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________________ २० दया के सागर “यह विप है, वत्स | इसे किसी ऐसे स्थान पर डालना जहाँ कोई प्राणी इसे खाकर मृत्यु को प्राप्त न हो। किसी जीव को कष्ट न हो।" गुरु ने आदेश दिया था। मुनि ने अनेक एकान्त स्थानो पर जाकर ऐसे किसी स्थान की खोज की। किन्तु ऐसा तो कोई स्थान मिला नही। एक ही ऐसा स्थान थास्वयं का उदर; जहाँ उस विप को रख लेने से किसी जीव को कष्ट न होता। और मुनि ने वह भयानक विप अपने ही उदर मे रख लिया। कौन थे वे करुणामति मुनि ? वात वहुत पुरानी है। एक नगरी थी चम्पा। सोमदेव, सोममूर्ति ओर मोमदत्त नामक तीन ब्राह्मण वन्धु वहाँ निवास करते थे और उनकी पत्नियाँ थी-नागश्री, यज्ञश्री और भूतश्री। मिल-जुलकर घर का काम करती थी। जीवन की गाडी चल रही थी। एक दिन नागधी भोजन बना रही थी। उसने लोको का साग बनाया । वडे परिश्रम से खुब मिर्च-मसाले डाले ताकि साग स्वादिष्ट बने और नव प्रसन्न हो । किन्तु साग वन जाने पर जव परीक्षा के लिए नागश्री ने उसे जरासा चखा, तव उसने पाया कि दुर्भाग्यवश वह तुम्बी तो कडवी थी। सारा साग एकदम कडवा हो गया या-विप बन गया था।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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