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________________ १०२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं अद्भुत रूप की भव्य कान्ति को देखकर वह ऐसी मग्न हुई कि उसे ससार ओर स्थिति की ठीक-ठीक सुध-बुध ही न रही । पानी भरने के लिए रस्सी से वाल्टी को बेचारी सुधिहीना अपने वालक को ही रस्सी से लगी । मुनि ने यह देखा और चिन्तित होकर युवती से कहा “अरे, क्या अनर्थ कर रही हो वहिन ?" "क्या हुआ मुनिवर । मैं तो पानी खीच रही हूँ ।" " पर किससे ? भोली वहना, जरा देखो तो सही । तुमने रस्सी मे क्या वाँधा है ?" बाँधने के स्थान पर वह बांधकर कुएं मे उतारने युवती ने देखा - वाल्टी के स्थान पर असावधानी से उसने अपने वालक को ही बांध दिया है । वडी लज्जित हुई। मुनि को सादर वन्दन कर वोली - "धन्य है मुने । आपने मेरे बालक का जीवन वचा लिया ।” । मुनि वलभद्र फिर आगे नही वढे । वे पीछे ही लौट गए । भिक्षा भी उस दिन उन्होने ग्रहण न की । मन मे निश्चय कर लिया कि अब कभी नगर की ओर जाऊँगा ही नही अरण्य मे ही रहूंगा। मेरे रूप को देखकर यदि इसी प्रकार और लोग भी असावधान होते रहे तो किसी दिन कोई अनर्थ हो जायगा । उस संभावना का आधार, उसका कारण ही समाप्त कर देना चाहिए । वलभद्र अब अरण्यवास ही करते । वही अपनी तपस्या ओर ध्यान समाधि लगाते । आते-जाते पथिको से जब जो कुछ शुद्ध आहार मिल जाता, वह ग्रहण कर लेते, वरना भूखे ही रह जाते । एक दिन एक बहुत प्यारा-सा मृग- शावक उधर भटककर आ पहुँचा। ध्यानमग्न मुनि को देखकर वह भोला मृग ऐसा आकर्षित हुआ कि निर्भय होकर वह मुनि के समीप ही रहने लगा । उन्हें छोडकर कही अन्यत्र जाने की उसकी इच्छा ही न होती । मुनि की प्रशान्त, सौम्य मुद्रा को देखकर उसे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया था ओर पूर्व जन्म की स्मृतियों के कारण वह मुनि के समीप ही रहने लगा । मुनि अपनी साधना में लगे रहते । मृग शावक को कभी कोई पथिक भोजन करता हुआ दिखाई दे
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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