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________________ चोर और साहूकार १७७ "मेरे बेटे के हत्यारे को भोजन कराते हुए आए हो ओर कहते हो कि मुझे प्रसन्न होना चाहिए ? धिक्कार है आपको । आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है।" श्रेप्ठि तनिक मुस्कराए और अपनी पत्नी को समझाते हुए बोले “भद्र । जरा वात को सुनो और समझो। परिस्थिति का विचार करो । विना विचारे ही क्रोध क्यो करती हो? मैंने अपना मित्र या कोई हितैपी समझकर उसे भोजन नही दिया। यदि ऐसा करता तो अवश्य अपराधी होता। किन्तु उस परिस्थिति मे अन्य कोई मार्ग हो नही था।” श्रेष्ठि ने जब सारी स्थिति भद्रा के समक्ष रखी तब वह शान्त हुई और उसने अपने कटु व्यवहार के लिए अपने पति से क्षमा मांगी। सेठ-सेठानी का जीवन पूर्ववत् चलने लगा केवल एक अभाव जो था वह तो रहा ही। समय आने पर विजय चोर मृत्यु को प्राप्त कर घोर नरक मे गया। धन्ना सार्थवाह ने अन्त समय मे मुनि धर्मघोष से दीक्षा ग्रहण की, तप और संयम की आराधना की और मृत्यु का वरण कर देवलोक की ओर चल पडे । अपने ही कर्मों के अनुसार प्राणी अपनी-अपनी अलग-अलग राह पर चले जाते है । चोर अपने रास्ते । साहूकार अपने रास्ते । -ज्ञाता २
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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