्रोध न करो।" गुरु द्रोण प्रसन्न हुए। किन्तु उसी समय उनकी दृष्टि मौन । निश्चल बैठे युधिष्ठिर पर पडी । उन्होने पूछा "अरे युधिष्ठिर । तू कैसे चुप रह गया ? क्या तुझे पाठ याद नही हुआ रे?" युधिष्ठिर ने धीरे से अपना सिर ऊपर उठाया और बोला "हाँ गुरुवर्य ! मुझे कल का पाठ अभी याद नही हुआ । याद करने का प्रयत्न मैं अवश्य कर रहा हूँ।' गुरु द्रोण को क्रोध चढ आया । इतना जरा-सा, दो वाक्य का पाठ, और वह भी याद नही हुआ ? उन्होने आव देखा न ताव, उठाई एक छडी-और लगे युधिष्ठिर की मरम्मत करने, पूरी निर्दयता से । युधिष्ठिर का उत्तर सुनकर सारे बालक हँस पड़े थे । हंसने की बात ही थी, इतना छोटा-सा पाठ भी उसे याद नही हुआ था ? __ किन्तु जव द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर की पिटाई शुरू की तो ये सब बालक सन्न रह गये थे । दुर्योधन जैसे बालक तो सोच रहे थे कि यदि गुरुजी हमे इस प्रकार पीटते तो हम उल्टा सवक इन्हे ही सिखा देते, आखिर हम राजकुमार है, इस प्रकार क्या मार खाने के लिये है ? किन्तु वानक युधिष्ठिर शान्त भाव से मार खाता रहा । उसने 'उफ' तक न की । अन्त मे गुरुजी ही थककर बडबडाते चले गये-निकम्मा कही का । आलसी परले सिरे का, मूर्ख । दो वाक्य भो याद नही कर सका ? क्या पढाऊँ इसे-अपना सिर ? दो-चार दिन बीते । भीष्म पितामह वच्चो की देखभाल करने आए | गुरु द्रोण से उन्होने पूछा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं “बच्चे कैसा पढ़ रहे है ? सब ठीक तो चल रहा हे न आचार्यवर ।” "ओर तो सब ठीक है। किन्तु यह युधिष्ठिर वडा मूर्ख प्रतीत होता है । आज कितन दिन हो गये, दो वाक्य याद करने को दिये थे-सदा सत्य बोलो, क्रोध न करो-सो भी इसे याद नहीं हुए।"-द्रोण ने बताया । __ भीष्म ने युधिष्ठिर से पूछा तो उसने उत्तर दिया "वावा । अब मुझ आधा पाठ याद होगया है। गुरुजी ने कहा थाक्रोध न करो--वह मुझे अच्छी तरह याद हो गया। गुरुजी ने मुझे खुब पीटा, किन्तु मुझे तनिक भी क्रोध नही आया । किन्तु पाठ का प्रथम अशसदा सत्य बोलो-अभी मुझे ठीक याद नही हुआ । वावा । बताइये, मैं झूठ कैसे बोलू ?" युधिष्ठिर का यह उत्तर सुनकर भीष्म और द्रोण दोनो ने युधिष्ठिर को अपनी बाहो मे भर लिया । प्रतापी आचार्य द्रोण की आँखो मे ऑसू थे । वे बोले "अरे पुत्र । बेटा युधिष्ठिर । क्षमा कर मुझे । सच्चा सबक तो तूने हो मीखा है । मच्चा पाठ तो तूने ही याद किया हे रे ! ओर तुझे आधा नहीं, पूरा पाठ याद हो गया है । अहा । म धन्य है कि मुझे तेरा जैसा शिष्य मिला ह आर मेरी शिक्षा भी आज धन्य हुई कि किसी एक बालक ने तो उसे ग्रहण किया। शप ये सब निठल्ले ह, झूठे है।" गुरु द्रोण की आँखों में उस समय जो ऑसू ये वे हर्प के, सतोप के आर जीवन की चरम सार्थकता के अधु-विन्दु थे। शेप वालको ने जब यह सुना कि-"ये सब तो निठले है, झूठे ह. " तो उन सब के चेहरो पर स्याही-सी पुत गयी थी और वे मन ही मन ईप्या और क्रोध ने उफन रहे थे, जो इन बात का प्रमाण था कि उनमे से किमी को पाठ पाद नहीं हुआ था। युधिष्ठिर आचार्य के चरणों मे झुका पडा या आर आचार्य द्रोण का दाहिना हाथ उसके मन्नक पर आशीर्वाद की वर्षा कर रहा था । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनिष्टकारी आसक्ति किसी भी कर्म मे आसक्ति अच्छी नही है। बुरे कर्म मे आसक्ति तो बुरी है ही, किन्तु सत्कर्म मे भी यदि आसक्ति हो तो वह अहितकारी होती है। एक वार भगवान महावीर जब राजगृह नगरी के बाहर गुणशील उद्यान मे विराजे थे तव दर्दर नामक एक देव उनके दर्शन हेतु आया । वह देव वडा तेजस्वी था। उसे देखकर गणधर गौतम ने भगवान से प्रश्न किया “भगवन् । इस दर्दुर देव को यह अद्भुत तेज कैसे प्राप्त हुआ ?" भगवान ने बताया "गौतम । एक बार एक चतुर, समृदृ मणिकार मेरा उपदेश सुनकर सन्तुष्ट हुआ और श्रावक व्रत लेकर धर्म-साधना करने लगा। कुछ समय वाद वह असयत और आसक्त मनुप्यो के मसर्ग मे रहकर धर्म मे शिथिल हो गया। पहिले जैमी दृढता अव उमके आचरण मे और भावना मे नही रही थी। “ज्येष्ठ का महीना था। उस समय उसने तेला किया। तप करने वह पौपधशाला मे बैठ गया। किन्तु भयानक तृपा एव तीव्र क्षुधा से पीडित होकर वह समभाव न रख सका। वह सोचने लगा-तृपा बडी भयकर पीडा है । लोगो को इस तुपा से बचाने के लिए मैं राजगृह से बाहर एक Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं पुष्करिणी क्यो न बना दूँ ? उसका शीतल जल पीकर सभी जन शान्ति ओर सुख प्राप्त करेंगे । ७८ " अपने इस विचार के अनुसार उसने कार्य कर भी डाला । समर्थ था, समृद्ध था । कोई बाधा उसे थी नही । एक विशाल पुष्करिणी उसने तैयार कराई । उसके चारों ओर चार सघन वनखण्ड थे । पूर्व के वनखण्ड मे उसने चित्रशाला वनवाई | दक्षिण में पाठशाला, पश्चिम मे ओपधशाला और उत्तर मे अलकारशाला । इस प्रकार दूर-दूर के थके-मांदे यात्री आकर वहाँ विश्राम पाते । नन्द मणिकार के वे गुण गाते । घर-घर मे उसका यश फैल गया । “कुछ समय बाद वह मणिकार सोलह महारोगो से पीडित हुआ । अनेक प्रकार की चिकित्सा कराने पर भी वह स्वस्थ नहीं हुआ । उस समय रोगी रहने भी उसका मन अपनी पुष्करिणी में ही अटका रहता था, जिसने उसे लोगो की प्रशंसा का पात्र बना दिया था । पुष्करिणी के प्रति तीव्र आमक्ति के कारण वह मृत्यु को प्राप्त कर उसी पुष्करिणी मे मेढक (दर्दुर) बनकर उत्पन्न हुआ ! "लोग उसी प्रकार वहाँ आते-जाते रहते थे । नन्द मणिकार की प्रशना करते थे । वह उस प्रशमा को सुना करता ओर गंभीर विचार किया करना । होते-होते उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । अब उसे अपनी तीत्र आमति के कारण होने वाली इस दुर्दशा पर बडा पश्चात्ताप होने लगा । गोतम । कालान्तर में में एक बार फिर राजगृह आया । पुष्करिणी पर स्नान ध्यान करने, जल पीने ओर जल भरने, आने-जाने वाले लोगों से उस मेढक ने भी मेरे आगमन का समाचार सुना और वह मेरे दर्शन करने के लिए चल पडा । मार्ग में किसी घोड़े के पैर के नीचे कुचलने मे बह आहत हो गया । आगे न बढ सका। अत उनने वही से मुझे भक्तिपूर्वक वन्दन किया। उस नमय अपनी पूर्व की आसक्ति पर उसे बडा पश्चात्ताप था । . गौतम ! पश्चात्ताप ने दीप समाप्त होते हैं । मृत्यु के बाद वह मेटक ही नह तेजस्वी दर देव बना है ।" - ज्ञाना. १/१३ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ वे बलिदानी राजकुमार स्कन्दक बचपन से ही एक चपल और मेधावो वालक था । वडा होकर वह अवश्य कुछ ऐसे महान् कर्म करेगा कि जिन पर मानवता को गर्व हो सके, ऐसा विश्वास उस बालक को देखने पर सहज ही होता था। वह श्रावस्ती के राजा जितशत्नु का पुत्र था । राजा जितशत्रु का तेज उसमे भी अवतीर्ण हुआ था। उसकी एक वहिन पुरन्दरयशा कुम्भकारकटक के राजा दण्डकी को व्याहो गई थी। भाई-वहिन दोनो ही धर्म-प्रेमी और विचारवान थे। स्कन्दक जब युवक हो गया तव धर्म शास्त्रो का उसका ज्ञान इतना हो चुका था कि वह किसी भी पण्डित से धर्म-चर्चा कर सकता था। __ एक वार राजा दण्डक का पुरोहित पालक श्रावस्ती आया। अपने राजा के समान ही वह भी धर्म-द्वेपी और अहकारी था। राजा और पुरोहित दोनो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे, अथवा दुष्टता के एक ही सांचे मे ढले हुए थे। कोई किसी से कम न था। उनमे से दुष्टता और क्रूरता के मन्दर्भ मे कौन सेर है और कौन सवा सेर यह कहना भी कठिन था। पालक जव राजा जितशत्रु की राज्य सभा मे आया तो स्कन्दक के माथ उनकी धर्म-चर्चा छिड गई। अपने स्वभावानुसार पालक ने धर्म की निन्दा की । स्कन्दक ने धर्म की उत्तमता का प्रतिपादन किया और पालक के कुतकों का मुंहतोड उत्तर दिया। पालक पराजित हुआ । उसने अपने आपको अपमानित अनुभव किया अत चिढ़ गया। uc Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कयाएं उसने अपने मन मे गाँठ बाँध ली कि किसी दिन अवसर आने पर म्कन्दक से बदला अवश्य लूंगा । एक दुष्ट व्यक्ति का विचार इसके अतिरिक्त ओर हो भी क्या सकता था? समय का पक्षी उडता गया। एक बार स्कन्दक ने बीसवे तीर्थकर भगवान मुनि सुवतस्वामी का उपदेश मुनकर, वैराग्य से प्रेरित होकर अपने पाँच मो साथी कुमारो के माथ दीक्षा ग्रहण करली ओर मुनि बनकर विचरण करने लगा। विचरते-विचरते एक बार मुनि स्कन्दक ने कुम्भकारकटक की ओर विहार कर अपने ससार-जीवन के बहिन-बहिनोई को उपदेश देने का विचार किया । भगवान से अनुमति चाही। भगवान केवलज्ञानी थे । उन्होने कहा "म्कन्दक । कर्मों की गति को कोई नहीं रोक सकता। वहाँ तुम्हे भयकर उपमर्ग होगा । इतना भयकर कि तुम साधुओ के प्राण ही रो लेगा। मुनि स्कन्दक की नमो मे वीर क्षत्रिय रक्त प्रवाहित था। मरने से वे क्या उरते? फिर मुनि बन जाने के बाद तो उनके लिए जीवन आर मरण में कोई भेद ही नहीं था। मयम की आराधना ही एक मात उनका इाट था। वे बोले ___ "भगवन् । मृत्यु का तो कोई भय नही। किन्तु हम मयम के । आगधक तो होगे न ?" ___ "हाँ, तुम्हारे अतिरिक्त शेष मभी होगे।" म्फन्दक मुनि भगवान की आना लेकर चल पड़े। कुम्भकारकटक पहुँच कर नगर मे बाहर एक उद्यान में ठहर गए । ___पातक को सूचना मिली। उसने मोचा-शिकार म्वय ही बता आया है। अब अपने अपमान का बदला लंगा। अपने वैर को शात करगा। उपाय सोचा जाने लगा। उसकी दुष्ट बुद्धि मे एक उपाय न्श नी गना । चुपचाप उस उद्यान में उसने कुछ भयकर शस्त्र भूमि मे गटवा दिशा भार राजा के पास जाकर टोग करता हुआ बोला-- • राजन चेति । शीत्रता कीजिा । कन्दक आपका राय बचाने ने पिसने पात्र नौ चुने हा योद्वानो के माय नगर की मीमा पर आ पर्दचा है।" Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " क्या कहते हो, पुरोहित ? स्कन्दक तो ससार त्यागी मुनि है । उसने तो अपना ही राज्य त्याग दिया । भला मेरा राज्य वह क्यो हडपने लगा ? अवश्य तुम्हे भ्रम हुआ है ।" पालक अपनी जिद पर अड़ा रहा। उसने तो पड्यन्त्र रच लिया था । बोला | “महाराज | यह सन्यास और यह धर्म सब ढोग है | आइये मेरे साथ, मैं आपको सचाई के दर्शन कराता हूँ ।" राजा मान गया । पालक के साथ रात्रि के अन्धकार मे जाकर उसने वे शस्त्रास्त्र देखे जो स्वयं पालक ने छिपाए थे । मूढ राजा को पालक की बात पर विश्वास हो गया । उसने कहा - “तुमने मुझे बचा लिया, पुरोहित । तुम्हारी बुद्धि को धन्य है । अब तुम शीघ्रता करो | जैसे चाहो वैसे इन ढोगियो को दण्ड दो ।" दुष्टात्मा पालक को मनचाहा मिल गया । जल्लादो को लेकर और एक विशाल कोल्हू को साथ ले जाकर दूसरे दिन वह स्कन्दक से बोला “स्कन्दक | अब याद कर लो अपने परमात्मा को । पुकारो अपने धर्म को । मैं भी देखूं कौन तुम्हारी रक्षा करता है । मेरा अपमान किया था न ? अब भुगतो उसका परिणाम | ये जल्लाद देख रहे हो ? ये कोल्हू देख रहे हो ? एक-एक कर तुम्हारे पाँच मो शिष्यों को और तुम्हे इस कोल्हू मे पेलूंगा । मॉस के लोथडे चील - कौवो को खिला दूंगा । पुकारो पुकारो अपने धर्म को ?” स्कन्दक मुनि ने सारी परिस्थिति को देखा और समझा । भगवान के वचन उन्हे भूले नही थे - "वहाँ तुम्हे भयकर मारणातिक उपमर्ग होगा ।" किन्तु महासागर की भाँति वे शान्त थे । अभय थे । प्रेमपूर्ण वाणी मे उन्होंने कहा ------ "पालक | तुम भ्रम मे हो । न मैने कभी तुम्हारा अपमान किया था और न कोई अहित ही चाहा था । वह तो तुम्हारा वृथा जहकार ही था । आज भी तुम अज्ञानवश अपने कर्तव्य अकर्तव्य को जान नही रहे हो । ये Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ मुनि निरपराध है । इनका रक्त बहाकर तुम्हारा हित नही होगा । हिसा से किसी का हित होता ही नही । दुष्कर्मों का परिणाम भयकर होता है, पालक ।" I किन्तु पालक तो पागल हो रहा था । उसकी सुबुद्धि लोटी नही । क्रूर अट्टहास करता हुआ वह एक-एक मुनि को उठाकर कोल्हू में फेंकने लगा । पवित्र मुनियों के रक्त से धरती लाल हो चली। खून की नदी वह गई । हड्डियों का ढेर लगता चला गया । चील - कोवे मॉस के लोथडो पर मँडराने लगे । भावी अटल है । मुनि स्कन्दक धैर्य, साहस और शान्ति के सुमेरु वने रहे और अपने शिष्यों का मनोबल बढाते हुए, शान्तिपूर्वक मृत्यु के मुख में जाने से पूर्व उन्हे समाधिनिष्ठ बनाते रहे । कृतकर्मों की आलोचना, प्रत्यालोचना ओर मलेखना कर, जीवन के उच्चतम आदर्श पर आरूढ होकर वे धर्मवीर पवित्र मुनि एक-एक कर मृत्यु की बलिवेदी पर चढ़ते चले गए । चार मी निन्यानवे मुनि जीवित कोल्हू मे पेल दिए गए आर स्कन्दक अपने हृदय को अचल रखे शान्त भाव से देखते रहे । शेष था एक छोटा-सा साधु | बडा ही सुकुमार, विनीत, आज्ञाकारी, आचारनिष्ठ । उसे नी उम भयंकर मृत्यु की ओर जाते देख आचार्य स्कन्दक का हृदय भी हिन गया । सागर कभी अपनी मर्यादा नही तोडता । किन्तु वैर्य के महासागर स्कन्दक की मर्यादा अब टूट गई। उन्होंने कहा " पालक | अरे पापी । यदि अपमान ही किया था तो मैंने किया था। इस कोमल बालक माधु ने तेरा क्या बिगाडा था ? इसे तो छोड़ दे । जो कुछ चाहता हो, वह मेरे साथ कर ले | अब भी मान जा, अनि तुरी होती है । " तमाम हत्याकांड के बावजूद मुनि स्कन्दक को शान्त र अविनलिन देखकर पालक को सन्तुष्टि नहीं हो रही थी। अब जब उसने देखा कि जन्तिनान-मुनि की ओर स्कन्द का विशेष नाव है तो ह डाबडा प्रहुरता हुन Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे बलिदानी "यह शिष्य तुझे विशेष प्रिय है ? अच्छा हुआ | तेरी आँखो के सामने पहले इसे ही अच्छी तरह कोल्हू मे पेलता हूँ, फिर तेरी वारी आयेगी ।" वाल - मुनि प्रशान्त था । उसने कहा "गुरुदेव | आप विचलित न हो । मुझे तनिक भी क्षोभ नही । आप अपनी आराधना कीजिए । मेरा अन्तिम वन्दन ।” ८३ सव समाप्त हो गया । आचार्य स्कन्दक ने सीमा का अतिक्रमण करने वाले पालक से कहा"पापी । सावधान । तेरे पाप का घट भर गया है । अव परिणाम भुगतने के लिए प्रस्तुत रहना । मैं तुझे तेरे परिवार को, तेरे राजा को, तेरी सारी इस नगरी को भस्म कर दूँगा निष्ठुर पालक ने आचार्य को भी उठाकर कोल्हू मे पेल दिया । हरा-भरा वह उद्यान भयानक नर हत्या के परिणामस्वरूप भीपण श्मशान बन गया । एक गीध किसी मुनि के रक्तरजित रजोहरण को मास का पिण्ड समझकर उसे अपनी चोच मे दवाकर उड गया । भारी होने के कारण कुछ देर बाद उसकी चोच से छूटकर वह महारानी पुरन्दरयशा के महल मे गिर पडा । रानी ने वह रक्तरजित रजोहरण देखा और आशका से उसका हृदय धडक उठा । उसने तुरन्त मुनियो का कुशलक्षेम पुछ्वाया ओर जव उसे वस्तु स्थिति की सूचना मिली तव वह चीखती हुई मूच्छित होकर भूमि पर गिर पडी । .. ין किसी दयावान देवता ने यह देखा और रानी को उठाकर भगवान मुनिसुव्रत स्वामी जहाँ विहार करते थे वहाँ उसे रख दिया। रानी जव होश मे आई तव भगवान की अमृतवाणी सुनकर विरक्त होकर दीक्षित हो गई । आचार्य स्कन्दक अपने पूर्व सकल्पानुसार अग्निकुमार देव हुए । जपने ज्ञान से उन्होंने अपनी मृत्यु वा कारण देखा, पाँच सौ मुनियो की देह के टुकडे टुकडे देखे और वे विकराल रूप धर कर आए। कुम्नकारकटक का आकाश अग्निमय हो गया । देव ने कहा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं " पालक | अपने पाप का परिणाम भोग । अब तेरी रक्षा नही है ।" आकाश से अंगारे बरस पडे । सारी नगरी धू-धू कर जल उठी । एक भी जीवित प्राणी शेप न रहा । दृष्टि की सीमा तक केवल जली हुई भूमि और भस्म की ढेरी . 1 ८४ कहते हे वर्षों तक वह अग्नि वुझी नही और पुराणकारो की दृष्टि वही भूमि आज का दण्डकारण्य है जो अपने भीतर उस अविवेकी राजा दण्डक ओर पापी पालक की पाप-कथा समेटे शून्य मे सिसकता रहता है । उत्तराध्ययन — Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रकाश ही प्रकाश शुभ अध्यवसाय हो, और निरन्तर उनका विकास होता रहे तो कुछ भी असाध्य नही रहता। आर्या मृगावती का प्रसग है। कौशाम्बी मे भगवान महावीर का समवसरण लगा था। सभी भगवान के दर्शन हेतु गए थे । यहाँ तक कि सूर्य और चन्द्र भी । मृगावती भी गई थी। किन्तु सूर्य-चन्द्र भी चूंकि स्वस्थान पर उस समय नही थे, अतः समय का ठीक अनुमान नहीं हो सका। मृगावती को लौटने मे विलम्ब हो गया। उसे विलम्ब से आया देख आर्या चन्दना ने कहा- "तुम उत्तम कुल मे उत्पन्न हो। फिर भी लौटने मे तुमने इतना विलम्ब क्यो किया ? यह उचित नही। भूल-सुधार के लिए यह सामान्य संकेत था। किन्तु यही सकेत मृगावती के लिए वरदान बन गया। अपनी भूल के लिए उसने क्षमा माँगी तथा यह सकल्प व्यक्त किया-“भविष्य मे ऐसी भूल कदापि नहीं होगी।" उस समय कोई नही जानता था कि भविष्य, वल्कि निकट भविष्य के ही गर्न में क्या है ? स्वय मृगावती भी नही । आर्या चन्दना तो सो गई, किन्तु मृगावती को नीद कहाँ ? वह एकार होकर अपनी भूल का पश्चात्ताप कर रही थी। सोचती यो-“मुझसे Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं भूल हो गई। क्यो की मैंने ऐसी भूल ? मुझे अपने कार्य मे अप्रमत्त नही होना चाहिए ।" यही विचार शुद्धि करते-करते तथा एकाग्रता से मृगावती के शुभ अध्यवसायो की परिणति वढती रही । वढते-बढते सर्वोच्च बिन्दु पर पहुँचते ही मृगावती को दुर्लभ, विशुद्ध केवलज्ञान प्राप्त हो गया । मृगावती का मन-मस्तिष्क - हृदय पूर्ण ज्ञान के प्रकाश का स्रोत बन गया । विश्व का कोई पदार्थ, कोई काल अव इससे अजाना न रहा । रात्रि थी। बाहर सृष्टि मे घनघोर अन्धकार व्याप्त था। हाथ को हाथ न सूझे ऐसा निविड अन्धकार । उस समय उस अन्धेरे मे एक सर्प उवर आ गया । केवलज्ञान के प्रकाश से सृष्टि की सभी वस्तुओं को हस्तामलकवत् देखने वाली मृगावती ने उसे देखा और धीरे से आर्या चन्दना का हाथ उठा कर सर्प को निकल जाने दिया । चन्दना की नीद खुल गई । आश्चर्य हुआ उसे-मृगावती क्यो जाग रही है ? क्यो उसने उसका हाथ उठाया ? पूछा " तुमने मेरा हाथ ऊपर क्यो उठाया ?” मृगावती ने कहा " सर्प था । उसे धीरे से निकल जाने दिया ।" चन्दना को और भी आश्चर्य हुआ । उसने पूछा - " किन्तु तुम्हे इस घोर अन्धकार में सर्प दिखाई कैसे दिया ? उसका बोध तुम्हे हुआ कैसे ?” मृगावती ने नम्र, शान्त स्वर मे उत्तर दिया "अब मेरे लिए अन्धकार कही शेष नही रहा । सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है । केवल प्रकाश - शुद्ध, अखण्ड, अनन्त ।” आर्या चन्दना एकटक मृगावती को देखती रही । सत्य को उन्होंने जान लिया । 