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________________ १०८ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ देशना की समाप्ति हुई और राजा आचार्य के चरणो मे जा गिरा, यवचालित -सा, भाव-विभोर, विचार-मग्न । अपनी जिज्ञासा की शान्ति के लिए उसने आचार्य से छह प्रश्न किए । उनका समुचित समाधान पाकर वह कृतकृत्य हो गया ओर बोला“भते । मेरे जीवन की पुण्य घडी आ पहुँची । अपने चरणो मे मुझे शरण दीजिए ।" - राजा परदेशी की दृष्टि खुल गई । अन्धकार से वह प्रकाश मे आ गया, अधर्म से धर्म मे आ गया । वारह व्रतां को स्वीकार कर वह अब ऐसा व्यवहार करने लगा जैसे कोई दूसरा ही व्यक्ति हो । आचार्य केशी के व्यक्तित्व ने उस व्यक्ति को बदल दिया था । किन्तु अभी एक परीक्षा शेप थी । रानी सूर्यकान्ता को राजा का यह सरल, धार्मिक जीवन रुचा नहीं । राजा ससार और स्वयं उसकी ओर से विरक्त होकर धर्म मे अनुरक्त होकर जीवन-यापन करे, यह स्थिति बह विलासी रानी सह न सकी । उसने राजा को विष दे दिया । रानी अपने कुकृत्य मे सफल तो नही हो सकी, किन्तु राजा ओर भी विरक्त हो गया । पौपधशाला मे जाकर उसने जीवन की आलोचना करके सलेखना करली । उसके मन मे अब किसी के प्रति कोई द्वेप या रोष नही था-रानी के प्रति भी नही । वह शान्त, प्रशान्त, उपशान्त था । उसे समाधिमरण प्राप्त हुआ ओर देवलोक के सूर्याभविमान मे वह सूर्याभ देव बना । वहाँ से महाविदेह क्षेत्र मे होकर वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा । - रायपसेणिय
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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