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________________ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ भीषण से भीपण कर्म करके भी उस चोर को न पश्चात्ताप होता था न कोई आत्मग्लानि । यहाँ तक कि धन के लिए वह किसी की हत्या भी अत्यन्त निर्ममता से कर सकता था । १७४ उसी दुष्ट और दक्ष विजय चोर की दृष्टि चोरी के लिए नगर मे घूमते हुए देवदत्त पर पड गई। बात की बात मे वह देवदत्त को चुराकर नगर से बाहर दूर भयानक स्थल पर ले गया । वह स्थल किसी समय कोई सुन्दर उद्यान रहा होगा । किन्तु अव तो वह उजाड, सुनसान और भयोत्पादक वन गया था । कभी कोई व्यक्ति उधर जाने का साहस ही नही करता था । दिन रात वहाँ एक डराने वाली नीरवता व्याप्त रहती थी आपस मे उलझे हुए अनेको झाड-झंखाडो से परिपूर्ण उस वीहड स्थान पर एक पग रखना भी कठिन था । अनेक वन्य प्राणी वहाँ दिन-दहाडे विचरण किया करते थे और भयंकर विपधरो का फुत्कार दिशाओ मे गूंजा करता था । निर्दयी विजय चोर ने उस भयावह स्थल पर जाकर देवदत्त को मार डाला और उसके आभूषण लेकर वह उस विकट स्थल पर मालुक नामक अन्धकारमय कच्छ मे जा घुसा। उधर कुछ देर बाद पंथक का ध्यान जव वालको की ओर गया तो उसे देवदत्त कही दिखाई नही दिया। उसके तो पैरो तले से धरती ही खिसक गई। चारो ओर उसने बालक को खूब ढूंढा | ढूंढते ढूंढते वह थक गया और अन्त मे निराश हो गया । भय से ओर दुख से काँपता हुआ आखिर वह घर लौटा । पंथक को अकेला देखकर भद्रा ने विकल होकर पूछा "देवदत्त कहाँ है ? अरे, मेरा देवदत्त कहाँ है ? तु अकेला कैसे लोटा ? बोल, बोल मेरे बेटे को कहाँ छोड़ आया त् " बेचारे पंथक के तो वोल ही नही फूटे । वह रोता ही चला गया, कॉपता ही खड़ा रहा। भद्रा ने उसे पकडकर झकझोर दिया और चीखी' बोलता क्यों नही ? देवदत्त कहाँ है ? क्या त् गंगा हो गया है ? बोल, बोल ।” किसी प्रकार साहस बटोर कर पथक बोला
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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