1 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ देवताओं ने क्या देखा ? देवता सुन्दर होते है । किन्नर भी सुनते है कि सुन्दर होते है | आइये, जरा देखे कि मनुष्य भी सुन्दर होते है क्या ? और यह भी देखे कि कौनसे मनुष्य सुन्दर होते है ? क्योकि यदि यह न देखा, तो फिर देखा ही क्या ? सनत्कुमार चक्रवर्ती थे । राज्य से भी, और अपनी देह की असामान्य सुषमा से भी । उनका रूप भी चक्रवर्ती था । राज्य के प्रसंग मे जैसे उनके सामने कोई अन्य राजा नही था, उसी प्रकार सौदर्य के प्रसंग मे भी वे अद्वितीय थे । साक्षात् कामदेव भी, जो कि सौदर्य के देवता है, उनके सामने पानी भरे, ऐसा था चक्रवर्ती सनत्कुमार का रूप । देवो के राजा इन्द्र यह जानते थे । किसी प्रसंग मे उन्होने अपनी सभा मे कहा "धन्य है यह भारत भूमि | आज तक जैसा रूप पृथ्वी पर कभी देखा नहीं गया, वैसा रूप है वहाँ के चक्रवर्ती सनत्कुमार का । देवताओ । जहाँ तक सादर्य का प्रश्न है, सनत्कुमार देवो का भी देव है ।" अन्य देवता तो कुछ न बोले, किन्तु विजय और वैजयन्त देवो से एक मनुष्य के सोदर्य की यह प्रशसा सही न गई। उन्हें ईर्ष्या हुई । वोले"देवराज | हमे सराय है । परीक्षा करने की अनुमति चाहते हैं ।" ८७ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं अनुमति मिल गई। दो वृद्ध ब्राह्मणो का रूप धर कर वे पहुंचे हस्तिनापुर, चक्रवर्ती की राजधानी मे । वे जव महल मे पहुँचे तव चक्रवर्ती स्नान कर रहे थे। द्वारपाल ने पूछा “कहिए विप्रवर । कैसे पधारना हुआ ?” "चक्रवर्ती के दर्शन हेतु ।' "कुछ प्रतीक्षा करे । अभी चक्रवर्ती स्नान कर रहे हैं !" "भाई, हम वृद्ध है। हमारी सॉस का क्या ठिकाना ? किस क्षण बुलावा आ जाय, कौन जानता है ? दूर से चलकर आए है। मरने से पहले एक बार चक्रवर्ती के दर्शन पा लेने की साध है । कृपा करो।” द्वारपाल ने चक्रवर्ती से आज्ञा प्राप्त करली। विप्र-वेशधारी देव पहुँचे चक्रवर्ती के समक्ष । उबटन लगाकर वे स्नान को चले ही थे। पूछा "कहिए विप्रवर । क्या आज्ञा है ?" "अहा आज जीवन धन्य हुआ। आपके रूप की प्रशंसा सुनी थी। देखने को आँखे तरस रही थी। आज आँखे भी ठण्डी हुईं। हृदय भी शीतल हुआ ।" चक्रवर्ती प्रसन्न हुए। अपने रूप की ऐसी प्रशसा सुनकर कोन प्रसन्न न होगा? होगा कोई मुनि जो न हो, चक्रवर्ती तो मुनि नही थे। कुछ गर्व से वे बोले “विप्रदेव । अभी क्या देखा, कुछ समय बाद जब वस्त्राभूपणो से सजधज कर राजसभा मे आऊँ तब देखना।" ब्राह्मण लौट गए। राजसभा मे चक्रवर्ती का सजाधजा रूप देखते ही बनता था। उनकी देह की कान्ति पर नेत्र ठहरते ही नही थे । चक्रवर्ती ने एक दृष्टि स्वय अपने ही शरीर पर डालते हुए ब्राह्मणो से पूछा “अब कहिए, महाराज | है न कोई रूप? कभी देखा या ऐसा रूप?" किन्तु चक्रवर्ती को वह उत्तर नही मिला जिसकी उन्हे आशा थी। उत्तर जो मिला वह था Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवताओ ने क्या देखा? “महाराज । वह वात नहीं रही अव । इसमे सहजता नहीं रही। आडम्बर आ गया है । आपका वह सोदर्य सहज, निराडम्बर था। काया नीरोग थी। अब वह वात नही रही।" "क्यो, विप्रवर । अव उस काया को क्या हो गया ?" "रोगो ने घर वना लिया है। महाराज । आपकी देह मे अब अनेक व्याधियाँ प्रविष्ट हो चुकी है।" "प्रमाण ?" "ब्राह्मण झूठ नहीं बोलते। हाथ कंगन को आरसी क्या ? अपने थूक की परीक्षा तो कर देखिए जरा।" सचमुच चक्रवर्ती के थूक मे दुर्गन्धि थी। रोग के कीटाणु थे। चक्रवर्ती सनत्कुमार के जीवन मे एक मोड आ गया। उस मोड पर खडे होकर उन्होंने पीछे देखा-नश्वरता । निस्सारता। अनित्यता । रोग, शोक और दुख । उस मोड पर खडे होकर उन्होने आगे देखा-वैराग्य । साधना । आत्मा का अमरलोक । देवता अपने वास्तविक रूप मे प्रकट होकर अपने द्वारा ली गई परीक्षा की बात बताकर अन्तर्ध्यान हो गए। और सनत्कुमार भी फिर पीछे नही लौटे। उस मोड से वे आगे बढ गए । आगे वढते ही चले गए। अपना चक्रवर्तित्व क्षण भर मे ठुकराकर वे मुनि बन गए। उनके शरीर पर भयानक कुप्ठ रोग ने आक्रमण कर दिया। किन्तु सामान्य जन के लिए असह्य पीड़ा को भी शान्ति और सद्भाव से सहन करते हुए वे अपनी तपस्या और आत्म साधना मे रत रहे । अनेको प्रकार की लब्धियाँ और मिद्धियाँ उन्हे प्राप्त हुई। किन्तु वे सभी से तटस्थ थे। न रोग से चिन्ता, न सिद्धि का अहंकार । उनका धैर्य हिमालय की भॉति अचल और अडिग था। देवो के राजा इन्द्र यह वात नी जानते थे। आर जव किसी प्रसग मे उन्होंने मुनि सनत्कुमार के जडिग धैर्य की प्रशसा की तव वे ही दोनो देव फिर से उनको परीक्षा लेने को उद्यत हुए । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं इस बार वे वैद्य का रूप वैनाकर आए । उन्होने मुनि के समीप जाकर उनसे अपने रोग का उपचार करा लेने की बहुत अनुनय-विनय की और कहा ६० "केवल एक वार हमारी औषधि का प्रयोग कर लीजिए। आप रोगमुक्त हो जायँगे ।" किन्तु मुनि तो समभाव मे स्थित थे । उन्हें रोग की कोई चिन्ता ही नही थी । चिन्ता तो दूर, उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था । बार-बार वैद्यी के आग्रह करने पर मुनि ने पूछा रोगो की औषध ही जानते है, अथवा कर्म रोग " आप शरीर के की भी ?" प्रश्न विचित्र था और उत्तर भी एक ही था - " शरीर के रोग ही दूर किए जा सकते है । कर्म रोग का इलाज तो हमारे पास नही है ।" तब मुनि मुस्कराए। उन्होने अपनी एक अंगुली पर थूका । वह अँगुली कचनवर्णी होकर चमक उठी । यह प्रयोग देह पर और भी जहाँ-जहाँ किया गया, वही वही काया नीरोग हो उठी । यह देखकर देवो को जो आश्चर्य हुआ उसका शमन करने हेतु मुनि ने कहा " शरीर की व्याधियों का उपचार तो मेरे पास भी है । वैद्यराझ । लेकिन मुझे तो इस शरीर से कोई प्रयोजन है नही । इसके रोगी या नीरोग रहने से मुझे कोई बाधा नही है । मुझे तो अपनी आत्मा पर चढे कर्म - रज की मलीनता को दूर करना है । शरीर के सौदर्य को बहुत देखा, अव तो आत्मा के सौदर्य को देखना है ין इस अद्भुत मुनि को प्रणाम कर देव अपने लोक मे चले गए । देवेन्द्र को उन्होने कहा— "प्रभु | आप ठीक हो कहते थे । सनत्कुमार 1 मे दूसरा नहीं है । " जैसा सुन्दर पुरुष सृष्टि - उत्तराध्ययन सूत्र Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दया के सागर “यह विप है, वत्स | इसे किसी ऐसे स्थान पर डालना जहाँ कोई प्राणी इसे खाकर मृत्यु को प्राप्त न हो। किसी जीव को कष्ट न हो।" गुरु ने आदेश दिया था। मुनि ने अनेक एकान्त स्थानो पर जाकर ऐसे किसी स्थान की खोज की। किन्तु ऐसा तो कोई स्थान मिला नही। एक ही ऐसा स्थान थास्वयं का उदर; जहाँ उस विप को रख लेने से किसी जीव को कष्ट न होता। और मुनि ने वह भयानक विप अपने ही उदर मे रख लिया। कौन थे वे करुणामति मुनि ? वात वहुत पुरानी है। एक नगरी थी चम्पा। सोमदेव, सोममूर्ति ओर मोमदत्त नामक तीन ब्राह्मण वन्धु वहाँ निवास करते थे और उनकी पत्नियाँ थी-नागश्री, यज्ञश्री और भूतश्री। मिल-जुलकर घर का काम करती थी। जीवन की गाडी चल रही थी। एक दिन नागधी भोजन बना रही थी। उसने लोको का साग बनाया । वडे परिश्रम से खुब मिर्च-मसाले डाले ताकि साग स्वादिष्ट बने और नव प्रसन्न हो । किन्तु साग वन जाने पर जव परीक्षा के लिए नागश्री ने उसे जरासा चखा, तव उसने पाया कि दुर्भाग्यवश वह तुम्बी तो कडवी थी। सारा साग एकदम कडवा हो गया या-विप बन गया था। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कयाएं नागधी ने उस साग को अलग हटा दिया ओर झटपट दूसरा साग बनाकर समय पर सबको भोजन करा दिया। कडवे साग को बाद मे कही फेंक दूंगी, ऐसा विचार उसने कर लिया था। संयोग से उस समय उम नगरी में आचार्य धर्मघोप अपने शिष्यसमुदाय सहित पधारे हुए थे। उनके एक शिष्य धर्मरुचि भिक्षा हेतु नगर में निकले और नागधी के द्वार पर जा पहुँचे । उस आलमी स्त्री ने सोचा कि चलो, झंझट मिटी । कोन इस साग को कही फंकने जाता? यह मुनि स्वयं ही चले आए है तो इन्ही को यह साग दिए देती हूँ । एक पंथ दो काज सहज ही हो गए। मुनि ने पात्र वढाया। नागथी ने सारा ही साग उस पात्र मे उँडेल दिया । मना करने का अवकाश ही उसने नही छोडः । सरल मुनि ने देखा कि उतना साग ही क्षुधापूर्ति के लिए पर्याप्त है। अत उन्होने और किसी घर से कोई भिक्षा न ली और लौट गए। आचार्य के समक्ष जव वह साग मुनि धर्मरुचि ने रखा तो ज्ञानी गुरु ने जान लिया कि वह साग विपाक्त हो चुका है। शान्त भाव से उन्होने कहा "वत्स । यह विप है । इसे किसी ऐसे स्थान पर डाल आओ, जहाँ कोई जीव इसे खा न सके, किसी जीव को कष्ट न हो।" मुनि धर्मरुचि ऐसे किसी स्थान को खोज मे चले । एक एकान्त स्थान खोजकर उन्होने उस साग का एक बिन्दु परीक्षा हेतु भूमि पर गिराया । किन्तु उन्होंने देखा कि कुछ ही क्षणो मे उस साग की गन्ध पाकर सैकडो चीटियाँ वहाँ आ गईं और उसे खाकर तत्क्षण तडप-तडप कर मर गई। मुनि का हृदय करुणा से भर आया। उन्होंने सोचा कि ऐसा तो कोई स्थान है नही जहाँ मैं इस साग को डाल दूं आर कोई भी जीव उसे खा न पाये । तव क्या करूं ? किसो मी स्थान पर यदि मैने इसे डाल दिया तो हजारो चीटियो की हत्या हो जायगी। वे बेचारी अवोध चीटियाँ इस साग को खाकर कप्ट पायेगी और मृत्यु को प्राप्त करेंगी। __सोचते-सोचते मुनि को एक ही उपाय सूझा। उन्होंने वह साग स्वय ही खा लिया। वे जानते थे कि यह भयकर विप ह। इसे खाकर उन्हें Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया के सागर ६३ भीपण वेदना होगी और निश्चित रूप से मृत्यु भी होगी। किन्तु अपनी वेदना ओर मृत्यु की चिन्ता उन्होने नही की । चिन्ता उन्हें केवल चीटियो की थी। उनकी पोडा और प्राणो की थी । उन्हे मुनिवर ने बचा लिया । परिणाम जो होना था वही हुआ । शीघ्र ही मुनि का शरीर नीला पड गया, भयानक वेदना से ऐठने लगा, पीडा की कोई सीमा नही थी । किन्तु दया और करुणा की मूर्ति धर्मरुचि अनगार की आत्मा शान्त और स्थिर थी । उनके हृदय में करुणा का समुद्र लहरा रहा था । अपनी आसन्न मृत्यु को देखकर उन महामुनि ने अनशन धारण किया, आत्मालोचना की, समस्त कपायो का उपशमन कर समाधि ग्रहण की और शरीर का त्याग कर दिया । मंसार के समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री और करुणा की भावना लिए वे ऊपर अपने आत्मलोक को चल पडे । -ज्ञाताधर्मकथा - १।