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________________ अब पछताये होत क्या ? मेतार्य जन्म से चाण्डाल थे । उन्होने श्रमण भगवान महावीर के सघ मे दीक्षा ग्रहण की थी। ज्ञान और समता की साधना से उनका सयमी जीवन चमक उठा । सयम की कठोर साधना के लिए सघ की मर्यादा से मुक्त होकर एकाकी रहने लगे। परिभ्रमण करते हुए वे एक बार राजगृह मे आये। भिक्षा के लिए वे एक स्वर्णकार के पास पहुँचे। स्वर्णकार मुनि को देखकर हर्प-विभोर हो उठा। वन्दन कर निवेदन किया भगवन् । एक क्षण आप यहाँ पर रुके, मैं अभी घर मे जाकर आता है। मुनि वही पर खड़े रह गये। स्वर्णकार की दुकान मे क्रौच पक्षी का एक युगल वठा हुआ था। वह वहाँ पड़े हुए स्वर्णयवो को निगल गया। स्वर्णकार ने आकर ज्यो ही देखा कि स्वर्णयव वहाँ नही है तो वह स्तब्ध हो गया। उसने मुनि से स्वर्णयवो के सम्बन्ध मे प्रश्न किया। मुनि मौन रहे । स्वर्णकार को आवेश आ गया । वह बोला-"मुनिवर | मै अभीजभी आपके सामने स्वर्णयव छोडकर गया था। आपके अतिरिक्त यहाँ पर कोई आया भी नही है अत आपने ही मेरे स्वर्णयवो को लिया है।" मुनि अब भी मौन थे। मुनि के मौन से स्वर्णकार तिलमिला उठा। उसने कहा-"मुनिवर । वे स्वर्णयव मेरे नहीं है । वे सम्राट् श्रेणिक के है। मै उनके अन्त पुर के लिए आभपण तैयार कर रहा है। यदि वे स्वर्णयव मुझे नहीं मिलेगे तो आप जानते है कि मेरी क्या दुर्दशा होगी? आप सम्राट श्रेणिक के दामाद रहे है। आपने २६३
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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