SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ धीरे धीरे चिलात विजय चोर सेनापति का दाहिना हाथ वन गया । क्रूरता ओर कुटिलता में वह अन्य सव चोरो से बढा-चढा था । जहाँ भी सेनापति आक्रमण करता वहाँ उसके साथ चिलात अवश्य होता । उसकी योग्यता से विजय इतना आश्वस्त हो गया था कि अनेक वार तो वह स्वय अपनी पल्ली मे ही रहता और चिलात के ही नेतृत्व मे अपने साथियो को भेज देता । चिलात भी वडी कुशलतापूर्वक जिस काम के लिए उसे भेजा जाता उसे पूरा कर लोट आता । १२ काल की गति समर्थ से समर्थ प्राणी के रोके भी नहीं रुकती । विजय चोर भी बूढा हुआ और एक दिन उसकी मृत्यु भी हो गई । नया सेनापति बनाये जाने का प्रश्न उठा । सर्वसम्मति से चिलात को ही चुना गया क्योकि वही सबसे अधिक समर्थ और विजय चोर का विश्वासपात्र भी था । अब चिलात के पास शक्ति थी । शक्ति मे मद होता है | धन्य सार्थवाह द्वारा किया गया अपना अपमान भी वह भूला नही था । शूल-सा उसके हृदय मे चुभा हुआ था । अत उसने वदला लेने का निश्चय किया । एक दिन अपने सभी साथियो को उसने इकट्ठा किया और मासमदिरा से उन्हे पूर्णतया परितुष्ट करने के उपरान्त उनसे कहा "मेरे वहादुर साथियो ! धन्य सार्थवाह अत्यन्त धनाढ्य है । उसकी कन्या भी अत्यन्त रूपवती है । हम उसके घर पर आक्रमण करेगे । धन का लोभ मुझे नही है । जितना भी धन मिलेगा वह मैं सारा तुम लोगो मे वॉट दूंगा । केवल उस कन्या को मैं अपने लिए रखूंगा । वोलो, क्या तुम लोग प्रस्तुत हो ?” सेनापति की इच्छा तो उन सबके लिए आदेश ही था । धन प्राप्त होने का आकर्षण अलग । अत उन्हे इस कार्य के लिए तैयार होने मे क्षणमात्र का भी विलम्व नही हुआ । निश्चय हो गया । शुभ शकुन के लिए चिलात अपने साथियो के साथ आर्द्रा' चर्या पर बैठा । जब दिन ढलने लगा तो वह अपने पाँच सौ साथियो सहित कवच इत्यादि धारण कर तैयार हो गया । शस्त्र सजा लिए गए ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy