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________________ राह का भिरवारी यदि मनुष्य विवेक पूर्वक पुरुपार्थ करे तो वह ससार की बड़ी से बर्ड निधि भी प्राप्त कर सकता है। किन्तु यदि विवेक न हो तो कितनी भी सम्पत्ति का वह स्वामी हो, एक दिन राह का भिखारी अवश्य बन जायगा। एक वार एक वणिक ने अपने पुत्रो को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी और समझाकर कहा--- “पुत्रो । इन मुद्राओ को लेकर तुम तीनो व्यापार करने के लिए अलग-अलग जाओ । बुद्धिमानी के साथ कार्य करना और अपनी-अपनी पूँजी को बढाने का प्रयत्न करना जिससे कि तुम सबका जीवन सुख-सुविधा से युक्त हो। मै यह देखना चाहता हूँ कि तुम किस प्रकार से अपने विवेक का उपयोग करते हो । तुम लोगो के लौटकर आने पर मै अपनी यह सारी चलअचल सम्पत्ति तुम लोगो मे वॉट दूंगा।” पिता की आज्ञा का पालन कर तीनो भाई अपने-अपने हिस्से की पूंजी लेकर किमी दूरस्थ नगर मे पहुँच । वहाँ पर सबने अलग-अलग व्यापार करने की योजना बनाई । पहला भाई व्यवसाय-कुशल था । अपनी पूँजी से वह कोई अच्छा व्यवसाय करने लगा और उसमे पूरी मेहनत से काम करने लगा। सच्चाई और लगनशीलता के कारण उसके व्यापार की दिन दूनी आर गत चौगुनो उन्नति होने लगी। 'व्यापार में लक्ष्मी का निवास होता २६
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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