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________________ अग्नि कहाँ है ? सोचा--"अभी से भोजन की क्या जल्दी ? लकडियाँ काट-काट कर लाने मे इन लोगो को बहुत समय लगेगा । कुछ समय विश्राम कर लूँ । सायंकाल से पूर्व भोजन तैयार कर लूंगा।" यह विचार कर वह छाया मे लेट गया और धीरे-धीरे निद्रादेवी की सुखद गोद मे चला गया । नीद उसकी जब खुली तब तक सूर्य पश्चिम की ओर ढल चला था । घवरा कर वह उठ बैठा और साथियो के आने का समय समीप देखकर जल्दी-जल्दी भोजन बनाने की चिन्ता मे लगा। किन्तु आग बुझ चुकी थी। सोचा-अरणि की लकडी मे से आग प्रकट करलं । अरणि की लकडी के उसने दो टुकडे कर डाले । किन्तु उसमे से आग नही निकली। कुछ घबराया । दो के स्थान पर लकडी के चार, छह, आठ-टुकडे ही टुकडे कर डाले, किन्तु आग कही भी दिखाई नहीं दी। चिन्ता मे निमग्न होकर वह मन मार कर, सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। कुछ खीझ भी उसे थी कि साथियो ने उससे झूठ कहा कि अरणि की लकडी मे से अग्नि प्रकट कर लेना । यदि ऐसा उन लोगो ने न कहा होता तो वह साथ लाई हुई आग को ही सम्हाल कर रखता। उधर उसके थके-माँदे साथी दिन भर लकड़ियाँ काट कर, वोझा लादेलादे इस आशा के साथ जल्दी-जल्दी चलते हुए लौटे कि भोजन तो तैयार मिलेगा ही । भूख मिट जायगी, थकान दूर हो जायगी। किन्तु लौटकर वे देखते क्या है कि भोजन का तैयार मिलना तो दूर की वात, कही धुंए की एक लकीर तक दिखाई नही दी, चूल्हा ही नही जला था। उन्हे बड़ी निराशा हुई और क्रोध उमडने लगा। किन्तु वे लोग कुछ बोल पाएँ उससे पूर्व ही वह साथी उल्टा उन्हे हो डॉटने लगा- "मुझे तुम लोगो ने मूर्ख क्यो बनाया? झूठ-मूठ ही कह गए कि अरणि की लकडा मे से अग्नि प्रकट कर लेना । अरे मूर्यो । मैंने व्यर्थ ही तुम्हारी वात पर विश्वास कर लिया । उस समय शायद मेरी भी मति मारो गई थी। भला अग्नि का और लकड़ी का क्या मेल ? यदि लकडी मे अग्नि होती तो क्या वह अब तक जलकर भस्म न हो गई होती? फिर भी मैने तुम लोगो की बात का भरोसा कर उस लकडी के टुकडे-टुकडे करके उमे देखा, किन्तु मुझे तो उसमे कही भो अग्नि नहीं मिली ।'
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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