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________________ महावीर युग को प्रतिनिधि कयाएं नागधी ने उस साग को अलग हटा दिया ओर झटपट दूसरा साग बनाकर समय पर सबको भोजन करा दिया। कडवे साग को बाद मे कही फेंक दूंगी, ऐसा विचार उसने कर लिया था। संयोग से उस समय उम नगरी में आचार्य धर्मघोप अपने शिष्यसमुदाय सहित पधारे हुए थे। उनके एक शिष्य धर्मरुचि भिक्षा हेतु नगर में निकले और नागधी के द्वार पर जा पहुँचे । उस आलमी स्त्री ने सोचा कि चलो, झंझट मिटी । कोन इस साग को कही फंकने जाता? यह मुनि स्वयं ही चले आए है तो इन्ही को यह साग दिए देती हूँ । एक पंथ दो काज सहज ही हो गए। मुनि ने पात्र वढाया। नागथी ने सारा ही साग उस पात्र मे उँडेल दिया । मना करने का अवकाश ही उसने नही छोडः । सरल मुनि ने देखा कि उतना साग ही क्षुधापूर्ति के लिए पर्याप्त है। अत उन्होने और किसी घर से कोई भिक्षा न ली और लौट गए। आचार्य के समक्ष जव वह साग मुनि धर्मरुचि ने रखा तो ज्ञानी गुरु ने जान लिया कि वह साग विपाक्त हो चुका है। शान्त भाव से उन्होने कहा "वत्स । यह विप है । इसे किसी ऐसे स्थान पर डाल आओ, जहाँ कोई जीव इसे खा न सके, किसी जीव को कष्ट न हो।" मुनि धर्मरुचि ऐसे किसी स्थान को खोज मे चले । एक एकान्त स्थान खोजकर उन्होने उस साग का एक बिन्दु परीक्षा हेतु भूमि पर गिराया । किन्तु उन्होंने देखा कि कुछ ही क्षणो मे उस साग की गन्ध पाकर सैकडो चीटियाँ वहाँ आ गईं और उसे खाकर तत्क्षण तडप-तडप कर मर गई। मुनि का हृदय करुणा से भर आया। उन्होंने सोचा कि ऐसा तो कोई स्थान है नही जहाँ मैं इस साग को डाल दूं आर कोई भी जीव उसे खा न पाये । तव क्या करूं ? किसो मी स्थान पर यदि मैने इसे डाल दिया तो हजारो चीटियो की हत्या हो जायगी। वे बेचारी अवोध चीटियाँ इस साग को खाकर कप्ट पायेगी और मृत्यु को प्राप्त करेंगी। __सोचते-सोचते मुनि को एक ही उपाय सूझा। उन्होंने वह साग स्वय ही खा लिया। वे जानते थे कि यह भयकर विप ह। इसे खाकर उन्हें
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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