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मैं हूँ, और मेरी आत्मा है ।
प्राचीन काल मे, जवकि भारतवर्ष सोने की चिडिया कहलाता था, पर शासन करने वाला श्रेणिक जैसा क्या अभाव हो सकता था ? उसकी
मगध जैसा विशाल राज्य और उस शक्तिशाली सम्राट 1 उस सम्राट को शक्ति की क्या सीमा हो सकती थी ?
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किन्तु एक वार ऐसी घटना भी घटी कि वह सम्राट् श्रेणिक भी स्वय तुच्छ और असहाय अनुभव करने लगा ।
हुआ यह कि एक वार सम्राट् श्रेणिक वायु सेवन करता हुआ अपने अश्व पर सवार होकर अपनी राजधानी राजगृही से बाहर निकल पडा । घूमता - घामता वह 'मण्डित कुक्षि' नामक एक सुन्दर और विशाल उद्यान मे जा पहुँचा । वह उद्यान प्रकृति की शोभा का एक शानदार और भव्य नमुना था । मैकडो प्रकार के वृक्ष हरे-भरे और पुष्पो तथा फलो से लदे हुए शीतल पवन से अठखेलियाँ कर रहे थे । पुष्पो पर भ्रमर मतवाले होकर टूटे पड रहे थे और वीसियो प्रकार के पक्षी कलरव करते हुए इधर से उधर उड रहे थे । वातावरण ऐसा था कि मनुष्य वहाँ पहुँच कर अपना भान ही भूल जाय और योगियो की ध्यान-साधना भी भंग हो जाय ।
किन्तु उसी उद्यान मे, उसी वातावरण मे एक बाल- योगी किसी वृक्ष के नीचे आसन लगाए ध्यानस्थ बैठा था और अपनी आत्मा के ससार मे इवा हुआ सारी सृष्टि के व्यापारो के प्रति उपेक्षा का भाव धारण किए था ।
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