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तुम चोर नहीं हो तुझे आशीर्वाद देता हूँ और कहता हूँ कि यदि तूने मेरी इस बात का विस्मरण न किया तो तू कभी वन्धन मे नही पडेगा।"
पुत्र ने यह वात हृदय मे धारण करली। पिता ने छुट्टी ली।
अव दो अद्भुत व्यक्तियो की होड आरम्भ हुई। रोहिणेय चोर अपने चौर कर्म मे अद्वितीय था ही । दूसरी ओर था स्वय मन्त्रीश्वर अभयकुमार जिसके नाम से समस्त आर्यावर्त्त थर्राता था।
रोहिणेय चोर खुले आम. दिन-दहाडे नगर मे आता और अवसर पाकर इतनी चतुराई से चोरो करके हवा हो जाता कि किसी को उसको जया के भी दर्शन न हो पाते । उसके द्वारा की गई चोरी का कोई प्रमाण मिलाने का तो प्रश्न ही नहीं था।
__ अद्भुत बुद्धि का धनी अभयकुमार भी हैरान था और अवसर की ताक मे था ।
उन्ही दिनो भगवान महावीर विचरण करते हुए उस नगरी मे पधारे थे ओर नगर से बाहर राजमार्ग के समीप ही उपदेश दिया करते थे। रोहिणेय के आवागमन का मार्ग भी वही था और उसे अपने पिता के वचन याद थे'कभी किसी माधु की वात सुनना नहीं ।'
अत रोहिणेय जव भी इस मार्ग से गुजरता था तव अपने कानी मे अंगलियाँ डालकर शीघ्रता से निकल जाया करता था।
नयोग की बात है कि एक दिन उधर से निकलते समय रोहिणेय के पैर मे काँटा चुभ गया । बडी पीडा हुई । कॉटा निकालने के लिए उसने एक हाथ अपने कान पर से हटाया, काँटा निकाला और आगे बढ गया ।
किन्तु उतने अल्प समय मे ही उसके कान मे भगवान के वचन पडे"देवताओ के गले की माला कभी मुरझाती नही। उनके पालक कभी झपकते नहीं। उनके शरीर पर पमीना इत्यादि जमता नही ।"
___ रोहिणेय ने इतनी वात सुनी, सोचा कि कोई विगेप वात नही, और आगे बढ गया।