________________
महावीर युग को प्रतिनिधि कथाएँ
श्रेणिक विम्बमार देखता ही रह गया। मम्मण बोला
"मुझ गरीव का यह बैल है, राजन् । इमकी जोड का दूसग बेल लाने के लिए ही दिन-गत श्रम करता हूँ । बडी मितव्यगता से गुजारा करता हूँ।"
सुनकर पेणिक ने फिर मन ही मन सोचा-अजीव झक्की के पाले पड गया मै आज । ओर वह चुपचाप लोट आया। ऐसे सस्ती को वह कहता भी तो क्या?
एक बार श्रेणिक ने भगवान महावीर मे पूछा
"भन्ते । इस मम्मण सेठ के पास इतना विपुल धन है, फिर भी वह तो दुखी का दुली ही है। न स्वग खाना है, न अन्य को देता है । तनिक-मा दान-पूण भी वह नही कर सकता। ऐसा क्यो ?'
भगवान ने कहा
देवानुप्रिय । वह पाप का धन है। इस कारण वह उसे किसी शुभ नागनिही कर माता । धन दो प्रकार से प्राप्त होता है-पुण्गानुपन्नी पुण्य मे, बार पापानुबन्धी पुण्य से । जिम धन को पाकर मनुष्य ।
ददर मे शुभ कार्य करने की प्रेरणा हो, नहीं पहना है, और अप्ठ है। किन्तु तिन को पार ऐसा सकला न जागे वह दूसरा है, अशुभ है, निरया है। इस प्रकार के धन मे मनुष्य की कोई भलाई नहीं होती। उमसे तो धन
मोह होता है भार वह बढता ही रहता है। उम धन में ऐमी आमक्कि उस मनुष्य की होती है कि उसमे कभी कोई शुभ कार्य नहीं होता।
देवानुप्रिय । धन तो गृहस्थ जीवन के लिए माधन है। मानो वह है नहीं। उने नाय कनी बनने नी नहीं देना चाहिए।
वह मम्मण इतना धन एकत्र करके भी दमी कारण मुखी न हो नमा । जीवनभर बह दुखी ही रहा और नरकयाम ही उसका भविष्य है। बनने मोड करने का अन्य परिणाम हो नी नहीं माना।'