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________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं " बहुत अशक्त हो गया हूँ । बैठना भी अव शक्य नही रहा । मेरे लिए शय्या तैयार कर दो ।" १५८ शिष्य शय्या तैयार करने लगे । कुछ समय लगना स्वाभाविक था । जमालो धैर्य न रख सके । अशक्ति के कारण धैर्य भी कम हो गया था । उन्होंने पूछा इतना विलम्व ? शय्या तैयार हो गई क्या ?” " शय्या तैयार हो रही है, गुरुदेव । अभी तैयार हुई नही ।" इस उत्तर को सुनकर जमाली विचार करने लगे-- भगवान महावीर का कथन है कि जो कार्य प्रारम्भ हो चुका है, उसे किया ही समझना चाहिए | किन्तु यह तो सत्य प्रतीत नही होता । यह तो प्रत्यक्ष मे ही लोकविरुद्ध दीखता है । ऐसा सोचते-सोचते जमाली ने निश्चय किया कि हे वह सत्य नहीं है, सत्य तो मैने ही खोज निकाला है। आया । उसने अपने शिष्यों से कहा "भगवान महावीर कहते है कि " जो कार्य प्रारम्भ हो गया है, उसे किया ही समझना चाहिए" - यह कथन ठीक नही है । में कहता हूं-- कार्य की समाप्ति पर ही उसे 'कृत' अथवा किया हुआ कहा जा सकता है। कार्य को आरम्भ करते ही 'कृत' कहना गलत है ।" भगवान जो कहते उसके मन मे गर्व इस प्रकार उसने अपना नया सिद्धान्त गढ लिया ओर स्वस्थ होकर विचरण करते हुए वह अपने इन विचारो का प्रचार करने लगा। प्रियदर्शना ने भी जमाली के पक्ष को ही मत्य मान लिया और वह भी ऐसा ही प्रचार करने लगी । उन दोनों के बहुत से शिप्य और शिष्याएँ इस प्रकार के विरोधी प्रचार से असन्तुष्ट होकर भगवान के शासन में चले गए । समय व्यतीत होता रहा । एक बार प्रियदर्शना टक नामक एक कुम्भकार के यहां ठहरी थी। वह भगवान का भक्त था । प्रियदर्शना ने उस अपने पक्ष मे लेने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उसे तो भगवान् की बात ही उचित लगी और वह टस से मस न हुआ । उसे दुखी किय भगवान की पुत्री ही उनके कथन में अथवा रखने लगी है विरोधी प्रचार करती है। नोचते-सोचते उसने प्रियदर्शना को मीठे माग का एक उपाय खोज ही लिया । रा
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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