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कर्म-चक्र
१५३ निदान निराश ओर दुखी होकर सुकुमालिका ने आर्या गोपालिका से दीक्षा ले ली।
एक बार सुभूति नामक उद्यान मे तप करते हुए उसने देवदत्ता नामक गणिका को पाँच पुरुपो के साथ क्रोडा करते देखा। उसकी सोई हुई वासनाएँ जाग उठी । उसने संकल्प किया कि यदि उसके तप का कोई भी फल हो, तो उसे भो पाँच पुरुपो का सयोग प्राप्त हो ।
जीवन क्रम चलता रहा । एक जन्म मे वह द्रपद राजा के घर कन्या वनकर जन्मी । उसका नाम द्रोपदी रखा गया । अवस्था प्राप्त होने पर जव उसका स्वयंवर रचा गया, तव वह पाँच पाण्डवो की पत्नी बन गई ।
एक बार महर्षि नारद घूमते-घामते हस्तिनापुर आ पहुंचे। उपस्थित जन-समुदाय ने उनका स्वागत किया। किन्तु नारद को असंयत और अविरत जानकर द्रोपदी ने उन्हे नमस्कार तक नहीं किया। नारद तो जन्म का हठी और छली था। उसने वैर की गाँठ बाँध ली। द्रोपदी से बदला लेने का उसका निश्चय हो गया।
नारद अपरकंका नगरी के राजा पद्मनाभ के पास गया । द्रोपदी के रूप-गुण की प्रशसा कर बहुत-सी उल्टी-सीधी वाते की और देव की सहायता से द्रोपदी को वहाँ मॅगा लिया।
पाण्डव परेशान और चिन्तित हो गए। किन्तु उनके सहायक थे श्रीकृष्ण । वासुदेव श्रीकृष्ण ने वस्तुस्थिति का पता लगाकर पद्मनाभ पर आक्रमण किया और युद्ध में उसे परास्त कर द्रोपदो को लौटा लिया।
द्रोपदी को पाण्डवो के साथ रहते हुए अन्य अनेक प्रकार के कष्ट भी भोगने पडे । वस्तुत वे कष्ट स्वयं उसके अपने ही पूर्व कृत्यो के दुष्परिणाम थे।
__ अन्त मे पाण्डवो ने प्रव्रज्या ग्रहण की और साधना के मार्ग पर चलते हुए सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। इसी प्रकार द्रोपदो भी आर्या बनी। अब उसने शुद्ध साधना की। उस साधना के बल से वह अन्त मे महाविदेह मे मुक्त होगी।
-~-ज्ञाता०