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________________ आसक्ति और अनासक्ति ___ सार्थवाह के घर से निकल कर चिलात अब विलकुल स्वच्छन्द हो गया। उसे कोई कुछ कहने वाला नहीं रहा । कोई रोकने वाला नहीं रहा। उसके जहाँ जी मे आता, जाता और जो जी मे आता वही करता। नगर के गली कूचो मे, मदिरालयो मे, जुआरियो के अड्डो मे, वेश्यालयो मे अर्थात् जो भी नीच से नोच स्थान हो सकते थे वहाँ पर चिलात दिखाई पडता । निरकुश होकर वह सारे कुव्यसनो मे सिर से पैर तक डूब गया। जुआ खेलता, मदिरा पान करता, वेश्याओ के घर जाता और चोरी किया करता। नगर से कुछ ही दूर दक्षिण-पूर्व दिशा मे सिंहगुफा नाम की एक चोर पल्ली थी । वह चोर पल्ली सघन वन से घिरी हुई थी। बांस की वडी-वडी झाडियो से चारो ओर से आवेष्ठित होने के कारण उसका पता लगाना भी कठिन था । अनेक झरनो, खड्डो और पहाडियो को पार करने पर ही वहाँ तक पहुँचा जा सकता था। रात दिन जो व्यक्ति उस सघन वन मे आते-जाते रहते वे हो उसका पता लगा सकते थे । इतनी विकट थी वह पल्ली कि यदि एक पूरी सेना भी उस स्थान पर आक्रमण करती तो भी उसके भीतर छिपे हुए लोगो का कुछ भी नहीं विगाड़ सकती थी। उस पल्ली का स्वामी था विजय नामक एक चोर सेनापति । वह साक्षात् अधर्म की ध्वजा के सदृश था । जीवन मे उसने कोई भी अच्छा कार्य कभी नही किया था । अत्यन्त क्रूर और शूर था। प्रहार करता था तो ऐसा कि प्रतिद्वन्द्वी उसे सहन नहीं कर सकता था । अत्यन्त साहसी और शन्दबेधी वह चोर सेनापति पाँच सौ चोरो का अधिपतित्व भोगता हुआ वहाँ रहता था। बह विजय चोर समस्त अन्यायी, अत्याचारी और कुटिल लोगो का आश्रयदाता था । चोर, जार, जेव काटने वाले, सेंध लगाने वाले, खात खोदने वाले, राज्य अपराधी, कर्जदार, वालको की हत्या करने वाले, विश्वासघाती, जुआरी-कौन ऐसा व्यक्ति था जो विजय चोर की शरण मे आकर आश्रय न पाता था ? चिलात दासपुत्र भी उसकी शरण मे पहुँचा।। चोर-चोर मौसेरे भाई । विजय चोर को यह जानने मे देर नहीं लगी कि यह आदमी काम का है। उसने चिलात को अपने पास रख लिया।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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