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चोर और साहूकार
१७५ "माँ ! मुझे मार ही डालो । मुझसे ऐसी ही भूल हुई है । मेरा ध्यान चुराकर कोई पापी देवदत्त को चुरा ले गया ।" ।
सुनते ही भद्रा मूति हो गई। श्रेष्ठि के हाथो के तोते उड गए । उन्हे लगा मानो आसमान थर्रा कर भूमि पर आ गिरा है और धरती डोल रही है।
सैकडो सेवक चारो दिशाओ मे दौड पडे। नगर का कोना कोना, गली-गली छान मारी गई, श्रेष्ठि स्वय पागलो की भाँति सारे नगर मे 'देवदत्त-देवदत्त' पुकारते दौडते रहे। नगरवासी उनकी यह हालत देखकर दुखी हो गए। सारी नगरी ही मानो देवदत्त को खोजने निकल पडी।।
किन्तु अव देवदत्त था कहाँ जो मिल जाता ? वह तो विजय चोर के हाथ पड़ चुका था।
कोतवाल को भी सूचना दी गई। वह राजगृही का कोतवाल था । अपने कार्य मे वह भी दक्ष था। शस्त्रो से सज्जित होकर वह तुरन्त निकल पडा । खोजते-खोजते वह उसी विकट स्थल पर जा पहुँचा जहाँ विजय चोर ने बालक की हत्या करके उसके शव को एक अंधेरे कुएँ मे डाल दिया था। वालक का शव खोज लिया गया। उसे देखकर श्रेष्ठि जीवित रहते हुए भी मृतवत् ही हो गए । उनकी दुनियाँ ही उजड गई थी।
कोतवाल ने पैरो के निशान खोजकर विजय चोर का पीछा किया और उस भीपण और सघन मालुक कच्छ मे विजय चोर को जा पकडा।
___ सारी नगरी मे हाहाकार मचा देने वाले उस दुष्ट चोर को भारी सजा देकर कडे पहरे मे कैदखाने मे बन्द कर दिया गया।
समय वलवान है और उसकी गति विचित्र है।
एक बार धन्ना सार्थवाह से कोई अपराध हो गया, अथवा कहिए कि उसे अपराधी मान लिया गया। राजा ने न्याय करते हुए उन्हे भी कारावास का दण्ड दिया । सयोगवश उन्हे भी उसी कक्ष मे स्थान मिला जहाँ कि विजय चोर वन्द था। इतना ही नहीं, उन्हे और विजय चोर को एक साथ हाथ-पैर बाँधकर वेडियो मे जकड दिया गया ।