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________________ शुभ-सयोग जाता तो वह दौडकर मुनि के पास आता और अपने सरल सकेतो से खीचकर उन्हे उन पथिको के पास ले जाता । इस प्रकार मुनि को भिक्षा मिल ही जाती और नही मिलती तो चिन्ता किसे ? महत्त्व तो उस भोले मृग की मनोभावना का था। एक वार राजा ने अपने रथकार को रथ बनाने के लिए लकडी लेने जंगल मे भेजा था। उत्तम लकडी की खोज करते-करते रथकार मुनि के साधना-स्थल के समीप ही एक अच्छे, विशाल वृक्ष को देखकर वही ठहर गया। उसने सोचा--इस वृक्ष का काष्ठ उत्तम है। यही लेना चाहिए। भोजन करलू, फिर लकडी काट लूंगा। यह विचार कर वह भोजन करने बैठा । मृग-शिशु घास चरता-चरता वहाँ पहुंचा । उसने रथकार को भोजन की तैयारी करते देखा तो दौडकर मुनि को खीच लाया। रथकार ने मुनि को आया देखा, हर्प से विभोर होकर उनकी वन्दना की और मुनि को आहार देने लगा। उसका तन-मन पुलकित था-भाग्यवश इस अरण्य मे भी मुनिवर के दर्शन हो गए और उन्हे आहार प्रदान करने का सौभाग्य और पुण्य प्राप्त हुआ। मृग भी मुनि को भिक्षा प्राप्त हुई, यह देखकर प्रसन्न-पुलकित था। मन ही मन अपनी मूक भापा मे मानो वह कहता था-यह रथकार धन्य है, ऐसे मुनि को भिक्षा देने का सौभाग्य इसे मिला है । यदि मैं मनुष्य होता, तो मझे भी यह पुण्य-अवसर प्राप्त होता । इस प्रकार एक साथ तीनो के हृदय मे शुद्ध, शुभ भावो की उत्तम, अपूर्व धारा उमड रही थी। रथकार के मन मे उदात्त भाव से दान-धारा, मुनि की शान्त, समभाव से भिक्षा-ग्रहण धारा और भृग को रथकार के सुव्रतानुमोदन की धारा। तीनो स्थानो पर परम विशुद्ध भाव थे। पापो के प्रक्षालन के लिए इससे अधिक उत्तम सयोग और क्या हो सकता था ? नयोग ही तो या। अति उत्तम, अति पवित्र संयोग । ओर सयोगवश उसी समय आंधी आई। प्रवल कोरे से उस पुरातन, जीर्ण वृक्ष की एक विशाल शाखा चरभराकर टूटो ओर एक साथ ही मुनि, रथकार ओर मृग
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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