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________________ दया के सागर ६३ भीपण वेदना होगी और निश्चित रूप से मृत्यु भी होगी। किन्तु अपनी वेदना ओर मृत्यु की चिन्ता उन्होने नही की । चिन्ता उन्हें केवल चीटियो की थी। उनकी पोडा और प्राणो की थी । उन्हे मुनिवर ने बचा लिया । परिणाम जो होना था वही हुआ । शीघ्र ही मुनि का शरीर नीला पड गया, भयानक वेदना से ऐठने लगा, पीडा की कोई सीमा नही थी । किन्तु दया और करुणा की मूर्ति धर्मरुचि अनगार की आत्मा शान्त और स्थिर थी । उनके हृदय में करुणा का समुद्र लहरा रहा था । अपनी आसन्न मृत्यु को देखकर उन महामुनि ने अनशन धारण किया, आत्मालोचना की, समस्त कपायो का उपशमन कर समाधि ग्रहण की और शरीर का त्याग कर दिया । मंसार के समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री और करुणा की भावना लिए वे ऊपर अपने आत्मलोक को चल पडे । -ज्ञाताधर्मकथा - १।१६
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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