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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं भोजन के समय सेठ के लिए घर से भोजन आया। चोर ने भी भोजन माँगा तो दुखी ओर जले-भुने सेठ ने कटु उत्तर दिया
__ “अरे दुष्ट ! तेरी निर्लज्जता की भी कोई सीमा है ? पापी ! हत्यारे। निर्दयी । तूने मेरे इकलोते, फूल-से पुत्र की हत्या की ओर अब मुझसे भोजन मॉगता है ? तू भूख से घुल-घुल कर मर जाय तव भी मै तुझे एक ग्रास भी अन्न तथा एक बूंद भी पानी नहीं दूंगा।"
सेठ ने भोजन कर लिया। चोर देखता रहा।
कुछ समय बाद सेठ को शोच से निवृत्त होने की आवश्यकता हुई। चोर और साहूकार एक ही बेडी मे जकडे थे । जाये तो दोनो जायें । अकेला कोई कैसे जाय ? सेठ ने चोर को चलने के लिए कहा तो उसने साफ इकार कर दिया
___ "भोजन तो अकेले ही डकार गए, अब मुझे साथ चलने को कहते हो ? मुझे शंका नही है । आप ही पधारिए ।”
कुछ समय तक श्रेष्ठि ने सब किया किन्तु कब तक ? आखिर उन्होने वडी दीनता से चोर से प्रार्थना की। तब चोर का दॉव आया। उसने कहा
___"प्रतिदिन अपने भोजन मे से आधा भोजन मुझे देने का वचन दो तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ । अन्यथा जो खायगा, वही जायगा । मुझे क्या
गरज?"
श्रेप्ठि को विवश होकर चोर की शर्त स्वीकार करनी ही पड़ी।
दूसरे दिन जब सेठ के सेवक ने देखा कि सेठजी अपने भोजन में से आधा भोजन अपने पुत्र के हत्यारे को दे रहे है तो वह बडा दुखी हुआ। उसने घर पर आकर सारी बात भद्रा से कही । भद्रा भी यह जानकर बहुत दुखी हुई। लेकिन करती क्या ।
कुछ समय पश्चात् जब श्रेप्ठि कारागार से मुक्ति पाकर घर लौटे तव भद्रा ने उनसे बात तक नही की। उसका हृदय जल रहा था। श्रेष्ठि का मारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। उन्होने पूछा
"भाग्यवान | म कारागार से मुक्त होकर आया हूँ। तुम्हे तो प्रसन्न होना चाहिए । इस प्रकार रुष्ट होकर क्यो बैठी हो?"
आँखो से चिनगारियां बरसाती हुई भद्रा बोली