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________________ सुबुद्धि की बुद्धि ६५ पान, खादिम - स्वादिम आदि उत्तम वर्णादि से युक्त और समस्त इन्द्रियो तथा गात्र को आनन्द प्रदान करने वाला है ।" राजा ने अपने कथन को मन्त्री के सामने इस अभिप्राय से दुहराया कि वह इसका अनुमोदन करेगा | लेकिन मन्त्री तो मौन ही रहा । विवेकवान पुरुष केवल किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के उद्देश्य से ही कोई बात स्वीकार या अस्वीकार नही करते । वे जब कहते है तब सारपूर्ण बात ही कहते है । मन्त्री को अब भी मौन ही देखकर राजा को कुछ आश्चर्य हुआ । उसने अपनी बात फिर से दुहराई । किन्तु परिणाम वही - मौन | तब राजा को कुछ क्रोध आया। उसने तीसरी बार वही बात कुछ तीखे स्वरो मे कहकर मन्त्री से पूछा " तुम उत्तर क्यो नही देते सुबुद्धि ? मैं पूछ रहा हूँ और तुम बोलते नही । तुम्हारा जो भी विचार हो वह तुरन्त कहो ।” राजा का यह आदेश पाकर मन्त्री ने कहा " स्वामी । यह अशन-पान मनोज्ञ है, उत्तम है, इस विषय मे मुझे कोई विस्मय नही है । यह सब तो पुद्गलो से निर्मित है और पुद्गलो का स्वरूप परिवर्तनशील है । उत्तम एव शुभ रूप-रस- गन्ध वाले - पुद्गल भी कालक्रम से गन्दे और खराब हो सकते है तथा जो अशुभ और खराब हे वे भी उत्तम और शुभ हो सकते है । तत्व की बात तो यह है राजन् । कि सभी पुद्गलो मे प्रयोग ( जीव के प्रयत्न) तथा विजत्रा (स्वाभाविक रूप से) परिणमन होता रहता है ।" बात पते की थी । तात्विक थी । किन्तु वहाँ तत्व की बात सुनने कौन बैठा था ? राजा को तत्व नही सुनना था, केवल अपनी बात का अनुमोदन चाहिए था । जव मन्त्री ने उसकी बात का अनुमोदन नही किया, उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाई, तो वह उससे स्प्ट होकर अन्य लोगो से वातचीत करने लगा । मन्त्री के प्रति उसके मन मे उपेक्षा का भाव आ गया । मन्त्री भी यह देखकर शान्त भाव से अपना कार्य देखने के लिए उठ कर अन्यत्र चला गया । कुछ दिन व्यतीत हो गए। एक वार राजा अश्व पर सवार होकर घुमने निकला । साथ मे अनेक सैनिक थे तथा मन्त्री भी था । घूमते-घूमते
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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