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________________ शुभ सकल्प २०५ अव से तीसरे भव की यह घटना है। वैताढ्य पर्वत के समीप तुम एक हाथियो के यूथ के प्रधान थे । सात हाथ ऊँचे, नौ हाथ लम्बे और श्वेत वर्ण के थे । एक वार गीष्म ऋतु मे उस वन मे प्रचण्ड दावाग्नि फैल गई । वन के जीव-जन्तु उस भयानक अग्नि मे जल-जलकर भस्म होने लगे। प्राण बचाने के लिए सब भागे। तुम भी भागे। भागते-भागते प्यास से तुम्हारा कण्ठ जलने लगा। पानी पीने की अभिलापा से तुम एक कीचड से भरे तालाब मे उतरे और उसके दलदल मे धंस गये। उसी समय एक दूसरा हाथी वहाँ आया। वह तुमसे शत्रुता रखता था, क्योकि किसी समय तुमने उसे अपने यूथ से निष्कासित कर दिया था। उसे प्रतिशोध लेने का अवसर मिल गया। अपने पैने दांतो से उसने तुम्हारे शरीर को वेध डाला। इस प्रकार सात दिन तक कष्ट झेलकर तुमने अपना वह जीवन समाप्त किया। अगले भव मे गगा नदी के किनारे तुम पुन हाथी के ही रूप मे जन्मे और तुम्ही हाथियो के समुदाय के प्रधान बन गये। सयोग से उस वन मे भी दावाग्नि का प्रकोप हुआ । उसे देखकर तुम्हे अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया। अत विचारपूर्वक तुमने वर्षाऋतु मे अपने यूथ के हाथीहथिनियो की सहायता से उस वन मे चार कोस की लम्बाई-चौडाई मे सारे वृक्षो आदि को साफकर एक गोलाकार वनस्पति रहित मण्डल बना लिया। भविष्य मे सुरक्षा की दृष्टि से तुमने यह कार्य किया था। एक बार फिर ग्रीष्म ऋतु मे धरती प्रचण्ड ताप से जलने लगी। दावानल सुलग उठा। उस समय तुम अपने यूथ को लेकर उस सुरक्षित मडल मे आ गये । वन के अन्य अनेक छोटे-बड़े प्राणी भी अपने प्राण-बचाने के लिए वहाँ दौडे आये। तुमने सबको शरण दी। उसी समय एक खरगोश शरण खोजता वहाँ आया। किन्तु अब उस स्थान पर तिल मात्र जगह न थी। सयोगवश उसी समय तुमने अपने शरीर को खुजाने के लिए अपना एक पैर उठाया और उस खाली स्थान पर वह खरगोश आकर बैठ गया। तुमने जब पैर वापिस जमीन पर रखना चाहा तो वहाँ वह कोमल, कमजोर काया वाला खरगोश बैठा था।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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