१६ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ मैं हूँ, और मेरी आत्मा है । प्राचीन काल मे, जवकि भारतवर्ष सोने की चिडिया कहलाता था, पर शासन करने वाला श्रेणिक जैसा क्या अभाव हो सकता था ? उसकी मगध जैसा विशाल राज्य और उस शक्तिशाली सम्राट 1 उस सम्राट को शक्ति की क्या सीमा हो सकती थी ? को किन्तु एक वार ऐसी घटना भी घटी कि वह सम्राट् श्रेणिक भी स्वय तुच्छ और असहाय अनुभव करने लगा । हुआ यह कि एक वार सम्राट् श्रेणिक वायु सेवन करता हुआ अपने अश्व पर सवार होकर अपनी राजधानी राजगृही से बाहर निकल पडा । घूमता - घामता वह 'मण्डित कुक्षि' नामक एक सुन्दर और विशाल उद्यान मे जा पहुँचा । वह उद्यान प्रकृति की शोभा का एक शानदार और भव्य नमुना था । मैकडो प्रकार के वृक्ष हरे-भरे और पुष्पो तथा फलो से लदे हुए शीतल पवन से अठखेलियाँ कर रहे थे । पुष्पो पर भ्रमर मतवाले होकर टूटे पड रहे थे और वीसियो प्रकार के पक्षी कलरव करते हुए इधर से उधर उड रहे थे । वातावरण ऐसा था कि मनुष्य वहाँ पहुँच कर अपना भान ही भूल जाय और योगियो की ध्यान-साधना भी भंग हो जाय । किन्तु उसी उद्यान मे, उसी वातावरण मे एक बाल- योगी किसी वृक्ष के नीचे आसन लगाए ध्यानस्थ बैठा था और अपनी आत्मा के ससार मे इवा हुआ सारी सृष्टि के व्यापारो के प्रति उपेक्षा का भाव धारण किए था । ६४ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं हूँ, और मेरी आत्मा है । अपने विशाल साम्राज्य, अपनी असीम शक्ति और अपने अटूट ऐश्वर्य का विचार करता और परम आनन्द के अनुभव मे डूबा हुआ सम्राट् श्रेणिक टहलता - टहलता उसी स्थान पर आ पहुँचा । उस वाल - योगी को देखकर सम्राट् को वडा अचम्भा सा लगा। वह सोचने लगा- इस तरुण आयु मे यह योगी कैसा ? और योगी भी कोई सामान्य नहीं, अद्भुत तेज ओर महिमा से मण्डित । ललाट विशाल, मुख गौर, नासिका के अग्रभाग पर स्मित, नेत्र भी विशाल और तेजोमय, सारा शरीर कान्तिवान । सम्राट् उस योगी को देखता ही रह गया । उसके मस्तिष्क मे एक सन्देह भी उत्पन्न हुआ कि यह कोई मानव योगी ही है अथवा कोई देवकुमार ? सम्राट् इसी पशोपेश मे पडा था कि योगी की समाधि टूटी । उसने सम्राट् को देखा और एक दिव्य मुस्कान उसके अधरो पर खेल गई । सम्राट् अपने कुतुहल को रोक न सका । उसने पूछा- "मुनिवर | आपको देखकर विम्मित हूँ । इस आयु मे आपका यह वेश? यह आयु तो मसार के सुखो का भोग करने की है। भला ऐसी आयु मे आपको यह योग कैसे आ गया ? अनुचित न समझे तो बताने की कृपा करे ।" योगी उमा मन्द, मधुर मुस्कान के साथ बोला 1 " श्रीमन् | इसमे आश्चर्य की क्या वात ? यही समझ लीजिए कि मैं असहाय था, अनाथ था, निरपाय था, वम इसीलिए भिक्षु बन गया । " सम्राट् को योगी का उत्तर तो युक्ति-सगत लगा कि एक असहाय, अनाथ, निरुपाय व्यक्ति यदि भिक्षु न वन जाय तो और भला क्या करे ? किन्तु इस उत्तर से उसे कहो अपने हृदय के भीतर एक चोट भी लगी । उसने सोचा -- मे मगध साम्राज्य का सर्वशक्तिमान अधीश्वर, और मेरे ही राज्य मे कोई इन प्रकार अनाथ, असहाय हो ? यह तो मेरे लिए ही लज्जा को बात हुई । यदि मैं अपनी प्रजा का सहायक न वन सका, अनाथों का नाथ न वन सका तो फिर मैं राजा कैसा ? श्रेणिक को कर्तब्य बोध हुआ । वह तुरन्त बोला - Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं “योगी | मेरे रहते कोई अनाय नहीं होगा। यदि तुम्हे इसी कारण भिक्षु बनना पडा है तो अब छोडो यह जीवन ओर चलो मेरे साथ । आज से मै तुम्हारा नाथ वनता हूँ। मै ममर्थ हूँ।" योगी फिर मुस्कराया । इस वार उसकी मुस्कराहट और भी गम्भीर थी। उसमे गूढ अर्थ भी निहित था। सम्राट् ने योगी को केवल मौन रहकर मुस्कराते देखा तो पूछा"क्यो योगी । क्या मेरी बात पर विश्वास नही होता ?" "हाँ, श्रीमान् । विश्वास नहीं होता।" 'क्यो ?" "इसलिए, कि मैं सोचता हूँ कि जो स्वय ही अनाथ है, वह दूसरो का नाथ कैसे हो सकता है ?" योगी की यह स्पष्टोक्ति सुनकर राजा मानो आकाश से भूमि पर आ गिरा । आज तक उसने ऐसी उक्ति कभी सुनी नहीं थी । मगध के सम्राट को अनाथ कहने वाला व्यक्ति आज ही उसने देखा था। किस सिरफिरे का ऐसा साहस हो सकता था ? अपने जीवन से ऊवकर कौन अपनी मृत्यु का आह्वान करना चाहता था ? कुछ क्षण तो राजा अवाक् रह गया। लेकिन तभी उसे विचार आया कि शायद उस तरुण योगी ने उसे पहिचाना नही है । अत वह बोला “योगी | प्रतीत होता है कि तुमने मुझे पहिचाना नहीं, इसीलिए तुम मेरी उपेक्षा कर रहे हो। मैं श्रेणिक हूँ। सम्राट् श्रेणिक । मगध का सम्राट-थेणिक ।" ____ योगी की दिव्य मुस्कान कुछ और मधुर हो गई । उसने उत्तर दिया “राजन् । मगध के प्रतापी सम्राट् को कौन अभागा न जानेगा? । हवाएँ भी जिसका यशोगान करती हुई दिशाओ मे तहराती है, उम श्रेणिक को मै क्यो न जानूंगा? और आपकी उपेक्षा करने का भी मुझे क्या प्रयोजन ?" “तव तुमने मुझे अनाथ कहने का दुस्साहस कैसे किया ?'-कुछअधीर होते हुए श्रेणिक ने पूछा। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मै हूँ, और मेरी आत्मा हे ___ "सत्य कटु प्रतीत हुआ क्या, राजन् । क्षमा करिए। मेरा आशय आपको दुखी करने का नही है । किन्तु सत्य तो सत्य ही है, भला उसका मैं क्या करूँ ?"-योगी पूर्ण स्वस्थता से बोला। “यह सत्य है ? कैसे सत्य है ? क्या मैं अनाथ हूँ ? इतनी अतुल शक्ति और सम्पत्ति का एकछत्र स्वामी, मैं अनाथ कैसे हूँ ? क्या तुम पहेलियाँ वुझा रहे हो?" ___“नही, राजन् । हल निकाल रहा हूँ। आप जिस शक्ति और सम्पत्ति की बात कर रहे है, जिस ऐश्वर्य के आप स्वामी है-वह सारा ऐश्वर्य और शक्ति क्या आपकी रक्षा कर सकेगी? क्या आपको व्याधि घेर नही लेगी? क्या वृद्धावस्था आपके ऐश्वर्य, आपकी शक्ति और सम्पत्ति को एक किनारे रखकर आपके शरीर को जीर्ण नही कर देगी? क्या एक दिन काल आपको अपना ग्रास नही बना लेगा? आप स्वयं को अनाथो का नाथ मानते है । किन्तु उस समय आपका नाथ कौन होगा ?" अव श्रोणिक की समझ मे आया कि वह अद्भुत योगी क्या कहना चाहता था। किन्तु वह कोई समुचित उत्तर खोजकर कुछ कहे उससे पूर्व ही योगी कहने लगा “राजन् । आप उदार है । महान् है । आपने मुझे आश्रय देना चाहा, यह आपकी पहली कृपा है । मैं उपकृत हुआ । किन्तु, आपके समान नही, फिर भी यह सारा वैभव तो वहुत कुछ मेरे पास भी था। मुझे भी कोई कमी तो नही थी । धन भी था । इष्ट-मित्र, वन्धु-बान्धव भी थे। राजन् । मैं कौशाम्बी का निवासी था । धन्य श्रेष्ठि मेरे पिता थे । सुन्दरी पत्नी भी थी। सभी कुछ था।" "फिर क्या हुआ ?"-राजा ने जिज्ञासा प्रदर्शित करते हुए पूछा । “एक दिन मेरे नेत्रो मे पीडा हुई। उपचार का कोई साधन ऐस नहीं जिसका प्रयोग न किया गया हो। दूर-दूर से वैद्य आए । मन्त्र-तन्त को भी आजमाया गया । किन्तु मेरी पीडा शान्त नही हुई । मैं छटपटाता रहा । मेरी वेदना को देखकर मेरे सभी प्रियजन दुखी थे। किन्तु स निरुपाय थे । किसी की कोई शक्ति या युक्ति काम नहीं आई। सम्पत्ति सडती रही। सहानुभूति व्यर्थ रही। सेवा तो सभी करते थे, किन्तु का निवारण किसी के वश का नहीं था। राजन् । एक शब्द मे ही स Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ लीजिए कि मैं भी अनाथ था ओर मेरे प्रियजन भी अनाथ थे। अब तो आपने मुझे क्षमा कर दिया न ? मै पुन दुहराता हूँ कि मेरा आशय आपको दुखी करने या आपका अपमान करने का नही था । किन्तु आपने कहा था, तो मुझे भी सत्य तो कहना ही चाहिए था न ?” ६८ "हॉ, हॉ, योगी । मैंने बुरा नही माना । मुझे केवल विस्मय हुआ था । लेकिन फिर क्या हुआ ?” – राजा ने पूछा । " फिर क्या, राजन् | मैंने विचार किया -क्या है यह जीवन ? क्या भरोसा है इस संसार का ? कितना असहाय है मनुष्य ? क्या अर्थ है उन सासारिक सम्बन्धो का ? माता-पिता, भाई-बहिन, पत्नी-पुत्र - कोई भी तो किसी के काम नही आ पाते । जव दुख आता है, जव विपत्ति आती है तो कोई उसे वँटा नही पाता । सब टुकुर टुकुर देखते ही रह जाते हे יין "मैने निश्चय कर लिया — कोई किसी का नाथ नही है । कोई किमी का सहायक और साथी नही है । आत्मा अकेला है । वही अपना सेवकस्वामी सखा, जो कुछ भी मानिए सो है । इसके अतिरिक्त कुछ नही है । आत्मा ही आत्मा का रक्षक है-अत्ताहि अत्तनो नाथो ।” " राजन् । पीडा से व्याकुल मैं यही विचार करता-करता जाने कव सो गया। मुझे इन विचारो से, सत्य के इस साक्षात्कार से कुछ शान्ति मिली थी, इसलिए उस रात शायद नीद आ सकी । " " प्रात काल होने पर तो फिर मैं अपनी आत्मा की खोज में निकल पडा । किसी के रोके रुका नही । क्योकि जैसा कि मैं कह चुका हूँ- कोई किसी का है ही नही ।" " अव मैं मुनि हूँ । आत्मा के सान्निध्य मे रहता हूँ । मुझे कोई कष्ट नही है । मैं हूँ और मेरी आत्मा है ।" -- उत्तराध्ययन सूत्र, २० Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अपनी-अपनी दृष्टि श्रीकृष्ण के अनेक गुणो मे एक विशेष गुण था, उनकी गुण-ग्राहकता। सामान्य से सामान्य वस्तु हो, साधारण से साधारण प्राणी हो, किन्तु कृष्ण थे कि उस वस्तु अथवा प्राणी मे से भी कोई न कोई गुण खोज ही लेते थे। दृष्टि की बात है। देखने वाली ऑख चाहिए। वह देखने वाली आँख हो तो बुराई मे भी कही छिपी हुई कोई अच्छाई दीख जाती है। ऐसी दृष्टि श्रीकृष्ण के पास थी। देवेन्द्र इन्द्र ज्ञानी थे। वे इस रहस्य को जानते थे। उन्होने सोचादेवताओ का ध्यान इस ओर दिलाना चाहिए। एक बार अपनी सभा मे उन्होने कहा __ "श्रीकृष्ण वडे गुणग्राही है। संसार मे उनके समान गुणग्राही व्यक्ति अन्य कोई भी नहीं । गुणग्राहकता की ऐसी उच्च भूमि पर वे है कि बुरी से बुरी वस्तु मे से भी वे अच्छाई देख लेते है।" एक देवता चल पडा इस बात की परीक्षा लेने । एक मनुष्य की ऐसी प्रशसा उससे सुनी न गई। उस समय श्रीकृष्ण भगवान अरिष्टनेमि के दर्शन करने रैवताचल पर्वत की ओर जा रहे थे, सदल बल । वह देव उसी मार्ग पर एक मृत, काले कुत्ते का रूप धारण करके पड़ गया । सडा हुआ दुर्गन्धयुक्त शरीर, कीडे कुलबुला रहे है, फटे मुख से रक्त Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएँ वह रहा है । देखते ही घृणा उत्पन्न हो, दूर से ही निकल जाने की इच्छा हो, ऐसी स्थिति। श्रीकृष्ण के साथियो ने जब देखा तो नाक पर हाथ लगाए, मुंह से थू-थू ओर छी-छी करते इधर-उधर हट गए। किन्तु श्रीकृष्ण ने उस कुत्ते के मुख मे उसकी चमचमाती हुई दन्तपंक्ति देखी और कहा "देखो, इस श्वान की दन्त पक्ति कैसी स्वच्छ, कैसी चमकीली है । मोती के समान चमक रही है।” हमने कहा न, कि देखने वाली ऑख चाहिए। वह दिव्य दृष्टि चाहिए जो बुरी से बुरी वस्तु मे से भी अच्छाई के दर्शन करले । अपनीअपनी दृष्टि है । औरो ने मात्र श्वान की सडी-गली देह देखी, कृष्ण ने देखी उसकी धवल दन्त-पंक्ति । देवता विस्मित रह गया। अपने वास्तविक स्वरूप मे आकर, श्रीकृष्ण को वन्दन कर लौटा और मन ही मन कहता चला-"सचमुच, श्रीकृष्ण के पास दिव्य गुण-दृष्टि है ।" -आवश्यक 'चूणि' Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ शुभ-संयोग श्रीकृष्ण अपनी लीला का संवरण कर विदा हो चुके थे । द्वारिका का वैभव अतीत की घटना बनकर रह गया था। यादव जाति का शौर्य ओर प्रताप इतिहास की बात बन चुकी थी । एक सूर्य जो अपने असीम तेज से आकाश और पृथ्वी को प्रकाशित हुए था, वह अस्त हो चुका था । किये इस अन्धकार और निराशा की स्थिति ने श्रीकृष्ण के बड़े भाई वलभद्र के हृदय मे वैराग्य उत्पन्न कर दिया था और वे साधु बनकर विचर रहे थे । शेष सब कुछ परिवर्तित हो गया था, किन्तु बलभद्र के शरीर की कान्ति और सौदर्य वैसा ही था । शायद सरल साधु वेश के कारण वह और भी अधिक स्वाभाविक होकर खिल उठा था । ऐसा सात्विक सौदर्य, कि देखने वाले की आँख एक वार उठे तो फिर वही टिक कर रह जाय । दृष्टि उनके सौम्य सुन्दर मुख पर से फिर हटाए हटे ही नही । मन अतृप्त ही बना रह जाय । ऐसी इच्छा हो कि उस सोदर्य को देखता ही रह जाय, एकटक, निर्निमेप | ऐसे वलभद्र एक दिन भिक्षाटन हेतु किसी नगर मे प्रवेश करने को मुनि निद्वन्द अपने मार्ग मुनि को देखा । उनके ये कि नगर से बाहर एक पनघट मार्ग मे पडा । पर जा रहे थे। एक पानी भरने वाली युवती ने १०१ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं अद्भुत रूप की भव्य कान्ति को देखकर वह ऐसी मग्न हुई कि उसे ससार ओर स्थिति की ठीक-ठीक सुध-बुध ही न रही । पानी भरने के लिए रस्सी से वाल्टी को बेचारी सुधिहीना अपने वालक को ही रस्सी से लगी । मुनि ने यह देखा और चिन्तित होकर युवती से कहा “अरे, क्या अनर्थ कर रही हो वहिन ?" "क्या हुआ मुनिवर । मैं तो पानी खीच रही हूँ ।" " पर किससे ? भोली वहना, जरा देखो तो सही । तुमने रस्सी मे क्या वाँधा है ?" बाँधने के स्थान पर वह बांधकर कुएं मे उतारने युवती ने देखा - वाल्टी के स्थान पर असावधानी से उसने अपने वालक को ही बांध दिया है । वडी लज्जित हुई। मुनि को सादर वन्दन कर वोली - "धन्य है मुने । आपने मेरे बालक का जीवन वचा लिया ।” । मुनि वलभद्र फिर आगे नही वढे । वे पीछे ही लौट गए । भिक्षा भी उस दिन उन्होने ग्रहण न की । मन मे निश्चय कर लिया कि अब कभी नगर की ओर जाऊँगा ही नही अरण्य मे ही रहूंगा। मेरे रूप को देखकर यदि इसी प्रकार और लोग भी असावधान होते रहे तो किसी दिन कोई अनर्थ हो जायगा । उस संभावना का आधार, उसका कारण ही समाप्त कर देना चाहिए । वलभद्र अब अरण्यवास ही करते । वही अपनी तपस्या ओर ध्यान समाधि लगाते । आते-जाते पथिको से जब जो कुछ शुद्ध आहार मिल जाता, वह ग्रहण कर लेते, वरना भूखे ही रह जाते । एक दिन एक बहुत प्यारा-सा मृग- शावक उधर भटककर आ पहुँचा। ध्यानमग्न मुनि को देखकर वह भोला मृग ऐसा आकर्षित हुआ कि निर्भय होकर वह मुनि के समीप ही रहने लगा । उन्हें छोडकर कही अन्यत्र जाने की उसकी इच्छा ही न होती । मुनि की प्रशान्त, सौम्य मुद्रा को देखकर उसे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया था ओर पूर्व जन्म की स्मृतियों के कारण वह मुनि के समीप ही रहने लगा । मुनि अपनी साधना में लगे रहते । मृग शावक को कभी कोई पथिक भोजन करता हुआ दिखाई दे Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ-सयोग जाता तो वह दौडकर मुनि के पास आता और अपने सरल सकेतो से खीचकर उन्हे उन पथिको के पास ले जाता । इस प्रकार मुनि को भिक्षा मिल ही जाती और नही मिलती तो चिन्ता किसे ? महत्त्व तो उस भोले मृग की मनोभावना का था। एक वार राजा ने अपने रथकार को रथ बनाने के लिए लकडी लेने जंगल मे भेजा था। उत्तम लकडी की खोज करते-करते रथकार मुनि के साधना-स्थल के समीप ही एक अच्छे, विशाल वृक्ष को देखकर वही ठहर गया। उसने सोचा--इस वृक्ष का काष्ठ उत्तम है। यही लेना चाहिए। भोजन करलू, फिर लकडी काट लूंगा। यह विचार कर वह भोजन करने बैठा । मृग-शिशु घास चरता-चरता वहाँ पहुंचा । उसने रथकार को भोजन की तैयारी करते देखा तो दौडकर मुनि को खीच लाया। रथकार ने मुनि को आया देखा, हर्प से विभोर होकर उनकी वन्दना की और मुनि को आहार देने लगा। उसका तन-मन पुलकित था-भाग्यवश इस अरण्य मे भी मुनिवर के दर्शन हो गए और उन्हे आहार प्रदान करने का सौभाग्य और पुण्य प्राप्त हुआ। मृग भी मुनि को भिक्षा प्राप्त हुई, यह देखकर प्रसन्न-पुलकित था। मन ही मन अपनी मूक भापा मे मानो वह कहता था-यह रथकार धन्य है, ऐसे मुनि को भिक्षा देने का सौभाग्य इसे मिला है । यदि मैं मनुष्य होता, तो मझे भी यह पुण्य-अवसर प्राप्त होता । इस प्रकार एक साथ तीनो के हृदय मे शुद्ध, शुभ भावो की उत्तम, अपूर्व धारा उमड रही थी। रथकार के मन मे उदात्त भाव से दान-धारा, मुनि की शान्त, समभाव से भिक्षा-ग्रहण धारा और भृग को रथकार के सुव्रतानुमोदन की धारा। तीनो स्थानो पर परम विशुद्ध भाव थे। पापो के प्रक्षालन के लिए इससे अधिक उत्तम सयोग और क्या हो सकता था ? नयोग ही तो या। अति उत्तम, अति पवित्र संयोग । ओर सयोगवश उसी समय आंधी आई। प्रवल कोरे से उस पुरातन, जीर्ण वृक्ष की एक विशाल शाखा चरभराकर टूटो ओर एक साथ ही मुनि, रथकार ओर मृग Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ पर आ गिरी। तीनो एक साथ ही उस विशुद्ध भाव-स्थिति मे अपने अपने शरीरो को त्याग कर काल को प्राप्त हुए। __ मुनि बलभद्र अपना आयुष्य पूर्ण कर ब्रह्म देवलोक में महान ऋद्धिशाली देवता के रूप में जन्मे । रथकार और मृग भी अपनी शुभ भावनाओ के परिणामस्वरूप उसी विमान मे बलभद्र देव के सेवाभावी देव वने । ऐसे शुभ संयोग कदाचित् ही उपस्थित होते है। वे जब-जब भी उपस्थित हो, उन्हे पहिचानना चाहिए, और अपने आत्म-कल्याण को साधने मे चूक नही करनी चाहिए। -त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राजाओं का राजा कुछ आश्चर्य की बात तो अवश्य है, किन्तु था ऐसा ही कि राजा परदेशी और जितशत्रु मे आपस मे मैनी थी। परदेशी जितना क्रूर, अधर्मी और अहंकारी था, जितशत्रु उतना ही दयालु , धर्मनिष्ठ और सरल । दोनो राजा थे, उनकी मैत्री निभ रही थी । परदेशी कैकय देश मे श्वेताम्बिका नगरी मे शासन करता था और जितशत्रु कुणाल देश मे श्रावस्ती मे। __ कोई भी नई वस्तु किसी एक को मिले तो वह दूसरे को अवश्य दिखाता, उपहार मे भेजता । इस प्रकार उपहारो के आदान-प्रदान के साथ दोनो राजाओ के सम्बन्ध चल रहे थे। एक वार राजा परदेशी ने अपने मंत्री चित्त को कुछ उपहार लेकर जितशत्रु के पास भेजा । साथ ही यह भी कहा "मंत्रिवर | तुम चतुर हो, बुद्धिमान हो । श्रावस्ती जा रहे हो तो कुछ दिन रहकर वहाँ की राजनीति का भी अध्ययन करते आना।” राजा की आज्ञा शिरोवार्य कर चित्त श्रावस्ती पहुँवा । उपहार आदि जितशत्र को भेट कर वही ठहरा और अध्ययन करने लगा। श्रावस्ती के सोभाग्य से उस समय वहाँ श्रमण केशी का पधारना हमा। नवान पार्श्वनाथ की परम्परा के वे विद्वान आचार्य थे। उनके १०५ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ दर्शन ओर कल्याणी वाणी के श्रवण से अनेको भूले-भटके लोग सन्मार्ग पर आते और अपने भाग्य को सराहते थे । चित्त भी आचार्य केशी का प्रवचन सुनने गया । आचार्य की वाणी सुनकर वह तो इतना प्रभावित ओर मुग्ध हुआ कि उसने उसी समय श्रावक के बारह व्रत ग्रहण कर लिए और जव तक श्रावस्ती में रहा, प्रतिदिन आचार्य का प्रवचन सुनता रहा । लौटने का समय जब हुआ तो उसने आचार्य से सविनय प्रार्थना की“भते । श्वेताम्विका के नागरिकों पर कृपा कीजिए । एक वार उधर भी पधारिए ।" आचार्य मौन रहे । उन्होने कोई उत्तर नही दिया । चित्त ने दूसरी वार प्रार्थना की। आचार्य फिर भी मौन रहे। तीसरी वार प्रार्थना की, फिर भी आचार्य मौन रहे । आचार्य के मौन का कारण चतुर चित्त मंत्री समझ गया । उसने जान लिया कि उसका राजा परदेशी मूर्ख है, अधर्मी है, स्वार्थी है । शरीर के सुख के अतिरिक्त वह और कुछ जानता ही नही इसीलिए आचार्य मोन है । वे नही चाहते कि धर्म और सघ की कोई अवज्ञा हो । स्वय वे तो अभय हे । यह समझकर चित्त ने पुन कहा “भते ' आप धर्म की सेवा और प्रभावना हेतु खेताम्विका अवश्य पधारे । कोई अन्यथा विचार न करें ।" विचरते-विचरते आचार्य केशी खेताम्विका पहुँचे । नगरी से बाहर मृगवन मे वे विराजे । नागरिक हर्ष से विभोर हो गए । प्रात काल होते ही उन्हे एक ही कार्य सूझता था । अब - मृगवन मे जाकर आचार्य की मधुर वाणी का श्रवण कर अपने जीवन को धन्य करना । चतुर चित्त मत्री चाहता था कि किसी प्रकार राजा को आचार्य के पास ले जाए । बस, उसके बाद तो आचार्य के व्यक्तित्व का प्रभाव ही ऐसा पड़ेगा कि उसे सीधा मार्ग दिखाई देने लगेगा । अस्तु, एक दिन मत्री ने राजा से कहा “राजन् । कुछ नए अश्व खरीदे गए हैं। परीक्षा करके देखना चाहिए ।" राजा तुरन्त प्रस्तुत हो गया । अश्वों पर सवार होकर वे वन की जोर चल पडे । