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५६ मार्ग-दर्शन
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इन्द्र की अमरावती से होड लेने वाली एम. नगर्ग पोति । और उस नगरी का शासन करते थे स्वय वासुदेव श्रीहरण । ना अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत् ही करते थे। किसी दीन-दुली तो तो उन्हे तव तक शान्ति न मिलती जब तक कि वे उसके गारे दुग सारा दैन्य दूर न कर देते । प्रजा भी अपने ऐमे गजा के पि पनि आशीर्वादो की मगल-वर्पा किया करती थी।
एक दिन अपने गजराज पर आसीन वे ससैन्य, सगग्विार भगवान नेमिनाथ के दर्शन करने नगर से वाहर जा रहे थे। विशाल राजपर उनके जय-जयकार से गूंज रहा था।
मार्ग मे उनकी तीक्ष्ण दृष्टि एक वृद्ध पर पडी । वृद्ध अशक्त था, मारी देह पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थी। चलते-फिरते उसके हाथ-पैर कॉपते थे। निर्धन भी होगा वेचारा । तभी तो उस आयु और उस शारीरिक स्थिति मे भी एकएक ईंट उठाकर वह अपने घर में धीरे-धीरे ले जा रहा था। देखकर लगता था कि वह गरीव अव गिरा, तब गिरा।
_कृष्ण ने ज्योही उसे देखा, कूदकर वे अपने गजराज से नीचे आ गये। गरक्षक देखते ही रह गये कि यह क्या हुआ ।
कृष्ण ने एक ईंट उठाई और वृद्ध के घर मे जाकर रख दी। फिर क्या था ? विशाल सैन्य साथ था। अपने राजा को ईट उठाकर
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