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क पन्था.?
१८३ "मेरी ओर पलटकर देखो, अन्यथा इसी क्षण तुम्हारे शीश धड से अलग कर दूंगी।
किन्तु दोनो भाई दृढ रहे। भयभीत नही हुए। उन्होने पलटकर नही देखा । वे जानते थे कि पलटकर देखने का अर्थ होगा-निश्चित मृत्यु ।
जव धमकियो का कोई प्रभाव पडता दिखाई नही दिया तब देवी ने सम्मोहन का अस्त्र प्रयुक्त किया। अत्यन्त रूपसी रमणी का स्वरूप धारण कर वह नाना हाव-भाव प्रगट करती विलाप-सा करने लगी
“अरे, तुम तो मेरे प्राणाधार हो। एक बार मेरी ओर देखो तो सहो । मैं तुम्हारे वियोग मे जीवित ही कैसे रहूँगी ?"
उसी समय देवी ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि जिनपाल तो दृढ है, अडिग है, किन्तु जिनरक्ष का हृदय विचलित हो रहा है अत' उसने अपना लक्ष्य उसे ही बनाया और कहने लगी
__"प्यारे जिनरक्ष ! यह जिनपाल तो व्यर्थ है। मेरे प्रिय तो तुम्ही हो । मेरा रोम-रोम तुम्ही पर वारी है। मैं तो तुम्हारे लिए अपने प्राण भी दे सकती हूँ। एक बार मेरी ओर तुम देखो तो सही।"
जिनरक्ष ने अपने हृदय पर से अधिकार खो दिया। उसका संयम शिथिल हो गया। मोह के नागपाश से वह आबद्ध हो गया। इन्ही भावनाओ के साथ उसकी मृत्यु का मार्ग भी निश्चित हो गया।
यक्ष ने जान लिया कि जिनरक्ष विचलित हो गया है। अत उसने उसे अपनी पीठ पर से गिरा दिया ।
राक्षसी-देवी झपट पडो। अब जिनरक्ष उसकी शक्ति की सीमा मे था। तीक्ष्ण तलवार की नोक से उसके शरीर को आर-पार छेदती हुई वह वोली
"विपय-लोलुप । नरक के कीडे । मुझे धोखा देकर भागना चाहता था ? मूर्ख, सुन्दर रमणी का आलिंगन-सुख लेना चाहता था ? ले, अब अपनी भोगालालसा• का मीठा रस अच्छी तरह चख ले ।”
जिनरक्ष ने अपना मार्ग स्वय ही चुना~मृत्यु का मार्ग । क्योकि वह विपय-भोगो की ओर दौडा था।