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाआ का राजा घूमते-घामते वे मृगवन की ओर से ही निकल पडे । आचार्य केशी प्रजा को धर्म-देशना दे रहे थे। उन्हे देखकर राजा शीघ्रता से वहाँ से हट जाना चाहता था । बोला-- "चलो चलो, चित्त । इधर कहाँ ले आए मुझे । चलो, लौट चलो।" "जैसी आज्ञा, महाराज ! चलिए।"-मत्री ने सहज भाव से कहा। राजा ने अपने अश्व को एक एड लगाई । वह तेज दौडने लगा कि तभी राजा ने लगाम खीचते हुए कहा "लेकिन मंत्री, जरा ठहरो तो सही। जाने क्या बात है कि एक क्षण रुककर इन मुनि जी को देखने का मन करता है । यह तो राजाओ के भी राजा प्रतीत होते है ।” अश्व ठहरा लिए गए। राजा चुपचाप दूर से आचार्य को देखने लगा ..." जीवन मे महान् परिवर्तन के क्षण इसी प्रकार चुपचाप चले आते है । राजा आचार्य की सौम्य मुद्रा को, तेजस्वी व्यक्तित्व को देखने लगा और देखते-देखते ही, बिना स्वयं जाने, किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत होकर, घोडे को धीरे-धीरे आगे बढाता हुआ धर्म-सभा के समीप आ पहुँचा। मंत्री का हृदय हर्प से उछलने लगा। उसने जान लिया कि आज तक जो राक्षस था, अब उसके देवता बनने का शुभ संयोग आ पहुँचा था। विना एक भी शब्द वोले वह राजा के पीछे-पीछे चला आया। राजा अश्व से नीचे उतरा और सभा मे जाकर बैठ गया। ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वह लोहे को पुतली हो और आचार्य चुम्बक हो, जिनसे खिंचकर वह स्वत. उनके पास जा पहुँचा हो। ___ एक विचिव विमूना की-सी स्थिति मे था राजा परदेशी । उसके कानो मे आचार्य की वाणी पड रही थी--- ___"यह ससार तो जसार है भव्य जीवो । जो सार है वह आत्मा है । उसे जानो।" "इस संसार की माया का क्या लोम ? इस ससार के धन-वैभव का क्या अहकार ? अपनी आत्मा की अनन्त निधि को जानो, भव्य जीवो । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ देशना की समाप्ति हुई और राजा आचार्य के चरणो मे जा गिरा, यवचालित -सा, भाव-विभोर, विचार-मग्न । अपनी जिज्ञासा की शान्ति के लिए उसने आचार्य से छह प्रश्न किए । उनका समुचित समाधान पाकर वह कृतकृत्य हो गया ओर बोला“भते । मेरे जीवन की पुण्य घडी आ पहुँची । अपने चरणो मे मुझे शरण दीजिए ।" - राजा परदेशी की दृष्टि खुल गई । अन्धकार से वह प्रकाश मे आ गया, अधर्म से धर्म मे आ गया । वारह व्रतां को स्वीकार कर वह अब ऐसा व्यवहार करने लगा जैसे कोई दूसरा ही व्यक्ति हो । आचार्य केशी के व्यक्तित्व ने उस व्यक्ति को बदल दिया था । किन्तु अभी एक परीक्षा शेप थी । रानी सूर्यकान्ता को राजा का यह सरल, धार्मिक जीवन रुचा नहीं । राजा ससार और स्वयं उसकी ओर से विरक्त होकर धर्म मे अनुरक्त होकर जीवन-यापन करे, यह स्थिति बह विलासी रानी सह न सकी । उसने राजा को विष दे दिया । रानी अपने कुकृत्य मे सफल तो नही हो सकी, किन्तु राजा ओर भी विरक्त हो गया । पौपधशाला मे जाकर उसने जीवन की आलोचना करके सलेखना करली । उसके मन मे अब किसी के प्रति कोई द्वेप या रोष नही था-रानी के प्रति भी नही । वह शान्त, प्रशान्त, उपशान्त था । उसे समाधिमरण प्राप्त हुआ ओर देवलोक के सूर्याभविमान मे वह सूर्याभ देव बना । वहाँ से महाविदेह क्षेत्र मे होकर वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा । - रायपसेणिय Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराजेय अर्हन्नक चम्पानगरी का धन श्रेष्ठी सत्यासत्य को जानने वाला श्रावक-श्रेष्ठ था । दूर-दूर देशो तक व्यापार करके उसने खूब धन अर्जित किया था और उस धन का उपयोग उदारतापूर्वक समाज के हित मे करके खूब यश भी अर्जित किया था । उसका पुत्र अर्हन्नक भी अपने पिता के योग्य ही सन्तान था । पिता के धवल यश को उसने अपने गुणो से द्विगुणित कर दिया था । यहाँ तक कि देवेन्द्र इन्द्र ने भी उसकी प्रशसा अपनी देवसभा मे करते हुए कहा था “ अर्हन्नक वडा धर्मनिष्ठ है । उसे धर्म से विमुख करना सम्भव नही ।" एक देवता ने यह प्रशंसा सुनकर अर्हन्नक की परीक्षा लेने का निश्चय किया और पृथ्वी लोक की ओर चल पडा । उस समय अर्हन्नक व्यापार के लिए समुद्र यात्रा पर था । उसका जलपोत सागर की मन्द मन्द लहरियो पर वडी शान से थिरकता हुआ-सा आगे वढता चला जा रहा था । देवता ने अपनी शक्तियो का प्रयोग किया और समुद्र मे एकाएक भीषण तूफान गरज उठा। नन्ही- नन्ही लहरियाँ अव भयानक अजगरो की भाति मुँह फाडकर पोत को निगल जाने के लिए आतुर दिखाई देने लगी । तेज पवन पोत को उड़ा ले जाने पर तुल गया और अन्धकार उसे ग्रसने के १०६ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं लिए घिर गया। प्रतीत होता था कि पोत इवेगा ओर एक भी प्राणी उममे से जीवित नही बच सकेगा। भयानक विपत्तिकाल था। जीवन और मृत्यु का सघर्प था, जिसमे मृत्यु का पलड़ा भारी है, ऐसा स्पष्ट दीख पडता था। पोत के सभी यात्री भयभीत होकर भगवान को याद कर रहे थे। किन्तु उस पोत मे अर्हन्नक भी था, जो अभय था। उसे मृत्यु की चिन्ता नही थी। उसने अपने मन मे दृढ सकल्प कर लिया था-यदि इस उपसर्ग से वच गया तो भक्त-पान ग्रहण करूंगा, नही तो मुझे चारो आहारो का परित्याग है। इस प्रकार अर्हन्नक भगवान की स्तुति करता हुआ निश्चल बैठा रहा। देव ने सभी प्रयत्न किए, किन्तु अर्हन्नक के हृदय को भयभीत या विचलित करने में वह सफल न हो सका। अन्त मे थककर उसने अपने अन्तिम शस्त्र को आजमाते हुए कहा “अर्हन्नक | तु व्यापारी है । धन कमाने निकला है। मैं तुझे जितना मांगेगा उतना धन दंगा। अमूत्य रत्नो से तेरा भडार भर दूंगा। त् केवल एक ही बार अपने धर्म को मिथ्या ओर असत्य कह दे।" । कोई सामान्य व्यक्ति होता तो यही सोचता कि एक बार, केवल एक बार अपने धर्म को मिथ्या और असत्य कह देने मे क्या हानि है ? यथेच्छ धन मिल जायगा । पीटियो तक सुख रहेगा। किन्तु अर्हनक किसी और ही धातु का बना था। वह अपने पवित्र धर्म की ध्वजा को विमल रखने के लिए अपने प्राण तक दे सकता था। तब वह धर्म को मिथ्या कसे कहता? कोई भी भय अथवा कैसा भी लोभ उमे डिगा नहीं सकता था, और न डिगा सका। यदि ऐसा न होता तो क्या देवराज इन्द्र सहज ही किमी मनुष्य की प्रशसा कर सकते ह ? वे तो मनुष्यो मे जो श्रेष्ठतम मनुष्य होते ह, नर-रत्न होते ह, उन्ही की प्रशसा करते है। देव ने हारकर अर्हनक से क्षमा मागी और एक सुन्दर, बहुमत्य कुण्डतो की जोड़ी उने नंटकर लौट गया । जाते-जाते कहता गया - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ अपराजेय अर्हन्नक “अर्हनक ! तुम धन्य हो । जव तक इस धरती पर तुम जैसे धर्मवीर उत्पन्न होते रहेगे तब तक हम देवता भी यहाँ जन्म लेने के लिए तरसते रहेगे। तुम्हारे पास यह जो धर्म का धन है, उसके आगे संसार का सारा वैभव तुच्छ है । अत मैं तुम्हे अब क्या हूँ ? 'वस, ये दिव्य कुन्डल तुम मेरी मैत्री के चिह्न स्वरूप स्वीकार करो।" अनिच्छा होते हुए भी अर्हन्नक ने वे कुण्डल ले लिए। चलते-चलते, अर्थात्, समुद्र-यात्रा करते-करते वह मिथिला पहुंचा। वहाँ के राजा कुम्भ की राजकुमारी मल्लि के अद्भुत गुणो का समादर करने के लिए उसने वे कुण्डल उसे भेट कर दिए। सच है, कुछ व्यक्ति होते है जो धर्म और गुणो को संसार की श्रेष्ठतम वस्तु मानते है। -~~-ज्ञाता० १११२ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m अडिग व्रती प्राचीन काल मे अम्बड नामक एक तपस्वी था । वह विद्वान था। भगवान महावीर की साधना से वह बहुत प्रभावित था। उनके प्रति गहरी निष्ठा उसके हृदय मे थी । सन्यासी के वेष मे रहता था, किन्तु उसने भगवान महावीर से बारह व्रत अगीकार किए थे। उसके सात सौ शिप्य थे। वह स्वयं भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कठोरता से करता था और अपने शिष्यो से भी उसी प्रकार उसका पालन कराता था। उसने एक बार राजगृही जाने का निश्चय किया और भगवान मे पूछा ___'मैं राजगृही की ओर जा रहा हूँ। कोई सेवा-सन्देश हो तो कृपा कर कहिए।" ___ भगवान को क्या कार्य हो सकता था ? उन्होने राजगृही मे निवास करने वाले नाग गाथापति की पत्नी सुलसा को धर्म-सन्देश कहलाया। अम्बड ने सोचा कि यह सुलसा अवश्य ही धर्म मे दृढ होनी चाहिए, तभी तो स्वयं भगवान ने उसे स्मरण रखा हे और धर्म-सन्देश कहलाया है। किन्तु मैं तनिक परीक्षा करके देखूगा कि ऐसी वह कितनी दृढ हे धर्म मे ? परीक्षा की दृष्टि से अम्बड सुलसा के पास जब गया तो उसने अनेक न्प बनाए । यहाँ तक कि स्वयं भगवान का रूप भी बनाया । किन्तु मुलमा ने उमे नमस्कार नहीं किया। उसकी यह दृढ़ता और अपने धर्म में अचन श्रद्धा देखकर अम्बट बहुत प्रसन्न हुआ। ११२ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडिग-व्रती ११३ एक बार अम्वड के सात सौ शिष्य गंगा के किनारे-किनारे कंपिलपुर से पुरिमताल जा रहे थे । वह भयंकर ग्रीष्मकाल था । ग्रीष्म का ताप चतुर्दिक वनस्पतियो