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धन्य थे वे मुनि ।
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सुकुमाल के लिए सभी प्रकार से सुयोग्य जान पडी । उसने मन ही मन निश्चय किया कि इस बालिका के माता-पिता से उसकी माँग वे करेंगे । वह वालिका सोमिल नामक ब्राह्मण की कन्या सोमा थी । अपने इस निश्चय को उन्होने कार्यरूप मे परिणत भी कर दिया । सोमिल ने अपना भाग्य सराहा और सहर्प कृष्ण का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।
भगवान के दर्शन कर जब सब लोग अपने-अपने घर लौटे तब गजसुकुमाल अपना जीवन ध्येय निश्चित कर चुका था । वैराग्य का दीपक उसके हृदय मे प्रज्वलित हो चुका था । और उसने अपना सकल्प सबके सामने प्रकट भी कर दिया ।
बहुत समझाया गया, बडे-बडे प्रलोभन दिए गए, किन्तु गजसुकुमाल समस्त वैभव-विलास को एकवारगी ही तिलाजलि देकर अपने मार्ग पर चल पडा - उसने भगवान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण कर ली ।
और उसी दिन वह जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेने के प्रयत्न मे भी जुट गया ।
कैसा दृढ सकल्प था । कितनी अटल श्रद्धा थी । कैसा अद्भुत साहस था ।
साध्य बेला थी । दिन भर उडाने भरने के बाद पक्षी अपने नीडो को लौट रहे थे । प्रकृति अद्भुत सध्या राग मे डूबी थी ।
उस पवित्र वेला मे मुनि गजसुकुमाल एक स्थान पर ध्यानस्थ खडे थे— जीवन और जगत से दूर, बहुत दूर, ऊपर, बहुत ऊपर अपने आत्मलोक मे लवलीन, समाधिस्थ |
उसी समय सोमिल ब्राह्मण उधर से गुजरा। उसने गजसुकुमाल को मुनिवेश मे देखा और सोचा - मेरा भावी जामाता इस वेश मे ? मेरी फूलो जैसी कोमल वेटी के जीवन के साथ यह खिलवाड ?
पिता का हृदय था, उसमे ठेस लगी, और क्रोध मे आकर अपना भान
भूल गया ।
भीषण अन्ध क्रोध से परिचालित होकर उसने समीप की तलैया से गीली मिट्टी निकाली और ध्यानस्थ तपस्वी के सिर पर पाल बाँधी । किसी जलती चिता से धधकते अंगारे लाकर उसने उनके मस्तक पर रख दिए और वहाँ से भाग गया ।