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________________ १६६ महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ किन्तु पहरेदार सन्तुष्ट नही हुए, भला ऐसी अंधेरी जाधी गत मे भी कोई भिक्षा लेने जाता है ? इस समय तो कोई चोर ही घर से बाहर निकलता है। ओर विद्याध्ययन कर गजपुरोहित का पद प्राप्त करने की महत्त्वाकाक्षा लेकर घर में चले कपिल पण्डिन को कारागार मे बन्द कर दिया गया। क्या मे क्या हो गया? कहाँ को चले गे, कहाँ जा पहुंचे ? उद्देश्य क्या था, और प्राप्ति क्या हुई ? महापण्डित काश्यप का पुत्र कारागार मे? साधारण चोर-उचक्को, शरावी-लम्पटो और खूनी हत्यारो के बीच कपिल ब्राह्मण ? हे भगवान । तूने यह क्या दिन दिवाया? मेरी बुद्धि को क्या हो गया? प्रेमिका की मुस्कान में माता के ऑम् भूल गया? हाय, यह मेरा कैसा अध पतन हो गया? सोचता-सोचता भोला ब्रह्मचारी बडा दुखी हुआ। उमकी मूच्छित आत्मा जैसे सहसा जाग पडी ओर उसे धिक्कारने तगी- धिक्कारती ही चली गई। राजा प्रसेनजित अपराधियो का न्याय स्वय ही किया करते थे। प्रात काल सभी अपराधियो को जब राजा के समक्ष उपस्थित किया गया तो कपिल ब्राह्मण की स्थिति विचित्र थी । लज्जा के मारे उसकी आँखे ऊपर ही न उठती थी। पश्चाताप से उसका हृदय जला जा रहा था। नीर-क्षीर का विवेक जो न कर सके वह राजा ही क्या ? प्रसेनजित की दृष्टि तीव्र थी। उसने एक ही नजर मे भाँप लिया कि कपिल अपराधी नही हो सकता । वह बेचारा किसी भ्रम मे फंस गया है। सस्कारवान युवक दिखाई देता है । उन्होने पूछा "कौन हो तुम ? किसलिए रात मे निकले थे?" "महाराज | ब्राह्मणपुत्र हूँ। भिक्षा लेने निकला था। पहरेदारो ने चोर मानकर मुझे पकड लिया । मै निरपराध हूँ।" "सच-सच कहो । सत्य कहोगे तो क्षमा मिलेगी। झूठ कहोगे तो कठोर दण्ड ।" __ "महाराज | क्षमा और दण्ड तो अब आपके हाथ मे है। जो चाहे,
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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