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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ
भीषण उपसर्ग था । मुनि गजसुकुमाल का मस्तक जल रहा था । चमडी जल गई थी, धीरे-धीरे मास और मज्जा भी जलने लगे । जो वेदना उस समय तरुण तपस्वी को हुई होगी उसकी कल्पना भी दुष्कर है । वर्णन की तो बात ही क्या ?
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किन्तु धन्य है उस योगी का धैर्य ओर धन्य है उसका क्षमा भाव । मन के किसी गहन से गहन कोने मे भी, क्षणाश के लिए भी, तनिक भी वैर भाव नही, जरा-सा भी रोप या क्रोध नहीं, प्रतिशोध का विचार मात्र तक नही ।
गजसुकुमाल मुनि ने देह ओर आत्मा के भेद को जान लिया था । आत्मा की विभाव परिणति से स्वभाव परिणति मे रम चुके थे । सुख ओर दुख की सीमाओ को पार कर वे उस शाश्वत आनन्द की भूमि पर पहुँच गए थे जहाँ पहुँच कर आत्मा सव कुछ प्राप्त कर लेता है ।
धन्य थे वे मुनि जो एक ही दिन मे साधक बनकर अजर, अमर और शाश्वत बन सके ।
धधकते अंगारो से जब मस्तक जल रहा था तब उन मुनि ने अवश्य ही यह सोचा होगा - कोई किसी को कष्ट नही देता । अपने कर्मों का आत्मा स्वयं ही भोक्ता है । मेरे पूर्व कृत कर्म ही आज इस परिणाम के रूप में प्रकट हुए है । अच्छा ही है, इन कर्मो को आज भस्म हो जाने दूँ
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धन्य थे वे मुनि जो ऐसी भीपण और दारुण स्थिति मे भी ऐसी उच्च और पवित्र भावना भा सके होगे ।
भगवान के चरणो मे श्रीकृष्ण बैठे थे । उन्होने पूछा
“भगवन् । गजसुकुमाल कहाँ है ? वन्दन करना चाहता हू और अपने प्रश्न के उत्तर मे श्रीकृष्ण ने जो कुछ सुना वह उनके लिए अप्रत्याशित था । भगवान ने बताया
יין
"वह कृत-कृत्य हो गया, कृष्ण ?”
विस्मय- विमूढ कृष्ण कुछ क्षण तो यह समझ ही न पाये कि भगवान ने क्या कहा है । धीरे-धीरे जब शब्दो का अर्थ उनके मस्तिष्क तक पहुँचा तब वह कातर हो गये । उन्होने पूछा
“भगवन् | आपने यह क्या बताया ? क्या एक ही दिवस मे उस