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धन्य थे वे मुनि । छोटे-से, सुकोमल बाल-साधक ने साधना के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया? यह कैसे हुआ, भते ?"
भगवान ने सारी घटना श्रीकृष्ण को बताई और कहा
"आत्मा मे अनन्त वल है, कृष्ण । ऐसा कुछ नही जो वह न कर सके।"
श्रीकृष्ण के शोक और विह्वलता की कोई सीमा न थी। उन्होने पूण
"कौन है वह अनार्य ? भते | किसने यह दुष्कर्म करने का साहस किया है ?"
"तुम नगर मे प्रवेश करते ही उसे देख सकोगे।" - भगवान ने कहा ।
श्रीकृष्ण भगवान को नमन कर चल पडे ।
उधर सोमिल ने जव सुना कि श्रीकृष्ण भगवान नेमिनाथ को वन्दन करने गए है, तब वह भयभीत हो गया कि अब उसका पाप प्रगट होकर ही रहेगा । वह अपने प्राणो का मोह लेकर, भयभीत होकर भागा।
किन्तु नगर-द्वार के समीप ही उसने दूर से श्रीकृष्ण को गंभीर क्रोध की मुद्रा मे आते देखा और भयातुर होकर, पछाड खाकर भूमि पर गिर पड़ा। उसके पापी प्राण-पखेरू उड चुके थे।
द्वारिका के घर-घर मे गजसुकुमाल के अपूर्व, अद्भुत क्षमाभाव का यशोगान गंज उठा।
-अन्त कृद्दशा