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महावीर युग की प्रतिनिधि कयाएँ
उसके बाद भगवान के प्रमुख शिष्य गौतम स्वामी के मन मे एक जिज्ञासा हुई। उन्होने भगवान से प्रश्न किया
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“भगवन् | जीव किस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हे और किस प्रकार हानि को प्राप्त होते है ? धर्म का यह तत्त्व समझाकर कृतार्थ कीजिए ।"
गौतम स्वामी के प्रश्न का अर्थ यही था कि जीव के गुणो की वृद्धि अथवा विकास कैसे होता है तथा उसके गुणो की हानि अथवा ह्रास कैसे होता है । क्योकि जीव तो शाश्वत्, अनादि और अनन्त है, अतएव उनकी सख्या मे वृद्धि अथवा हानि नही होती है। एक-एक जीव असख्यात् असख्यात् प्रदेश वाला है। उसके प्रदेशो मे भी कभी वृद्धि या हानि नही होती । वृद्धि अथवा हानि जीव के गुणो मे ही होती है ।
भगवान ने गौतम स्वामी के प्रश्न का भाव जानकर उत्तर दिया
" हे गौतम । तुमने चन्द्रमा को देखा हे न "देखा है भगवन्
ײן
" पूर्णिमा और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के चन्द्र मे कोई अन्तर तुमने पाया है
"
יין
“अन्तर है, भगवन्
" बहुत अन्तर है गौतम । जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण (शुक्लता) से हीन होता है, सौम्यता से हीन होता हस्निग्धता (अक्षता) से हीन होता है, कान्ति ( मनोहरता ) से हीन होता है इसी प्रकार दीप्ति ( चमक ) से, युक्ति (आकाश के साथ सयोग) से, छाया (प्रतिविम्व ) या शोभा से प्रभा (उदयकाल मे कान्ति की स्फुरणा ) से, जोस् (दामन आदि करने के सामर्थ्य) मे, लेश्या (किरण रूप लेश्या) मे, और मण्डल (गोलाई) से हीन होता है । इसी प्रकार कृष्णपक्ष की द्वितीया
चन्द्रमा, प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है, मण्डल से भी हीन होता है। उसके बाद तृतीया का चन्द्रमा द्वितीया के चन्द्रमा की अपेक्षा भी वर्ण से हीन, मंडल से हीन होता है । यह सत्य है कि नही ?"
יין
यह पूर्णत सत्य है, भगवन्
इसी प्रकार आगे-जागे उसी क्रम से हीन-हीन होता हुआ अमावस्या
"