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________________ ३२ महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ राज्य मे चोरियाँ होती रही । सभी जानते थे कि चोर कोन है, किन्तु प्रमाण नही मिलता था। यह क्रम चलता रहा और अभयकुमार गम्भीर विचार करता रहा। आखिर उसने एक युक्ति खोज ही निकाली। रोहिणेय को अपने महल मे बुलाकर कहा "तुम्हारा नाम क्या है ? तुम क्या काम करते हो ? कहाँ रहते हो ?" रोहिणेय ने उत्तर दिया “मन्त्रीश्वर | गरीब आदमी का क्या नाम और क्या धाम ? जो चाहे सो कह लीजिए । वैसे लोग मुझे दुर्गचन्ड कहते है और मै शालिग्राम नामक समीप के ही एक ग्राम मे पड़ा रहता हूँ। कभी-कभी इस नगर मे आ जाता है और बुद्धि के अनुसार परिश्रम करके अपना पेट भर लेता हूँ।” ___ चतुर मन्त्रीश्वर को चतुर चोर से पाला पड़ा था। मन ही मन वे मुस्कगते रहे और फिर बोले__“अच्छा दुर्गचन्ड | आज तुम मेरा ही आतिथ्य स्वीकार करो।" रोहिणेय ने सोचा-नेकी और पूछ-पूछ । आनन्द रहेगा। मन्त्रीश्वर का आतिथ्य भी ग्रहण करूंगा और जाते-जाते इन्हे कुछ प्रसाद भी देता जाऊँगा । उसने स्वीकार कर लिया । मन्त्रीश्वर अभय ने रोहिणेय को खातिर मे कोई कमर उठा नही रखी। उत्तम, मुस्वादु, मधुर मदिरा उसे इतनी पिला दी कि वह अपना माग भान भूल बैठा । मस्त होकर गहरी नीद मे मो गया । अब अभयकुमार ने अपनी चतुराई दिखानी आरम्भ की। मोते हुए रोहिणेय को उठाकर एक आलीशान मतखण्डे महल में ले जाया गया। इस महल बी शोभा और मज्जा इन्द्र के महलो जैसी थी। देवागनाओ जैमी म्पनी दामियो की म्पधी मे जगर-मगर करते उम महल मे जब रोहिणेय की ऑख खली तव चक्ति विम्मित-हतप्रभ रह गया। वह सोचने लगामैं इन देवलोक मे कब और दम आ गया ? ये मारी देवियाँ मेरी मेवा मे ।। बब उपस्थित हो गई?
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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