को झुलसा रहा था । प्राणी त्राहि-त्राहि पुकार रहे थे । सात सौ तपस्वियो को बहुत जोर से प्यास लग आई थी। उनके कंठ जले जा रहे थे । समीप ही गंगा की शीतल धारा प्रवाहित थी । किन्तु विना किसी गृहस्थ की आज्ञा के वे जल कैसे ग्रहण करते ? किसी गृहस्थ के आने की वे प्रतीक्षा करते रहे और धैर्यपूर्वक भयानक तृषा को सहते रहे । किन्तु कोई नही आया । वे तपस्वी शीतल जल तो ग्रहण करते थे, किन्तु विना आज्ञा के नही ले सकते थे । अपने अस्तेय व्रत का वे इतनी कठोरता से पालन करते थे । प्यास बढती जा रही थी । सूर्य प्रचण्डता से तप रहा था, और पास ही शीतल गंगा वह रही थी । किन्तु कोई आया ही नही । न आए, तपस्वी शान्त थे । भूमि का शोधन कर वे अनशन करके लेट गए । अरिहन्त भगवान महावीर तथा गुरु अम्वड को उन्होने वही से भाव -वन्दन किया । अपने व्रतो की आलोचना की । इस प्रकार जीवन का शोधन कर, काल करके वे ब्रह्म लोक में गए । व्रत का भग उन्होंने नही किया, प्राण ही त्याग दिए । इसी प्रकार कालान्तर मे अम्वड भी काल करके पाँचवे ब्रह्मलोक मे गया । धर्मवीर, तपस्वी व्यक्ति कैसी भी परिस्थिति हो, अपने व्रत से विचलित नहीं होते । विकट से विकट स्थिति को भी वे शान्त, प्रशान्त और उपशान्त रहकर स्वीकार करते हैं । अम्बड का भविष्य उज्ज्वल है । सव साधन सुविधाएँ होते हुए भी वह काम-भोगो मे लिप्त नहीं होगा । जल मे वह कमलवत् रहेगा । अन्त मे नसार का परित्याग कर दीक्षित होगा । कठोर साधना, उग्र तप और सयम ने अपनी आत्मा को भावित कर, एक मास की संलेखना कर वह सिद्ध, बुड और मुक्त होगा । - उदवाई सूत्र Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ पछतावा सम्राट कोण के अन्य भाइयों में हल्ल ओर बिल्ल नामक भी दो भाई थे । उनके पिता विम्बसार जब जीवित थे, तब वे अपने दोनो पुत्रो को दो बहुमूल्य वस्तुएँ दे गए थे - हल्लकुमार को सेचनक गन्धहस्ती और विल्लकुमार को वक चूल हार । कोणिक तो सन्तुष्ट थे । अपने योवन काल मे उनके हृदय में जो असन्तोष और अहंकार था, वह अब समाप्त हो चुका था । किन्तु उनकी रानी पद्मावती मन ही मन इन दोनो अमूल्य वस्तुओं को किसी न किसी प्रकार हथियाने की योजनाएँ बनाया करती थी । एकवार उसने कोणिक से कह भी दिया "गन्धहस्ती और वक चूल हार मुझे चाहिए। आप शक्तिशाली है, महा बलवान है | इतना सा काम नही कर सकते ?" कोणिक ने शान्ति से समझाया था" सामर्थ्य का प्रश्न नही है, रानी । न्याय का प्रश्न है। पिता ने वस्तुएँ मेरे भाइयों को स्वयं प्रदान की है। उनके पास ही रहने दो। मेरे तो हैं वे, कोई पराये तो है नहीं । हमे कमी भी किस बात की है। " किन्तु त्रिया जब अपने चरित्र पर उतर आए तव किम का चले ? कोणिक ने अपनी पत्नी की हठ के आगे आखिर घुटने टेक दिए आर हत्य-विहल से वे दोनो वस्तुएँ मागी । -वि बेचारे इतने समर्थ नहीं थे कि कौशिक का सामना 224 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पछतावा ११५ कर सके । वे अपनी रक्षा के लिए अपने नाना चेटक के पास चले गए । हाथी और हार साथ लेते गए। चेटक वैशाली गणतन्त्र के अधिपति थे । कोणिक और हल्ल - विहल्ल की माता चेलना उनकी पुत्री ही थी । कोणिक ने जब सुना कि हल्ल और विहल्ल ने उसकी माँग को ठुकरा दिया है और चेटक के पास चले गए है तो उसे क्रोध चढ गया और हठ ने उसके हृदय मे जड जमा ली - अब तो चाहे जो हो, मैं हाथी और हार लेकर ही रहूंगा । उसने चेटक पर चढाई कर दी । सेनाएँ रणभूमि में आमने-सामने अड गई । महा भयानक युद्ध हुआ । रथ से रथ, हाथियो से हाथी, घोडो से घोडे और पैदल से पैदल भिड गए। खून की नदियाँ वह गई । दिशाएँ घायल सैनिको की चीत्कारो और कराहो से कॉप गईं । चेटक ने भीषण मग्राम किया। अपने अचूक वाणो से उसने कालीकुमार आदि दस कुमारो को बीध डाला । यह देखकर कोणिक अत्यन्त क्रुद्ध होकर विकट संग्राम करने लगा । उसने महाशिलाकण्टक और रथ- मूसल व्यूह की रचना कर अपनी सारी शक्ति युद्ध मे झोक दी । अन्तत चेटक को पराजित होना पडा और कोणिक जीत गया । किन्तु कोणिक की यह खूनी विजय पराजय से कुछ भी अधिक सिद्ध न हुई । उसके हाथ कुछ भी न लगा । न उसे हार मिला, न हाथी, और न ही हल्ल - विहल्ल | वंक हार को देव ले गया। हाथी अग्नि को अर्पित कर दिया गया, और हल्ल तथा विहल्ल भगवान महावीर की शरण मे जाकर दीक्षित होकर शान्त हृदय से आत्म-साधना में लीन हो गए । चेटक भी युद्ध मे अपने प्राण त्याग चुके थे । कोणिक सोचता और पछताता ही रह गया -क्यो इतना भीषण नर- महार किया गया ? इससे किसी को भी क्या लाभ हुआ ? - निश्यावलिआसुत्त Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कलाकार - कृष्ण कलाकार थे। कलाकार का साधन हे कोशल । उसके बल पर वे अनेक ऐसे कार्य करने में समर्थ ओर सफल हो जाते थे, जिन्हे अन्य व्यक्ति वल होते हुए भी न कर पाते ।। एक बार बलदेव, सत्यक और दारुणि के साथ वे बन-विहार को गए । वन मे ही जब सूर्यास्त हो गया तो रैन-बसेरा जगल मे ही कर लिया। एक विशाल वट-वृक्ष को आश्रय बना लिया। बन या । वन में अनेक उपद्रवो की आशका रहती है, जीव-जन्तुओ की भी, और भूत-पिशाचो की भी । अत निर्णय हुआ-एक एक कर वारो व्यक्ति पहरा दें, शेप मो लं। प्रथम प्रहर मे दामणि जागा । जब वह पहरे पर या नव एक पिशाच आया । वहुत समय से भूखा रहा होगा! आज तृप्त होकर भोजन करना चाहता था। वोला-- "भूखा हु । ने इन मोए हुए माथियो को खाऊँगा ।" दारणि ने तलवार खीच ली। उमके रहते उमके माथियों को कान खाएगा? युद्ध हुआ। किन्तु मनुष्य, मनुष्य हे और पिशाच, पिणान । पिशार ने मनुष्य ने जीत नकता था? मनुष्य-बल क्षीण होता कता गया और पिशाच-वन बटता गया । अन्त मे दाणि परास्त होकर गिर पटा। इनो प्रकार एकनाक कर दनरे आर तीनर प्रहर में मत्यक कार Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ कलाकार वलदेव भी उठे, उन्होने भी अपने साथियो की रक्षा के लिए पिशाच से युद्ध किया और अन्त मे परास्त होकर गिरे। अव कलाकार की बारी आई । कृष्ण उठे। उन्होने सारी स्थिति को देखा और समझा। पिशाच बोला___“अव तू चाहे तो अपनी शक्ति आजमाले। किन्तु मैं अब तेरे साथियो को खाऊँगा ही। बहुत भूखा हूं।" कृष्ण ने धैर्य से उत्तर दिया "तेरी इच्छा है । जो चाहे इच्छा तू कर सकता है । अपने मन का तू स्वामी है । किन्तु मुझे जीते विना तेरी इच्छा पूरी होने की नही।" पिशाच पिल पड़ा। किन्तु कृष्ण तो कलाकार थे। जानते थे कि मनुष्य की शक्ति और पिशाच के वल मे कितना अन्तर है। अत. वे शान्त रहकर अकेले पिशाच को लड़ाते रहे। कहते रहे--'अरे शावाश | तू तो वडा बलवान है । भारी योद्धा है । वीर है । मल्ल है. " मूर्ख पिशाच उत्साहित होकर चारो ओर उछल-कूद मचाता रहा। और कलाकार ? कलाकार कृष्ण खडा मुस्कराता रहा और कहता रहा-"अरे, तू तो वडा वीर है, भाई, तू तो वडा योद्धा है... " धोरे-धीरे पिशाच थक गया। उसका बल क्षीण हो गया और वह भूमि पर गिरकर ढेर हो गया। प्रात काल होने पर जब कृष्ण के साथी उठे तब कृष्ण ने अपने विस्मित साथियो के सामने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा “अरे भाई । पिशाच से लडने के लिए कला की आवश्यकता होती है । केवल वल से काम नहीं चलता। तुम भी लडे, और लडा तो मैं भी । किन्तु तुम घायल हुए, मैं घायल नहीं हुआ। वस्तुत: मैं उससे स्वयं लडा ही नही, उसी को लडाता रहा। मैं तो शान्त भाव से खडा होकर उसे बलाता रहा, उकसाता रहा, आर परिणाम तुम्हारे सामने है।" सुनकर माथी खूब हँसे । कहने लगे-"तुम बडे चतुर हो । इसीलिए शायद लोग तुम्हे छलिया कहते हे।" -~-उत्तरा० Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वज्रादपि कठोराणि आचार्य अर्हन्मित्र एक बार अपने शिष्यवर्ग सहित तगरा नगरी में पधारे। उनके धर्मोपदेश को सुनकर उस नगरी के अनेक व्यक्ति धर्म की उपासना की ओर उन्मुख हुए । वणिकदत्त नामक एक गृहस्थ को भी वैराग्य भावना उदित हुई और वह अपनी पत्नी भद्रा तथा पुत्र अरणक के साथ प्रव्रज्या ग्रहण कर आचार्य के साथ विचरण करने लगा । माता और पिता को अपने पुत्र से सहज ही स्नेह होता है | मुनि वन जाने के बाद भी वणिकदत्त मुनि के हृदय से इस सासारिक सम्बन्ध की मोहममता पूरी तरह से दूर नही हुई । वह अरणक के लिए भिक्षा लेने स्वय ही जाता, यह सोचकर कि उसके कोमल शरीर को कष्ट न हो । किन्तु इसका परिणाम अरणक के लिए हितकारी नही हुआ। वह तप न सका । जैसा कोमल ओर शिथिल था, वैसा ही रह गया। जब वणिकदत्त मुनिका देहावसान हो गया तब कुछ दिन तक तो अन्य साथी भिक्षु जरणक के लिए भिक्षा लाते रहे, किन्तु बाद में स्वयं उसे ही मिक्षा लेने जाना पडता । एक दिन, ग्रीष्म ऋतु में, अरणक भिक्षा लेने नगर में गया। गर्मी बहुत अधिक थी । धरती जल रही थी। हवा आग लगाती चल रही थी। नरक को अनी कठोर जीवन का अभ्यान पता नहीं था । बककर जार मकान की छाया मे चा भयकर ग्रीष्म ने बेचैन होकर वह एक स्थान पर हो गया । १९६ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे इस प्रकार थका-मॉदा, क्लान्त वहाँ खडा देखकर एक तरुणी सुन्दरी नारी ने अपनी दासी को भेजकर मकान मे बुलवा लिया और उससे पूछा “आप इस भीषण गर्मी मे वहाँ वाहर खड़े क्या कर रहे है ? आप कौन है ? किस प्रयोजन से वहाँ खडे है ?" जव अरणक ने बताया कि वह भिक्षु है और भिक्षा लेने निकला है, तो उस तरुणी ने कहा “भला यह अवस्था भी कोई भिक्षु बनने की है ? यह तो ससार के भोगो का सुख लूटने की अवस्था है। आप व्यर्थ ही अपने आपको कष्ट दे रहे है।" अरणक स्वय ही शिथिल हो रहा