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________________ ३० महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएँ कोतवाल सम्राट की टेढी भृकुटि देखकर थर-थर कॉप गया। गिडगिडाता हुआ-सा वोला “सम्राट । मै दण्ड का भागी हूँ । स्वीकार करता हूँ। मुझ से अधिक कुशल और सुयोग्य व्यक्ति की नियुक्ति आप मेरे पद पर कर दीजिए। मैं तो स्वयं ही हैरान हो गया हूँ। लाख प्रयत्न करके मैं हार गया, किन्तु यह दुष्ट लौहम्बुर का बेटा रोहिणेय चोर अपने युग का अद्वितीय कलाकार है। चौर कर्म मे इस पापी ने अपने पिता को भी मीलो पीछे छोड़ दिया है। प्रभु । उसकी गति विजलो के समान है। वह राक्षस कव आता है, किधर मे आता है, कहाँ चला जाता है कुछ पता ही नही चलता। इतना होशियार है कि एक भी प्रमाण उसके विरुद्ध मुझे मिल नही पाता। दयानिधान । प्रमाण के अभाव में मैं उसका क्या करूँ ?" कोतवाल के कथन मे सार था। सम्राट विचार मे पडा गए । जब ऐसी स्थिति है तब वेचारे कोतवाल का क्या दोप? वे न्यायी थे, अन्याय कैसे करते ? अन्त मे विचारते-विचारते उन्होने अपने मन्त्री अभयकुमार से कहा "अभय । तुम विलक्षण व्यक्ति हो। तुम्हारी कुशाग्रबुद्वि की समता करने वाला इस भरतक्षेत्र मे कोई नही । इस रोहिणेय चोर के विरुद्ध प्रमाण एकत्रित कर, उसे पकडकर उचित दण्ड देने का कार्य आज से तुम्हारे जिम्मे रहा ।" जिस समय मगध-सम्राट के दरबार मे यह निर्णय हो रहा था, उम ममय रोहिणेय चोर का वृद्ध पिता लोहखुर अपनी मृत्यु-शय्या पर पड़ा अपने सुयोग्य पुत्र को अन्तिम उपदेश दे रहा था "बेटा । जहाँ तक अपने पैतृक कुल-कर्म का प्रश्न है, उस सम्बन्ध मे तुझे मैं अब कोई नई बात बता सकूँ या कोई उपदेश दे सकें ऐसी स्थिति नहीं है । तू मेरा बेटा है, और बाप से सवाया है। तू हमारे कुल का सर्वोनम उज्ज्वल प्रदीप है। इस अकेले मगध सम्राट की तो विमात ही क्या, मारे भरतखण्ड के शासक भी यदि मिलकर प्रयत्न करे तो भी वे तुझे पकड नही नबने । इतना चतुर और प्रतिभाशाली है तू ।” किन्तु बेटा । अपने पिता की अन्तिम बात को कभी न भूलना कि तकनी किनी माध के समीप मत जाना और उमकी बात न मुनना । मैं
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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