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________________ राह का भिखारी २७ है ' -- इस उक्ति के अनुसार उसके पास थोडे समय मे ही अपार सम्पत्ति जमा हो गई । दूसरे भाई मे साहस, परिश्रम और लगनशीलता का अभाव था । परिश्रम कम करना पडे, इस दृष्टि से उसने व्याज का कारोवार किया । व्याज के पैसो से वह अपना जीवन-यापन करते हुए अपनी मूल पूँजी को सुरक्षित रखे रहा । यहाँ तक भी कुछ गनीमत मानी जा सकती थी । किन्तु तीसरा माई अत्यन्त विलासी ओर बुद्धिहीन था । व्यापार के द्वारा अधिक सम्पत्ति का अर्जन करने के स्थान पर वह उन एक सहस्र मुद्राओ का उपयोग वेश्याओ के साथ आमोद-प्रमोद तथा अन्य विलास कार्यों मे करने लगा । इस प्रकार खर्च करते-करते एक दिन उसकी सारी पूँजी समाप्त हो गई । भिखारी बनकर वह इधर-उधर धक्के खाने लगा । कल तक जो वेश्याएँ उसे अपने हाव-भाव से रिझाती थी और कल तक ही जो मित्र उस पर जान देने के दावे करते थे, वे सब अब उससे आँखे चुराने लगे । उन सबकी दृष्टि मे उसका मूल्य अव फूटी कौडी के बराबर भी नही रह गया । आखिर कुछ समय बाद वे तीनो भाई अपने घर लौट आए। उनके पिता ने उन तीनो की परिस्थिति को देखा और उनकी अपनी-अपनी योग्यता का ज्ञान उन्हे हो गया । व्यक्ति की आकृति एव क्रिया-कलापो से ही उसकी योग्यता - अयोग्यता का ज्ञान हो जाता है । पहिले पुत्र का घर मे बडा सम्मान होने लगा, जो कि स्वाभाविक ही था, क्योकि उसने अपनी योग्यता और विवेक का अच्छा प्रमाण दिया था और अपार सम्पत्ति अर्जित की थी। आस-पास के लोगो ने भी उसकी भूरिभूरि प्रशंसा की । पिता ने उसे योग्यतम जानकर परिवार की बागडोर उसी के हाथो मे सौंप दी । वह अपनी सुन्दर पारिवारिक परम्परा को आगे वढाने वाला सिद्ध हुआ । दूसरे पुत्र ने अपनी मूल पूँजी को सुरक्षित रखा था, अत उसके लिए लोगो के उद्गार थे - यह पैतृक सम्पत्ति की सुरक्षा मे प्रवीण है । यदि अधिक कुछ नही कर सकता तो कम से कम मूल पूंजी को तो सुरक्षित रख ही सकता है ।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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