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________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ उठते-बैठते, चलते-सोते, प्रत्येक क्रिया करते हुए, प्रत्येक पल सतत जाग्रत रहकर सयम मार्ग का अनुसरण करना । अहिसा का पूर्ण रूप से पालन करना । मुनियो के महाव्रतो का निर्दोष रूप से निर्वाह करना ।" २०४ मेघमुनि नव दीक्षित थे। सबसे छोटे थे । अत रात्रि मे जब सोने का समय हुआ तो उनका स्थान सबसे पीछे द्वार के समीप था। रात्रि मे to कोई मुनि किसी आवश्यक कार्य से आते-जाते तो मेघमुनि को वारवार पैर सिकोडने पडते । कभी-कभी किसी मुनि का पैर उन्हें लग भी जाता । इस प्रकार सारी रात उन्हें कष्ट रहा और वे ठीक से शयन भी न कर सके । इस स्थिति से उनके चित्त मे विचारो का आन्दोलन आरम्भ हो गया । वे सोचने लगे---मैने भूल तो नही की ? मै सम्राट श्रेणिक का पुत्र इस प्रकार मुनियो की लाते खाते क्यो पडा हूँ ? माता-पिता ने क्या सत्य नही कहा था कि मुनि जीवन अत्यन्त कठोर हे ? साथ ही उन्हे स्मरण हुआ - माता ने कहा था कि अब तुम जब सयम धारण कर ही रहे हो तो सयम मे शिथिलता न लाना । मेरे दूध को न लजाना । विचारो के इस द्वन्द मे पड़े मेघमुनि ने अन्त मे यही निश्चय किया कि घर लौट चलना चाहिए। माता-पिता तो मुझे लौटा देखकर अवश्य ही प्रसन्न होगे । यह निर्णय लेकर प्रात काल जब वे भगवान के समक्ष पहुँचे तो दिव्यज्ञान को धारण करने वाले प्रभु ने भुवन मोहिनी मधुर मुस्कान के साथ कहा "क्यो मुनि मेघ । तुम इतने अधीर कैसे हो गये ? एक रात के तनिक से कष्ट से ही विचलित हो गये ? क्या तुम्हे अपने पूर्वभव का स्मरण नही, जब तुमने दूसरो को सुख पहुँचाने के लिए घोर कष्ट सहन किया था ? अरे, उस कष्ट की तुलना में यह कप्ट तो कुछ भी नही था । तुमने अपनी शक्ति को पहिचाना नही ।" मेघमुनि को बडी लज्जा का अनुभव हुआ । उन्होने अपने हाथ जोडसे निनय की -- "भगवन् । मुझे मेरे पूर्वजन्म की कथा सुनाइये ।" भगवान ने सुनाया - कर प्रभु
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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