SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१ धन्य थे वे मुनि ! देवकी और वसुदेव की आँखो का तारा, कृष्ण का लाडला, सारी द्वारिका नगरी का दुलारा गजसुकुमाल धीरे-धीरे बचपन से यौवन मे प्रवेश कर रहा था । वह सुन्दर था, सुकुमार था - फूलो जैसा कोमल ओर सुन्दर । लोग कहते थे-इतना सुन्दर ओर होनहार बालक कभी देखा न सुना ! किन्तु वमुदेव, देवकी ओर कृष्ण को एक चिन्ता गजसुकुमाल के विषय मे मताया करती थी । उसके जन्म से पूर्व ही आकाशवाणी हुई थी - 'तरुणाई के मोड पर पहुँचते ही राजकुमार भिक्षु जीवन अगोकार करेगा ।" अन वे सब लोग उसे कही इधर-उधर नहीं जाने देते थे । उन्हें आशंका रहती थी कि राजकुमार किसी ऐसी वस्तु को न देख ले, ऐसे व्यक्ति ने उसकी नेट न हो जाय, कि जिससे उसका मन वैराग्य की ओर खिच जाय । किन्तु एक दिन कृष्ण की सारी चतुराई धरी की धरी रह गई । भगवान नेमिनाथ द्वारिका पधार कर सहस्राम्र वन में विराने थे । देवकी और कृष्ण गजसुकुमाल में दृष्टि वचकार उनके दर्शन के लिए जाने लगे । किन्तु गजसुकुमाल ने देख लिया और वह कृष्ण के समीप ही हावी पर जा बैठा । विवश होकर उन्हें उसे अपने साथ ही जाना प मार्ग में कृष्ण की एक नवन की छत पर जातियों के नाव कीडारत ए सुन्दरी वातिका पर पडी । वह बालिका कृष्ण की ग ܕܐ
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy