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मैं हूँ, और मेरी आत्मा है ।
अपने विशाल साम्राज्य, अपनी असीम शक्ति और अपने अटूट ऐश्वर्य का विचार करता और परम आनन्द के अनुभव मे डूबा हुआ सम्राट् श्रेणिक टहलता - टहलता उसी स्थान पर आ पहुँचा ।
उस वाल - योगी को देखकर सम्राट् को वडा अचम्भा सा लगा। वह सोचने लगा- इस तरुण आयु मे यह योगी कैसा ? और योगी भी कोई सामान्य नहीं, अद्भुत तेज ओर महिमा से मण्डित । ललाट विशाल, मुख गौर, नासिका के अग्रभाग पर स्मित, नेत्र भी विशाल और तेजोमय, सारा शरीर कान्तिवान ।
सम्राट् उस योगी को देखता ही रह गया । उसके मस्तिष्क मे एक सन्देह भी उत्पन्न हुआ कि यह कोई मानव योगी ही है अथवा कोई देवकुमार ?
सम्राट् इसी पशोपेश मे पडा था कि योगी की समाधि टूटी । उसने सम्राट् को देखा और एक दिव्य मुस्कान उसके अधरो पर खेल गई । सम्राट् अपने कुतुहल को रोक न सका । उसने पूछा-
"मुनिवर | आपको देखकर विम्मित हूँ । इस आयु मे आपका यह वेश? यह आयु तो मसार के सुखो का भोग करने की है। भला ऐसी आयु मे आपको यह योग कैसे आ गया ? अनुचित न समझे तो बताने की कृपा करे ।"
योगी उमा मन्द, मधुर मुस्कान के साथ बोला
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" श्रीमन् | इसमे आश्चर्य की क्या वात ? यही समझ लीजिए कि मैं असहाय था, अनाथ था, निरपाय था, वम इसीलिए भिक्षु बन गया । "
सम्राट् को योगी का उत्तर तो युक्ति-सगत लगा कि एक असहाय, अनाथ, निरुपाय व्यक्ति यदि भिक्षु न वन जाय तो और भला क्या करे ? किन्तु इस उत्तर से उसे कहो अपने हृदय के भीतर एक चोट भी लगी । उसने सोचा -- मे मगध साम्राज्य का सर्वशक्तिमान अधीश्वर, और मेरे ही राज्य मे कोई इन प्रकार अनाथ, असहाय हो ? यह तो मेरे लिए ही लज्जा को बात हुई । यदि मैं अपनी प्रजा का सहायक न वन सका, अनाथों का नाथ न वन सका तो फिर मैं राजा कैसा ?
श्रेणिक को कर्तब्य बोध हुआ । वह तुरन्त बोला
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