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________________ चोर और साहूकार १७३ करने से तो कुछ हाथ लगता नहीं। यदि कोई उपाय होता तो मै अवश्य करता। किन्तु यह तो अपने हाथ की बात ही नहो । जहाँ विवशता हे वहाँ धैर्य ओर सन्तोप धारण करने के अतिरिक्त ओर क्या किया जा सकता है ?" श्रेष्ठि ठीक ही कहते थे। भद्रा भी यह जानती थी। लेकिन इन वचनो से वह सन्तुष्ट नही हो पाती थी। वह बोली “स्वामी । एक वार और प्रयत्न करके देखना चाहिए। आप आज्ञा दे तो मै नागभूत यक्ष के देवालय मे जाकर उसकी पूजा-आराधना कम। कौन जाने यक्ष प्रसन्न होकर पुत्र का वरदान मुझे दे ही दे ?" पति से आज्ञा लेकर भद्रा ने यक्ष की उपासना की और उसके पुण्यो का उदय ही मानना चाहिए कि वह कुछ समय बाद गर्भवती हुई। समय आने पर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। नाम रखा गया देवदत्त । पति-पत्नी का ससार अव हरियाला हो गया। उनके सुख को सीमा न रही। वालक द्वितीया के चन्द्र के समान वृद्धि पाने लगा। उसे खिलाने और उसकी सार-सम्हाल करने के लिए श्रेष्ठि ने एक सेवक नियुक्त किया थापयक । वह चतुर था । वालको के मन को समझने वाला था। एक दिन भद्रा ने बालक को पंथक के साथ खेलने भेजा। किसी स्थान पर अन्य वालको के साथ खेलने के लिए उसे छोडकर पथक पास हो वैठ गया । वालको का खेल चलता रहा। उस समय राजगृही नगरी के बाहर किसी सुनसान, भयानक खडहर मे एक चोर रहा करता था। उसका नाम था विजय । वह अपने चौर-कर्म मे तो निष्णात था ही, साथ ही वह वडा ही क्रूर और निर्दयो भी था। उसके मुख की आकृति ही उसके हृदय की कठोरता और भीपणता को प्रगट करती थी। भयानक अंगारो जैसी आँखे, रूखे, बिखरे हुए बाल, घनी, डरावनी दाढी। विजय चोर से पार पाना वडा कठिन था। यदि वह एक बार किसी के धन को चुराने का निश्चय कर लेता तो फिर उस धन का स्वामी चाहे सात तालो मे ही उसे रख ले, किन्तु विजय चोर उसे चुरा ही लेता।
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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