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________________ धन्य थे वे मुनि । १६१ सुकुमाल के लिए सभी प्रकार से सुयोग्य जान पडी । उसने मन ही मन निश्चय किया कि इस तालिका के माता-पिता से उसको मॉग वे करेंगे । वह वालिका सोमिल नामक ब्राह्मण की कन्या सोमा थी । अपने इस निश्चय को उन्होने कार्यरूप में परिणत भी कर दिया । सोमिल ने अपना भाग्य सराहा और सहर्ष कृष्ण का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । भगवान के दर्शन कर जब सब लोग अपने-अपने घर लौटे तब गजसुकुमाल अपना जीवन- ध्येय निश्चित कर चुका था । वैराग्य का दीपक उसके हृदय मे प्रज्वलित हो चुका था । और उसने अपना संकल्प सबके सामने प्रकट भी कर दिया । वहुत समझाया गया, बडे-बडे प्रलोभन दिए गए, किन्तु गजसुकुमाल समस्त वैभव-विलास को एकवारगी ही तिलाजलि देकर अपने मार्ग पर चल पडा – उसने भगवान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । और उसी दिन वह जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेने के प्रयत्न मे भी जुट गया । कैसा दृढ सकल्प था । कितनी अटल श्रद्धा थी । कैसा अद्भुत साहस था । साध्य वेला थी । दिन भर उडाने भरने के बाद पक्षी अपने नीडो को लौट रहे थे । प्रकृति अद्भुत सध्या राग मे डूबी थी । उस पवित्र वेला मे मुनि गजसुकुमाल एक स्थान पर ध्यानस्थ खडे थे— जीवन और जगत से दूर, बहुत दूर, ऊपर, बहुत ऊपर अपने आत्मलोक मे लवलीन, समाधिस्थ | उसी समय सोमिल ब्राह्मण उधर से गुजरा। उसने 'गजसुकुमाल को मुनिवेश मे देखा और सोचा- मेरा भावी जामाता इस वेश मे ? मेरी फूलो जैसी कोमल बेटी के जीवन के साथ यह खिलवाड ? पिता का हृदय था, उसमे ठेस लगी, और क्रोध मे आकर अपना भान भूल गया । भीपण अन्ध क्रोध से परिचालित होकर उसने समीप की तलैया से गीली मिट्टी निकाली और ध्यानस्थ तपस्वी के सिर पर पाल बाँधी । किसी जलती चिता से धधकते अगारे लाकर उसने उनके मस्तक पर रख दिए और वहाँ से भाग गया ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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