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महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं लिए घिर गया। प्रतीत होता था कि पोत इवेगा ओर एक भी प्राणी उममे से जीवित नही बच सकेगा।
भयानक विपत्तिकाल था। जीवन और मृत्यु का सघर्प था, जिसमे मृत्यु का पलड़ा भारी है, ऐसा स्पष्ट दीख पडता था। पोत के सभी यात्री भयभीत होकर भगवान को याद कर रहे थे।
किन्तु उस पोत मे अर्हन्नक भी था, जो अभय था। उसे मृत्यु की चिन्ता नही थी। उसने अपने मन मे दृढ सकल्प कर लिया था-यदि इस उपसर्ग से वच गया तो भक्त-पान ग्रहण करूंगा, नही तो मुझे चारो आहारो का परित्याग है।
इस प्रकार अर्हन्नक भगवान की स्तुति करता हुआ निश्चल बैठा रहा।
देव ने सभी प्रयत्न किए, किन्तु अर्हन्नक के हृदय को भयभीत या विचलित करने में वह सफल न हो सका। अन्त मे थककर उसने अपने अन्तिम शस्त्र को आजमाते हुए कहा
“अर्हन्नक | तु व्यापारी है । धन कमाने निकला है। मैं तुझे जितना मांगेगा उतना धन दंगा। अमूत्य रत्नो से तेरा भडार भर दूंगा। त् केवल एक ही बार अपने धर्म को मिथ्या ओर असत्य कह दे।" ।
कोई सामान्य व्यक्ति होता तो यही सोचता कि एक बार, केवल एक बार अपने धर्म को मिथ्या और असत्य कह देने मे क्या हानि है ? यथेच्छ धन मिल जायगा । पीटियो तक सुख रहेगा।
किन्तु अर्हनक किसी और ही धातु का बना था। वह अपने पवित्र धर्म की ध्वजा को विमल रखने के लिए अपने प्राण तक दे सकता था। तब वह धर्म को मिथ्या कसे कहता? कोई भी भय अथवा कैसा भी लोभ उमे डिगा नहीं सकता था, और न डिगा सका।
यदि ऐसा न होता तो क्या देवराज इन्द्र सहज ही किमी मनुष्य की प्रशसा कर सकते ह ? वे तो मनुष्यो मे जो श्रेष्ठतम मनुष्य होते ह, नर-रत्न होते ह, उन्ही की प्रशसा करते है।
देव ने हारकर अर्हनक से क्षमा मागी और एक सुन्दर, बहुमत्य कुण्डतो की जोड़ी उने नंटकर लौट गया । जाते-जाते कहता गया -