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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं राजा उस खाई के समीप जा पहुँचा । उस गन्दे पानी की दुर्गन्ध से उमका माथा चकरा गया और कान-मुंह ढंककर वह वहाँ से भाग खडा हुआ।
खाई से दूर जाने पर राजा बोला"उफ | कितना गन्दा, कसा दुर्गन्धिपूर्ण पानी है ?"
राजा के मुँह से यह बात सुनते ही साथ वाले सभी लोगो ने उसकी वात का अनुमोदन करते हुए स्वीकृति मे सिर हिलाया। किन्तु अपने स्वभाव के अनुसार मन्त्री मौन ही रहा।
राजा ने उसे मौन देखा, अपनी वात दुहराई और अनुमोदन की आशा की। किन्तु अनुमोदन नही मिला। दूसरे शब्दो मे, मन्त्री ने उसकी हाँ मे हाँ नही मिलाई। राजा ने कुपित होकर उत्तर देने का आदेश दिया तव मन्त्री ने कहा
"राजन् ! इस खाई के पानी के अच्छा या बुरा होने के विषय मे मुझे कोई विस्मय नही है। यदि आपको स्मरण हो तो एक बार पहिले भी मेने आपसे कहा था कि शुभ और अच्छे रूप-रस-गन्ध वाले पुद्गल भी अशुभ रूप मे परिणत हो जाते है तथा जो अशुभ दिखाई देते है वे शुभ रूप मे । राजन् । मनुष्य के प्रयत्न से तथा स्वाभाविक रूप से पुद्गलो मे परिवर्तन होता ही रहता है।”
फिर वही वात हुई । राजा को उपदेश नहीं सुनना था, अपनी बात का अनुमोदन ही चाहिए था । रुष्ट होकर वह बोला
“मन्त्री | तुम केवल नाम के ही सुबुद्धि प्रतीत होते हो। स्वय को वडे बुद्धिमान मानकर दुराग्रह करते हो।"
राजा ने कडवी बात कह दी, किन्तु मन्त्री शान्त रहा । उसने मन मे निश्चय किया कि यह तत्व को वात राजा को किसी दिन अन्य प्रकार से समझा दूंगा।
घर आकर मन्त्री ने कुम्हार के यहाँ से कुछ नए घडे मॅगाए ओर उनमे खाई का वही गन्दा जल भरवा कर मँगवाया। उस जल को अच्छी तरह छानकर दूसरे घडो मे भरवाया और उनका मुंह वन्द करा कर मुहर लगवा दी। सात दिन और सात रात्रि के बाद जल को फिर से दूसरे घडो मे जनकर भरा गया और उसी प्रकार मुहर लगा दी गई।