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निरुत्तर जमाली
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जिस समय प्रियदर्शना की शिष्याएँ स्वाध्याय में निरत थी, उस समय ढक ने एक अगारा उनकी शादी पर रख दिया। मालूम होते ही प्रिय दर्शना उसकी भर्त्सना करती हुई बोली
“आर्य | यह क्या करते हो ? हमारी शाटी जल गई है ।" ढक को इसी अवसर की तलाश थी। उसने कहा
" आपके मत से आपकी बात ठीक नही है शाटी का अभी एक पल्ला ही जला है, पूरी शाटी नही जली । फिर 'शाटी जल गई' यह आप कैसे कहती है ? यह वचन प्रयोग तो आपके मत के प्रतिकूल है । "
प्रियदर्शना ने सकेत को समझा और सत्य को भी समझ लिया । उसने अपने मिथ्या विचारो की आलोचना करके पुन. भगवान का शासन स्वीकार कर लिया |
जमाली ने जब यह सुना तो उसे एक धक्का-सा लगा । उसके अहं पर चोट पहुँची । वह श्रावस्ती से चम्पा पहुँचा और भगवान के समक्ष जा पहुँचा और कहने लगा
“देवानुप्रिय | जब मैं आपके पास से गया था तब छद्मस्थ था । अब मै सर्वज्ञ हूँ, केवली हूँ और जिन हूँ ।"
गणधर गौतम भगवान के समीप ही बैठे थे । उन्होने जमाली से प्रश्न किया
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"यदि आप सर्वज्ञ है, तो बताइये कि यह लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?
गणधर गौतम की ज्ञान गरिमा अद्भुत थी । जमाली हतप्रभ होकर मौन रह गया । कोई भी उत्तर वह न दे सका ।
तव भगवान ने शान्त और मधुर वाणी मे कहा -
“जमाली । मेरा एक छोटे से छोटा शिष्य भी इन प्रश्नो का उत्तर दे सकता है । तुम वह भी न दे सके ।"
जमाली के पास कोई उत्तर नही था, चुपचाप लौट आया । अनेक वर्षों तक उसने चारित्र का पालन किया । किन्तु अपने मिथ्या विचारो के कारण वह श्रद्धा-भ्रष्ट हो गया था । वह अपने जीवन का कल्याण नही कर सका । उसकी साधना निरर्थक हुई ।
-भगवती ह|३३