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मै क्या मांगू?
१६७ दे । किन्तु महापण्डित राजपुरोहित काश्यप का पुत्र असत्य भापण नही करता।"
राजा पहले से ही उस युवक के व्यक्तित्व से फूट रही सस्कारशीलता को देख रहा था । अब उसे विश्वास हो गया । कोमल स्वर मे बोला
"तुम्हे क्या चाहिए, बटुक | जो चाहो, वह मॉग लो। जितना स्वर्ण चाहिए, ले लो । मैं वचन देता है, जो मांगोगे वही मिलेगा।"
कपिल विचार मे पड गया-विधि का विधान भी विचित्र है । कहाँ तो चोरी के अपराध मे दण्डित होने की स्थिति थी और कहाँ अव मनचाहा पुरस्कार मिल रहा है। कितना अच्छा अवसर है । एक हजार स्वर्णमुद्राएँ मॉग लूँ ? नहीं थोडी होगी, एक लाख माँगू ? लेकिन राजा के पास क्या कमी है, एक कोटि ही क्यो न मॉग लूँ ? जीवनभर सुख से रहूँगा।
कपिल की विचारधारा जो चली सो चली। वह सोचता ही रहा, सोचता ही रहा · 'सोचता ही चला गया " ।
राजा ने अधीर होकर कहा"कब तक सोचोगे ? जो चाहिए वह मॉग लो। मै वचनवद्ध हूँ।"
कपिल के मुख पर धीरे-धीरे एक अद्भुत परिवर्तन दिखाई देने लगा था । एक नैसर्गिक प्रकाश उसके नेत्रो से फूटता प्रतीत होता था। अव वह मन ही मन विचार कर रहा था क्या मांगू? क्या कोई धन ऐसा भी है जो कभी समाप्त ही न हो ? जव लेने पर आया हूँ तो ऐसा ही धन लूंगा। इन सोने-चांदी के ठीकरो का क्या करूँगा?
गौरव और गम्भीरता से कपिल ने अब अपना सिर ऊँचा किया। राजा के नेत्रो से अब उसने निस्सकोच अपने नेत्र मिलाए और कहा
“राजन् । परमात्मा की आप पर कृपा हो । मुझे जो चाहिए था वह मिल गया है । मैने अपनी आत्मा को जान लिया है । इस आत्मा का अक्षय आनन्द-कोश, अनन्त वैभव, मुझे प्राप्त हो गया है। अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए। इस प्राप्ति के समक्ष शेप सब कुछ धूलि के समान है। अव मैं क्या मॉगं ?"
कपिल ने उसी क्षण हाथ उठाकर अपने केशो का लुचन कर लिया। सब कुछ त्याग कर वह समस्त निधियो का स्वामी बन गया।
-उत्तराध्ययन, चूणि ८