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________________ २६४ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ अपने विराट् वैभव को छोडकर दीक्षा ग्रहण की हे । श्रमण भगवान महावीर के महान सघ के आप तेजस्वी सदस्य है। अत मन के लोभ को छोडकर मेरी वस्तु पुन मुझे लौटा दे । भूल मानव से होती है, आप से भी भूल हो सकती है। अभी आपकी भूल को अन्य कोई भी नहीं जानता । मेरी बात को माने और मुझे मेरी वस्तु लौटा दे ओर भूल का प्रायश्चित्त कर अपना शुद्धीकरण करे।" स्वर्णकार के यह कहने पर भी मुनि ने मौन न खोला । स्वर्णकार ने समझा कि मुनि का मन स्वर्णयव पर ललचा गया है। वे विना दण्ड दिये मानेगे नही । वह द्वार बन्दकर शीघ्र ही गीला चर्मपट्ट लाया और कसकर मुनि के सिर पर वाँध दिया । मुनि भूमि पर लुढक गये। सूर्य के उग्रताप से चर्मपट्ट धीरे-धीरे सूखने लगा। मुनि चिन्तन करने लगे-स्वर्णकार का इसमे किञ्चित् भी दोप नही है । वह वेचारा भी राजा के उग्र दण्ड के कारण भयभीत है, यदि मै मौन छोड़कर सत्य-तथ्य का समुद्घाटन करता तो क्रौच-युगल की हत्या हो जाती । दूसरे के प्राणो की बलि देने से तो यही श्रेयस्कर है कि मैं अपने प्राणो की बलि दे दूं। मुनि ध्यानस्थ हो गये। उन्होने अपना बलिदान दे दिया। उसी समय एक लकडहारे ने लकडी का गट्ठर स्वर्णकार के मकान मे डाला, उसकी तेज आवाज से भयभीत होकर क्रौच पक्षी को बीट हो गई, उसमे स्वर्णयव निकल आये । स्वर्णकार उसे देख कर पश्चाताप करने लगा। अरे | मैने निरपराध मुनि की हत्या कर दी। पर अब क्या हो सकता था ?
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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