था। अब उसे उस तरुणी द्वारा सयम के त्याग करने का प्रोत्साहन भी मिल गया। ओर वह सन्मार्ग से भटक गया। साधु वेश का त्याग कर वह उस तरुणी के साथ ही रहने लगा और विपयोपभोगो मे डूब गया । ___जव अरणक बहुत समय तक लौटा ही नही तो उसके साथी भिक्षुओ को बडी चिन्ता हुई-क्या हो गया अरणक को ? लौटा क्यो नही ? खोज करनी चाहिए। खोज हुई, किन्तु कुछ पता न चल सका। उसकी साध्वी माता तो उसके इस प्रकार से अदृश्य हो जाने से इतनी दुखी हुई कि पगला ही गई। पगली-सी होकर वह गली-गली घूमने और मार्ग मे आते-जाते लोगो से पूछने लगी ___ "भाई, आपने कही मेरे पुत्र को देखा है ? वह ऐसा है । उसका नाम अरणक है।" किन्तु पता न लग सका । किसी ने अरणक को देखा नहीं था। देखा हो भी तो जानने पहिचानते नहीं थे । वे सहानुभूति दिखाते हुए उत्तर देते"माता । हमने तो तेरे पुत्र को कहो देखा नही।" एक बार अरणक की दृष्टि गवाक्ष मे बैठकर बाहर नगर की सोदर्यसुषमा को देखते हुए एक पगली स्त्री पर ठहर गई। वह पहिले तो कुतूहल आर कुछ सहानुभूति से उसे देखता रहा, किन्तु जब उसे जाकृति कुछ जानीपहिचानी लगी तो गार से देखा-अरे, यह तो उसकी माता ही है। हाय, Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं इसकी यह दशा कैसे हो गई ? अवश्य ही यह मेरे वियोग में ही दुख के कारण पगली हो गई है। अरे, यह मै क्या देख रहा हूँ ? मैंने यह क्या कर डाला? यह तो मैंने बडी भयानक भूल की ।” ___ इस प्रकार आन्तरिक हृदय से पश्चात्ताप करते हुए अरणक तुरन्त घर से बाहर निकला ओर दोडकर अपनी माता के चरणो में जा गिरा--"मां । मेरी माता । मुझे क्षमा कर । बस, एक वार क्षमा कर । मुझसे भयानक भूल हुई । भविष्य मे कभी न होगी।" भूला राही ठीक मार्ग पर आ गया। आचार्य के पास जाकर उसने आलोचना की, शुद्धि की तथा आज्ञा लेकर जलते हुए शिलाखण्ड पर पादोपगमन सथारा लेकर अचल होकर स्थित हो गया। उसके हृदय से अब सारी शिथिलता और भय दूर हो चुका था। जितना वह कोमल था, उतना ही दृढ अब बन चुका था। वज्र से भो अधिक कठोर। -~-उ० अ० नि० गा० ६२ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OP मैं श्रमण हूँ - ससार है । इसमे छोटी-वडी घटनाएँ प्रतिदिन, प्रतिक्षण घटित होती ही रहती है। किन्तु कभी-कभी कोई विवेकवान व्यक्ति जब किसी छोटी से छोटी घटना पर भी पूरा ध्यान देता है और विचार करता है, तब उस छोटी-सी घटना मे से भी उसे जीवन का वह सार प्राप्त हो जाता है जो वडे-बडे ज्ञानियो को भी सहज ही प्राप्त नही हो पाता। वाराणसी नगरी मे ब्राह्मण कुलोत्पन्न दो भाई रहते थे-जयघोप और विजयघोष । दोनो साथ जन्मे, पले और शिक्षित हुए थे। वेद-वेदागो का साथ ही उन्होने अध्ययन किया था। दोनों विद्वान थे। एक बार जयघोप गगा के तीर पर स्नानार्थ गया था। उसकी दृष्टि एक साप पर पड़ी जिसने एक मेढक को पकड़ रखा था। और उसी सर्प को पकड लेने के लिए एक मयूर प्रयत्नशील था। यह दृश्य देखकर जयघोप अन्तर्मुखी होकर विचार करने लगा-- कैसा है यह जीवन ? हम उसमे नमित रहते है और नहीं जानते कि किसी भी क्षण काल हमे ग्रस लेगा। एक क्षण का भी भरोसा नही। हमारी शक्ति वस्तुत शून्य के समान है । काल हमसे बहुत अधिक वली है । ऐसा विचार करते-करते उसने अपने जीवन को शीघ्रातिशीघ्र सुसस्कृत बना लेने का निश्चय किया और वह बमण बन गया। अब वह अपनी आत्मा के कल्याण हेतु तपस्या करने लगा, साधना मे रम गया । विजयघोप उसी लकीर पर चला जा रहा था। एक बडा यज्ञ वह वाराणसी मे करा रहा था। उसी समय मासखमण के पारने के निमित्त १२१ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं जयघोप नगरी में आया । घूमता हुआ वह विजयघोप की यज्ञशाला तक जा पहुंचा। वहाँ उपस्थित अनेक ब्राह्मणो ने उसके श्रमण बेश को देखकर उसकी हँसी उडाई, व्यग किए और ब्राह्मणत्व से सम्बन्धित क्रिया-कर्म का बढ-चढकर बखान करने लगे। जयघोप शान्त रहा। वह सद्धर्म को जान नुका था। उसने न क्रोध किया और न दुखी ही हुआ। किन्तु उसने विजयघोप से धर्म सम्बन्धी कुछ प्रश्न किए । विजयघोप उन प्रश्नो का कोई उत्तर नही दे सका। ___ तव जयघोप ने विजयघोप को धर्म ओर यज्ञ का वास्तविक स्वरूप समझाते हुए कहा 'इन्द्रियों का निग्रह करना ओर मनोवृत्तियों का निरोध करना ही सच्चा यज्ञ है । अन्य किसी प्रकार के यज्ञ से न आत्मा का कल्याण हो सकता हे और न ही सुख प्राप्त हो सकता है। __"सत्य, प्रेम, अचोर्य और अपरिग्रह ही धर्म है। सच्चा ब्राह्मण सत्य बोलता है, मबसे प्रेम करता है, चोरी नहीं करता, किसी प्रकार का परिगह नहीं रखता और अपनी वासनाओ पर विजय प्राप्त करता है। जो भी व्यक्ति इसके विपरीत आचरण करता है, वह ब्राह्मण नही हो सकता। "जाति का झूठा अभिमान आत्मा को गिराता है । जाति तो कर्म मे ही बनती है। जो व्यक्ति जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसी ही जाति का मानना चाहिए। जन्म से ही कोई उच्च अथवा नीच नहीं होता।" आज विनयघोप को मच्चे धर्म का स्वरूप ज्ञात हुआ। वह मुग्ध होकर जयघोप को वाणी सुनता रहा। जब जयघोष मोन हुए तब वह बोला आज मे में भी यमण है।" बिजयघोष अमण भी तप-त्याग-माधना में लीन हो गए। दोनो श्रमण जीवन के अल तक माधना में तीन रहे आर अल में निद्र, बुद्ध ..र मुक्त हाए । -तरायन Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ कोणिक नहीं माना शक्ति और सम्पत्ति इसलिए होती है कि मनुष्य उनका सदुपयोग करे और जितना जो कुछ है, उसमे सन्तुष्ट रहे ।। किन्तु मनुष्य मे जब यह ज्ञान नहीं होता तो शक्ति उसे मदान्ध बना देती है और सम्पत्ति असंयमी । मदान्ध और असंयमी व्यक्ति निश्चय ही विनाश को प्राप्त होता है । कोणिक राजा के साथ ऐसा ही हुआ । वह स्वयं को चक्रवर्ती मानता था, चक्रवर्ती होने से कम मे वह सन्तुष्ट नही था। राजा था, कोई कमी तो थी नहीं, अटूट वैभव था। चाहता तो सदा सुखी रहता और अपनी शक्ति और सम्पत्ति से प्रजा को भी सुखी रखता । मानव-कल्याण मे कुछ योग देता। किन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत । वह तो स्वयं को चक्रवर्ती सिद्ध करने के लिए विवेक को तिलाजलि देकर अपने विनाश को निमन्त्रित कर बैठा। यदि उसमे कुछ भी विवेक रहा होता तो क्या वह स्वय भगवान के वचनो पर अश्रद्धा करता? उसने भगवान महावीर से पूछा था "भन्ते । जो चक्रवर्ती अपने जीवन मे कामभोगो का परित्याग नही कर सकता वह मृत्यु के उपरान्त किस योनि को प्राप्त करता है ?" भगवान ने बताया था"देवानुप्रिय । ऐसा चक्रवर्ती सातवे नरक मे उत्पन्न होता है।" १२३ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं “तव तो भगवन् । यदि मैं कामभोगो से मुक्त न हो सका तो मरकर सातवे नरक मे ही जाऊंगा ?" भगवान सब जानते थे। वे कोणिक के हृदय में व्याप्त अहकार को भी जानते थे । उन्होने शान्त स्वर मे, स्पष्ट कथन किया "तुम छठे नरक मे जाओगे, कोणिक ।” । "क्या भते । अभी तो आपने कहा कि चक्रवर्ती कामभोगो मे आसक्त रहकर सातवे नरक मे जाते है। तब मैं छठे नरक मे क्यो जाऊंगा?" "इसलिए कोणिक । कि तू चक्रवर्ती नहीं है।" कोणिक अधीर हो गया, बोला • भते । मेरे पास इतना विपुल वैभव है, इतनी विशाल सेना है, में इतने बडे साम्राज्य का अधिपति हूँ। तब मै नक्रवर्ती क्यो नही बन मकता ?" भगवान ने दयापूर्ण, कोमत वचन कहे "कोणिरु | अहकार ठोक नही । लालसा अच्छी नहीं। जो हे उसमे मन्तोष मानना चाहिए। तुम्हारे पास उतने रत्न ओर निधि नहीं है जितो एक चक्रवर्ती के पाम होने चाहिए । अत. तुम उस पद को प्राप्त नहीं कर सकते । व्यर्थ में भटकना नहीं चाहिए।" किन्तु कोणिक माना नहीं । कामना उसके कलेजे मे कुंडती मारे बैठी थी। विम रत्न बना-बनाकर उसने अपना खजाना भर लिया। आर फिर विजेता बनने के लिए तमिना गुहा मे प्रविष्ट होने तगा। गुहा प्रतिपालक देव ने निषेध किया नोणित चक्रवर्ती बारह हो होते है, और वे हो चुके है। आप चश्वर्ती नहीं है । कृपया अनधिकार प्रवेश न कर । मा करने पर आपका समगल होगा।" कोणिक नहीं माना। उसने अनधिकार प्रवेश करना ही चाहा। परिणामम्बन्प देव के प्रहार ने मृत्यु प्राप्त कर वहठे नरक में उन -- Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 हंस का जीवित कारागार अपनी काया सभी को प्रिय है। मनुष्य इसे कंचन-काया मानता है। वह इसके मोह मे भूला-भूला फिरता है / किन्तु इसकी वास्तविकता क्या है, यह भी विचार कभी किया है ? पुरानी कहानी है। वीतशोका नामक नगरी मे राजा 'बल' राज्य करता था। चूंकि राजा न्यायी और प्रजा का पालक था, अत नगरी का नाम सार्थक था, वहाँ किसी को कोई दुःख या शोक नही था / राजा का पुत्र था महावल / नाम के अनुरूप ही वह महाबली और प्रतापी था / स्वर्ण मे सुहागे वाली बात तो यह थी कि बलवान होने के साथ ही वह विनयवान भी था / उसे अपनी शक्ति का तनिक भी अभिमान नहीं था / ___ एक समय जब उस नगरी में मुनि धर्मघोप पधारे तव उनके उपदेश सुनकर राजा वल को वैराग्य उपजा और वह राज्य-सिंहासन पर अपने पुत्र महाबल को बिठाकर मुनि बन गया / महाबल राजा हो गया। उसके छह वाल-मित्र थे-अचल, धरण, पूर्ण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द / महावल अव राजा था, किन्तु मित्रो की मित्रता तो वैसी ही बनी रही। सज्जन पुरुप ऐसे ही होते है / शक्ति या अधिकार के मद मे वे अपना भान कभी नहीं भूलते। महावल राज्य का कार्य जपने मिवो की सलाह से ही करता था। कुछ काल उपरान्त मुनि धर्मघोप विचरण करते हुए पुन उस नगरी मे पधारे / राजा महावल ने भी उनका उपदेश मुना और अपने पिता की 125