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तुम चोर नहीं हो
ढाई हजार वर्ष पूर्व की एक कथा है । मगध के सम्राट महाप्रतापी महाराज श्रेणिका अपने शानदार दरवार मे बैठे सभासदो से विनोद वार्ता कर रहे थे । उसी समय उन्हें कुछ कोलाहल सुनाई पडा और उसी के साथसाथ बहुत से नागरिक उनके दरबार में प्रविष्ट होकर हाथ जोडकर निवेदन करने लगे
“महाराज ! आपके राज्य मे अव अन्धेर वढता जा रहा है। सुरक्षा का लोप होता जा रहा है । हम लोग बडे कष्ट मे पड गए है। आए दिन हमारे घरो मे चोरी होने लगी है । कडे परिश्रम से हम धनोपार्जन करते है, राज्य का उचित ओर निर्धारित कर चुकाते है, व्यापार-वाणिज्य करते है, किन्तु ये चोर है कि चुपचाप हमारे कडे परिश्रम की कमाई को चुरा ले जाते है | दयानिधान | इस प्रकार हमारा गुजारा कैसे और कितने दिन
चलेगा ?"
सम्राट श्रेणिक जैसे आकाण से पृथ्वी पर आ गिरे। वे तो सोचते थे कि प्रजा सुख मे है, राज्य मे सब अमन-चैन है, किसी को कोई कष्ट नही । किन्तु आज मालूम हुआ कि ऐसा नही है । उन्होने क्रोधित होकर कोतवाल को बुलाकर कहा
"तुम करते क्या हो ? किस बात का वेतन तुम राज्य से लेते हो ? क्यो नही तुम्हे राज्य सेवा से मुक्त कर दिया जाय ओर किसी अन्य सुयोग्य अधिकारी की नियुक्ति की जाय जो अपना कर्तव्य भली प्रकार से पूरा करे ? उत्तर दो ।"
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