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साधु और चन्द्रमा
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का चन्द्र, चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण आदि से सर्वथा नष्ट होता है, मण्डल से नष्ट होता है, अर्थात् उसमे वर्ण आदि का अभाव हो जाता है ।" "ऐसा ही होता है, प्रभो !"
"तो गौतम । इसी प्रकार जीव के विषय मे विचार करो, तुम्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल जायगा । जो हमारा साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर क्षान्ति-क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति (निर्लोभता) से आर्जव से, मार्दव से, लाघव से, सत्य से, तप से, त्याग से, आकिचन्य से और ब्रह्मचर्य से, अर्थात् दस मुनिधर्मो से हीन होता है, वह उसके पश्चात् इन गुणो से हीन से हीनतर होता जाता है । इस प्रकार, इस क्रम से हीन से हीनतर होता हुआ उसके क्षमा आदि गुण सर्वथा नष्ट हो जाते है, उसका ब्रह्मचर्य भी नष्ट हो जाता है । यही जीव की हानि है ।"
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भगवान के द्वारा इतनी स्पष्टता से यह तत्त्व समझा दिये जाने पर गौतम स्वामी ने कहा
"यह स्पष्ट हो गया, भगवन् {"
"हाँ । अव तुम स्वय ही जान सकते हो कि जीव की वृद्धि किस प्रकार होती है । जो हमारा साधु या साध्वी दीक्षित होकर क्षमा, ब्रह्मचर्य आदि से वृद्धि प्राप्त करता है वह उसके बाद इन गुणो मे और भी अधिक वृद्धि प्राप्त करता है और अन्त मे निश्चय ही इस क्रम से वढते-बढते वह क्षमा आदि से और ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण हो जाता है । दूसरे शब्दो मे कहा जाय तो अमावस्या का गुणहीन चन्द्र पूर्णिमा के पूर्ण कलायुक्त चन्द्र के समान शोभित होने लगता है ।"
गौतम स्वामी के मुख पर ज्ञान का स्निग्ध प्रकाश छा गया । उन्होने
कहा
“भगवन् | मै जान गया कि जीव किस प्रकार वृद्धि अथवा हानि को प्राप्त होता है ।"
तव भगवान ने कहा
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" और यह सब सद्गुरु की उपासना से निरन्तर प्रमादहीन रहने से तथा चारित्रावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से होता है । क्षमा आदि गुणो की क्रमश वृद्धि ऐसी ही क्रिया से होती है और अन्त मे वृद्धि होते-होते वे गुण पूर्णता को प्राप्त होते है ।"