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________________ OP मैं श्रमण हूँ - ससार है । इसमे छोटी-वडी घटनाएँ प्रतिदिन, प्रतिक्षण घटित होती ही रहती है। किन्तु कभी-कभी कोई विवेकवान व्यक्ति जब किसी छोटी से छोटी घटना पर भी पूरा ध्यान देता है और विचार करता है, तब उस छोटी-सी घटना मे से भी उसे जीवन का वह सार प्राप्त हो जाता है जो वडे-बडे ज्ञानियो को भी सहज ही प्राप्त नही हो पाता। वाराणसी नगरी मे ब्राह्मण कुलोत्पन्न दो भाई रहते थे-जयघोप और विजयघोष । दोनो साथ जन्मे, पले और शिक्षित हुए थे। वेद-वेदागो का साथ ही उन्होने अध्ययन किया था। दोनों विद्वान थे। एक बार जयघोप गगा के तीर पर स्नानार्थ गया था। उसकी दृष्टि एक साप पर पड़ी जिसने एक मेढक को पकड़ रखा था। और उसी सर्प को पकड लेने के लिए एक मयूर प्रयत्नशील था। यह दृश्य देखकर जयघोप अन्तर्मुखी होकर विचार करने लगा-- कैसा है यह जीवन ? हम उसमे नमित रहते है और नहीं जानते कि किसी भी क्षण काल हमे ग्रस लेगा। एक क्षण का भी भरोसा नही। हमारी शक्ति वस्तुत शून्य के समान है । काल हमसे बहुत अधिक वली है । ऐसा विचार करते-करते उसने अपने जीवन को शीघ्रातिशीघ्र सुसस्कृत बना लेने का निश्चय किया और वह बमण बन गया। अब वह अपनी आत्मा के कल्याण हेतु तपस्या करने लगा, साधना मे रम गया । विजयघोप उसी लकीर पर चला जा रहा था। एक बडा यज्ञ वह वाराणसी मे करा रहा था। उसी समय मासखमण के पारने के निमित्त १२१
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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