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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ नगरी से बाहर उत्तरपूर्व दिशा में एक विशाल खाई थी। वह वडी गन्दी थी। उसका जल चर्वी, मांस, रक्त आदि से युक्त था । शव उस खाई में पडे रहते थे। कीडो-कृमियो से भरा हुआ वह पानी अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त तथा अमनोज्ञ था। देखते ही घृणा उत्पन्न होती तथा समीप जाते ही जी घवराने लगता।
एक दिन राजा भोजन करने बैठा था। साथ मे और भी अनेक राजा तथा धनी व्यक्ति थे । भोजन कर लेने के उपरान्त राजा जितशत्र ने कहा
"देवानुप्रियो । यह उत्तम अशन, पान है । उसका स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और वाणी सभी कुछ श्रेष्ठ है। इन्द्रियो तथा शरीर को सुख देने वाला है।"
राजा की वात मे हाँ मे हाँ मिलाने वालो की इस ससार मे क्या कमी हो सकती है ? जितने भी उपस्थित जन थे उन सभी ने राजा की वात स्वीकार की। कोई बोला
"अहा राजन् । आप जैसा कहते है वैसा ही है।"
"अहा राजन् । इस भोजन-पान आदि का क्या कहना? यह तो अद्भुत है।"
"इसके वर्ण, रस, गन्ध आदि अत्यन्त उत्तम है।" “आनन्द की सीमा है, राजन् । यह अशनपान अत्यन्त मनोज्ञ है।"
सव ने हाँ मे हाँ मिलाई, और खूब मिलाई । राजा को प्रसन्न करने का अवसर कौन चूके ?
किन्तु उस मण्डली मे एक ऐसा भी व्यक्ति था जो चुपचाप उस सारे वार्तालाप को सुन रहा था। वह कुछ भी बोला नही ।
वह व्यक्ति अन्य कोई नही, मन्त्री सुबुद्धि था। राजा ने जव मन्त्री को मौन देखा तो कहा"अरे मनिवर ! आप मौन है । कुछ कहते नहीं। यह मनोज्ञ अशन,