________________
२६६
महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ उन्हे मारने का उसी प्रकार अभिनय करता रहा । इसीलिए मैंने कहा है कि कालसीकरिक को भैसे मारना छुडवाना सभव नही है।"
सम्राट् ने स्वय जाकर देखा कि अन्धकूप मे कालसौकरिक के कर । हाथ भैसे मारने मे लगे हुए है । सम्राट् ने उसे मुक्त कर दिया।
कुछ समय के पश्चात् कालसौकरिक मर गया। परिवार के लोग आये और दाह-सस्कार किया।
सुलस कालसौकरिक का ज्येष्ठ पुत्र था। परिजनो ने एक भैसे को मारकर अपने पिता के पद को सँभालने का अनुरोध किया। सुलस ने उनके प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा-"मैने भगवान महावीर का पावन उपदेश सुना है। मै कसाई का धन्धा नहीं कर सकता । जैसे मुझे मेरे प्राण प्रिय है वैसे ही दूसरो को अपने प्राण प्रिय है। फिर मै अपने प्राणो की रक्षा के लिए दूसरो के प्राण कैसे लूट सकता हूँ।"
स्वजन-वर्ग ने कहा-प्राणी-हिसा मे जो पाप होगा, उसके भागीदार हम है । उन्हे प्रतिबोध देने के लिए सुलस ने अपने पिता की तेज कुठार को हाथ मे उठाया । अपने सामने खड़े हुए भैसे को प्रेम की दृष्टि से देखा और वह कुठार अपनी जघा पर दे मारी । वह मूच्छित होकर गिर पडा। जघा से रक्त के फव्वारे छूटने लगे। कुछ समय के पश्चात् सावधान होने पर उसने कहा-"मेरे प्यारे वन्धुओ | यह घाव मुझे अत्यधिक कष्ट दे रहा है, कृपया आप मेरी पीडा को ले लीजिए जिससे मुझे शान्ति हो।"
परिजन वर्ग ने उदास मन से कहा-"यह किस प्रकार सम्भव हो सकता है। किसी अन्य की पीडा को अन्य कोई व्यक्ति कैसे ले सकता है ?"
सुलस ने तपाक से कहा-"आप मेरी पीडा नही ले सकते, तब आप मेरे पाप को कैसे ले सकेगे?"
स्वजनो के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था।
सुलस ने कहा-"चाहे पैतृक-धन्धा भी क्यो न हो, यदि वह पापपूर्ण है तो पुत्र को नहीं करना चाहिए। यदि पिता अन्धा हे तो पुत्र को भी अन्धा हो जाना चाहिए । यह बुद्विमानी नही है।"