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त्याग का अर्थ
मनुष्य स्वय चाहे कोई अच्छा कार्य न कर सके, किन्तु यदि कोई दूसरा व्यक्ति कुछ अच्छा कार्य करता है तो वह जल उठता है ओर उसकी निन्दा करने लगता है- अरे, इसमे क्या रखा है, यह तो हम भी कर सकते थे ।
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कर सकते थे, किन्तु किया तो नही कर ही नही सकते। जो कुछ वे कर सकते है की टॉग खीचकर उसे गिराने का प्रयत्न करें अथवा उसकी निन्दा करें |
वस्तुत ऐसे व्यक्ति स्वयं कुछ वह यही कि कुछ करने वाले
एक कठियारा था । उसने गणधर सुधर्मा स्वामी का उपदेश सुना और आत्म-ज्ञान प्राप्त होने से प्रव्रज्या ग्रहण कर साधु-जीवन व्यतीत करने लगा । सदा अप्रमत्त रहकर कठोर साधना वह किया करता । .
किन्तु जिनसे स्वयं कभी कोई त्याग हो नही सकता ऐसे कापुरुष लोग चुप कैसे बैठते ? वे आपस मे उस श्रमण की निन्दा करके ही अपना नपुंसक पौरुप जताते
"इस कठियारे को तो देखो, श्रमण बना है । हा भाई और करता भी क्या ? भूखा मरता था । खाने को दाने नही थे, तन ढकने को नही ये तो सोचा श्रमण ही बन जाओ। इस त्याग में क्या रखा है। इसके पास या ही क्या जो बडा त्यागी बना फिरता है ? ऐसा त्याग तो कोई भी कर सकता है ।”
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