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________________ त्याग का अर्थ ऐसी निरर्थक बात उस श्रमण के कानों में उसकी मन की शांति उससे मग होती थी । विनय की , 2 जाती । उसी ने " प्रभु | मुझे अन्यत्र ने चलिए । यह बहुत निरा कहते है ।" अभयकुमार को जब उस स्थिति का पता चला तो वह तुरंत सुन स्वामी के पास पहुँचा । वह अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति था। उस युग में स कुमार की तीव्र बुद्धि की समानता करने वाले व्यक्ति ने गिनी। उसने सुधर्मा स्वामी से कहा " आप तनिक भी चिन्ता न कीजिए तथा चहा कीजिए । में इन लोगो की भ्रान्त धारणा का समुचित समाधान सही मार्ग पर ला दूंगा ।” अव अभयकुमार ने रत्नों की तीन टेरिया माजी नगर न घोषणा कराई कि अभयकुमार रत्न-दान करगे, च्छुक व्यक्ति एक हो जायँ । बिहार के न उन्ह वे ही सब लोग जो श्रमण के त्याग की निन्दा करते नहीं के, लोभ के मारे हजारो की संख्या मे एकत्र हो गए । अभयकुमार ने कहा "यह रत्न - राशि उसी व्यक्ति को दी जायगी जो अग्नि, जल जार नारी का त्याग करेगा ।" लोभी ओर लालची ओर विलासी सब लोग कभी उस रत्न - राशि की ओर देखते तथा कभी अपने साथियो की ओर । किन्तु उनमे से एक भी ऐसा न था जो आगे आकर कहता कि में इन तीन वस्तुओं का त्याग करता हूँ | सभी यह सोच रहे थे - जल का त्याग कैसे हो ? जत तो जीवन हे । अग्नि न होगी तो भोजन कैसे बनाएँगे ? ओर नारी के बिना रहेंगे कैसे गर्म लोहे पर जिस प्रकार हथोडा चोट करता है उस प्रकार गम्भीर स्वर मे अभयकुमार ने उस समय कहा मुर्खो ' केवल दूसरे की निन्दा करना ही सीखे हो ? लोभी इतने हो कि भिखारियो की तरह रत्न लेने चले आए। किन्तु तुममे से एक भी ऐसा
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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